सनातन धर्म के छह दर्शन
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वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन अधिक प्रसिद्ध हैं। येसांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांतके नाम से विदित है। इनके प्रणेता कपिल, पतंजलि, गौतम, कणाद, जैमिनि के बादरायण थे। ईसा के जन्म के आसपास इन दर्शनों का उदय माना जाता है। इनके आरंभिक संकेत उपनिषदों में भी मिलते हैं। प्रत्येक दर्शन का आधारग्रंथ एक दर्शनसूत्र है। "सूत्र" भारतीय दर्शन की एक अद्भुत शैली है। गिने-चुने शब्दों में सिद्धांत के सार का संकेत सूत्रों में रहता है। संक्षिप्त होने के कारण सूत्रों पर विस्तृत भाष्य और अनेक टीकाओं की रचना हुई। भारतीय दर्शन की यह शैली स्वतंत्र दर्शनग्रंथों की पश्चिमी शैली से भिन्न है। गुरु-शिष्य-परंपरा के अनुकूल दर्शन की शिक्षा और रचना इसका आधार है। यह परंपरा षड्दर्शनों के बाद नवीन दर्शनों के उदय में बाधक रही। व्याख्याओं के प्रसंग में कुछ नवीनता और मतभेद के कारण मुख्य दर्शनों में उपभेद अवश्य पैदा हो गए।
[10/10 12:09 AM] Pandit Mangleshwar Tripadhi: प्रमाणविचार, सृष्टिमीमांसा और मोक्षसाधनाषड्दर्शनों के सामान्य विषय हैं। ये छ: दर्शन किसी न किसी रूप में आत्मा को मानते हैं। आत्मा की प्राप्ति ही मोक्ष है। पुनर्जन्म, आचार, योग आदि को भी ये मानते हैं। न्याय, योग आदि कुछ दर्शन ईश्वर में विश्वास करते हैं। सांख्य और मीमांसा दर्शन निरीश्वरवादी हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द ये चार प्रमाण सामान्यत: सभी दर्शनों को मान्य हैं। मीमांसा मत में अर्थापत्ति और अनुपलब्धि ये दो प्रमाण और माने जाते हैं।
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वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन अधिक प्रसिद्ध हैं। येसांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांतके नाम से विदित है। इनके प्रणेता कपिल, पतंजलि, गौतम, कणाद, जैमिनि के बादरायण थे। ईसा के जन्म के आसपास इन दर्शनों का उदय माना जाता है। इनके आरंभिक संकेत उपनिषदों में भी मिलते हैं। प्रत्येक दर्शन का आधारग्रंथ एक दर्शनसूत्र है। "सूत्र" भारतीय दर्शन की एक अद्भुत शैली है। गिने-चुने शब्दों में सिद्धांत के सार का संकेत सूत्रों में रहता है। संक्षिप्त होने के कारण सूत्रों पर विस्तृत भाष्य और अनेक टीकाओं की रचना हुई। भारतीय दर्शन की यह शैली स्वतंत्र दर्शनग्रंथों की पश्चिमी शैली से भिन्न है। गुरु-शिष्य-परंपरा के अनुकूल दर्शन की शिक्षा और रचना इसका आधार है। यह परंपरा षड्दर्शनों के बाद नवीन दर्शनों के उदय में बाधक रही। व्याख्याओं के प्रसंग में कुछ नवीनता और मतभेद के कारण मुख्य दर्शनों में उपभेद अवश्य पैदा हो गए।
[10/10 12:09 AM] Pandit Mangleshwar Tripadhi: प्रमाणविचार, सृष्टिमीमांसा और मोक्षसाधनाषड्दर्शनों के सामान्य विषय हैं। ये छ: दर्शन किसी न किसी रूप में आत्मा को मानते हैं। आत्मा की प्राप्ति ही मोक्ष है। पुनर्जन्म, आचार, योग आदि को भी ये मानते हैं। न्याय, योग आदि कुछ दर्शन ईश्वर में विश्वास करते हैं। सांख्य और मीमांसा दर्शन निरीश्वरवादी हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द ये चार प्रमाण सामान्यत: सभी दर्शनों को मान्य हैं। मीमांसा मत में अर्थापत्ति और अनुपलब्धि ये दो प्रमाण और माने जाते हैं।
उपनिषन्मूलक होने के कारण इनमें वेदांतदर्शन सबसे अधिक प्राचीन है। किंतु ब्रह्मसूत्र में अन्य दर्शनों का खंडन है तथा उसका प्राचीनतम भाष्य आदि शंकराचार्य का है (8 वीं शताब्दी)। अन्य दर्शन सूत्रों के भाष्य ईसा की आरंभिक शताब्दियों में रचे गए। सांख्यसूत्र संभवत: लुप्त हो गया। ईश्वरकृष्ण (5वीं शताब्दी) की "सांख्यकारिका" सांख्य दर्शन का प्रामाणिक ग्रंथ है। सांख्य दर्शन निरीश्वरवादी द्वैतवाद है। इसके अनुसार प्रकृति और पुरुष दो स्वतंत्र और सनातन सत्ताएँ हैं। "प्रकृति" जड़ है और जगत् का सूक्ष्म कारण् है। वह सत्व, रजस् और तमस् इन तीन गुणों की साम्यावस्था का नाम प्रकृति है। प्रकृति के साथ पुरुष का संपर्क होने से सर्ग का आरंभ होता है। सर्ग पुरुष का बंधन है। तत्वज्ञान से मोक्ष होता है। अपने शुद्ध चेतन कर्तृत्व भोक्तृत्व रहित स्वरूप के ज्ञान से पुरुष मुक्त होता है।
योग दर्शन के सिद्धांत सांख्य के समान हैं। योगसूत्र पर रचित भाष्य और टीकाएँ योगदर्शन की विस्तृत परंपरा का आधार हैं। योगदर्शन का मुख्य लक्ष्य समाधि के मार्ग को प्रशस्त करना है। समाधि में चित्त की समस्त वृत्तियों का निरोध हो जाता है। अभ्यास, वैराग्य और ध्यान योग के मुख्य साधन हैं। ईश्वर को भी ध्यान का लक्ष्य बनाया जा सकता है इतना ही योगदर्शन में ईश्वर का महत्व है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के आठ अंगों से युक्त अष्टांगयोग योग का सर्वजन सुलभ मार्ग है।
न्याय और वैशेषिक प्रमाणप्रधान दर्शन हैं। न्याय एक प्रकार का भारतीय तर्कशास्त्र है। न्यायसूत्र पर अनेक प्रसिद्ध टीकाएँ हैं। गंगेश उपाध्याय (12वीं शताब्दी) की "तत्वचिंतामणि" से नवद्वीप में नव्य न्याय की परंपरा का आरंभ हुआ। न्यायदर्शन के पहले ही सूत्र में 16 पदार्थों का उल्लेख है। इनके द्वारा तत्वज्ञान होता है जो नि:श्रेयस अथवा मोक्ष का साधन है। प्रमाणों को विशेष विस्तार न्यायदर्शन में मिलता है। ईश्वरभक्ति को न्याय में मोक्ष का साधन माना गया है।
वैशेषिक दर्शन एक प्रकार से न्याय का समान तंत्र है। विशेष अथवा 'परमाणु' उसका मुख्य विषय है। परमाणु सृष्टि का मूल उपादान कारण है। ईश्वर को न्याय-वैशेषिक-दशर्न सृष्टि का निमित्त कारण मानते हैं। वैशेषिक दर्शन में संपूर्ण सत्ता को सात पदार्थों में विभाजित किया गया है - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव। न्याय के 16 पदार्थों की अपेक्षा अधिक संगत होने के कारण यही विभाजन आगे चलकर अधिक मान्य हुआ तथा न्याय-वैशेषिक-दर्शन की उस संयुक्त परंपरा का आधार बना जिसका प्रतिनिधित्व "न्यायमुक्तावली" आदि अर्वाचीन ग्रंथ करते हैं।
षड्दर्शनों में अंतिम दो दर्शनों को "मीमांसा" कहा जाता है। ये पूर्वमींमांसा और उत्तरमीमांसा कहलाती हैं। अन्य दर्शनों की अपेक्षा इनका वेदों से अधिक घनिष्ठ संबंध है। एक प्रकार से ये वैदिक दर्शन की व्याख्याएँ हैं। पूर्वमीमांसा, मंत्रसंहिता और ब्राह्मणों के कर्मकांड की व्याख्या है। उत्तरमीमांसा उपनिषदों के अध्यात्मदर्शन का तार्किक विवेचन है। वेदों का अंतिम भाग होने के कारण उपनिषदों को "वेदांत" कहते हैं। उत्तर मीमांसा का नाम भी "वेदांत" है। इन दोनों मीमांसाओं के सिद्धांतों का आधार वेदों में है, किंतु व्यवस्थित दर्शनों के रूप में इनका आरंभ अन्य दर्शनों के साथ साथ ही (प्रथम शताब्दी में) हुआ। इसीलिए इनकी गणना षड्दर्शनों में की जाती है। दोनों मीमांसाओं के इतिहास के तीन चरण हैं। तीनों ही चरणों में इनका विकास एक ही पूर्वोत्तर क्रम में हुआ। वैदिक युग में वेदों के पूर्वभाग (संहिता, ब्राह्मण) में कर्मकांड का विधान हुआ। वेदों के उत्तर भाग (उपनिषदों) में अध्यात्म की प्रतिष्ठा हुई। ईसा की आरंभिक शताब्दी में जैमिनि और बादरायण के "मीमांसासूत्र" तथा "ब्रह्मसूत्र" भी संभवत: इसी क्रम में रचे गए। ईसा की सातवीं शताब्दी में कुमारिल भट्ट और शंकराचार्य ने इसी पूर्वापर क्रम में पूर्व और उत्तरमीमांसाओं का उद्धार एवं प्रचार किया।
पं मंगलेश्वर त्रिपाठी
से.1वाशी नवी मुम्बई
8828347830
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