Friday, March 3, 2017

धर्मार्थ वार्ता

[2/14, 09:08] बाबा जी: 🌴🐾सुप्रभातम्🐾🌴
नयन का नयन से, नमन हो रहा है
लो उषा का आगमन हो रहा है
परत पर परत, चांदनी कट रही है
तभी तो निशा का, गमन हो रहा है
क्षितिज पर अभी भी हैं, अलसाये सपने
पलक खोल कर भी, शयन हो रहा है
झरोखों से प्राची की पहली किरण का
लहर से प्रथम आचमन हो रहा है
हैं नहला रहीं, हर कली को तुषारें
लगन पूर्व कितना जतन हो रहा है
वही शाख पर पक्षियों का है कलरव
प्रभातीसा लेकिन, सहन हो रहा है
बढ़ी जा रही जिस तरह से अरुणिमा
है लगता कहीं पर हवन हो रहा है
मधुर मुक्त आभा, सुगंधित पवन है
नये दिन का कैसा सृजन हो रहा है।
☘🌴🌺🙏�🌺🌴☘
[2/14, 09:11] ‪+91 99673 46057‬: राधे राधे- आज का भगवद चिन्तन             
                14-02-2017
  🌺     किसी से बदला लेना बहुत आसान है मगर किसी का बदला चुकाना बहुत ही मुश्किल। उन्हें भुलाना अच्छी बात नहीं जो विपत्ति में आपका साथ दिया करते हैं। पैसों पर ज्यादा घमंड मत करना उनसे सिर्फ बिल चुकाया जा सकता है बदला नहीं।
🌺       सब कुछ होने पर भी यदि आपको संतोष नहीं है तो फिर आपको अभाव सतायेगा और सब कुछ मिलने पर भी यदि आप चुप नहीं रह सकते तो फिर आपको स्वभाव सतायेगा। यदि फिर आपके मन में अपने पास बहुत कुछ होने का अहम आ गया तो सच मानो फिर आपको आपका ये कुभाव सतायेगा।
🌺       दौलतवान न बन सको तो कोई बात नहीं, दिलवान और दयावान बन जाओ, आनंद ही आनंद चारों तरफ हो जायेगा।

जिन्दगी बदलने के लिए लड़ना पड़ता है।
और आसान करने के लिए समझना पड़ता है।

छोटा बनके रहोगे तो मिलेगी हर रहमत प्यारों
बड़ा होने पर तो माँ भी गोद से उतार देती है॥
[2/14, 09:27] ‪+91 99773 99419‬: *दुःख और सुख सहोदर सहचर*
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
समझा जाता है कि सुख और दुख परस्पर विरोधी है। एक को दूसरा काटता है। सुखी और दुखी दो विपरीत स्थिति के व्यक्ति है। पर गहराई से विचार करने पर दूसरी ही बात सामने आती है। चिन्तन बताता है कि दुख नग्न सत्य है सुख तो उसका सुसज्जित करने वाला परिधान अलंकार मात्र है।

पुत्र प्राप्ति की मुसकान के पीछे माता की प्रसव पीड़ा झाँकती है। आज का गौरवान्वित कंठाभरण कल सुनार की भट्टी में तप रहा था और हथौड़ों की चोटें खा रहा था। आग पर पकाये बिना स्वादिष्ट भोजन बन सकना कैसे सम्भव हो सकता है।

धनी किसान, पदोन्नति श्रमिक और पुरस्कृत कलाकार के आज के सौभाग्य को सराहते हुए थोड़ा पीछे मुड़कर भी देखना होगा। उन उपलब्धियों के लिए उन्हें कितने समय तक कितने मनोयोग पूर्वक कितनी कठोर साधना करनी पड़ी है। पल्लवित वृक्ष का इतिहास वहाँ से आरम्भ होता है जहाँ एक बीज ने अपने अस्तित्व की बाजी लगाई थी। चिरन्तन एकाग्र अध्यवसाय के बिना कौन विज्ञ विद्वान बन सका है। सफल लोगों से पूछा जा सकता है कि उनने कितनी ठोकरें खाई और कितनी असफलताएं गले उतारी।

दुख बड़ा भाई है और सुख छोटा। दुख पहले पैदा हुआ सुख बाद में। दोनों चिरन्तन सहचर हैं उनकी एकता का कोई तोड़ नहीं सकता। दुख का स्वेच्छापूर्वक वरण किये बिना कोई सुख का सौभाग्य पा नहीं सकता।
[2/14, 10:27] राम भवनमणि त्रिपाठी: स्त्रियों को अपने पति के सिवाय अन्य परपुरुष का स्वेच्छा से स्पर्श नहीं करना चाहिए। वाल्मीकि रामायण में कथा आती है कि जब अशोक वाटिका में हनुमान जी ने माता सीता को अत्यंत व्याकुल देखा, तो उन्होंने माता सीता से कहा - हे माता ! आप मेरी पीठ पर बैठ जाएं। मैं आपको अभी यहाँ दुष्टों की नगरी से लिए चलता हूँ। परन्तु सीता जी ने हनुमान जी की इस बात को स्वीकार नहीं किया और वे बोलीं -

भुर्तर्भक्ती पुरस्कृत्य रामादन्यस्य वानर ।
नाहं स्प्रष्टुं स्वतो गात्रमिच्छेयं वानरोत्तम ।।

अर्थात् हे वानरश्रेष्ठ हनुमान ! पतिभक्ति की ओर दृष्टि रखकर मैं भगवान श्री राम के सिवाय दूसरे किसी पुरुष के शरीर का स्वेच्छा से स्पर्श नहीं करना चाहती।

- वा० रा० । ५ । ३७ । ६२ ।

यद्यपि माता सीता जी उस समय बड़ी ही कठिन विपत्ति में थीं । इस बात का अनुमान तब लगाया जा सकता है, जब वे हनुमान जी से कहती हैं कि यदि महीने भर में नाथ ( श्री राम ) नहीं आए, तो फिर मुझे जीती नहीं पाएंगे -

मास दिवस महुँ नाथु न आवा । तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा ।।

- मानस । ५ । २७ ।

किन्तु इतनी बड़ी विपत्ति में होने के बावजूद भी उन्होंने अपने पति के पास जाने के लिए भी अपने पतिव्रत-धर्म की रक्षा की दृष्टि से उनके ( सीता जी के ) प्रति मातृभाव रखने वाले हनुमान जी जैसे उत्तम सेवक का भी स्पर्श करना उचित नहीं समझा।

इससे यह शिक्षा लेनी चाहिए कि भारी से भारी विपत्ति के समय भी स्त्री को यथासाध्य परपुरुष का स्पर्श नहीं करना चाहिए। यह तो उत्तम श्रेणी की पतिव्रता-स्त्रियों के लिए कही गयी बात है।

।। राम राम ।।
[2/14, 10:39] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

अपह्नुति अलंकार:
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उपमेयस्‍य निषेधे सति उपमानस्‍य स्‍थापना अपह्नुतिअलंकार: कथ्‍यते ।
प्रकृतं प्रतिषिध्‍यान्‍यस्‍थापनं स्‍यादपह्नुति: ।

अर्थात् यत्र उपमेयस्‍य निषेधं कृत्‍वा तस्‍योपरि उपमानस्‍य स्‍थापना क्रियते तत्र अपह्नुतिअलंकार: भवति ।
उपमेयं निषिध्‍य तत्रोपमानाभेदव्‍यवस्‍थापनम् अपह्नुति:  ।   

                –विश्‍वेश्‍वर पण्डित

उदाहरणम् –

नेदं नभोमण्‍डलमम्‍बुराशिर्नैताश्‍च तारा नवफेनभंगा: ।
नायं शशी कुण्‍डलित: फणीन्‍द्रो नासौ कलंक: शयितो मुरारि: ।।

प्रस्‍तुतोदाहरणे उपमेयभूत आकाशमण्‍डलस्‍य निषेधं कृत्‍वा तत्र उपमानभूतसमुद्र, फेनराशि:, शेषनागस्‍य उपरि शयित: भगवत: विष्‍णो: स्‍थापनं कृतमस्ति अत: अपह्नुति अलंकार: अस्ति । इति।

             –जय श्रीमन्नारायण।
[2/14, 11:56] ‪+91 91656 66823‬: यायायायायायायायायायायायायायायाया ।
यायायायायायायायायायायायायायायाया ॥

वैशिष्ट्यम् – ३२ वर्णैः युक्तः अयं श्लोकः य इत्येकेन व्यञ्जनेन
आ इत्येकेन एव स्वरेण विरचितः अस्ति ।

श्लोकस्य सुष्ठु अवगमनाय अत्र पदविभागः, अन्वयश्च दत्तः अस्ति ।
यायाया, आय, आयाय, अयाय, अयाय, अयाय, अयाय, अयाया, यायाय,
आयायाय, आयाया, या, या, या, या, या, या, या, या ।

भगवतः विभूषके इमे पादुके, ये उत्तमस्य शुभस्य सर्वस्य प्राप्तौ सहकुरुतः,ये ज्ञानदायिके, ये (भगवत्प्राप्तेः) इच्छां जागरयतः, ये च अरिनाशके, ये गमनागमनावसरे उपयुज्येते, ययोः साहाय्येन जगतः सर्वाणि स्थलानि गन्तुं शक्यानि, ते स्तः भगवतः विष्णोः पादुके ।
[2/14, 12:12] ‪+91 94259 88411‬: यायायायायायायायायायायायायायायाया ।
यायायायायायायायायायायायायायायाया ॥

वैशिष्ट्यम् – ३२ वर्णैः युक्तः अयं श्लोकः य इत्येकेन व्यञ्जनेन
आ इत्येकेन एव स्वरेण विरचितः अस्ति ।

श्लोकस्य सुष्ठु अवगमनाय अत्र पदविभागः, अन्वयश्च दत्तः अस्ति ।
यायाया, आय, आयाय, अयाय, अयाय, अयाय, अयाय, अयाया, यायाय,
आयायाय, आयाया, या, या, या, या, या, या, या, या ।

भगवतः विभूषके इमे पादुके, ये उत्तमस्य शुभस्य सर्वस्य प्राप्तौ सहकुरुतः,ये ज्ञानदायिके, ये (भगवत्प्राप्तेः) इच्छां जागरयतः, ये च अरिनाशके, ये गमनागमनावसरे उपयुज्येते, ययोः साहाय्येन जगतः सर्वाणि स्थलानि गन्तुं शक्यानि, ते स्तः भगवतः विष्णोः पादुके ।
[2/14, 12:56] राम भवनमणि त्रिपाठी: 🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸 हरे कृष्णा,

गर्ग संहिता के माधुर्य- खंड में वर्णित है कि,  स्वयं भगवती श्री राधिका ने शरणागत यज्ञसीता - गोपियों को उपदेश किया है -- हे गोपियों, तुम सब यदि कृष्ण को प्रसन्न करना चाहती हो तो एकादशी व्रत करो।
इससे वे वशीभूत होंगे,  कोई संशय नहीं है।

श्री कृष्णस्य प्रसादार्थं कुरुतैकादशी व्रतम्।
तेन वश्यों हरिः साक्षाद् भविष्यति न संशयः।।

अतएव एकादशी व्रत का वास्तविक उद्देश्य ही है ---- श्रीकृष्ण की प्रसन्नता, जिसके द्वारा वे भक्त के वशीभूत हो जाते हैं।
🌸 🌸 🌸 🌸 🌸 🌸 🌸 🌸 🌸 🌸  हरिबोल
[2/14, 14:39] ओमीश Omish Ji: ।इतिहास की तिथियां अक्षुण्य होती हैं बदलती नहीं।सोचो अगर आपके फर्जी ज्ञान को पढ़ कर कल किसी प्रतियोगिता परीक्षा में कोई युवा भगत सिंह जी को फांसी सुनाने की तिथि 14 फरवरी लिख आया तो उसका उत्तर गलत हो जायेगा।अपील निरस्त करने की तिथि पूछी जाये और वह 14 फरवरी लिख दे तो यह उत्तर भी गलत होगा।आज सोशल मीडिया पर लाखों लोग फोटो सहित इन गलत जानकारियों को देख पढ़ रहे हैं जो इतिहास के पन्नो के साथ घोर अन्याय तो है ही।हमारे शहीदों का भी अपमान है।अमर शहीद भगत सिंह राजगुरु और सुखदेव के केस से सम्बंधित तिथिवार जानकारी दे रहा हूँ।जो इस प्रकार है।
सर्व श्री भगत सिंह राजगुरु और सुखदेव जी को सांडर्स हत्या कांड में
7 मई 1929 को मुकद्दमा शुरू हुआ
6 जून 1929 को भगत सिंह जी ने अपने विचार जज के सामने रखते हुए क्रान्ति और आजादी की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
26 मई 1930 को उन्हें अंग्रेजो ने दोषी करार दिया
7 अक्टूबर 1930 को उन तीनों को मृत्यु दंड की सजा सुनाई गई
नवम्बर 1930 को प्रिवी परिषद में अपील की गई
10 जनवरी 1931 को अपील खारिज की गई
24 मार्च 1931 को फांसी दी जाना थी लेकिन जन आक्रोश को देखते हुए एक दिन पूर्व
23 मार्च को फांसी दे कर उन तीनों की हत्या कर दी गई।
[2/14, 14:52] ‪+91 96859 71982‬: न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु।

नुन्नोऽनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत्॥

अनुवाद :

हे नाना मुख वाले (नानानन)! वह निश्चित ही (ननु) मनुष्य नहीं है जो जो अपने से कमजोर से भी पराजित हो जाय। और वह भी मनुष्य नहीं है (ना-अना) जो अपने से कमजोर को मारे (नुन्नोनो)। जिसका नेता पराजित न हुआ हो वह हार जाने के बाद भी अपराजित है (नुन्नोऽनुन्नो)। जो पूर्णनतः पराजित को भी मार देता है (नुन्ननुन्ननुत्) वह पापरहित नहीं है (नानेना)।
       💐सुप्रभातम् 💐
          ✍ हरिः✍
[2/14, 14:52] ‪+91 96859 71982‬: न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु।

नुन्नोऽनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत्॥

अनुवाद :

हे नाना मुख वाले (नानानन)! वह निश्चित ही (ननु) मनुष्य नहीं है जो जो अपने से कमजोर से भी पराजित हो जाय। और वह भी मनुष्य नहीं है (ना-अना) जो अपने से कमजोर को मारे (नुन्नोनो)। जिसका नेता पराजित न हुआ हो वह हार जाने के बाद भी अपराजित है (नुन्नोऽनुन्नो)। जो पूर्णनतः पराजित को भी मार देता है (नुन्ननुन्ननुत्) वह पापरहित नहीं है (नानेना)🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼
[2/14, 14:53] ‪+91 96859 71982‬: 🙏जय श्री मन्नारायण🙏
भक्तिं मुहुः प्रवहतां त्वयि मे प्रसङ्गो ,भूयादनन्त महताममलाशयानाम ।

येनान्जसोल्बणमुरूव्यसनं भवाब्धिं , नेष्ये भवद्गुणकथामृतपानमत्तः ।
।[श्रीमद्भागवत् 4.9.11 ]

हे अनन्त परमात्मन् , आप मुझे उन विशुद्ध ह्रदय महात्मा भक्तों का संग दीजिये ,जिनका आपमें अविच्छिन्न भक्तिभाव है ,उनके संग में मैं आपके गुणों और लीलाओ की कथा सुधा को पी पीकर उन्मत्त हो जाऊंगा और सहज ही इस अनेक प्रकार के दुखों से पूर्ण भयंकर संसार सागर के उस पार पहुँच जाऊगा ।
[2/14, 15:30] ‪+91 90241 11290‬: "मा"धातुत्वात् तृचि सति मातृरूपो$यं प्रसिद्ध्यतीति | यथा
एकवचन द्विवचन बहुवचन
  माता      मातरौ   मातर:
रूपाणि समुद्भवन्ति |
परञ्च "मा"धातुत्वात् तनि ताच्छील्यार्थे मातशब्दस्तथा स्त्रित्वविवक्षायां टाबि कृते माताशब्दो$यं सिद्ध्यतीति |
यथा> रमावद्रूपाणि भवन्ति
एकवचन द्विवचन बहुवचन
माता     माते      माता:
प्रयोगा: भवन्ति ||
[2/14, 16:32] राम भवनमणि त्रिपाठी: देशद्रोही

भूलेहुँ कबहुँ न जाइए, देस-बिमुखजन पास।
देश-विरोधी-संग तें, भलो नरक कौ बास॥

सुख सों करि लीजै सहन, कोटिन कठिन कलेस।
विधना, वै न मिलाइयो, जे नासत निज देस॥

सिव-बिरंचि-हरिलोकँ, बिपत सुनावै रोय।
पै स्वदेस-बिद्रोहि कों, सरन न दैहै कोय॥
[2/14, 16:37] ओमीश Omish Ji: ● संस्कृत सुवाक्य पर्यटन ●
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● संख्याता अस्य निमिषो जनानाम् । (वेद)

अर्थ : मनुष्य अपने जीवन-भर में जितनी बार आंखों की पलकें झपकता है, ईश्वर के ज्ञान में उनका भी हिसाब है ।

● विद्या ददाति विनयं यदि चेदविनयावहा ।
किं कुर्म: कम्प्रति ब्रूमो गददायां स्वमातरि ॥

अर्थ : विद्या विनय देती है । यदि उससे भी कोई अविनीत हुआ है, तो क्या करें और किससे शिकायत करें । जब माता ही पुत्र को विष देने लगें !

● तप: स्वकर्मवर्तित्वम् । (महाभारत)

अर्थ : अपने कर्तव्य का एकनिष्ठ होकर पालन करने का नाम ही तप है ।

● तप: सार: इन्द्रियनिग्रहः । (चाणक्य)

अर्थ : तप का निचोड़ जितेन्द्रियता है ।

● बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे । (वैशेषिक दर्शन)

अर्थ : वेद की रचना बुद्धिपूर्वक है ।

● सत्येन रक्ष्यते धर्म: ।

अर्थ : सत्य के द्वारा धर्म की रक्षा होती है ।

● उत्साहवन्त: पुरुषा नावसीदन्ति कर्मसु । (वाल्मीकि रामायण)

अर्थ : जिनके हृदय में उत्साह होता है, वे पुरुष कठिन से कठिन कार्य आ पड़ने पर भी हिम्मत नहीं हारते ।

● तस्यात्मानुग्रहाभावे भूतानुग्रह: प्रयोजनम् । (योगदर्शन व्यासभाष्य)

अर्थ : ईश्वर का अपना स्वार्थ न होने से उसने सृष्टि की रचना दूसरों (जीवों) के लिए की है ।

● यातीव सूक्ष्मा विद्युत्सा प्रथमा परिणति: । (यजुर्वेद, दयानन्द भाष्य)

अर्थ : जो अत्यन्त सूक्ष्म विद्युत् है वह प्रकृति का पहला परिणाम है ।

● शास्त्रपूतं वदेद् वाक्यम् । (मनुस्मृति)

अर्थ : शास्त्र के अनुसार पवित्र करके ही वाणी का प्रयोग करना चाहिए ।

● ऋषयो नित्यसन्ध्यत्वात् दीर्घमायुरवाप्नुवन् । (महाभारत)

अर्थ : ऋषियों ने नित्य सन्ध्या के अनुष्ठान से दीर्घायु को प्राप्त किया ।

● इयं ते यज्ञिया तनू: । (यजुर्वेद)

अर्थ : यह तेरा तन ईश्वर से मिलने के लिए है ।

● माता धेनुर्मातेव वा इयं मनुष्यान् बिभर्ति । (शतपथ ब्राह्मण)

अर्थ : गौ माता है, माता के समान ही यह मनुष्यों का भरणपोषण करती है ।

● नावेदविन्मनुते तं बृहन्तम् । (उपनिषद्)

अर्थ : वेद न जानने वाला उस महान् ईश्वर का मनन नहीं कर सकता ।

● वेदेषु चाष्टगुणिनं योगमाहुर्मनीषिण: । (महाभारत)

अर्थ : मनीषी गण वेदों में योग को अष्टगुणी (अष्टांग - आठ अंगों वाला) कहते हैं ।
*(प्रतिलिपि)*
[2/14, 17:46] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

डुकृञ् करणे
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डुकृञ् करणे। उभयत्र सार्वधातुकयोरिति गुण: करोति। सुट्‌कात्पूर्व: अडभ्यासव्यवायेपीत्यनुवृत्तौ सम्परिभ्यां करोतौ भूषणे समवाये च उपात्प्रतियत्नवैकृत वाक्याध्याहारेषु च (पा०सू० ६/१/१३९) इति सुटागम: सुटमिति समो सकारस्य कुत्वं विसर्जनीय: तस्य वा शरि (पा०सू० ८/३/३६) इति विसर्जनीय: एवं सर्वत्र प्राप्ते संपुकानां सत्ववचनमिति नित्यं सत्वं पूर्वस्य वर्णस्य विकल्पेनानुस्वारानुनासिकौ संस्करोति। सार्वधातुकस्य ङित्वाद् गुणाभाव: अत उत्सार्वधातुके (पा०सू० ६/४/११०) इत्युत्वं संस्कुरुते। यणादेश: संस्कुर्वीत। वस्मसोर्नित्यं करोतेत्युकारलोप: संस्कुर्व:। संस्कुर्म:। लङि अड्‌व्यवायेपि इति सुट्‌ नमस्करोत्‌। लोटि संस्करोतु। मध्यमैकवचने सेर्हि: अतो हे: (पा०सू० ६/४/१०५) उतश्च प्रत्ययादसंयोगपूर्वात्‌ (पा०सू० ६/४/१०६) इति हेर्लुक्‌ संस्कुरु। एवं सर्वत्र तनादिषु लिङि ये चेत्युकारलोप: हलि च (पा०सू० ८/२/७७) इति दीर्घे प्राप्ते न भकुर्छुराम्‌ (पा०सू० ८/२/७९) इति प्रतिषेध: संस्कुर्यात्‌। आशिषि रिङ्शयग्लिङ्क्षु (पा०सू० ७/४/२८) इति रिङादेश: ननु सुटि सति गुणोर्तिसंयोगाद्यो: (पा०सू० ७/४/२९) इति गुण: कस्मान्नभवति सुटो बहिरङ्गलक्षणस्यासिद्धत्वाद्भक्तत्वाद्वा सुट: संस्क्रियात्‌ लिट्यभ्यासव्यवासे सुट्‌ संचस्कार। ऋतश्च संयोगादेर्गुण: (पा०सू० ७/४/१०) इत्यत्र संयोगादेर्गुणविधीनेसंयोगोपधग्रहणं कृञर्थमिव वलाद्गुण: संचस्करतु:। संचस्करु:। थलि ऋतो भारद्वाजस्य (पा०सू० ७/२/६३) इतीट्‌ प्रतिषेध: कृञोसुट एवेष्यते। संचस्करिथ। असुट्‌कस्य चक्रतु:। चक्रु:। चकर्थ। लु समस्कार्षीत्‌। णौ चङि अकर्त्रभिप्राये क्रियाफले मिथ्योपपदात्‌ कृञोभ्याम्‌ इत्यस्मिन्विषये आत्मनेपदम्‌। मिथ्या अचीकरत्‌। कर्त्रभिप्राये सर्वत्र णिचश्च (पा०सू० १/३/७४) इति अचीकरत। इतरत्र शेषत्वात्‌ परस्मैपदं अचीकरत्‌। संस्करिष्यति। समस्कसिष्यत्‌। संस्कर्ता। संचिस्कीर्षति। संचेस्यिते। गुणोर्तिसंयोगाद्यो: (पा०सू० ७/४/२९) यङि च (पा०सू० ७/४/३०) इति गुणो न भवति पूर्वोक्तदेव हेतो: परिष्करोतीत्यत्र परिनिविभ्य: सेवसितसयसिवुसहसुट्‌सुस्वञ्जाम्‌ (पा०सू० ८/३/७०) इति षत्वं अकर्त्रभिप्राये क्रियाफले गन्धनादिष्वर्थे करोतेरात्मनेपदं विहितं तत्र तु परापूर्वात्‌ अनुपराभ्यां कृञ: (पा०सू० १/३/७९) इति परस्मैपदं कर्त्रभिप्राये तु स्वरितञित० (पा०सू० १/३/७२) इत्यात्मनेपदं संस्कुरुते। समस्कुरुत। संस्कुर्वीत। आशिषि पूर्वं धातु: साधनेन युज्यते पश्चादुपसर्गेणेतस्मिन्दर्शने सुटो बहिरङ्गलक्षणस्यासिद्धत्वाद् ऋतश्च संयोगादे: (पा०सू० ७/४/१०) इति न भवति उश्च (पा०सू० १/२/१२) इति कित्वाद्गुणाभाव: संस्कृषीष्ट। सुडभावे कृषीष्ट। लिटि पूर्ववत्‌ गुण: संचस्करे। लुङि समस्कृत। समकृथा इत्यादि।

"न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे।"

हे मोह से ग्रसित बुद्धि वाले मित्र, गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि मृत्यु के समय व्याकरण के नियम याद रखने से आपकी रक्षा नहीं हो सकती है।

           –जय श्रीमन्नारायण।
[2/14, 18:41] राम भवनमणि त्रिपाठी: ‎सूतक‬
- सूतक का सम्बन्ध "जन्म के" निम्मित से हुई अशुद्धि से है !
- जन्म के अवसर पर जो नाल काटा जाता है और जन्म होने की प्रक्रिया में अन्य प्रकार की जो हिंसा होती है, उसमे लगने वाले दोष/पाप के प्रायश्चित स्वरुप "सूतक" माना जाता है !
- जन्म के बाद नवजात की पीढ़ियों को हुई अशुचिता :-
3 पीढ़ी तक - 10 दिन 
4 पीढ़ी तक - 10 दिन 
5 पीढ़ी तक - 6 दिन
ध्यान दें :- एक रसोई में भोजन करने वालों के पीढ़ी नहीं गिनी जाती ... वहाँ पूरा 10 दिन का सूतक माना है !
- प्रसूति (नवजात की माँ) को 45 दिन का सूतक रहता है !
- प्रसूति स्थान 1 माह तक अशुद्ध है ! इसीलिए कई लोग जब भी अस्पताल से घर आते हैं तो स्नान करते हैं !
- अपनी पुत्री :-
पीहर में जनै तो हमे 3 दिन का,
ससुराल में जन्म दे तो उन्हें 10 दिन का सूतक रहता है ! और हमे कोई सूतक नहीं रहता है !
- नौकर-चाकर :-
अपने घर में जन्म दे तो 1 दिन का,
बाहर दे तो हमे कोई सूतक नहीं !
- पालतू पशुओं का :-
घर के पालतू गाय, भैंस, घोड़ी, बकरी इत्यादि को घर में बच्चा होने पर हमे 1 दिन का सूतक रहता है !
किन्तु घर से दूर-बाहर जन्म होने पर कोई सूतक नहीं रहता !
- बच्चा देने वाली गाय, भैंस और बकरी का दूध, क्रमशः 15 दिन, 10 दिन और 8 दिन तक "अभक्ष्य/अशुद्ध" रहता है !
‪#‎पातक‬
- पातक का सम्बन्ध "मरण के" निम्मित से हुई अशुद्धि से है !
- मरण के अवसर पर दाह-संस्कार में इत्यादि में जो हिंसा होती है, उसमे लगने वाले दोष/पाप के प्रायश्चित स्वरुप "पातक" माना जाता है !
- मरण के बाद हुई अशुचिता :-
3 पीढ़ी तक - 12 दिन
4 पीढ़ी तक - 10 दिन 
5 पीढ़ी तक - 6 दिन
ध्यान दें :- जिस दिन दाह-संस्कार किया जाता है, उस दिन से पातक के दिनों की गणना होती है, न कि मृत्यु के दिन से !
- यदि घर का कोई सदस्य बाहर/विदेश में है, तो जिस दिन उसे सूचना मिलती है, उस दिन से शेष दिनों तक उसके पातक लगता है ! 
अगर 12 दिन बाद सूचना मिले तो स्नान-मात्र करने से शुद्धि हो जाती है !
- किसी स्त्री के यदि गर्भपात हुआ हो तो, जितने माह का गर्भ पतित हुआ, उतने ही दिन का पातक मानना चाहिए !
- घर का कोई सदस्य मुनि-आर्यिका-तपस्वी बन गया हो तो, उसे घर में होने वाले जन्म-मरण का सूतक-पातक नहीं लगता है ! किन्तु स्वयं उसका ही मरण हो जाने पर उसके घर वालों को 1 दिन का पातक लगता है !
- किसी अन्य की शवयात्रा में जाने वाले को 1 दिन का, मुर्दा छूने वाले को 3 दिन और मुर्दे को कन्धा देने वाले को 8 दिन की अशुद्धि जाननी चाहिए !
- घर में कोई आत्मघात करले तो 6 महीने का पातक मानना चाहिए !
- यदि कोई स्त्री अपने पति के मोह/निर्मोह से जल मरे, बालक पढाई में फेल होकर या कोई अपने ऊपर दोष देकर मरता है तो इनका पातक बारह पक्ष याने 6 महीने का होता है !
उसके अलावा भी कहा है कि :- 
जिसके घर में इस प्रकार अपघात होता है, वहाँ छह महीने तक कोई बुद्धिमान मनुष्य भोजन अथवा जल भी ग्रहण नहीं करता है ! वह मंदिर नहीं जाता और ना ही उस घर का द्रव्य मंदिर जी में चढ़ाया जाता है ! (क्रियाकोष १३१९-१३२०)
- अनाचारी स्त्री-पुरुष के हर समय ही पातक रहता है
ध्यान से पढ़िए :-
- सूतक-पातक की अवधि में "देव-शास्त्र-गुरु" का पूजन, प्रक्षाल, आहार आदि धार्मिक क्रियाएं वर्जित होती हैं !
इन दिनों में मंदिर के उपकरणों को स्पर्श करने का भी निषेध है !
यहाँ तक की गुल्लक में रुपया डालने का भी निषेध बताया है !
-- किन्तु :- 
ये कहीं नहीं कहा कि सूतक-पातक में मंदिरजी जाना वर्जित है या मना है !
- श्री जिनमंदिर जी में जाना, देव-दर्शन, प्रदिक्षणा, जो पहले से याद हैं वो विनती/स्तुति बोलना, भाव-पूजा करना, हाथ की अँगुलियों पर जाप देना जिनागम सम्मत है !
- यह सूतक-पातक आर्ष-ग्रंथों से मान्य है !
- कभी देखने में आया कि सूतक में किसी अन्य से जिनवाणी या पूजन की पुस्तक चौकी पर खुलवा कर रखवाली और स्वयं छू तो सकते नहीं तो उसमे फिर सींख, चूड़ी, बालों कि क्लिप या पेन से पृष्ठ पलट कर पढ़ने लगे ... ये योग्य नहीं है !
- कहीं कहीं लोग सूतक-पातक के दिनों में मंदिरजी ना जाकर इसकी समाप्ति के बाद मंदिरजी से गंधोदक लाकर शुद्धि के लिए घर-दुकान में छिड़कते हैं, ऐसा करके नियम से घोरंघोर पाप का बंध करते हैं !
- इन्हे समझना इसलिए ज़रूरी है, ताकि अब आगे घर-परिवार में हुए जन्म-मरण के अवसरों पर अनजाने से भी कहीं दोष का उपार्जन न हो !
- इस विषय को अधिक सूक्ष्मता से जानने के लिए त्रिवर्णाचारजी, धर्म-संग्रह श्रावकाचारजी, क्रियाकोष और सूतक-निर्णय जैसे शास्त्रों को पढ़ना चाहिए
[2/14, 21:58] ओमीश Omish Ji: संकलित 🙏🙏
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यज्ञ दो प्रकार के होते है- श्रौत और स्मार्त। श्रुति पति पादित यज्ञो को श्रौत यज्ञ और स्मृति प्रतिपादित यज्ञो को स्मार्त यज्ञ कहते है। श्रौत यज्ञ में केवल श्रुति प्रतिपादित मंत्रो का प्रयोग होता है और स्मार्त यज्ञ में वैदिक पौराणिक और तांत्रिक मंन्त्रों का प्रयोग होता है। वेदों में अनेक प्रकार के यज्ञों का वर्णन मिलता है। किन्तु उनमें पांच यज्ञ ही प्रधान माने गये हैं - 1. अग्नि होत्रम, 2. दर्शपूर्ण मासौ, 3. चातुर्म स्यानि, 4. पशुयांग, 5. सोमयज्ञ, ये पाॅंच प्रकार के यज्ञ कहे गये है, यह श्रुति प्रतिपादित है। वेदों में श्रौत यज्ञों की अत्यन्त महिमा वर्णित है। श्रौत यज्ञों को श्रेष्ठतम कर्म कहा है कुल श्रौत यज्ञो को १९ प्रकार से विभक्त कर उनका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।
1. स्मार्त यज्ञः-
विवाह के अनन्तर विधिपूर्वक अग्नि का स्थापन करके जिस अग्नि में प्रातः सायं नित्य हनादि कृत्य किये जाते है। उसे स्मार्ताग्नि कहते है। गृहस्थ को स्मार्ताग्नि में पका भोजन प्रतिदिन करना चाहिये।
2. श्रोताधान यज्ञः-
दक्षिणाग्नि विधिपूर्वक स्थापना को श्रौताधान कहते है। पितृ संबंधी कार्य होते है।
3. दर्शभूर्णमास यज्ञः-
अमावस्या और पूर्णिमा को होने वाले यज्ञ को दर्श और पौर्णमास कहते है। इस यज्ञ का अधिकार सपत्नीक होता है। इस यज्ञ का अनुष्ठान आजीवन करना चाहिए यदि कोई जीवन भर करने में असमर्थ है तो 30 वर्ष तक तो करना चाहिए।
4. चातुर्मास्य यज्ञः-
चार-चार महीने पर किये जाने वाले यज्ञ को चातुर्मास्य यज्ञ कहते है इन चारों महीनों को मिलाकर चतुर्मास यज्ञ होता है।
5. पशु यज्ञः-
प्रति वर्ष वर्षा ऋतु में या दक्षिणायन या उतरायण में संक्रान्ति के दिन एक बार जो पशु याग किया जाता है। उसे निरूढ पशु याग कहते है।
6. आग्रजणष्टि (नवान्न यज्ञ) :-
प्रति वर्ष वसन्त और शरद ऋतुओं नवीन अन्न से यज्ञ गेहूॅं, चावल से जा यज्ञ किया जाता है उसे नवान्न कहते है।
7. सौतामणी यज्ञ (पशुयज्ञ) :-
इन्द्र के निमित्त जो यज्ञ किया जाता है सौतामणी यज्ञ इन्द्र संबन्धी पशुयज्ञ है यह यज्ञ दो प्रकार का है। एक वह पांच दिन में पुरा होता है। सौतामणी यज्ञ में गोदुग्ध के साथ सुरा (मद्य) का भी प्रयोग है। किन्तु कलियुग में वज्र्य है। दूसरा पशुयाग कहा जाता है। क्योकि इसमें पांच अथवा तीन पशुओं की बली दी जाती है।
8. सोम यज्ञः-
सोमलता द्वारा जो यज्ञ किया जाता है उसे सोम यज्ञ कहते है। यह वसन्त में होता है यह यज्ञ एक ही दिन में पूर्ण होता है। इस यज्ञ में 16 ऋत्विक ब्राह्मण होते है।
9. वाजपये यज्ञः-
इस यज्ञ के आदि और अन्त में वृहस्पति नामक सोम यग अथवा अग्निष्टोम यज्ञ होता है यह यज्ञ शरद रितु में होता है।
10. राजसूय यज्ञः-
राजसूय या करने के बाद क्षत्रिय राजा समाज चक्रवर्ती उपाधि को धारण करता है।
11. अश्वमेघ यज्ञ:-
इस यज्ञ में दिग्विजय के लिए (घोडा) छोडा जाता है। यह यज्ञ दो वर्ष से भी अधिक समय में समाप्त होता है। इस यज्ञ का अधिकार सार्वभौम चक्रवर्ती राजा को ही होता है।
12. पुरूष मेघयज्ञ:-
इस यज्ञ समाप्ति चालीस दिनों में होती है। इस यज्ञ को करने के बाद यज्ञकर्ता गृह त्यागपूर्वक वान प्रस्थाश्रम में प्रवेश कर सकता है।
13. सर्वमेघ यज्ञ:-
इस यज्ञ में सभी प्रकार के अन्नों और वनस्पतियों का हवन होता है। यह यज्ञ चैंतीस दिनों में समाप्त होता है।
14. एकाह यज्ञ:-
एक दिन में होने वाले यज्ञ को एकाह यज्ञ कहते है। इस यज्ञ में एक यज्ञवान और सौलह विद्वान होते है।
15. रूद्र यज्ञ:-
यह तीन प्रकार का होता हैं रूद्र महारूद्र और अतिरूद्र रूद्र यज्ञ 5-7-9 दिन में होता हैं महारूद्र 9-11 दिन में होता हैं। अतिरूद्र 9-11 दिन में होता है। रूद्रयाग में 16 अथवा 21 विद्वान होते है। महारूद्र में 31 अथवा 41 विद्वान होते है। अतिरूद्र याग में 61 अथवा 71 विद्वान होते है। रूद्रयाग में हवन सामग्री 11 मन, महारूद्र में 21 मन अतिरूद्र में 70 मन हवन सामग्र्री लगती है।
16. विष्णु यज्ञ:-
यह यज्ञ तीन प्रकार का होता है। विष्णु यज्ञ, महाविष्णु यज्ञ, अति विष्णु योग- विष्णु योग में 5-7-8 अथवा 9 दिन में होता है। विष्णु याग 9 दिन में अतिविष्णु 9 दिन में अथवा 11 दिन में होता हैं विष्णु याग में 16 अथवा 41 विद्वान होते है। अति विष्णु याग में 61 अथवा 71 विद्वान होते है। विष्णु याग में हवन सामग्री 11 मन महाविष्णु याग में 21 मन अतिविष्णु याग में 55 मन लगती है।
17. हरिहर यज्ञ:-
हरिहर महायज्ञ में हरि (विष्णु) और हर (शिव) इन दोनों का यज्ञ होता है। हरिहर यज्ञ में 16 अथवा 21 विद्वान होते है। हरिहर याग में हवन सामग्री 25 मन लगती हैं। यह महायज्ञ 9 दिन अथवा 11 दिन में होता है।
18. शिव शक्ति महायज्ञ:-
शिवशक्ति महायज्ञ में शिव और शक्ति (दुर्गा) इन दोनों का यज्ञ होता है। शिव यज्ञ प्रातः काल और श शक्ति (दुर्गा) इन दोनों का यज्ञ होता है। शिव यज्ञ प्रातः काल और मध्याहन में होता है। इस यज्ञ में हवन सामग्री 15 मन लगती है। 21 विद्वान होते है। यह महायज्ञ 9 दिन अथवा 11 दिन में सुसम्पन्न होता है।
19. राम यज्ञ:-
राम यज्ञ विष्णु यज्ञ की तरह होता है। रामजी की आहुति होती है। रामयज्ञ में 16 अथवा 21 विद्वान हवन सामग्री 15 मन लगती है। यह यज्ञ 8 दिन में होता है।
20. गणेश यज्ञ:-
गणेश यज्ञ में एक लाख (100000) आहुति होती है। 16 अथवा 21 विद्वान होते है। गणेशयज्ञ में हवन सामग्री 21 मन लगती है। यह यज्ञ 8 दिन में होता है।
21. ब्रह्म यज्ञ (प्रजापति यज्ञ):-
प्रजापत्ति याग में एक लाख (100000) आहुति होती हैं इसमें 16 अथवा 21 विद्वान होते है। प्रजापति यज्ञ में 12 मन सामग्री लगती है। 8 दिन में होता है।
22. सूर्य यज्ञ:-
सूर्य यज्ञ में एक करोड़ 10000000 आहुति होती है। 16 अथवा 21 विद्वान होते है। सूर्य यज्ञ 8 अथवा 21 दिन में किया जाता है। इस यज्ञ में 12 मन हवन सामग्री लगती है।
23. दूर्गा यज्ञ:-
दूर्गा यज्ञ में दूर्गासप्त शती से हवन होता है। दूर्गा यज्ञ में हवन करने वाले 4 विद्वान होते है। अथवा 16 या 21 विद्वान होते है। यह यज्ञ 9 दिन का होता है। हवन सामग्री 10 मन अथवा 15 मन लगती है।
24. लक्ष्मी यज्ञ:-
लक्ष्मी यज्ञ में श्री सुक्त से हवन होता है। लक्ष्मी यज्ञ (100000) एक लाख आहुति होती है। इस यज्ञ में 11 अथवा 16 विद्वान होते है। या 21 विद्वान 8 दिन में किया जाता है। 15 मन हवन सामग्री लगती है।
25. लक्ष्मी नारायण महायज्ञ:-
लक्ष्मी नारायण महायज्ञ में लक्ष्मी और नारायण का ज्ञन होता हैं प्रात लक्ष्मी दोपहर नारायण का यज्ञ होता है। एक लाख 8 हजार अथ्वा 1 लाख 25 हजार आहुतियां होती है। 30 मन हवन सामग्री लगती है। 31 विद्वान होते है। यह यज्ञ 8 दिन 9 दिन अथवा 11 दिन में पूरा होता है।
26. नवग्रह महायज्ञ:-
नवग्रह महायज्ञ में नव ग्रह और नव ग्रह के अधिदेवता तथा प्रत्याधि देवता के निर्मित आहुति होती हैं नव ग्रह महायज्ञ में एक करोड़ आहुति अथवा एक लाख अथवा दस हजार आहुति होती है। 31, 41 विद्वान होते है। हवन सामग्री 11 मन लगती है। कोटिमात्मक नव ग्रह महायज्ञ में हवन सामग्री अधिक लगती हैं यह यज्ञ ९ दिन में होता हैं इसमें 1,5,9 और 100 कुण्ड होते है। नवग्रह महायज्ञ में नवग्रह के आकार के 9 कुण्डों के बनाने का अधिकार है।
27. विश्वशांति महायज्ञ:-
विश्वशांति महायज्ञ में शुक्लयजुर्वेद के 36 वे अध्याय के सम्पूर्ण मंत्रों से आहुति होती है। विश्वशांति महायज्ञ में सवा लाख (123000) आहुति होती हैं इस में 21 अथवा 31 विद्वान होते है। इसमें हवन सामग्री 15 मन लगती है। यह यज्ञ 9 दिन अथवा 4 दिन में होता है।
28. पर्जन्य यज्ञ (इन्द्र यज्ञ):-
पर्जन्य यज्ञ (इन्द्र यज्ञ) वर्षा के लिए किया जाता है। इन्द्र यज्ञ में तीन लाख बीस हजार (320000) आहुति होती हैं अथवा एक लाख 60 हजार (160000) आहुति होती है। 31 मन हवन सामग्री लगती है। इस में 31 विद्वान हवन करने वाले होते है। इन्द्रयाग 11 दिन में सुसम्पन्न होता है।
29. अतिवृष्टि रोकने के लिए यज्ञ:-
अनेक गुप्त मंत्रों से जल में 108 वार आहुति देने से घोर वर्षा बन्द हो जाती है।
30. गोयज्ञ:-
वेदादि शास्त्रों में गोयज्ञ लिखे है। वैदिक काल में बडे-बडे़ गोयज्ञ हुआ करते थे। भगवान श्री कृष्ण ने भी गोवर्धन पूजन के समय गौयज्ञ कराया था। गोयज्ञ में वे वेदोक्त दोष गौ सूक्तों से गोरक्षार्थ हवन गौ पूजन वृषभ पूजन आदि कार्य किये जाते है। जिस से गौसंरक्षण गौ संवर्धन, गौवंशरक्षण, गौवंशवर्धन गौमहत्व प्रख्यापन और गौसड्गतिकरण आदि में लाभ मिलता हैं गौयज्ञ में ऋग्वेद के मंत्रों द्वारा हवन होता है। इस में सवा लाख 250000 आहुति होती हैं गौयाग में हवन करने वाले 21 विद्वान होते है। यह यज्ञ 8 अथवा 9 दिन में सुसम्पन्न होता है।

जय माता की !!
जय शिव शम्भू !!
[2/14, 22:00] ‪+91 96859 71982‬: कृपा करो श्यामा लाडली।
करूणामयी वृषभानु किशोरी,कीरत लली प्यारी।
भानु नन्दिनी राधिके गौरी,ह्लादिनी राधा भोरी।
कृष्णप्रिया नागरी श्यामा,निपुणा केलि लली।
सर्वेश्वरी रसरानी भामिनी,महाभावनी कुसुम कली।
निकुंजैश्वरी वृन्देश्वरी,ब्रजैश्वरी कृष्णा ह्रदयेश्वरी।
हा! आनंदप्रदायिनी प्रीतीदायिनी,कीरत नन्दिनी रासेश्वरी।
करिहौ कृपा कृपावर्षिणी,प्यारी बिनती करी।
[2/14, 22:31] ओमीश Omish Ji: अह्ह्ह्ह्ह्ह् गुरूदेव 🙏🙏
बहुत दिनन कीन्ही मुनि दाया🙏
धन्य तो आज हुआ है, केवल यह शिष्य नहीं अपितु धर्मार्थ परिवार। 🙏🙏🙏
मुहुर्मुहु प्रणमामि 🙏🙏

धर्मार्थ परिवार के सभी सदस्यों को बताना चाहूँगा कि हमारे समूह के न्यायाधीश आदरणीय परम पूज्य मानस मर्मज्ञ सरस रामकथा प्रवक्ता श्रीमान् सत्यप्रकाश अनुरागी गुरूजी, जो कि हरि चर्चा (भगवत्कथाओं) में व्यस्तता के कारण अनुपस्थित थे। जिनसे नवागन्तुक सभी सदस्य अपरिचित भी हैं, अतः आप श्री का आज कई महीनों बाद दर्शन प्राप्त हुआ जिससे अन्तर्मन ही प्रसन्नता से प्रस्फुटित हो रहा है।
आप श्री के चरणों में एक निवेदन भी करूंगा कि अब किसी तरह से समय निकाल कर आशीर्वाद प्रदान करें। मन में केवल यही एक अभिलाषा और पिपासा है।
आशा है कि निवेदन स्वीकार होगा। 🙏
आपका ओमीश 🙏🙏🙏🙏🙏
[2/14, 23:41] ‪+91 98239 16297‬: *सूर्यसिद्धांतीय देशपांडे दैनिक पंचांग-- १५ फेब्रुवारी २०१७*

***!!श्री मयूरेश्वर प्रसन्न!!***
☀धर्मशास्त्रसंमत प्राचीन शास्त्रशुद्ध सूर्यसिद्धांतीय देशपांडे पंचांग (पुणे) नुसार
दिनांक १५ फेब्रुवारी २०१७
पृथ्वीवर अग्निवास नाही.
मंगळ मुखात १२:०३ पर्यंत नंतर गुरु मुखात आहुती आहे.
शिववास नंदीवर,काम्य शिवोपासनेसाठी शुभ दिवस आहे.
☀ *सूर्योदय* -०७:०७
☀ *सूर्यास्त* -१८:३१
*शालिवाहन शके* -१९३८
*संवत्सर* -दुर्मुख
*अयन* -उत्तरायण
*ऋतु* -शिशिर (सौर)
*मास* -माघ
*पक्ष* -कृष्ण
*तिथी* -पंचमी
*वार* -बुधवार
*नक्षत्र* -हस्त (१२:०३ नंतर चित्रा)
*योग* -शूल
*करण* -कौलव (१८:५१ नंतर तैतिल)
*चंद्र रास* -कन्या
*सूर्य रास* -कुंभ
*गुरु रास* -तुळ
*राहु काळ* -१२:०० ते १३:३०
*पंचांगकर्ते*:सिद्धांती ज्योतिषरत्न गणकप्रवर
*पं.गौरवशास्त्री देशपांडे-०९८२३९१६२९७*
*विशेष*-सर्वार्थसिद्धियोग १२:०३ पर्यंत,श्रीदत्त गोपाळकाला (नृ.वाडी),श्रीकृष्ण सरस्वती जयंती (कोल्हापूर),या दिवशी पाण्यात वेलदोडा चूर्ण घालून स्नान करावे.विष्णु कवच व बुध कवच या स्तोत्रांचे पठण करावे."बुं बुधाय नमः" या मंत्राचा किमान १०८ जप करावा.सत्पात्री व्यक्तिस हिरवे मूग दान करावे.विष्णुंना मुगाच्या खिचडीचा नैवेद्य दाखवावा.यात्रेसाठी घरातून बाहेर पडताना तीळ प्राशन करुन बाहेर पडल्यास प्रवासात ग्रहांची अनुकूलता प्राप्त होईल.
*विशेष टीप* - *आगामी नूतन संवत्सरारंभी येणारा गुढीपाडवा सूर्यसिद्धांतीय पंचांगानुसार म्हणजेच मुख्यतः धर्मशास्त्रानुसार या वेळी मंगळवार दि.२८ मार्च २०१७ रोजी नसून फक्त बुधवार दि.२९ मार्च २०१७ रोजीच आहे.कारण दि.२८ मार्च रोजी सूर्योदयास अमावस्या तिथी आहे व दि.२९ मार्च रोजीच फक्त सूर्योदयास प्रतिपदा तिथी आहे.याची विशेष नोंद हिंदूंनी घ्यावी व सर्वांनी गुढी-ब्रम्हध्वज पूजन हे फक्त चैत्र शु.प्रतिपदेला बुधवार दि.२९ मार्च २०१७ रोजीच करावे.*
www.facebook.com/DeshpandePanchang
*टीप*-->>सर्व कामांसाठी चांगला दिवस आहे.
**या दिवशी फणस खावू नये.
**या दिवशी हिरवे वस्त्र परिधान करावे.
*आगामी नूतन संवत्सराचे सर्वांना उपयुक्त फायदेशीर असे धर्मशास्त्रसंमत सूर्यसिद्धांतीय देशपांडे पंचांग सर्वत्र उपलब्ध आहे.*
♦ *लाभदायक वेळा*-->>
लाभ मुहूर्त--  सकाळी ७ ते सकाळी ८.३०
अमृत मुहूर्त--  सकाळी ८.३० ते सकाळी १०
|| *यशस्वी जीवनाचे प्रमुख अंग* ||
|| *सूर्यसिध्दांतीय देशपांडे पंचांग* ||
आपला दिवस सुखाचा जावो,मन प्रसन्न राहो.
(कृपया वरील पंचांग हे पंचांगकर्त्यांच्या नावासहच व अजिबात नाव न बदलता शेअर करावे.या लहानश्या कृतीने तात्त्विक आनंद व नैतिक समाधान मिळते.@copyright)
[2/14, 23:55] ‪+91 96859 71982‬: धन्य धन्य तो भयऊ आज मैं 🙏🏼🙏🏼🙏🏼
अहोभाग्य प्रभु जी आपके जैसे महापुरुषों के दर्शन से अत्याधिक प्रसन्नता होती है। क्योंकि गुरूदेव कहते हैं कि हर व्यक्ति के पास कुछ न कुछ होता अप्राप्त होता है जिसे हमें स्वीकार करना चाहिए। और सन्त गुरूजन सुधीजन के पास केवल वही होता है जिससे अल्प संचित  कुछ नया कर सकें जीवन में उचित मार्ग अपना सकें भगवत्प्राप्ति का। और आचार्य ओमीश जी के द्वारा प्राप्त जानकारी से ज्ञात हुआ कि वह मार्ग आप से ही प्रशस्त होगा। इसलिए आप हम सब पर कृपा करिए गुरूदेव। हम भी कुछ प्राप्त करने ही यहाँ आ पहुंचे आप जैसे विद्वानों के सानिध्य में नही तो ऐसा मंच कहां सुलभ होता है किसी को जिसमें सब कोई बोल सके🙏🏼🙏🏼🙏🏼
[2/15, 05:43] राम भवनमणि त्रिपाठी: उमाशतकम् ॥ प्रथमं दशकम् (आर्यावृत्तम्) फुल्लत्वं रविदीधितिनिरपेक्षमुमामुख्याब्जस्य । पूर्णं करोतु मानसमभिलाषं पुण्यभूमिजुषाम् ॥ १॥ कैलासवासिनी वा धवलद्युतिबिम्बनिलया वा । आकाशान्तरपीठस्थितोत मे देवता भवति ॥ २॥ आकाशान्तरपीठस्थितैव साक्षात्पराशक्तिः । तस्या अंशव्यक्ती शशिनि सिताद्रौ च राजन्त्यौ ॥ ३॥ सङ्कल्पवातसङ्गादानन्दरसो घनीभूतः । अन्तर्व्यापकशक्तेः समपद्यत ते वपुर्मातः ॥ ४॥ इच्छाविचित्रवीर्यात्तेजःपटलो घनीभूतः । अन्तर्व्यापकशक्तेः समपद्यत ते विभोर्गात्रम् ॥ ५॥ इच्छायोगात्तेजसि तव भागः कश्चिदस्तीशे । विज्ञानयोगतो मुदि भाग्यस्त्वयि कश्चिदीशस्य ॥ ६॥ सम्राजौ शशभृति यौ गृहवन्तौ यौ च सितगिरिणा । तदिदं युवयोर्माया वेषान्तरमिथुनयुगलमुमे ॥ ७॥ यद्यपि विभूतिरधिकं युवयोर्विश्वाम्बिके भवति । मिथुने तथाप्यमू वां नेदिष्ठे देवि पश्यामः ॥ ८॥ दम्पत्योर्भगवति वां प्रतिबिम्बौ भास्करे भवतः । देहभुवौ भूचक्रस्वप्नप्रव्यक्त्ती सुधामहसि ॥ ९॥ देहे भुवः प्रतिबिम्बः प्राणन्मूलस्य नेदीयान् । प्रतिबिम्बव्यक्त्तेश्च स्वप्नव्यक्त्तिश्च नेदिष्ठा ॥ १०॥
[2/15, 06:38] ओमीश Omish Ji: चार प्रकार की कृपा होती हैः
ईश्वरकृपा, शास्त्रकृपा, गुरुकृपा और आत्मकृपा।
ईश्वरकृपाः ईश्वर में प्रीति हो जाये, ईश्वर के वचनों को समझने की रूचि हो जाये, ईश्वर की ओर हमारा चित्त झुक जाये, ईश्वर को जानने की जिज्ञासा हो जाये यह ईश्वर की कृपा है।

शास्त्रकृपाः शास्त्र का तत्त्व समझ में आ जाये, शास्त्र का लक्ष्यार्थ समझ में आने लग जाये यह शास्त्रकृपा है।

गुरुकृपाः गुरु हमें अपना समझकर, शिष्य, साधक या भक्त समझकर अपने अनुभव को व्यक्त करने लग जायें यह गुरुकृपा है।

आत्मकृपाः हम उस आत्मा परमात्मा के ज्ञान को प्राप्त हो जायें, अपने देह, मन, इन्द्रियों से परे, इन सबको सत्ता देने वाले उस अव्यक्त स्वरूप को पहचानने की क्षमता हममें आ जायें यह आत्मकृपा है।

आत्मज्ञान हो लेकिन ज्ञान होने का अभिमान न हो तो समझ लेना की आत्मकृपा है। अपने को ज्ञान हो जाये फिर दूसरे अज्ञानी, मूढ़ दिखें और अपने को श्रेष्ठ मानने का भाव आये तो यह ज्ञान नहीं, ज्ञान का भ्रम होता है क्योंकि ज्ञान से सर्वव्यापक वस्तु का बोध होता है। उसमें अपने को पृथक करके दूसरे को हीन देखने की दृष्टि रह ही नहीं सकती। फिर तो भावसहित सब अपना ही स्वरूप दिखता है।

गर्मी-सर्दी देह को लगती है, मान-अपमान, हर्ष-शोक मन में होता है तथा राग-द्वेष मति के धर्म होते हैं यह समझ में आ जाये तो मति के साथ, मन के साथ, इन्द्रियों के साथ हमारा जो तादात्म्य जुड़ा है वह तादात्म्य दूर हो जाता है। शरीर चाहे कितना भी सुडौल हो, मजबूत हो, मन चाहे कितना भी शुद्ध और पवित्र हो, बुद्धि एकाग्र हो लेकिन जब तक अपने स्वरूप को नहीं जाना तब तक न जाने कब शरीर धोखा दे दे? कब मन धोखा दे दे? कब बुद्धि धोखा दे दे? कोई पता नहीं। क्योंकि इन सबकी उत्पत्ति प्रकृति से हुई है और प्रकृति परिवर्तनशील है।

संसार की चीजें बदलती हैं। शरीर बदलता है। अन्तःकरण बदलता है। इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि से जो कुछ देखने में आता है वह सब व्यक्त है। भूख-प्यास भी तो मन से देखने में आती है। सर्दी-गर्मी का पता त्वचा से चलता है किन्तु उसमें वृत्ति का संयोग होता है अतः वह भी तो व्यक्त ही है। इसीलिए भगवान कहते हैं किः 'जो मूढ़ लोग हैं वे मेरे अव्यक्त स्वरूप को नहीं जानते और मुझे जन्मने-मरने वाला मानते हैं।
         जय जय श्री राधे
[2/15, 07:37] ‪+91 94153 60939‬: दाने शक्तिः श्रुतौ भक्तिः गुरूपास्तिः गुणे रतिः ।
दमे मतिः दयावृत्तिः षडमी सुकृताङ्कुराः ॥

दातृत्वशक्ति, वेदों में भक्ति, गुरुसेवा, गुणों की आसक्ति, (भोग में नहि पर) इंद्रियसंयम की मति, और दयावृत्ति – इन छे बातों में सत्कार्य के अंकुर हैं ।इन्हीं से भगवद्भक्ति का उदय होता है।

कुल - द्रव्येषु या भक्तिः, सा मोक्ष ... इस प्रकार की जो भक्ति होती है, वही मोक्षदायिनी मानी गई है ।

          –जय श्रीमन्नारायण।
[2/15, 07:45] ‪+91 90241 11290‬: यौतुकानीतं
प्रच्छन्तीतीह सर्वे
परं त्यक्तं न।।

दहेज मे क्या क्या लाई ये पूछते है सब पर क्या छोड आई पूछता नही कोई।
*********महेशशास्त्री*********
[2/15, 07:49] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

भक्त्या त्वनन्यया
शक्यमहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं दृष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च
परंतप।।

                   –गीता 11/54

हे भगवन ! फिर आपके दर्शन किस प्रकार हो सकते हैं इस पर भगवान कहते हैं – भक्ति से दर्शन तो हो सकते हैं? वह  किस प्रकार की भक्ति से हो सकते हैं? यह बतलाते हैं –  हे अर्जुन अनन्य भक्ति से अर्थात् जो भगवान् को छोड़कर अन्य किसी पृथक् वस्तु में कभी भी नहीं होती वह अनन्य भक्ति है एवं जिस भक्ति के कारण ( भक्तिमान् पुरुष को ) समस्त इन्द्रियों द्वारा एक वासुदेव परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी की भी उपलब्धि नहीं होती? वह अनन्य भक्ति है। ऐसी अनन्य भक्ति द्वारा इस प्रकार के रूपवाला अर्थात् विश्वरूपवाला मैं परमेश्वर शास्त्रोंद्वारा जाना जा सकता हूँ। केवल शास्त्रोंद्वारा जाना जा सकता हूँ इतना ही नहीं? हे परन्तप तत्त्व से देखा भी जा सकता हूँ अर्थात् साक्षात् भी किया जा सकता हूँ और प्राप्त भी किया जा सकता हूँ अर्थात् मोक्ष भी प्राप्त करा सकता हूँ।

             –रमेशप्रसाद शुक्ल

             –जय श्रीमन्नारायण।
[2/15, 07:50] ‪+91 99773 99419‬: *🔔मूल श्लोकः 🔔*
गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान् ॥२/५ ॥
*🏹पदच्छेदः........*
गुरून्, अहत्वा, हि, महानुभावान्, श्रेयः, भोक्तुम्, भैक्ष्यम्, अपि, इह, लोके । हत्वा, अर्थकामान्, तु , गुरून्, इह, एव, भुञ्जीय, भोगान्, रुधिरप्रदिग्धान् ॥
*🌹पदपरिचयः......🌹*
महानुभावान्—अ.पुं.द्वि.एक.
गुरून्—उ.पुं.द्वि.एक.
अहत्वा—क्त्वान्तम् अव्ययम्
भैक्ष्यम्—अ.नपुं.द्वि.एक.
भोक्तुम्—तुमुन्नन्तम् अव्ययम्
इह—अव्ययम्
अस्मिन्लोके—अ.पुं.स.एक.
श्रेय: — श्रेयस्-स.नपुं.प्र.एक.
हत्वा—क्त्वान्तम् अव्ययम्
इह—अव्ययम्
एव—अव्ययम्
रुधिरप्रदिग्धान्—अ.पुं.द्वि.बहु
अर्थकामान्—अ.पुं.द्वि.बहु
भोगान्—अ.पुं.द्वि.बहु
भुञ्जीय—भुज पालनाभ्यवहारयोः-आत्म.कर्तरि,लिङ्.उपु.एक.
*🌷पदार्थः...... 🌷*
गुरून्—आचार्यान्
अहत्वा—अविनाश्य(स्थितस्य मम)
महानुभावान्—महाशयान्
श्रेयः—साधु
भोक्तुम्—खादितुम्
भैक्ष्यम्—भिक्षाम्
इह—अस्मिन्
लोके—लोके
हत्वा—विनाश्य
अर्थकामान्—अर्थकामरूपान्
भुञ्जीय—आस्वादयेयम्
भोगान्—वस्तुविशेषान्
रुधिरप्रदिग्धान्—रक्तमिश्रितान्
*🌻अन्वयः 🌻*
महानुभावान् गुरून् अहत्वा (स्थितस्य मम) भैक्ष्यं भोक्तुम्इह लोके श्रेयः । गुरून् हत्वा इह एव रुधिरप्रदिग्धान् अर्थकामान् भोगान् भुञ्जीय ?
*🐚आकाङ्क्षाः🐚*
_श्रेय:_
किं कर्तुं श्रेय:?
*भोक्तुं श्रेयः ।*
किं भोक्तुं श्रेयः?
*भैक्ष्यं भोक्तुं श्रेयः ।*
किं कृत्वा (स्थितस्य मम)भैक्ष्यं भोक्तुं श्रेयः?
*अहत्वा (स्थितस्य मम)भैक्ष्यं भोक्तुं श्रेयः।*
कान् अहत्वा (स्थितस्य मम)भैक्ष्यं भोक्तुं श्रेयः?
*गुरून् अहत्वा स्थितस्य मम भैक्ष्यं भोक्तुं श्रेयः।*
कीदृशान् गुरून् अहत्वा स्थितस्य मम भैक्ष्यं भोक्तुं श्रेयः?
*महानुभावान् गुरून् अहत्वा स्थितस्य मम भैक्ष्यं भोक्तुं श्रेयः।*
महानुभावान् गुरून् अहत्वा स्थितस्य मम भैक्ष्यं कुत्र भोक्तुं श्रेयः?
*महानुभावान् गुरून् अहत्वा स्थितस्य मम भैक्ष्यं लोके भोक्तुं श्रेयः।*
महानुभावान् गुरून् अहत्वा स्थितस्य मम भैक्ष्यं कस्मिन् लोके भोक्तुं श्रेयः?
*महानुभावान् गुरून् अहत्वा स्थितस्य मम भैक्ष्यं इहैव लोके भोक्तुं श्रेयः।*
_भुञ्जीय_
कान् भुञ्जीय?
*भोगान् भुञ्जीय ।*
कान् भोगान् भुञ्जीय?
*अर्थकामान् भोगान् भुञ्जीय ।*
कीदृशान् अर्थकामान् भोगान् भुञ्जीय?
*रुधिरप्रदिग्धान् अर्थकामान् भोगान् भुञ्जीय ।*
कुत्र रुधिरप्रदिग्धान् अर्थकामान् भोगान् भुञ्जीय?
*इह एव रुधिरप्रदिग्धान् अर्थकामान् भोगान् भुञ्जीय ।*
किं कृत्वा इह एव रुधिरप्रदिग्धान् अर्थकामान् भोगान् भुञ्जीय?
*हत्वा इह एव रुधिरप्रदिग्धान् अर्थकामान् भोगान् भुञ्जीय ।*
कान् हत्वा इह एव रुधिरप्रदिग्धान् अर्थकामान् भोगान् भुञ्जीय?
*गुरून् हत्वा इह एव रुधिरप्रदिग्धान् अर्थकामान् भोगान् भुञ्जीय ।*
*📢 तात्पर्यम्......*
एतान् महानुभावान् गुरून् भीष्म द्रोणादीन् अहत्वा भिक्षायाचनेन जीवनमपि वरम् । किन्तु एतेषां हननेन प्राप्यमाणाः ये भोगाः रक्तलिप्ताः भविष्यन्ति तेषाम् उपभोगः सर्वथा नोचितः ।
*🌻व्याकरणम्.......*
▶सन्धिः
श्रेयो भोक्तुम् = श्रेयः + भोक्तुम् – विसर्गसन्धिः (सकारः) उकारः, गुणः
अपीह = अपि + इह - सवर्णदीर्घसन्धिः
इहैव = इह + एव - वृद्धिसन्धिः
▶ समासः
महानुभावान् = महान् अनुभावः येषां ते, तान् – बहुव्रीहिः ।
▶ कृदन्तः
हत्वा = हन् + क्त्वा ।
भोक्तुम् = भुज् + तुमुन् ।
▶ तद्धितान्तः
श्रेयः = प्रशस्त + ईयसुन् (अतिशये) प्रशस्तशब्दस्य श्र इति आदेशः ।
भैक्ष्यम् = भिक्षा + ष्यञ् (स्वार्थे)
🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹
[2/15, 09:20] बाबा जी: 🌻🌺सुप्रभातम्🌺🌻
यस्मिन्देशे निषीदन्ति विप्रा वेदविदस्त्रयः । राज्ञश्चाधिकृतो विद्वान्ब्रह्मणस्तां सभां विदुः |
जिस स्थान में वेदों के ज्ञाता तीन विद्वान् बैठते हैं और एक राजा द्वारा नियुक्त उस विषय का विद्वान् बैठता है उस सभा को ‘ब्रह्मसभा’ जानते हैं – मानते हैं ।
🌿🌴🍀🙏�🍀🌴🌿
[2/15, 09:31] ओमीश Omish Ji: बीज मन्त्रों के रहस्य
💐 🍃🍃 💐 🍃🍃💐
शास्त्रों में अनेकों बीज मन्त्र कहे हैं, आइये बीज मन्त्रों का रहस्य जाने

१👉 "क्रीं" इसमें चार वर्ण हैं! [क,र,ई,अनुसार] क--काली, र--ब्रह्मा, ईकार--दुःखहरण।
अर्थ👉 ब्रह्म-शक्ति-संपन्न महामाया काली मेरे दुखों का हरण करे।

२👉 "श्रीं" चार स्वर व्यंजन [श, र, ई, अनुसार]=श--महालक्ष्मी, र-धन-ऐश्वर्य, ई- तुष्टि, अनुस्वार-- दुःखहरण।
अर्थ👉 धन- ऐश्वर्य सम्पति, तुष्टि-पुष्टि की अधिष्ठात्री देवी लाष्मी  मेरे दुखों का नाश कर।

३👉 "ह्रौं" [ह्र, औ, अनुसार]  ह्र-शिव, औ-सदाशिव, अनुस्वार--दुःख हरण।
अर्थ👉 शिव तथा सदाशिव कृपा कर मेरे दुखों का हरण करें।

४👉 "दूँ" [ द, ऊ, अनुस्वार]--द- दुर्गा, ऊ--रक्षा, अनुस्वार करना।
अर्थ👉 माँ दुर्गे मेरी रक्षा करो, यह दुर्गा बीज है।

५👉 "ह्रीं" यह शक्ति बीज अथवा माया बीज है।
[ह,र,ई,नाद, बिंदु,] ह-शिव, र-प्रकृति,ई-महामाया, नाद-विश्वमाता, बिंदु-दुःख हर्ता।
अर्थ👉 शिवयुक्त विश्वमाता मेरे दुखों का हरण करे।

६👉 "ऐं" [ऐ, अनुस्वार]-- ऐ- सरस्वती, अनुस्वार-दुःखहरण।
अर्थ👉 हे सरस्वती मेरे दुखों का अर्थात अविद्या का नाश कर।

७👉 "क्लीं" इसे काम बीज कहते हैं![क, ल,ई अनुस्वार]-क-कृष्ण अथवा काम,ल-इंद्र,ई-तुष्टि भाव, अनुस्वार-सुख दाता।

अर्थ👉 कामदेव रूप श्री कृष्ण मुझे सुख-सौभाग्य दें।

८👉 "गं" यह गणपति बीज है। [ग, अनुस्वार] ग-गणेश, अनुस्वार-दुःखहरता।
अर्थ👉 श्री गणेश मेरे विघ्नों को दुखों को दूर करें।

९👉 "हूँ" [ ह, ऊ, अनुस्वार]--ह--शिव, ऊ-- भैरव, अनुस्वार-- दुःखहरता] यह कूर्च बीज है।
अर्थ👉 असुर-सहारक शिव मेरे दुखों का नाश करें।

१०👉 "ग्लौं" [ग,ल,औ,बिंदु]-ग-गणेश, ल-व्यापक रूप, आय-तेज, बिंदु-दुखहरण।
अर्थात👉 व्यापक रूप विघ्नहर्ता  गणेश अपने तेज से मेरे दुखों का नाश करें।

११👉 "स्त्रीं" [स,त,र,ई,बिंदु]-स-दुर्गा, त-तारण, र-मुक्ति, ई-महामाया, बिंदु-दुःखहरण।
अर्थात👉 दुर्गा मुक्तिदाता, दुःखहर्ता,, भवसागर-तारिणी महामाया मेरे दुखों का नाश करें।

१२👉 "क्षौं" [क्ष,र,औ,बिंदु] क्ष-नरीसिंह, र-ब्रह्मा, औ-ऊर्ध्व, बिंदु-दुःख-हरण।
अर्थात👉 ऊर्ध्व केशी ब्रह्मस्वरूप नरसिंह भगवान मेरे दुखों कू दूर कर।

१३👉 "वं" [व्, बिंदु]-व्-अमृत, बिंदु- दुःखहरत।
[इसी प्रकार के कई बीज मन्त्र हैं]  [शं-शंकर, फरौं--हनुमत, दं-विष्णु बीज, हं-आकाश बीज,यं अग्नि बीज, रं-जल बीज, लं- पृथ्वी बीज, ज्ञं--ज्ञान बीज, भ्रं भैरव बीज।
अर्थात👉 हे अमृतसागर, मेरे दुखों का हरण कर।

१४👉 कालिका का महासेतु👉 "क्रीं",
त्रिपुर सुंदरी का महासेतु👉 "ह्रीं",
तारा का👉  "हूँ",
षोडशी का👉  "स्त्रीं",
अन्नपूर्णा का👉 "श्रं",
लक्ष्मी का "श्रीं" 

१५👉 मुखशोधन मन्त्र निम्न हैं।
गणेश👉 ॐ गं
त्रिपुर सुन्दरी👉 श्रीं ॐ श्रीं ॐ श्रीं ॐ।
तारा👉 ह्रीं ह्रूं ह्रीं।
स्यामा👉 क्रीं क्रीं क्रीं ॐ ॐ ॐ क्रीं क्रीं क्रीं।
दुर्गा👉 ऐं ऐं ऐं।
बगलामुखी👉 ऐं ह्रीं ऐं।
मातंगी👉 ऐं ॐ ऐं।
लक्ष्मी👉 श्रीं।
💐  🍃🍃  💐  🍃🍃  💐  🍃🍃  💐  🍃🍃  💐
[2/15, 09:38] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

दृष्ट्वानुयान्तमृषिमात्मजमप्यनग्नं देव्यो ह्रिया परिदधुर्न सुतस्य चित्रम्।
तद्वीक्ष्य पृच्छति मुनौ जगदुस्तवास्ति स्त्रीपुम्भिदा न तु सुतस्य विविक्तदृष्टेः।।

                –भाग0 1/4/ 5

व्यास जी जब संन्यास के  लिये वन की ओर जाते हुए अपने पुत्र का पीछा कर रहे थे, उस समय जल में स्नान  करनेवाली स्त्रियों ने नंगे शुकदेव को देखकर तो वस्त्र धारण नहीं किया, परन्तु वस्त्र पहने  हुए व्यास जी को देखकर लज्जा से कपड़े पहन लिये थे। इस आश्चर्य को देखकर जब व्यास जी  ने उन स्त्रियों से इसका कारण पूछा, तब उन्होंने उत्तर दिया कि , व्यास जी, आपकी दृष्टि में तो  अभी स्त्री-पुरुष का भेद बना हुआ है, परन्तु आपके पुत्र की  शुद्ध दृष्टि में यह भेद नहीं है'।

             –रमेशप्रसाद शुक्ल
      
             –जय श्रीमन्नारायण।
[2/15, 09:42] ‪+91 99773 99419‬: *🔔मूल श्लोकः 🔔*
श्रीभगवानुवाच -
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥ २/२॥
*🏹पदच्छेदः........*
कुतः, त्वा, कश्मलम्, इदम्, विषमे, समुपस्थितम् । अनार्यजुष्टम्, अस्वर्ग्यम्, अकीर्तिकरम्, अर्जुन ॥
*🌹पदपरिचयः......🌹*
अर्जुन - अ.पुं.सम्बो.एक.
विषमे-अ.पुं.स.एक.
अनार्यजुष्टम् - अ.नपुं.प्र.एक.
अस्वर्ग्यम् -अ.नपुं.प्र.एक.
अकीर्तिकरम्-अ.नपुं.प्र.एक.
इदम्-इदम्-म.-सर्व.नपुं.प्र.एक.
कश्मलम्-अ.नपुं.प्र.एक.
कुतः-अव्ययम्
त्वाम्-युष्मद्-द.सर्व.पुं.द्वि.एक.
समुपस्थितम्-अ.नपुं.प्र.एक.
*🌷पदार्थः...... 🌷*
कुतः - कस्मात् कारणात्
त्वा - त्वाम्
कश्मलम् - चित्तकालुष्यम्
इदम् - एतत्
विषमे - विपत्तिकाले
समुपस्थितम् - समागतम्
अनार्यजुष्टम् - असाधुसेवितम्
अस्वर्ग्यम् - स्वर्गायोग्यम्
अकीर्तिकरम् - अयशस्करम्
अर्जुन - हे अर्जुन
*🌻अन्वयः 🌻*
अर्जुन ! विषमे अनार्यजुष्टम् अस्वर्ग्यम् अकीर्तिकरम् इदं कश्मलं कुतः त्वा समुपस्थितम् ?
*🐚आकाङ्क्षाः🐚*
_समुपस्थितम्_
कं समुपस्थितम्?
*इदं समुपस्थितम् ।*
इदं किं समुपस्थितम्?
*इदं कश्मलं समुपस्थितम् ।*
कीदृशम् इदं कश्मलं समुपस्थितम्?
*अनार्यजुष्टम् इदं कश्मलं समुपस्थितम् ।*
अनार्यजुष्टम् पुनश्च कीदृशम् इदं कश्मलं समुपस्थितम्?
*अनार्यजुष्टम् अस्वर्ग्यम् इदं कश्मलं समुपस्थितम् ।*
अनार्यजुष्टम् पुनश्च कीदृशम् इदं कश्मलं समुपस्थितम्?
*अनार्यजुष्टम् अकीर्तिकरम् इदं कश्मलं समुपस्थितम् ।*
कुत्र अनार्यजुष्टम् अकीर्तिकरम् इदं कश्मलं समुपस्थितम्?
*विषमे अनार्यजुष्टम् अकीर्तिकरम् इदं कश्मलं समुपस्थितम् ।*
अस्मिन् श्लोके सम्बोधनपदं किम्?
*अर्जुन*
*📢 तात्पर्यम्......*
हे अर्जुन ! क्लिष्टसमये असाधुसेवितम्, अस्वर्गफलम्, अयशस्करं च एतादृशं चित्तकालुष्यं कथं त्वां समागतम् ?
*🌻व्याकरणम्.......*
▶सन्धिः
कुतस्त्वा = कुतः त्वा – विसर्गसन्धिः (सकारः)
▶ समासः
अनार्यजुष्टम् = आर्यैः जुष्टम् – आर्यजुष्टम् – तृतीयातत्पुरुषः ।
न आर्यजुष्टम् – नञ्तत्पुरुषः ।
अस्वर्ग्यम् = न स्वर्ग्यम् – नञ्तत्पुरुषः ।अकीर्तिकरम् = न कीर्तिकरम् – नञ्तत्पुरुषः ।
▶ कृदन्तः
समुपस्थितम् = सम् + उप + स्था + क्त (कर्तरि)जुष्टम् = जुष् + क्त (कर्मणि)
▶ तद्धितान्तः
कुतः = किम् + तसिल् (कु आदेशः) । कस्मात् इत्यर्थः ।
🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹
[2/15, 09:47] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
      सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
अर्थात कोई व्यक्ति यदि अभी दुःख भोग रहा है, तो जो व्यक्ति मन ही मन उस व्यक्ति के साथ अपने को इस प्रकार तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं या जोड़ लेते हैं, कि वह जिस दुःख को भोग रहा है, उसका दुःख उन्हें  बिल्कुल अपना दुःख प्रतीत होने लगता है। उसी प्रकार जब कोई व्यक्ति सुख पा रहा हो, तो उसका सुख देखकर भी उन्हें ऐसा प्रतीत होता है,मानो वे स्वयं ही सुखी हैं। सभी स्थानों के सभी मनुष्यों के सुख या दुःख को जो मनुष्य बिल्कुल अपने ही सुख-दुःख के जैसा देखने में सक्षम है, वही परम योगी है।

विश्व के साथ एकात्मता का अनुभव होना दुर्लभ अवस्था है। दूसरे के पैर में कांटा गड़ गया हो तो योगी अपने अन्तर में उसका क्लेश अनुभव करते हैं। यही विश्व-प्रेम अर्थात अपने अन्तर्निहित दिव्यता या ब्रह्मत्व का सभी मनुष्यों में दर्शन करना ब्रह्मज्ञान है- 'अहं ब्रह्मास्मि ' व्यावहारिक जीवन में ऐसी अनुभूति ही योगी या सच्चे नेता को विश्व-प्रेमिक या विश्व-भ्रातृत्व में उन्नत कर देती है।🌻🙏🏻🌻
सुप्रभात।
[2/15, 09:56] ओमीश Omish Ji: *🌷सूक्ति -सुधा🌷*

नदीशः परिपूर्णोsपि चन्द्रोदयमपेक्षते।
     — नदियों का स्वामी समुद्र  सम्पूर्ण होने पर  चन्द्रोदय की  अपेक्षा करता है।(समृद्ध होने पर भी समझदार मनुष्यो को अच्छे मित्र रखने चाहिए।)
[2/15, 10:08] ‪+91 99673 46057‬: राधे राधे - आज का भगवद चिंतन,
            15-02-2017
🌺        आज हमने इमारतें तो खूब ऊँची-ऊँची बना ली हैं मगर हमारा मन बहुत छोटा हो गया है। निसंदेह आज का युग एक प्रतिस्पर्धा का युग है और ऊँचे मकानों की प्रतिस्पर्धा में आज ऊँचे मानवों का निर्माण अवरूद्ध हो गया है। आज हमने घरों की दीवारें ही बड़ी नहीं कर दी हैं अपितु दिलों की दूरियाँ भी बड़ी कर ली हैं।
🌺       कैसे भी हो सुख संपदा होनी चाहिए ? भले उसके लिए हमें कितनों को भी कष्ट पहुँचाना पड़ जाये। हमारे अन्दर से आवाज आनी ही बंद हो गई कि यह गलत है और यह सही। अपने दिल को इतना बड़ा बनाओ कि उसमें अपने पराए सब समां जायें। अपने कद को इसलिए ऊँचा न बना लेना कि सब आपको देख सकें अपितु इसलिए ऊँचा बना लेना कि आप सबको देख सकें।

बहुत ही आसान है जमीं पर मकान बना लेना।
दिल में जगह बनाने में,
जिंदगी गुजर जाया करती है॥

दिल में बने रहना ही सच्ची शौहरत है।
वरना मशहूर तो,
कत्ल करके भी हुआ जा सकता है॥
[2/15, 10:27] राम भवनमणि त्रिपाठी: रामभवन मणि त्रिपाठी
गोरखपुर

राष्ट्र के शृंगार

राष्ट्र के शृंगार! मेरे देश के साकार सपनों!
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना।
जिन शहीदों के लहू से लहलहाया चमन अपना
उन वतन के लाड़लों की
याद मुर्झाने न देना।
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना।

तुम न समझो, देश की स्वाधीनता यों ही मिली है,
हर कली इस बाग़ की, कुछ खून पीकर ही खिली है।
मस्त सौरभ, रूप या जो रंग फूलों को मिला है,
यह शहीदों के उबलते खून का ही सिलसिला है।
बिछ गए वे नींव में, दीवार के नीचे गड़े हैं,
महल अपने, शहीदों की छातियों पर ही खड़े हैं।
नींव के पत्थर तुम्हें सौगंध अपनी दे रहे हैं
जो धरोहर दी तुम्हें,
वह हाथ से जाने न देना।
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना।।

देश के भूगोल पर जब भेड़िये ललचा रहें हो
देश के इतिहास को जब देशद्रोही खा रहे हों
देश का कल्याण गहरी सिसकियाँ जब भर रहा हो
आग-यौवन के धनी! तुम खिड़कियाँ शीशे न तोड़ो,
भेड़ियों के दाँत तोड़ो, गरदनें उनकी मरोड़ो।
जो विरासत में मिला वह, खून तुमसे कह रहा है-
सिंह की खेती
किसी भी स्यार को खाने न देना।
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना।।

तुम युवक हो, काल को भी काल से दिखते रहे हो,
देश का सौभाग्य अपने खून से लिखते रहे हो।
ज्वाल की, भूचाल की साकार परिभाषा तुम्हीं हो,
देश की समृद्धि की सबसे बड़ी आशा तुम्हीं हो।
ठान लोगे तुम अगर, युग को नई तस्वीर दोगे,
गर्जना से शत्रुओं के तुम कलेजे चीर दोगे।
दाँव पर गौरव लगे तो शीश दे देना विहँस कर,
देश के सम्मान पर
काली घटा छाने न देना।
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना।

वह जवानी, जो कि जीना और मरना जानती है,
गर्भ में ज्वालामुखी के जो उतरना जानती है।
बाहुओं के ज़ोर से पर्वत जवानी ठेलती है,
मौत के हैं खेल जितने भी, जवानी खेलती है।
नाश को निर्माण के पथ पर जवानी मोड़ती है,
वह समय की हर शिला पर चिह्न अपने छोड़ती है।
देश का उत्थान तुमसे माँगता है नौजवानों!
दहकते बलिदान के अंगार
कजलाने न देना।
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना।।
[2/15, 11:18] ‪+91 96859 71982‬: नापेक्षा न च दाक्षिण्यं न प्रीतिर्न च सड़्गति ।

तथापि हरते तापं लोकनामुन्नतो धनः ।।

"उसको प्रत्युपकार की इच्छा नहीं है,
उसके प्रति किसीको दक्षिण्य नहीं है,
उसका कोई स्नेही नहीं है,
उसके साथ किसीको संबंध नहीं है,

तो भी वह उन्नत मेघ लोगो के ताप को दुर करता है।"

कवि ने यहा उन्नत- महान मेघ के द्वारा समाज के प्रति अपनी कोई भी अपेक्षा रखे बिना समाज पर परोपकार करने वाले सज्जन पुरुषो-स्त्रिओ की बात की है।
🙏🏼🙏🏼🙏🏼
[2/15, 11:19] ‪+91 96859 71982‬: ब्रह्म_संहिता

अथ तैस्त्रिविधैर्वेशैर्लीलामुद्वहतः किल।
योगनिद्रा भगवती तस्य श्रीरिव संगता।।१७।।

अथ = तदनन्तर
तैः = उनके साथ
त्रि-विधैः = तीन प्रकार के
वेशैः = रूपों से
लीलाम् = लीला
उद्वहतः = करते हुए
किल = अवश्य
योग-निद्रा = योगनिद्रा
भगवती = समाधि के नित्यानंद से पूर्ण
तस्य = उनकी
श्रीः = लक्ष्मी
इव = जैसी
संगता = संग किया

तदनन्तर वही महाविष्णु भगवान, विष्णु, प्रजापति तथा शम्भु के तीनों रूपों से भौतिक ब्रह्माण्डों में प्रवेश करके पालन, सृष्टि तथा संहार की लीला करते हैं। यह लीला भौतिक जगत् में जड़-माया के अंतर्गत होती है। अतः उसको तुच्छ जानकर भगवान् के निज-सत्तारूप विष्णु अपनी चिच्छक्ति की अंशभूता स्वरूपानंद-समाधिमयी भगवती योगनिद्रा के साथ संग करना ही श्रेयस्कर समझते हैं।
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼
[2/15, 11:30] पं ज्ञानेश: ( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन ) ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्‌।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥
जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात स्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किए जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ता द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है- उस ब्रह्मकर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किए जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही हैं
॥24॥
~ अध्याय 4 - श्लोक : 24
💐💐💐सुप्रभातम्💐💐💐
[2/15, 11:34] ‪+91 90241 11290‬: ककारो नायक: कृष्ण: सच्चिदानन्दविग्रह:|
ईकार:प्रकृति"राधा" महाभावस्वरूपिणी ||
लश्चानन्दात्मक:प्रेमसुखञ्च परिकीर्तितम् |
चुम्बनाश्लेषमाधुर्यं बिन्दुनादं समीरितम् ||
[2/15, 11:56] ‪+91 8076 170 336‬: संक्षिप्त परिचय कृष्ण

अन्य नाम द्वारिकाधीश, केशव, गोपाल, नंदलाल, बाँके बिहारी, कन्हैया, गिरधारी, मुरारी आदि
अवतार सोलह कला युक्त पूर्णावतार (विष्णु)
वंश-गोत्र वृष्णि वंश (चंद्रवंश)
कुल यदुकुल
पिता वसुदेव
माता देवकी
पालक पिता नंदबाबा
पालक माता यशोदा
जन्म विवरण भादों कृष्णा अष्टमी
समय-काल महाभारत काल
परिजन रोहिणी संतान बलराम (भाई), सुभद्रा (बहन), गद (भाई)
गुरु संदीपन, आंगिरस
विवाह रुक्मिणी, सत्यभामा, जांबवती, मित्रविंदा, भद्रा, सत्या, लक्ष्मणा, कालिंदी
संतान प्रद्युम्न
विद्या पारंगत सोलह कला, चक्र चलाना
रचनाएँ गीता
शासन-राज्य द्वारिका
संदर्भ ग्रंथ महाभारत, भागवत, छान्दोग्य उपनिषद
मृत्यु पैर में तीर लगने से
यशकीर्ति द्रौपदी के चीरहरण में रक्षा करना। कंस का वध करके उग्रसेन को राजा बनाना।
[2/15, 12:05] ‪+91 94259 88411‬: स्त्रीषु नर्म विवाहे च वृत्यर्थे प्राण संकटे। गोब्राह्मणार्थे नानृतं स्यातज्जुगुप्सितम।भागवत ८/१९ /१३।             अर्थ : पत्नी से मित्रों को परिहास पर कन्या के विवाह  के लिये आजीविका मे प्राण संकट के समय गाय ब्राह्मण की रक्षा मे यदि झूंट बोलना पड़े तो वह क ई सत्यों से बढ़कर है। राजा बलि प्रसंग मे शुक्रा चार्य जी का वचन है।
[2/15, 12:05] ‪+91 94259 88411‬: ४३ वा श्लोक है१३ वा नही है।
[2/15, 12:06] ‪+91 94259 88411‬: संचित धन को५ भागो मे विभाजित करे।१धर्म में२यश मान सम्मान में ३ऐश्वर्य में ४ ईन्द्रिय तृप्ति में ५ कुटुम्बी या मित्रो के भरण पोषण मे
[2/15, 12:07] ‪+91 90241 11290‬: ८/१९/ का अन्तिमछंद हैं यह
[2/15, 12:29] राम भवनमणि त्रिपाठी: #ब्रह्ममें #शक्ति #कल्पितहै या #स्वाभाविक#
श्रीशंकराचार्यजी लिखते हैं--ब्रह्म नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव सर्व शक्तिस मन्वित है। (ब्र. सू.१-१-१)।
सर्व दर्शी चिच्छक्तिस्वभावरूपमात्र है(केन शां भा.२:४)।इत्यादि स्थलोंमें शुद्ध ब्रह्मको सर्व शक्ति समन्वित या शक्ति स्वरूँप आचार्यजीने कहाहै।एक ही शुद्ध ब्रह्मको सर्वशक्ति समन्वित (युक्क्त) कहना पुनः शक्तिरूप कहना इसका क्या अभिप्राय है?यदि शुद्ध ब्रह्म शक्तियुक्त है तो सर्वथा निर्विशेष कैसे हो सकताहै?इसके उत्तर में अद्वैत आचार्यों द्वारा यह उत्तर दिया जाताहै कि शक्ति कल्पित है स्वाभाविक नहीं।।किन्तु--
यहाँ यह प्रश्न उठताहै कि यदि शक्ति कल्पितंहै तो उसकी कल्पना किसने की?ब्रह्म से भिन्न सब कल्पित जड़ ही है ,वे कल्पना ही नहीं कर सकते।अगत्या यही कहना होगा कि ब्रह्म ने ही कल्पना की।तब ब्रह्मको कल्पनाका कर्ता अवश्य ही मानना पड़ेगा।यदि कहें कि शक्ति तो अनादि कल्पितहै,इसलिए उसकी कल्पना किसने की यह प्रश्न ही नहीं उठता ।तो यह उत्तरभी ठीक नहीं।क्योंकि जब यह पूँछा जाता कि कब कल्पना की तब यह उत्तर ठीक होता।कल्पित वस्तु चाहे सादी हो या अनादि कल्पक के विना हो नहीं सकती।यदि शक्ति मनादि कल्पितहै तो अनादि कल्पक भी होना ही चाहिए।ब्रह्मभिन्न सब सादि तथा कल्पित होनेसे कल्पक नहीं हो सकते।इसलिए अनादि ब्रह्मको ही कल्पक मानना होगा।जबकि ब्रह्म कल्पनाशक्तिसे युक्क्त ही है तो उसे सर्वथा शक्तिरहित नहीं कहा जा सकताहै।श्रुति तो ब्रह्ममें शक्ति ज्ञान बल को स्वाभाविक ही कहती है।--
परास्यशक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च(श्वे.६-८) इस लिए ब्रह्म की शक्ति ज्ञान आदि को कल्पित कहना श्रुति विरुद्ध ही है।।श्रुति से अधिक बड़ा कोई प्रमाण नहीं होता।।।  शम्।।
[2/15, 16:29] ‪+91 96859 71982‬: भक्तिं मुहुः प्रवहतां त्वयि मे प्रसङ्गो ,भूयादनन्त महताममलाशयानाम ।

येनान्जसोल्बणमुरूव्यसनं भवाब्धिं , नेष्ये भवद्गुणकथामृतपानमत्तः ।
।[श्रीमद्भागवत् 4.9.11 ]

हे अनन्त परमात्मन् , आप मुझे उन विशुद्ध ह्रदय महात्मा भक्तों का संग दीजिये ,जिनका आपमें अविच्छिन्न भक्तिभाव है ,उनके संग में मैं आपके गुणों और लीलाओ की कथा सुधा को पी पीकर उन्मत्त हो जाऊंगा और सहज ही इस अनेक प्रकार के दुखों से पूर्ण भयंकर संसार सागर के उस पार पहुँच जाऊगा ।🙏🏼🙏🏼
      🙏🏼कृष्णप्रेमी-कनिका 🙏🏼
[2/15, 16:30] ‪+91 96859 71982‬: *स्वर्गस्थितानामिह जीवलोके,
               *चत्वारि चिह्नानि वसन्ति देहे।
*दानप्रसङ्गो मधुरा च वाणी,
                *देवाऽर्चनं ब्राह्मणतर्पणं च॥

*भावार्थ*   :—  महापुरुषों की पहचान के संदर्भ में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि दानशीलता, मृदुवाणी, ईश-पूजा और विद्वान भक्ति जिस मनुष्य में इन चार गुणों का समावेश होता है, वस्तुतः उसी का मुल्यांकन महापुरुषों की श्रेणी में किया जाता है।

*ऐसे मनुष्य दानादि कर्म करने के लिए सदैव तत्पर रहते है; उसकी भाषा मृदुता से परिपूर्ण होती है; ईश्वर के प्रति उसके मन में अगाध श्रद्धा भाव होता है तथा ज्ञानवान विद्वान सदैव उससे मान-सम्मान पाते हैं।
[2/15, 17:47] ओमीश Omish Ji: शास्त्रसम्मत विवाह
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1👉 विवाह जीवन का सबसे अहम फैसला है। यह निर्णय लेना कि विवाह करना है या नहीं, यही सबसे अधिक कठिन है। वर हो या वधु, दोनों ही विवाह के लिए अंतिम समय तक मानसिक रूप से तैयार नहीं हो पाते। लेकिन फिर चाहे परिवार की ओर से दबाव हो या फिर अपनी उम्र को देखते हुए, शादी तो करनी ही पड़ती है।

2👉  अब दिमागी रूप से तैयार होने के बाद अगली चुनौती जो सामने आती है, वह है सही वर या वधु का चुनाव करना। भारतीय समाज की बात करें, तो वर का चुनाव तो उसकी खुद की एवं उसके परिवार की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति देखते हुए कर लिया जाता है। किंतु वधु का चुनाव थोड़ा संजीदा होता है।

3👉 इसके लिए कन्या के कई सारे गुणों को परखा एवं पहचाना जाता है। वैसे आज के आधुनिक युग में कन्या की खूबसूरती एवं शिक्षा दोनों को ही महत्व दिया जाता है। किंतु पहले के जमाने में कई सारे मानदण्डों को ध्यान में रखते हुए वधु का चयन किया जाता था।

4👉 ये उस जमाने के हिसाब से कई कारणों से सही भी था। क्योंकि उस समय स्त्री का गृहस्थी की ओर अधिक रुझान होता था। आज की स्त्री घर एवं बाहर, दोनों ओर अपनी पहचान बनाने में सफल है।

5👉 चलिए वर हो या वधु, इन दोनों के ही चयन के लिए हिन्दू धर्म शास्त्रों में कई सारी बातें दर्ज है। विभिन्न धार्मिक ग्रंथों एवं उपग्रंथों में कुछ मानदण्ड बताए गए हैं, जिनको आधार बनाते हुए वर-वधु को परखा जाता है। आज हम उन्हीं बातों का सार आपके समक्ष प्रस्तुत करने जा रहे हैं, जिसकी मदद से आप एक सुंदर एवं सुशील वधु का चयन कर पाएंगे।

6👉 शास्त्रों के अनुसार किस स्त्री के साथ पुरुष को भूलकर भी शारीरिक संबंध स्थापित नहीं करने चाहिए, इसकी जानकारी पाएं आगे की स्लाइड्स में....

7👉 एक पुरुष को बिना एक स्त्री से विवाह किए, उसके साथ शारीरिक संबंध नहीं बनाने चाहिए। फिर बेशक ये आपसी सम्मझौते से हो या जबर्दस्ती, अविवाहित स्त्री के साथ संबंध बनाना पाप है। यदि कोई पुरुष ऐसा करे तो उसे उसके साथ विवाह भी करना चाहिए।

8👉 एक पुरुष को गलती से भी एक विधवा स्त्री के करीब नहीं जाना चाहिए, अर्थात् उसके साथ शारीरिक रूप से संपर्क ना साधें। यदि वह उससे विवाह कर ले, तो उसके बाद ही ऐसी स्त्री के साथ संबंध बनाए जा सकते हैं।

9👉 कभी भूलकर भी ऐसी स्त्री जो कठोर तपस्या में लीन हो या पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन कर रही हो, उस उसके मार्ग से हटाना नहीं चाहिए। ऐसी स्त्री के साथ शारीरिक संबंध बनाने से ना केवल उसकी तपस्या भंग होती है, साथ ही पुरुष के सिर पर भी महापाप का भार आ जाता है।

10👉 अपने दोस्त की पत्नी पर बुरी नजर रखना या दोस्त की पीठ पीछे उसकी पत्नी के साथ शारीरिक संबंध स्थापित करना, यह पाप के समान है। ऐसी स्त्री को सम्मान की नजरों से देखना चाहिए।

11👉 शास्त्रों के अनुसार दुश्मन की पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाना या उसके साथ किसी भी प्रकार का संपर्क तक साधना एक पाप है। ऐसी स्त्री को पूर्ण रूप से नजरअंदाज करना ही सही है। ऐसी स्त्री नुकसान का कारण भी बन सकती है।

12👉 ओहदे में खुद से नीचे की या खुद के शिष्य की पत्नी के साथ कभी शारीरिक संबंध नहीं बनाने चाहिए। यह शास्त्रों में उल्लिखित महापापों में से एक महापाप माना जाता है।

13 अपने ही परिवार की किसी स्त्री के साथ शारीरिक संबंध बनाना शास्त्रों की दृष्टि से बेहद गलत है। इन स्त्रियों के साथ खून का रिश्ता होता है, इसलिए इनके साथ इस तरह का संबंध बनाना महापाप कहलाता है।

14👉 प्राचीन समय की बात हो, या फिर आज के युग की, वेश्याओं को कभी सही नहीं समझा गया। शास्त्रों के अनुसार ऐसी स्त्री, जो धन के लिए अपना मान-सम्मान त्याग कर ‘शरीर बेचने’ को तैयार हो जाए, उसके साथ शारीरिक संबंध बनाना महापाप है।

15👉 कभी भी नशे का शिकार हुई स्त्री के करीब नहीं जाना चाहिए। या जो स्त्री किसी कारण से अपने होश में ना हो, ऐसी स्त्री के साथ शारीरिक संबंध नहीं बनाना चाहिए। उसके नशे में या बेहोश होने का फायदा उठाने वाला पुरुष महापापी कहलाता है।

16👉 खुद से उम्र में बड़ी स्त्री के साथ शारीरिक संबंध बनाना शास्त्रों की राय में गलत है। एक पुरुष को कभी भी ऐसी स्त्री को अपने प्रति आकर्षित करने का पाप नहीं करना चाहिए।

17👉 गुरु, शिक्षक, निर्देशक, ये हमारे लिए क्या अहमियत रखते हैं यह तो वही जानता है जिसने सच्चे मन से इन्हें माना हो। लेकिन कुछ पापी लोग ऐसे ज्ञानी लोगों की पत्नी पर बुरी नजर रखते हैं। उनके उकसाकर या गलत तरीके से उनके साथ शारीरिक संबंध बनाना महापाप है।

18👉 अपनी ही पत्नी की मां को ‘मां’ ही मानना चाहिए, उसके लिए मां की बजाय शारीरिक आकर्षण जैसी भावना रखना दुष्ट पापियों जैसी प्रवृत्ति होती है। ऐसी स्त्री से शारीरिक संबंध बनाने की कभी भी भूल नहीं करनी चाहिए।

19👉 मासी यानी, मां के जैसी, जो स्त्री मां के जैसी कहलाने वाली होती है उसके साथ कोई शारीरिक संबंध बनाने की सोच भी कैसे सकता है? ऐसा पाप करने वाले पुरुष को मरने के बाद भयानक दण्ड प्राप्त होता है।

20👉 मामा की पत्नी यह स्त्री भी मां का दर्जा पाने लायक ही होती है। इसके साथ शारीरिक संबंध बनाना या फिर इसे बुरी नजर से देखना भी, महापाप है।

21👉 चाचा की पत्नी अपने खुद के परिवार के मां के बाद यदि हमारा सबसे अधिक कोई ख्याल रखती है, तो वह हमारे चाचा की पत्नी, यानी चाची होती है। इस स्त्री को मां का दर्जा देना चाहिए। इसके साथ शारीरिक संबंध बनाने की सोचने वाला इंसान भी पापी है।

22👉 बहन कहना तो नहीं चाहिए, लेकिन आज के युग यानी कलियुग में ऐसी कई राक्षस भाई घूम रहे हैं, जो अपनी हवस बुझाने के लिए अपनी बहन को भी अपना शिकार बना लेते हैं। ऐसे लोग मरने के बाद भयानक दण्ड को पाते हैं।

23👉 गर्भवती स्त्री जो स्त्री एक रूह को जन्म देने वाली है, उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने वाला इंसान, मनुष्य कहलाने लायक नहीं है। स्वयं उसके पति को भी इस दौरान, अपनी पत्नी के करीब नहीं जाना चाहिए।

24👉  अनजान स्त्री एक व्यक्ति को अपनी पत्नी से प्रेम करना चाहिए और उसे ही अपने करीब आने का हक़ प्रदान करना चाहिए। किसी अनजान के करीब जाना या स्वयं उसे ही ऐसा करने की अनुमति देना, शास्त्रों की दृष्टि से गलत है।

25👉  दोषपूर्ण स्त्री इसका मतलब है जिस स्त्री ने पाप किए हों या किसी अपराध के चलते दोषी मानी गई हो, ऐसी स्त्री के साथ शारीरिक संबंध नहीं बनाने चाहिए।

26👉 एक और बात...ध्यान रहे कि निषिद्ध या वर्जित इन कामों को करने वाला इंसान मनुष्य की श्रेणी खो बैठता है तथा मनुष्य शरीर में मौज़ूद ऐसा नराधम क्रूरतम दण्ड का भागी बनता है। ऐसे निंदित मनुष्य़ का इहलोक और परलोक दोनों बिगड़ता है। ऐसे पापियों को मिलने वाली सज़ाओं का वर्णन कई पुराणों और स्मृतियों में मिलता है।
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[2/15, 23:06] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: सच्चे सुख की कामना करने वाले को अपने अन्तःकरण का आधार लेना चाहिए। सच्चे सुख का निवास मनुष्य के अन्तःकरण में ही है। यदि मनुष्य का अन्तःकरण अवाँछनीय भावनाओं से अस्वस्थ है तो सुख के हजार साधन उपलब्ध रहने पर भी सुख का अंश मात्र भी प्राप्त होना असम्भव है।
जो मनीषी अपने अन्तःकरण को राग-द्वेष, क्रोध और मोह के विष बाणों से प्रभावित नहीं होने देता वह त्रिकालदर्शी बन जाता है। उसका अन्तःकरण एक ऐसे चमत्कारी दर्पण की भाँति सक्षम हो जाता है जिसमें भूत, भविष्यत्, वर्तमान स्वयं प्रतिबिम्बित होते रहते हैं।
जिस प्रकार दीपक स्वयं प्रकाशित होने के साथ-साथ अन्य दूसरी वस्तुओं को भी आलोकित एवं प्रत्यक्ष करता है, उसी प्रकार निर्विकार अन्तःकरण स्वयं प्रकाशित होकर संसार के सम्पूर्ण देशकाल को भी प्रत्यक्ष कर देता है। निर्मल अन्तःकरण में जब जो कुछ भी प्रतिबिम्बित होता है, वह सत्य होता है और विश्वास करने योग्य होता है।

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