Wednesday, October 7, 2015

|| सच्चा गुरु कौन ? ||

*सच्चा गुरु कौन ?*
ग्रन्थस्य कृष्णस्य कृपा सतां च सर्वत्र सर्वेषु च विद्यमाना।
यावन्न ताञ्छ्रद्दधते मनुष्य स्तावन्न साक्षात्कुरुते स्वबोधम्।।
अर्जुन हरदम भगवान के साथ ही रहते थे; भगवान के साथ ही खाते-पीते थे, उठते-बैठते, सोते-जागते थे; परंतु भगवान ने उनको गीता का उपदेश तभी दिया, जब उनके भीतर अपने श्रेय की, कल्याण की, उद्धार की इच्छा जाग्रत हो गयी- 'यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे' (गीता 2.7)।
ऐसी इच्छा जाग्रत होने के बाद वे अपने को भगवान का शिष्य मानते हैँ और भगवान के शरण होकर शिक्षा देने के लिए प्रार्थना करते हैँ- 'शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्' (गीता 2.7)।
इस प्रकार कल्याण की इच्छा जाग्रत होने के बाद अर्जुन ने अपने को भगवान का शिष्य मानकर शिक्षा देने के लिए भगवान से प्रार्थना की है,न कि गुरु-शिष्य-परंपरा की रीति से भगवान को गुरु माना है।
भगवान ने भी शास्त्रपद्धति के अनुसार अर्जुन को शिष्य बनाने के बाद, गुरु-मंत्र देने के बाद,सिर पर हाथ रखने के बाद उपदेश दिया हो - ऐसी बात नहीँ है।
इससे सिद्ध होता है कि पारमार्थिक उन्नति मेँ गुरु-शिष्य का संबंध जोड़ना आवश्यक नहीँ है, प्रत्युत अपनी तीव्र जिज्ञासा,अपने कल्याण की तीव्र लालसा का होना ही अत्यंत आवश्यक है। अपने उद्धार की जोरदार लगन होने से साधक को भगवत्कृपा से संत-महात्माओँ के वचनों से, शास्त्रों से, ग्रंथों से, किसी घटना-परिस्थिति से किसी वायुमण्डल से अपने-आप पारमार्थिक उन्नति की बातेँ,साधन-सामग्री मिल जाती है और वह उसे ग्रहण कर लेता है।


पं मंगलेश्वर त्रिपाठी
से.1वाशी नवी मुम्बई
8828347830 

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