Friday, March 3, 2017

धर्मार्थ वार्ता

[2/13, 07:47] ‪+91 99773 99419‬: *🔔मूल श्लोकः 🔔*
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।२. ३।।
*🏹पदच्छेदः........*
क्लैब्यम्, मा, स्म, गमः, पार्थ, न एतत्, त्वयि, उपपद्यते।
क्षुद्रम्, हृदयदौर्बल्यम्, त्यक्त्वा, उत्तिष्ठ, परन्तप।।
*🌹पदपरिचयः......🌹*
क्लैब्यम्—अ.नपुं.द्वि.एक.
मा —अव्ययम्
स्म—अव्ययम्
गमः —गम्-कर्तरि लुङ्. मपु. एक.
पार्थ —अ. पुं. सम्बो. एक.
न —अव्ययम्
त्वयि—युष्मद्-द. सर्व.स.एक.
उपपद्यते —उप+पद्-आत्म.कर्तरि लट् प्रपु.एक
क्षुद्रम्—अ.नपुं.द्वि.एक.
हृदयदौर्बल्यम्—अ.नपुं.द्वि.एक.
त्यक्त्वा—क्वान्तम् अव्ययम्
उत्तिष्ठ—उद्+स्था-पर.कर्तरि लोट्.मपु.एक.
परन्तप—अ.पुं.सम्बो.एक.
*🌷पदार्थः...... 🌷*
पार्थ—हे अर्जुन!
क्लैब्यम् —नपुंसकत्वम्
मा स्म गमः —मा प्राप्नुहि
त्वयि—भवति
एतत्—इदम्
न उपपद्यते—न युज्यते
परन्तप— शत्रुपीडक!(अर्जुन)
क्षुद्रम्—तुच्छम्
हृदयदौर्बल्यम्—चित्तवैक्लव्यम्
त्यक्त्वा—विसृज्य
उत्तिष्ठ—सन्नध्दो भव।
*🌻अन्वयः 🌻*
हे पार्थ! ईदृशं क्लैब्यं मा स्म गमः। त्वयि एतत् न उपपद्यते। परन्तप! क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वा उत्तिष्ठ।
*🐚आकाङ्क्षाः🐚*
_मा स्म गमः।_
किं मा स्म गमः?
*क्लैब्यं मा स्म गमः।*
_(यतः) न उपपद्यते।_
किं न उपपद्यते?
*एतत् न उपपद्यते।*
कस्मिन् एतत् न उपपद्यते?
*त्वयि एतत् न उपपद्यते।*
_(अतः)परन्तप! उत्तिष्ठ।_
किं कृत्वा उत्तिष्ठ?
*त्यक्त्वा उत्तिष्ठ।*
किं त्यक्त्वा उत्तिष्ठ?
*हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वा उत्तिष्ठ।*
कीदृशं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वा उत्तिष्ठ?
*क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वा उत्तिष्ठ।*
💥अस्मिन् श्लोके सम्बोधनपदे के? *—अर्जुन। परन्तप।*
*📢 तात्पर्यम्......*
हे अर्जुन! नपुसक्त्वं मा प्राप्नुहि। वीरस्य तव एतत् न युज्यते। एतादृशं तुच्छं चित्तवैक्लव्यं त्यक्त्वा युद्धार्थं सन्नध्दो भव।
*🌻व्याकरणम्.......*
▶सन्धिः
नैतत् —न + एतत् — वृद्धिसन्धिः।
त्वय्युपपद्यते — त्वयि + उपपद्यते—यण् सन्धिः।
त्यक्तोत्तिष्ठ — त्यक्त्वा + उत्तिष्ठ — गुणसन्धिः।
▶ समासः
हृदयदौर्बल्यम्— हृदयस्य दौर्बल्यम् — षष्ठीतत्पुरुषः।
▶ कृदन्तः
त्यक्त्वा—त्यज् + क्त्वा।
▶ तद्धितान्तः
क्लैब्यम् — क्लीब + ष्यञ् (भावे)। क्लीबस्य भावः इत्यर्थः।
दौर्बल्यम् — दुर्बल+ ष्यञ् (भावे)। दुर्बलस्य भावः इत्यर्थः।
🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹
                                  *गीताप्रवेशात्*
[2/13, 07:47] राम भवनमणि त्रिपाठी: रामभवन मणि त्रिपाठी
गोरखपुर

द्वितीयं प्रकरणं पराशक्तिस्कन्धरश्मि श्रीमद्रश्मिप्रभावं त्रिभुवनभवनव्यञ्जकस्वात्मदीपं को वा वक्तुं निरुक्त्या प्रभवति यतधीरात्तसम्यग्विमर्शः यत्र ब्रह्मादिविद्वन्मतिरपि विगतिर्याति भीत्या विनाशं श्रुत्या सार्धं स केन प्रविततमतिना वर्ण्यते ते महेश ॥ १॥ षण्णामप्यन्वयानां क्षितिजलदहनस्पर्शनाकाशचेतः- पीठस्थानां पराद्याः परशिव भवतः शक्तयो मातृकान्ताः । ब्रह्मादिप्रेतसिंहासनगतविभवैस्तावकीयैः षडङ्गैः द्वात्रिंशद्रश्मिमुख्याः स्वकिरणकरणव्याप्तविश्वैर्विभान्ति ॥ २॥ बुद्धेः सम्यग्विमर्शप्रकटितसरणेरर्थवद्वाक्प्रवृतेः यत्र स्थाने तुरीये नवकलितमहावाक्यतत्त्वे विनाशः । तत्किं ज्योतिस्तमो वा सदसदुभयगं किन्न्वमूर्तं नु मूर्तं निर्धारश्चेद्विनाशो न हि मतिवचसां देव तस्मात्परस्त्वम् ॥ ३॥ ज्ञानं योगः प्रकाशो विधिरुभयमतिर्देहधीः प्राणशून्या- हङ्कारश्चाधिकामः स्वविषयमनघं चाश्रयन्नन्तरास्ते । इत्यात्माकाशसत्ता तव परिविदिता सम्यगेतत्प्रमेया- धारेष्वन्तर्घृतं यत्पयसि तिलचये तैलवद्भासि हीश ॥ ४॥ षट्त्रिंशत्तत्त्वपुष्पस्तबकपरिमलस्तावकीयः स तेजः- कल्पद्रुश्चेत्प्रबुद्धः शिवगुरुवचसा सर्वतः स्वानुभूतः । अद्वैतब्रह्मबुद्धिं जनयति विदुषामेष एवास्मदादि- ब्रह्मान्तात्मप्रपञ्चे विलसति न परोऽस्तीति चेत्पारिजातः ॥ ५॥ स्वप्रत्यक्षेऽपि तत्त्वे करतलफलवद्वेत्ति नासौ स्वरूपं नानासिद्धान्तजालप्रलपितजनिताज्ञानमोहान्धकारैः । आक्रान्तः पुण्यपापैरधिगतनिधनैरात्मकर्मण्यनादौ हेयोपादेयबुद्ध्या भव इति विहितस्ते महामाययेश ॥ ६॥ एकोऽसौ लक्षणैश्चेदखिलतनुगतैरिन्द्रियार्थैरनेकैः भिन्नः स्वात्मप्रकृत्या विधिजनिमृतिभिः सन्निबद्धः किमेतत् । देवत्वं मानुषत्वं वपुषि मुजगतां सर्वजीवात्मकत्वं धत्से शैलूषवत्ते स्मरति न तु पदं श्रीमहादेवमूर्ते ॥ ७॥ इति श्रीदूर्वासकृतपरशम्भुमहिम्नस्तवे पराशक्तिस्कन्धरश्मिप्रकरणं द्वितीयम्
[2/13, 07:56] ‪+91 97586 40209‬: हमारी भारत भूमि योगी ,तपस्वी  ज्ञानीयो की है इसका भोतिकता से विकास नही आध्यात्मिकता से होगा ।अगर भौतिकता से प्राणी सुखी होते तो, विकसित देश सुखी होते ? पर वो यहाँ  भारत में आकर शान्ति सुख चाहते है । अतः भारत का विकास धर्म की जड( गाय , बाह्मण , साधु , देवता , वेद ) भारतीय  संस्कृति की रक्षा करने से होगी  ।।।
भारतीय संस्कृति - वेद अनुमोदित वर्णाश्रमोचित धर्मानुसार आचार-बिचार , आहार - बिहार , लग्न -बिबाह ,पाठन-पाठन,बेषभूषा , पूजा-पाठ , भाषा, देव-पुजन आदि आदि हो  ।यही हमारी  भारतीय संस्कृति है ।।
                दण्डी  स्वामी
[2/13, 08:09] राम भवनमणि त्रिपाठी: रामभवन मणि त्रिपाठी
गोरखपुर

गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानत: ।
उत्पथं प्रातिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनम् ॥

महाभारत

आदरणीय तथा श्रेष्ठ व्यक्ति यदी व्यक्तीगत अभिमान के कारण धर्म और अधर्म में भेद करना भूल गए या फिर गलत मार्ग पर चले तो ऐसे व्यक्ति को शासन करना न्याय ही है ।
[2/13, 08:17] पं अर्चना जी: दरवाज़ों पे खाली तख्तियां अच्छी नहीं लगती,
मुझे उजड़ी हुई ये बस्तियां अच्छी नहीं लगती !

चलती तो समंदर का भी सीना चीर सकती थीं,
यूँ साहिल पे ठहरी कश्तियां अच्छी नहीं लगती !

खुदा भी याद आता है ज़रूरत पे यहां सबको,
दुनिया की यही खुदगर्ज़ियां अच्छी नहीं लगती !

उन्हें कैसे मिलेगी माँ के पैरों के तले जन्नत,

जिन्हें अपने घरों में बच्चियां अच्छी नहीं लगती !

डालते हैं दूसरों की लाज पर नजर,
राह चलते फब्तियाँ अच्छी नहीं लगतीं

आचरण करतें बाहर सम्मान देने का
घरमें उनको ही पत्नियाँ अच्छी नहीं लगतीं।।

है उन्हीं को अपनी ही रुसवाइयों का खौफ़,
बात बस इतनी सी है कि  खुली खिड़कियां अच्छी नहीं लगती!!
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
🌹🌹🌹ॐ शिवः हरिः सादर शुप्रभात  प्रणाम🌹🌹🌹👏🏻
[2/13, 08:46] ‪+91 98895 15124‬: *मानव कितने भी प्रयत्न कर ले* 
            *अंधेरे में छाया*
            *बुढ़ापे में काया*
                    *और*
          *अंत समय मे माया*
       *किसी का साथ नहीं देती*
  🌾🌿🌾🌿🌾✍🌾🌿🌾
 
: ❥━━❥
कर्म करो तो फल मिलता है,
       आज नहीं तो कल मिलता है।
जितना गहरा अधिक हो कुँआ,
        उतना मीठा जल मिलता है ।
जीवन के हर कठिन प्रश्न का,
        जीवन से ही हल मिलता है।
                ¸.•*""*•.¸
         🌹🎁🌹🎁🌹
      ""शुभ प्रभात""
🙏🙏🙏🙏
[2/13, 08:47] पं ज्ञानेश: तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्‌।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु॥
वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाववाला है- वह सब संक्षेप में मुझसे सुन
॥3॥
~ अध्याय 13 - श्लोक : 3

💐💐💐सुप्रभातम्💐💐💐
[2/13, 09:15] ‪+91 90241 11290‬: योगीन्द्रैरमलैर्बुधैश्च रसिकैर्ब्रह्मेन्द्ररुद्रैर्मुदा,
नानामन्दविकत्थनै:श्रुतियुतैस्तोष्टूयते य: सदा |
पाषाणो$पि जलीकृता रविसुता मन्दीकृता वेणुना,
स:कृष्णो$पि वशीकृतो वद मनुं राधे त्वया किं कृतम् ||
योगियो के द्वारा,अमलात्माओ,महात्माओ द्वारा,विद्वानों,रसिको द्वारा,ब्रह्मा जी,इन्द्र और साक्षात् शिव जी के द्वारा नाना प्रकार की अमन्द वेद ऋचाओं के,स्तोत्रों के गान द्वारा जो सदा बार बार पूजा जाता है,जिसके वेणुनाद को सुनकर पत्थर भी मानो पिघलकर के बहने लगे है,और बहती हुई कमनीय कालिन्दी(यमुना) जी का कलरव भी थम गया है,उनकी गति भी मन्द हो गई हैं,ऐसा वह कृष्ण भी तेरे वशीभूत हो गया,हे राधे तूने ऐसा क्या किया ? मुझ मनु(मनोज को) भी बता
मनोजकुमारशर्मा🙏🏻
[2/13, 09:34] पं अलोपी: *कर्म*

       *कर्म* की थप्पड़ इतनी भारी और भयंकर होती है कि - हमारा संचित पुण्य कब जीरो बेलेन्स हो जाए पता भी नहीं चलता है । पुण्य खत्म होने बाद समर्थ सम्राट को भी भीख मांगनी पड़ती है । इसलिए जब तक पंचेन्द्रिय सही सलामत है.....! स्वास्थ्य अच्छा है,... ! बुढ़ापा दस्तक न दे..... उससे पहले सत्कर्म करके पुण्योपार्जन कर लीजिए ।
       जीवन का कटू सत्य है...... *"कर्म"* एक ऐसा रेस्टॉरेंट है जहाँ ऑर्डर देने की जरुरत नहीं है, हमें वही मिलता है जो हमने बोया है....!!  🙏🏻🌞🙏🏻
[2/13, 10:40] राम भवनमणि त्रिपाठी: "शंकर और राम" अर्थात्‌

*'मायाविशिष्ट ईश्वर' और 'अज्ञानउपहित ब्रह्म'*

"भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वाश रूपिणौ।"

भवानी को 'विश्वास' था कि शंकरजी ही ईश्वर हैं, इस विश्वास के कारण उनके मुंह से निकले शब्दों पर उनकी 'श्रद्धा' भी थी,,, भले ही वह मति अनुसार गलत लगे।

  सीता के वियोग में पागलों की तरह हद से जादा दुखी 'राम' को 'ब्रह्म' कहकर जब शंकर ने दूर से उन्हें प्रणाम किया तो,,, तो स्वभाविक था कि इस बात को भवानी समझ नहीं पाईं !,,,,,,

"ईश्वर के शब्दों को वेद कहते हैं";;  विश्वास करने वाली बुद्धि जब श्रुति से 'तत्त्वमसि' महावाक्य का श्रवण करती है, तो स्वभाविक है उसे भी यह बात गलत ही लगती है,  की एक संसारी मनुष्य को ब्रह्म कैसे कहा गया ? ???  लेकिन यह बात वेद वाक्य है जो ईश्वर के मुख से निकली है, ,, इसलिए झूठ भी नहीं हो सकती, ,, यह श्रद्धा बुद्धि में संषय को जन्म देती है,,,, संषय का समाधान वास्तविकता को जाने बिना होता नहीं असंभव है,  इसलिए परिक्षण आवश्यक हो जाता है।   "श्रद्धावानं लभते ज्ञानं"।  यदि भवानी शंकरजी की बात को गलत कहकर हवा में उड़ा देतीं;  की "भंग ज्यादा चढ़ गई है इसलिए अनाप शनाप बक रहे होंगे, तो वे राम की परिक्षा नहीं लेतीं।" इसे श्रद्धा का अभाव कहते हैं। लेकिन भवानी श्रद्धा का अवतार हैं; अत: गलत लगने वाली बात पर भी थोड़ी देर के लिये विश्वास करती है, और इसीलिए परिक्षण भी करती हैं। और परिक्षण बाद ही सही या गलत का ज्ञानलाभ करती है।
परिक्षण का परिणाम यह होता है कि संशयात्मिका बुद्धि अपने पिता के हवन कुंड में जलकर राख हो जाती है और विवेक के रूप मे पुनर्जन्म होता है जो 'रामकथा' सुनने का अधिकारी है। रामायण ही वह कथा है जिसे शंकर ने पार्वती को सुनाया।
जिसका आरंभ भरद्वाज मुनी के प्रश्न से होता है,  जो उन्होंने श्रोत्रिय ब्रहमनिषठ गुरु याज्ञवल्क्य से पूछा था;

नाथ एक संशऊ बड़ मोरे, करगत वेदतत्व सब तोरे।
अस विचारि प्रगटऊं निज मोहू, हरहु नाथ करि जन पर छोहू।

एकराम अवधेश कुमारा।तिन्हकर चरित विदित संसारा।
नारि विरह दुख लहेऊ अपारा, भयउ रोष रन रावनु मारा।

प्रभु सोई राम कि अपर कोऊ, जाहि जपत त्रिपुरारि।
सत्य धाम सर्वग्य  तुम्ह कहहु विवेकु विचारि।

*(रामचरितमानस)*
[2/13, 11:06] पं अर्चना जी: दरवाज़ों पे खाली तख्तियां अच्छी नहीं लगती,

मुझे उजड़ी हुई ये बस्तियां अच्छी नहीं लगती !

चलती तो समंदर का भी सीना चीर सकती थीं,

यूँ साहिल पे ठहरी कश्तियां अच्छी नहीं लगती !

खुदा भी याद आता है ज़रूरत पे यहां सबको,

दुनिया की यही खुदगर्ज़ियां अच्छी नहीं लगती !

उन्हें कैसे मिलेगी माँ के पैरों के तले जन्नत,

जिन्हें अपने घरों में बच्चियां अच्छी नहीं लगती !
***************************

डालते हैं दूसरों की लाज पर नजर,

राह चलते फब्तियाँ अच्छी नहीं लगतीं!

आचरण करतें बाहर सम्मान देने का,

घरमें उनको ही पत्नियाँ अच्छी नहीं लगतीं।।

है उन्हीं को अपनी ही रुसवाइयों का खौफ़

बात बस इतनी सी है  खुली खिड़कियां अच्छी नहीं लगती!!

पूजतें फिरतें हैं यहाँ मूर्तियों को लोग,

प्रतिमूर्तियाँ स्वरुप जीवित देवियाँ अच्छी नहीं लगतीं।

मत करो अब शोर ,झूठे पाखण्ड का ये ढोंग,

कानों में अब तुम्हारी घंटियाँ अच्छी नहीं लगती!!

🌹🌹🌹ॐ शिवः हरिः सादर शुप्रभात नमस्कार 🌹🌹🌹👏🏻
[2/13, 11:07] ‪+91 97586 40209‬: 🌹अपने धर्म का पालन दूसरे धर्मों का आदर 🌹

जो मनुष्य जिस धर्म संस्कृति में पैदा हुआ है , यदि अपने धर्म ग्रन्थो का गुरूजनो से गहन अध्ययन करता है ,तो वह कभी  भी अपने धर्म का त्याग नही करेगा , न  दूसरों के धर्मों की निन्दा करके भय, लोभ प्रताडना से अपना धर्म स्वीकार करायेगा ।
क्योकि हिन्दू , मुसलमान , सिख , ईसाई , जैन , बौद्ध , यहूदी आदि सभी के धर्म ग्रन्थो में अहिंसा ,प्रेम, दया , भाईचारा , दूसरों के सम्मान की रक्षा आदि आदि लिखा है ।
अतः सभी धर्मों के धर्मगुरु तथा धार्मिक संस्था चलाने भाईयों अपने -अपने  धर्म भाईयों को धर्मग्रन्थ पढाये , अपने धर्म का पालन दुसरो का  आदर करे , न कि दुसरे धर्मों कि निदा करके वैस्यमनता फैला कर अशांत करे ।
तभी परम पावनदेवभूमि भारत में सभी सुख शान्ति से रह सकते है ।
       आप सबकी आत्मा
            श्री दण्डी स्वामी बिरजेश्वराश्रम जी महाराज ।
[2/13, 12:19] ‪+91 81093 29976‬: राधे राधे-आज का भगवद चिन्तन,
             13-02-2017
  🌺     बुरा करना ही गलत नहीं है अपितु बुरा सुनना भी गलत है। अतः बुरा करना घातक है और बुरा सुनना पातक (पाप) है। प्रयास करो दोनों से बचने का।
🌺   विचारों का प्रदूषण वो प्रदूषण है जिसे मिटाना विज्ञान के लिए भी संभव नही है। इसका कारण हमारी वो आदतें हैं जिन्हें किसी की बुराई सुनने में रस आने लगता है। बुराई को सुनना, बुराई को चुनना जैसा ही है।
🌺      जो हम रोज सुनते हैं, देखते हैं , वही हम भी होने लग जाते हैं। अतः उन लोगों से अवश्य ही सावधान रहने की जरुरत है जिन्हें दूसरों की बुराई करने का शौक चढ़ गया हो।

जैसा करोगे संग- बैसा चढ़ेगा रंग।
तजौ रे मन हरि विमुखन को संग।
जिनके संग कुमति मति उपजे,
परत भजन में भंग।
[2/13, 13:20] ‪+91 96859 71982‬: 💗🌏बावन शक्ति पीठ🌏💗
1.हिंगलाज
हिंगुला या हिंगलाज शक्तिपीठ जो कराची से 125 किमी उत्तर पूर्व में स्थित है, जहाँ माता का ब्रह्मरंध (सिर) गिरा था। इसकी शक्ति- कोटरी (भैरवी-कोट्टवीशा) है और भैरव को भीमलोचन कहते हैं।

2.शर्कररे (करवीर)
पाकिस्तान में कराची के सुक्कर स्टेशन के निकट स्थित है शर्कररे शक्तिपीठ, जहाँ माता की आँख गिरी थी। इसकी शक्ति- महिषासुरमर्दिनी और भैरव को क्रोधिश कहते हैं।

3.सुगंधा- सुनंदा
बांग्लादेश के शिकारपुर में बरिसल से 20 किमी दूर सोंध नदी के किनारे स्थित है माँ सुगंध, जहाँ माता की नासिका गिरी थी। इसकी शक्ति है सुनंदा और भैरव को त्र्यंबक कहते हैं।

4.कश्मीर- महामाया
भारत के कश्मीर में पहलगाँव के निकट माता का कंठ गिरा था। इसकी शक्ति है महामाया और भैरव को त्रिसंध्येश्वर कहते हैं।

5.ज्वालामुखी- सिद्धिदा (अंबिका)
भारत के हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा में माता की जीभ गिरी थी, उसे ज्वालाजी स्थान कहते हैं। इसकी शक्ति है सिद्धिदा (अंबिका) और भैरव को उन्मत्त कहते हैं।

6.जालंधर- त्रिपुरमालिनी
पंजाब के जालंधर में छावनी स्टेशन के निकट देवी तलाब जहाँ माता का बायाँ वक्ष (स्तन) गिरा था। इसकी शक्ति है त्रिपुरमालिनी और भैरव को भीषण कहते हैं।

7.वैद्यनाथ- जयदुर्गा
झारखंड के देवघर में स्थित वैद्यनाथधाम जहाँ माता का हृदय गिरा था। इसकी शक्ति है जय दुर्गा और भैरव को वैद्यनाथ कहते हैं।

8.नेपाल- महामाया
नेपाल में पशुपतिनाथ मंदिर के निकट स्‍थित है गुजरेश्वरी मंदिर जहाँ माता के दोनों घुटने (जानु) गिरे थे। इसकी शक्ति है महशिरा (महामाया) और भैरव को कपाली कहते हैं।

9.मानस- दाक्षायणी
तिब्बत स्थित कैलाश मानसरोवर के मानसा के निकट एक पाषाण शिला पर माता का दायाँ हाथ गिरा था। इसकी शक्ति है दाक्षायनी और भैरव अमर हैं।

10.विरजा- विरजाक्षेत्र
भारतीय प्रदेश उड़ीसा के विराज में उत्कल स्थित जगह पर माता की नाभि गिरी थी। इसकी शक्ति है विमला और भैरव को जगन्नाथ कहते हैं।

11.गंडकी- गंडकी
नेपाल में गंडकी नदी के तट पर पोखरा नामक स्थान पर स्थित मुक्तिनाथ मंदिर, जहाँ माता का मस्तक या गंडस्थल अर्थात कनपटी गिरी थी। इसकी शक्ति है गण्डकी चण्डी और भैरव चक्रपाणि हैं।

12.बहुला- बहुला (चंडिका)
भारतीय प्रदेश पश्चिम बंगाल से वर्धमान जिला से 8 किमी दूर कटुआ केतुग्राम के निकट अजेय नदी तट पर स्थित बाहुल स्थान पर माता का बायाँ हाथ गिरा था। इसकी शक्ति है देवी बाहुला और भैरव को भीरुक कहते हैं।

13.उज्जयिनी- मांगल्य चंडिका
भारतीय प्रदेश पश्चिम बंगाल में वर्धमान जिले से 16 किमी गुस्कुर स्टेशन से उज्जय‍िनी नामक स्थान पर माता की दायीं कलाई गिरी थी। इसकी शक्ति है मंगल चंद्रिका और भैरव को कपिलांबर कहते हैं।

14.त्रिपुरा- त्रिपुर सुंदरी
भारतीय राज्य त्रिपुरा के उदरपुर के निकट राधाकिशोरपुर गाँव के माताबाढ़ी पर्वत शिखर पर माता का दायाँ पैर गिरा था। इसकी शक्ति है त्रिपुर सुंदरी और भैरव को त्रिपुरेश कहते हैं।

15.चट्टल - भवानी
बांग्लादेश में चिट्टागौंग (चटगाँव) जिला के सीताकुंड स्टेशन के निकट ‍चंद्रनाथ पर्वत शिखर पर छत्राल (चट्टल या चहल) में माता की दायीं भुजा गिरी थी। इसकी शक्ति भवानी है और भैरव को चंद्रशेखर कहते हैं।

16.त्रिस्रोता- भ्रामरी
भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी के बोडा मंडल के सालबाढ़ी ग्राम स्‍थित त्रिस्रोत स्थान पर माता का बायाँ पैर गिरा था। इसकी शक्ति है भ्रामरी और भैरव को अंबर और भैरवेश्वर कहते हैं।

17.कामगिरि- कामाख्‍या
भारतीय राज्य असम के गुवाहाटी जिले के कामगिरि क्षेत्र में स्‍थित नीलांचल पर्वत के कामाख्या स्थान पर माता का योनि भाग गिरा था। इसकी शक्ति है कामाख्या और भैरव को उमानंद कहते हैं।

18.प्रयाग- ललिता
भारतीय राज्य उत्तरप्रदेश के इलाहबाद शहर (प्रयाग) के संगम तट पर माता की हाथ की अँगुली गिरी थी। इसकी शक्ति है ललिता और भैरव को भव कहते हैं।

19.जयंती- जयंती
बांग्लादेश के सिल्हैट जिले के जयंतीया परगना के भोरभोग गाँव कालाजोर के खासी पर्वत पर जयंती मंदिर जहाँ माता की बायीं जंघा गिरी थी। इसकी शक्ति है जयंती और भैरव को क्रमदीश्वर कहते हैं।

20.युगाद्या- भूतधात्री
पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिले के खीरग्राम स्थित जुगाड्‍या (युगाद्या) स्थान पर माता के दाएँ पैर का अँगूठा गिरा था। इसकी शक्ति है भूतधात्री और भैरव को क्षीर खंडक कहते हैं।

21.कालीपीठ- कालिका
कोलकाता के कालीघाट में माता के बाएँ पैर का अँगूठा गिरा था। इसकी शक्ति है कालिका और भैरव को नकुशील कहते हैं।

22.किरीट- विमला (भुवनेशी)
पश्चिम बंगाल के मुर्शीदाबाद जिला के लालबाग कोर्ट रोड स्टेशन के किरीटकोण ग्राम के पास माता का मुकुट गिरा था। इसकी शक्ति है विमला और भैरव को संवर्त्त कहते हैं।

23.वाराणसी- विशालाक्षी
उत्तरप्रदेश के काशी में मणि‍कर्णिक घाट पर माता के कान के मणिजड़ीत कुंडल गिरे थे। इसकी शक्ति है विशालाक्षी‍ मणिकर्णी और भैरव को काल भैरव कहते हैं।

24.कन्याश्रम- सर्वाणी
कन्याश्रम में माता का पृष्ठ भाग गिरा था। इसकी शक्ति है सर्वाणी और भैरव को निमिष कहते हैं।

25.कुरुक्षेत्र- सावित्री
हरियाणा के कुरुक्षेत्र में माता की एड़ी (गुल्फ) गिरी थी। इसकी शक्ति है सावित्री और भैरव है स्थाणु।

26.मणिदेविक- गायत्री
अजमेर के निकट पुष्कर के मणिबन्ध स्थान के गायत्री पर्वत पर दो मणिबंध गिरे थे। इसकी शक्ति है गायत्री और भैरव को सर्वानंद कहते हैं।

27.श्रीशैल- महालक्ष्मी
बांग्लादेश के सिल्हैट जिले के उत्तर-पूर्व में जैनपुर गाँव के पास शैल नामक स्थान पर माता का गला (ग्रीवा) गिरा था। इसकी शक्ति है महालक्ष्मी और भैरव को शम्बरानंद कहते हैं।

28.कांची- देवगर्भा
पश्चिम बंगाल के बीरभुम जिला के बोलारपुर स्टेशन के उत्तर पूर्व स्थित कोपई नदी तट पर कांची नामक स्थान पर माता की अस्थि गिरी थी। इसकी शक्ति है देवगर्भा और भैरव को रुरु कहते हैं।

29.कालमाधव- देवी काली
मध्यप्रदेश के अमरकंटक के कालमाधव स्थित शोन नदी तट के पास माता का बायाँ नितंब गिरा था जहाँ एक गुफा है। इसकी शक्ति है काली और भैरव को असितांग कहते हैं।

30.शोणदेश- नर्मदा (शोणाक्षी)
मध्यप्रदेश के अमरकंटक स्थित नर्मदा के उद्गम पर शोणदेश स्थान पर माता का दायाँ नितंब गिरा था। इसकी शक्ति है नर्मदा और भैरव को भद्रसेन कहते हैं।

31.रामगिरि- शिवानी
उत्तरप्रदेश के झाँसी-मणिकपुर रेलवे स्टेशन चित्रकूट के पास रामगिरि स्थान पर माता का दायाँ वक्ष गिरा था। इसकी शक्ति है शिवानी और भैरव को चंड कहते हैं।

32.वृंदावन- उमा
उत्तरप्रदेश के मथुरा के निकट वृंदावन के भूतेश्वर स्थान पर माता के गुच्छ और चूड़ामणि गिरे थे। इसकी शक्ति है उमा और भैरव को भूतेश कहते हैं।

33.शुचि- नारायणी
तमिलनाडु के कन्याकुमारी-तिरुवनंतपुरम मार्ग पर शुचितीर्थम शिव मंदिर है, जहाँ पर माता की ऊपरी दंत (ऊर्ध्वदंत) गिरे थे। इसकी शक्ति है नारायणी और भैरव को संहार कहते हैं।

34.पंचसागर- वाराही
पंचसागर (अज्ञात स्थान) में माता की निचले दंत (अधोदंत) गिरे थे। इसकी शक्ति है वराही और भैरव को महारुद्र कहते हैं।

35.करतोयातट- अपर्णा
बांग्लादेश के शेरपुर बागुरा स्टेशन से 28 किमी दूर भवानीपुर गाँव के पार करतोया तट स्थान पर माता की पायल (तल्प) गिरी थी। इसकी शक्ति है अर्पण और भैरव को वामन कहते हैं।

36.श्रीपर्वत- श्रीसुंदरी
कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र के पर्वत पर माता के दाएँ पैर की पायल गिरी थी। दूसरी मान्यता अनुसार आंध्रप्रदेश के कुर्नूल जिले के श्रीशैलम स्थान पर दक्षिण गुल्फ अर्थात दाएँ पैर की एड़ी गिरी थी। इसकी शक्ति है श्रीसुंदरी और भैरव को सुंदरानंद कहते हैं।

37.विभाष- कपालिनी
पश्चिम बंगाल के जिला पूर्वी मेदिनीपुर के पास तामलुक स्थित विभाष स्थान पर माता की बायीं एड़ी गिरी थी। इसकी शक्ति है कपालिनी (भीमरूप) और भैरव को शर्वानंद कहते हैं।

38.प्रभास- चंद्रभागा
गुजरात के जूनागढ़ जिले में स्थित सोमनाथ मंदिर के निकट वेरावल स्टेशन से 4 किमी प्रभास क्षेत्र में माता का उदर गिरा था। इसकी शक्ति है चंद्रभागा और भैरव को वक्रतुंड कहते हैं।

39.भैरवपर्वत- अवंती
मध्यप्रदेश के ‍उज्जैन नगर में शिप्रा नदी के तट के पास भैरव पर्वत पर माता के ओष्ठ गिरे थे। इसकी शक्ति है अवंति और भैरव को लम्बकर्ण कहते हैं।

40.जनस्थान- भ्रामरी
महाराष्ट्र के नासिक नगर स्थित गोदावरी नदी घाटी स्थित जनस्थान पर माता की ठोड़ी गिरी थी। इसकी शक्ति है भ्रामरी और भैरव है विकृताक्ष।

41.सर्वशैल स्थान
आंध्रप्रदेश के राजामुंद्री क्षेत्र स्थित गोदावरी नदी के तट पर कोटिलिंगेश्वर मंदिर के पास सर्वशैल स्थान पर माता के वाम गंड (गाल) गिरे थे। इसकी शक्ति है रा‍किनी और भैरव को वत्सनाभम कहते हैं'

42.गोदावरीतीर :
यहाँ माता के दक्षिण गंड गिरे थे। इसकी शक्ति है विश्वेश्वरी और भैरव को दंडपाणि कहते हैं।

43.रत्नावली- कुमारी
बंगाल के हुगली जिले के खानाकुल-कृष्णानगर मार्ग पर रत्नावली स्थित रत्नाकर नदी के तट पर माता का दायाँ स्कंध गिरा था। इसकी शक्ति है कुमारी और भैरव को शिव कहते हैं।

44.मिथिला- उमा (महादेवी)
भारत-नेपाल सीमा पर जनकपुर रेलवे स्टेशन के निकट मिथिला में माता का बायाँ स्कंध गिरा था। इसकी शक्ति है उमा और भैरव को महोदर कहते हैं।

45.नलहाटी- कालिका तारापीठ
पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले के नलहाटि स्टेशन के निकट नलहाटी में माता के पैर की हड्डी गिरी थी। इसकी शक्ति है कालिका देवी और भैरव को योगेश कहते हैं।

46.कर्णाट- जयदुर्गा
कर्नाट (अज्ञात स्थान) में माता के दोनों कान गिरे थे। इसकी शक्ति है जयदुर्गा और भैरव को अभिरु कहते हैं।

47.वक्रेश्वर- महिषमर्दिनी
पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले के दुबराजपुर स्टेशन से सात किमी दूर वक्रेश्वर में पापहर नदी के तट पर माता का भ्रूमध्य (मन:) गिरा था। इसकी शक्ति है महिषमर्दिनी और भैरव को वक्रनाथ कहते हैं।

48.यशोर- यशोरेश्वरी
बांग्लादेश के खुलना जिला के ईश्वरीपुर के यशोर स्थान पर माता के हाथ और पैर गिरे (पाणिपद्म) थे। इसकी शक्ति है यशोरेश्वरी और भैरव को चण्ड कहते हैं।

49.अट्टाहास- फुल्लरा
पश्चिम बंगला के लाभपुर स्टेशन से दो किमी दूर अट्टहास स्थान पर माता के ओष्ठ गिरे थे। इसकी शक्ति है फुल्लरा और भैरव को विश्वेश कहते हैं।

50.नंदीपूर- नंदिनी
पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले के सैंथिया रेलवे स्टेशन नंदीपुर स्थित चारदीवारी में बरगद के वृक्ष के समीप माता का गले का हार गिरा था। इसकी शक्ति है नंदिनी और भैरव को नंदिकेश्वर कहते हैं।

51.लंका- इंद्राक्षी
श्रीलंका में संभवत: त्रिंकोमाली में माता की पायल गिरी थी (त्रिंकोमाली में प्रसिद्ध त्रिकोणेश्वर मंदिर के निकट)। इसकी शक्ति है इंद्राक्षी और भैरव को राक्षसेश्वर कहते हैं।

52.विराट- अंबिका
विराट (अज्ञात स्थान) में पैर की अँगुली गिरी थी। इसकी शक्ति है अंबिका और भैरव को अमृत कहते हैं।

नोट : इसके अलावा पटना-गया के इलाके में कहीं मगध शक्तिपीठ माना जाता है....

53. मगध- सर्वानन्दकरी
मगध में दाएँ पैर की जंघा गिरी थी। इसकी शक्ति है सर्वानंदकरी और भैरव को व्योमकेश कहते हैं
[2/13, 13:23] ‪+91 96859 71982‬: "मेरे कान्हा  "

कैद ही रखना
अपनी यादो के क़ैदखाने मे

ऐसा नशा कंहा मिलता है
किसी मयखाने में
          
        *💐जय श्री श्याम*💐
[2/13, 13:23] ‪+91 96859 71982‬: सांवरियां ,,,,,,,,

मेरी रूह में न समाते तो भूल जाती तुम्हें...
  तुम इतना करीब न आते तो भूल जाती तुम्हें...
        यह कहते हुए कि मेरा ताल्लुक नहीं..
                तुमसे कोई आँखों में आँसू न आते तो भूल जाती तुम्हें...!!!!

     🌹राधे राधे🌹
[2/13, 13:24] ‪+91 99673 46057‬: राधे राधे-आज का भगवद चिन्तन,
             13-02-2017
  🌺     बुरा करना ही गलत नहीं है अपितु बुरा सुनना भी गलत है। अतः बुरा करना घातक है और बुरा सुनना पातक (पाप) है। प्रयास करो दोनों से बचने का।
🌺   विचारों का प्रदूषण वो प्रदूषण है जिसे मिटाना विज्ञान के लिए भी संभव नही है। इसका कारण हमारी वो आदतें हैं जिन्हें किसी की बुराई सुनने में रस आने लगता है। बुराई को सुनना, बुराई को चुनना जैसा ही है।
🌺      जो हम रोज सुनते हैं, देखते हैं , वही हम भी होने लग जाते हैं। अतः उन लोगों से अवश्य ही सावधान रहने की जरुरत है जिन्हें दूसरों की बुराई करने का शौक चढ़ गया हो।

जैसा करोगे संग- बैसा चढ़ेगा रंग।
तजौ रे मन हरि विमुखन को संग।
जिनके संग कुमति मति उपजे,
परत भजन में भंग।
[2/13, 13:45] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: हमलोग यदि मनुष्यों की सहायता कर पा रहे हैं, तो हमलोगों के लिये यह एक विशेष अवसर है। क्योंकि केवल इसी प्रकार हमलोग विकसित (पशु-मानव से मनुष्य में उन्नत) हो सकते हैं।
किन्तु किसी की सहायता करने या कुछ देने से हम कैसे विकसित होते हैं ? तथा दूसरों की सहायता करना हमारे लिये अवसर कैसे बन सकता है ? इसके अतिरिक्त हमलोग विकसित होंगे, इसका तात्पर्य क्या है ? मनुष्यों के प्रति हमारी सहानुभूति जितनी अधिक बढ़ेगी, अर्थात हमलोगों के भीतर एकात्मबोध जितना अधिक बढ़ेगा, हमलोग उतने ही अधिक विकसित होंगे, हमारे हृदय के प्रसारता की परिधि उतनी ही विस्तृत होती जाएगी। एकात्म होने का अर्थ क्या है ? अलग होने का अर्थ क्या है ? हमलोगों ने अपने चारों ओर एक घेरा डाल रखा है, और यह घेरा जितना अधिक टूटता जायेगा, हमलोग एक-दूसरे के साथ उतना अधिक घुल-मिल जायेंगे। हमलोग निरन्तर यह सुनते-कहते आ रहे हैं, कि समाज-सेवा करना आवश्यक है। किन्तु  सच्ची सेवा की मानसिकता लेकर ही समाज-सेवा करना आवश्यक है। वैसा नहीं होने से, यह समाज-सेवा कितनी हानिकारक हो सकती है, इस बात को भी समझ लेना आवश्यक है।
कोई दवा आमतौर से लाभ पहुंचती है, यदि उसका उपयोग सही ढंग से किया जाय, किन्तु गलत डोज लेने का परिणाम कितना अधिक जानलेवा हो सकता है, इसको भी हमने बहुत देखा है। उसी प्रकार समाज-सेवा में जिसकी सेवा की जा रही है, हमलोग केवल उनकी ओर ही देखते हैं। किन्तु सेवा का उद्देश्य या भाव ठीक नहीं रहे, तो उससे हमारी कितनी अधिक हानी हो सकती है, उसकी ओर हम देख नहीं पाते हैं। इसीलिये बहुत सतर्क होकर समाज-सेवा करने की आवश्यकता है। नाम,यश, लोक-प्रसिद्धि, स्वयं को दाता समझने का दम्भ-यह सोचना कि मैं तो (ज्ञानी-गुनी या धनी-मानी व्यक्ति हूँ इसीलिये) दाता हूँ, और वे लोग लेने वाले हैं, वे लोग उपकृत हो रहे हैं, और हम उनपर उपकार कर रहे हैं। इस प्रकार के विचार आ सकते हैं, नहीं बल्कि आ ही जाते हैं। इस विषय में बहुत अधिक सावधान रहना आवश्यक है। स्वामीजी कहते हैं, संन्यासियों में भी नाम-यश पाने की इच्छा आ जाती है। इसीलिये समाज-सेवा के कार्य में कूदने के पहले भले-बुरे का विचार करके ही कूदना अच्छा होता है। केवल समाज-सेवा के क्षेत्र में ही नहीं, समस्त विषयों में इसी प्रकार अच्छे-बुरे का निर्णय लेकर ही कार्य में उतरना चाहिये।
जिन कार्यों को अच्छा समझ कर कार्य में उतर रहा हूँ,वे हानिकारक भी हो सकते हैं। किसी दार्शनिक ने कहा है, जो मूढ़चेता हैं (- अर्थात जिनकी चेतना सोयी रहती है या जो शरीर को ही ' मैं ' समझते हैं ), उनके लिये प्रवृत्ति तो प्रवृत्ति है ही, निवृत्ति भी प्रवृत्ति जैसी हो जाती है। किन्तु जो व्यक्ति बुद्धिमान हैं, (जिनकी बुद्धि जाग्रत है, विवेक-सम्पन्न है, जो देहाध्यास के भ्रम से उठ चुके हैं ) उनके लिये तो प्रवृत्ति भी निवृत्ति में रूपान्तरित हो जाती है।
[शिक्षा बढ़ रही है पर मूढ़ता जहाँ की तहाँ हैं नशेबाजी, माँसाहार, व्यभिचार, जुआ, चोरी जैसे दुर्व्यसन घट नहीं बढ़ रहे हैं । शिक्षा बढ़ रही है पर मूढ़ता जहाँ की तहाँ हैं । पढ़े-लिखे लोग भी दहेज के लिए जिद करें तो समझना चाहिए शिक्षा के नाम पर उन्हें कागज चरना ही सिखाया गया है।धर्म जैसी चरित्र निर्मात्री शक्ति आज केवल कुछ धर्म के ठीकेदारों (व्यवसाइयों) के लिए भोले-भले  लोगों को फँसाने का जाल-जंजाल भर रह गई है । इन परिस्थितियों को मूक दर्शक की तरह देखते नहीं रहा जा सकता, इनके विरुद्ध जूझना ही एकमात्र उपाय है । अर्जुन की तरह हमें इस धर्म-युद्ध के लिए गाण्डीव उठाना ही पड़ेगा।
[2/13, 16:39] ओमीश Omish Ji: समुन्मीलत्संवित्कमलमकरन्दैकरसिकं
भजे हंसद्वन्द्वं किमपि महतां मानसचरम् ।
यदालापादष्टादशगुणितविद्यापरिणति-
र्यदादत्ते दोषाद्गुणमखिलमद्भ्यः पय इव ।। 38 ।।

अर्थ - अच्छी तरह खिले हुए ज्ञानरुपी कमल के मात्र आनन्दरूपी मकरन्द को चाहने वाले एकमात्र रसिक उन आनन्द भोगने वाले महापुरुषों के मानससरोवर में तैरते हुए अवर्णनीय हंसो के जोड़े का मैं भजन करता हूँ । उनकी मधुर बोली का परिणाम 18 विद्याओं की व्याख्या है । जिस प्रकार हंस दूध में से पानी को अलग कर देता है उसी प्रकार ये 18 विद्याएँ गुणों में से दोषों को अलग करने में समर्थ हैं । ' हं ' शिव तथा ' स ' शक्ति है ।हंसेश्वर तथा हंसेश्वरी नाम से ध्यान किया जाता है । इन हंस युगलों के सम्भाषण से ही 18 विद्याओं ( 4 वेद , शिक्षा , कल्प , व्याकरण , निरुक्त , ज्योतिष , छन्द , मिमांसा , न्याय ,  पुराण , धर्मशास्त्र , आयुर्वेद , गान्धर्व विद्या और नीति ) की रचना हुई ।
[2/13, 17:35] प विजय विजयभान: शंका :- ईश्वर तो सर्वज्ञ हैं, लेकिन अन्य देवतायों के भक्त ध्यान-पूजन करते हैं तो उनकी भक्ति के विषय में उन देवतायों को पता कैसे लगेगा ?
समाधान  :- जो व्यष्टि में वाक् हैं, वही समष्टि में अग्निदेवता हैं । व्यष्टि में जो चक्षु हैं, वही समष्टि में सूर्यदेव हैं और वही चक्षु के अनुग्राहक देवता हैं । सम्पूर्ण देवता हिरण्यगर्भ के अंगभूत हैं । हाँ, अन्तर इतना हैं कि वाक् की शक्ति और अग्नि की शक्ति में भेद हैं । देवता बनेगा तो बल भी बढ़ जायेगा । अपने क्षेत्र की सर्वज्ञता बढ़ जाती हैं ।
वेदान्त का तो ये सिद्धान्त हैं - // त एते सर्व एव समाः सर्वेऽनन्ताः " इति श्रुतेः सर्वात्मकानि तावत्करणानि । सर्वात्मकप्राणसंश्रयाच्च ।तेषामाध्यामिकाधिभौतिकपरिच्छेदः प्राणिकर्मज्ञानभावनानिमित्तः । अतस्तद्वशात्स्वभावतः सर्गतानामनन्तानामपि प्राणानां कर्ज्ञानवासनानुरूपेणैव देहान्नरारम्भवशात्प्राणानां वृत्तिः संकुचति विकसति च । //
" वे ये सभी समान और अनन्त हैं " ~ बृहदाराण्यक १.५.१३ - इस श्रुतिके अनुसार तथा सर्वात्मक प्राण के आश्रित होनेसे इन्द्रियाँ तो सर्वात्मक ही हैं ; उनका आध्यात्मिक और आधिभौतिक परिच्छेद प्राणियोंके कर्म, ज्ञान और भावनाके कारण हैं । अतः उनके अधीन होनेके कारण स्वभावतः सर्वगत और अनन्त होनेपर भी भोक्ता प्राणों के कर्म, ज्ञान और वासनाके अनुसार ही देहान्तर के आरम्भवश प्राणोंकी वृत्तिका संकोच और विकाश होता हैं ।
इसलिए उनका पूजन यदि कोई भक्त करता हैं तो उनको पता लग ही जाता हैं ।इसलिए जो-जो देवता हैं वे अपने भक्त को जानते ही हैं, इसमें किसी को संशय नहीं होना चाहिए ।
देवता भी दो-प्रकार के होते हैं - एक तो वे जो कल्प पर्यन्त देवलोक में रहकर मुक्त होते हैं (आजानजदेव), उनमें ऋतम्भरा-प्रज्ञा रहती हैं जैसे, हिरण्यगर्भादि में । दुसरे जो कर्मानुसार देवत्व प्राप्त करते हैं (कर्मदेव), उनमें ऋतम्भरा-प्रज्ञा होना आवश्यक नहीं ।
शंका :- शास्त्र में आता हैं कि अहंग्रह-उपासक इसी शरीर में देवतात्मभाव को प्राप्त करके उस देवता सम्बन्धी भोग का अनुभव करता हैं, ऐसा कैसे सम्भव हैं.
समाधान:- देवतात्मभाव का अर्थ हैं देवता का सायुज्य, इसका लक्षण हैं -
// व्यष्ट्युपाधिकृतपरिच्छेदनिर्मोकेन समष्ट्युपाध्युपहितत्वस्याधिगममिति //
अर्थात् व्यष्टि उपाधि को छोड़कर समष्टि उपाधि को प्राप्त कर लेना । जैसे बृहदारण्यक उपनिषद् में वर्णन हैं, अग्निदेवता ने ही वाक् होकर शरीर में प्रविष्ट हुए । अतः वागिन्द्रिय का वास्तविक स्वरुप अग्नि हैं । वाक् को अग्निभाव में ले जाना ही देवतात्मभाव को प्राप्त करना हैं । वाक् जब अग्निभाव को प्राप्त करता हैं तो वह व्यष्टि के दोषों से विनिर्मुक्त हो जाता हैं । अग्नि हिरण्यगर्भ का अंगभूत हैं । हिरण्यगर्भ अर्थात् अपरब्रह्म, उसका स्वरुप परब्रह्म हैं ।
देवतात्मभाव से स्वरुप में पहुँचना, यह शास्त्र की एक पद्धति हैं । उपासक इसी शरीर में देवता की उपासना करके अन्त में देवता से तादात्म्य प्राप्त कर लेता हैं । मृत्यु के समय अहंरूप से देवता के स्वरुप को पकड़ लेता हैं । इस प्रकार तादात्म्य तो इसी शरीर में हो जाता हैं, परन्तु भोग तो ब्रह्मलोक में जाकर उत्पन्न होते हैं।
॥ जय श्री हरि ॥
[2/13, 17:37] ‪+91 96859 71982‬: 🙏🏻राग-वसंत🙏🏻
श्रृङ्गारवनसमीपे नर्तन्तम् युवतिजनकदम्बैश्च।
शुकपिकशारीयुक्तम् ध्याये मे मनसि संततवसंतम्।।
अर्थ:-
जो श्रृंगार वन के समीप युवती समूह के साथ नर्तन मे लीन है, उस शुक, कोकिल और सारिकाओ से युक्त *वसंत* का मै निरंतर मन मे ध्यान करता हूँ।
शिखण्डिपिञ्छोच्चयचारुचूडः चूताञ्कुरोद्भासुरकर्णपूरः।
नव्याम्बुदश्यामतनुर्विलासी वसंतरागोऽतिमनोहरश्री:।।
अर्थ:-
मयूर-पंखों के समूह से मण्डित सुंदर चोटी वाला, आम के अंकुरो से दीप्तिमान् कर्णपूरो वाला और नवीन बादलों के समान श्याम शरीर वाला, विलासी *वसंत* राग अपनी शोभा से मन हरता है।
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼
[2/13, 17:39] ‪+91 96859 71982‬: शुभाषीश।।।
      ।।अपना कौन।।
अपना वह है जो अपने अनुसार चले ।
१-शरीर अपना है ???"
नही ! क्योकि कोई नही चाहता शरीर में रोग हो , सफेद बाल हो जाय , दंत टूठ जाये ' बुढापा न हो , शरीर अपंग न हो पर हो ही जाता है अत: अपने अनुकूल नही इसलिये ये अपना नही ।
२- बुद्धि तो है????
नही , क्योंकि कोई नही चाहता बुद्धि खराब हो जाये , पर  धन पद के से बुद्धि बिकृत हो जाती है ।
अत:............. ।
३-मन ????
कोई नही चाहता मन दुषित हो अशुद्ध हो .एकाग्र न हो, कथा में भागे नही , पढाई में एकाग्रता हो .....
  पर  हो जाता है ।
अत: ये अपना नही .......

४- इन्दियाँ ??????
ये तो ही नही सकती क्योंकि कोई नही चाहता हम अंध , बहरे , मूक बने पर ऐसा नही होता ।
अत: जब इस जन्म में सदैव साथ रहने बाले शरीर बुद्धि मन इन्दियां अपने नही हो सकते फिर संसार के वस्तु व्यक्ति केसे हो सकते है जिनके लिये हम अपनी बिवेकहीनता खो रहै है ।।
जागो रे जिन जागना  अब जागन की वार ......
[2/13, 17:49] पं अर्चना जी: जो लोग पत्नी का मजाक उड़ाते
है। बीवी के नाम पर कई
msg भेजते है उन सभी के
लिये--------------
कृपया ध्यान से पढे
ओरत एक सवाल पूछती है आपसे..
------------------------
देह मेरी ,
हल्दी तुम्हारे नाम की ।
हथेली मेरी ,
मेहंदी तुम्हारे नाम की ।
सिर मेरा ,
चुनरी तुम्हारे नाम की ।
मांग मेरी ,
सिन्दूर तुम्हारे नाम का ।
माथा मेरा ,
बिंदिया तुम्हारे नाम की ।
नाक मेरी ,
नथनी तुम्हारे नाम की ।
गला मेरा ,
मंगलसूत्र तुम्हारे नाम का ।
कलाई मेरी ,
चूड़ियाँ तुम्हारे नाम की ।
पाँव मेरे ,
महावर तुम्हारे नाम की ।
उंगलियाँ मेरी ,
बिछुए तुम्हारे नाम के ।
बड़ों की चरण-वंदना
मै करूँ ,
और 'सदा-सुहागन' का आशीष
तुम्हारे नाम का ।
और तो और -
करवाचौथ/बड़मावस के व्रत भी
तुम्हारे नाम के ।
यहाँ तक कि
कोख मेरी/ खून मेरा/ दूध मेरा,
और बच्चा ?
बच्चा तुम्हारे नाम का ।
घर के दरवाज़े पर लगी
'नेम-प्लेट' तुम्हारे नाम की ।
और तो और -
मेरे अपने नाम के सम्मुख
लिखा गोत्र भी मेरा नहीं,
तुम्हारे नाम का ।
सब कुछ तो
तुम्हारे नाम का...
नम्रता से पूछती हूँ..
आखिर तुम्हारे पास...
क्या है मेरे नाम का?"

~

~~ जय श्री राम ~~

_▄▄_
(●_●)
╚═►-->---►~►~ravindra pandey
[2/13, 17:52] पं अर्चना जी: लोग फिरतें हैं दर्द को दिल में लिए हुये,
मुस्कुरातें हैं बहुत खूब, होंठो को सिये हुए!!

पूछे कोई तो हजार, बहाने बना दिये,
फिरतें हैं अपने दिल में तन्हांइयाँ लिये हुये!!

ये दर्द  इतना कीमती सा हो गया ज़नाब,
लोग खुश हैं अपनी परछाईयां लिए हुये!!

न खुद हैं ना खुदी ही बची रह गई हुजूर,
लोग खुद ही अब खुदा हैं खुदाइयाँ लिए हुये !!!
           स्वरचित अर्चना त्रिपाठी "भावुक"
                ( 13/2/2017)
[2/13, 17:55] ओमीश Omish Ji: नहीं मालूम तुम्हें के चाहत क्या होती है
दर्द-ए-दिल के लिए राहत क्या होती है

टूटेगा जब दिल अपना, मालूम होगा तुम्हें भी
के दिल तोड़ने की हिमाकत क्या होती है

नहीं जानते वो भी, चाहत के जिन्होंने दावे किए
हद से ज्यादा किसी की चाहत क्या होती है

आशिक बनो हाँ कभी, तुम भी हमारी तरह कोई
पता चलेगा तब कहीं के मोहब्बत क्या होती है।.
[2/13, 18:19] ओमीश Omish Ji: मनुष्य मङ्गलमयी भगवत्कृपा को भूलकर-नित्य अमङ्गल की आशंका और अमङ्गल का भय करते रहनेसे व्यर्थ ही नाना प्रकारके अमङ्गल उसके सामने खड़े हो जाते है। इसलिए सदा मङ्गल की कामना करते रहना चाहिये।

🙏जय श्री मन्नारायण🙏
[2/13, 18:32] ओमीश Omish Ji: *🌷सूक्ति-सुधा🌷*

नहि संहरते ज्योत्स्नां चन्द्रश्चाण्डालवेश्मनि।
     — चंद्र चांडाल (दुर्जन) के घर से चांदनी को नहीं हटाता है। (अर्थात् साधुजन,बिना किसी भेदभाव के ,सभी पर समान रूप से अनुकम्पा करते हैं।)
[2/13, 18:35] ‪+91 99773 99419‬: भगवान राम का चरित्र इस देश के लिए नया नहीं है. अनगिनत कवियों ने श्रीराम के चरित्र का वर्णन किया. अनेक रामायणों 📚 का निर्माण हुआ और उनके साथ एक-एक शब्द जोड़ दिया गया - अध्यात्म-रामायण, लोमश-रामायण, आनन्द-रामायण, आदि आदि.

. . रामकथा मंदिर है, या गंगा. . 
***********************
रामायण का अर्थ है - भगवान राम का मंदिर. रामायण का निर्माण तो हुआ था, परन्तु गोस्वामीजी ने जिस ग्रन्थ का निर्माण किया, वह रामायण नहीं है, यद्यपि प्रचलित भाषा में उसे भी रामायण कहते हैं, उसका नाम है 'राम-चरित-मानस' और गोस्वामीजी ने इसकी तुलना गंगा से की है. मंदिर और गंगा में जो पार्थक्य है, वही पार्थक्य अन्य रामायणों और राम-चरित-मानस में है. मंदिर हमारी श्रद्धा का केन्द्र है, पर वह एक विशेष देश (स्थान) में स्थित होता है, उसका द्वार समय से खुलता है, और व्यक्ति श्रद्धा से देवता को दूर से प्रणाम करता है. मंदिर कहता है, " पहले स्नान कर लो, योग्य बनो, तब मेरे पास आओ" परन्तु गंगाजी की विशेषता क्या है ? गंगाजी कहती हैं, "बेटा, तुम जैसे भी हो, वैसे ही आ जाओ." देवता और दर्शन करने वाले के बीच जो दूरी होती है, वह गंगाजी और स्नान करने वाले के बीच नहीं रह जाती. इसे यों कह सकते हैं कि भगवान राम की महिमा मण्डित मूर्ति तो न जाने कितने महापुरुषों ने स्थापित की ; पर भगवान राम के मंगलमय चरित्र की जो दिव्य रसवन्ती धारा है, जिससे हम भगवान को श्रद्धावनत होकर दूर से प्रणाम नहीं करते, अपितु भगवान के अति निकट पहुँच जाते हैं, उनसे मिल सकते हैं, यह विशेषता वस्तुतः तुलसीदासजी के श्रीराम में है और यही विशेषता उनके द्वारा रचित ग्रन्थ 📙 में है. 👏🏻
-- 🌞युग तुलसी मानस मर्मज्ञ परमपूज्यपाद् श्रीरामकिंकरजी महाराज 🌸🙏🏻
[2/13, 19:02] ‪+91 99673 46057‬: कालगणना और इसके मात्रक :
(Chronology and its Units)

6 प्राण (Breath) = 1 पल (विनाडी) = 24 Seconds
60 पल (विनाडी) = 1 नाडी (= घटी = घड़ी) = 24 Minutes
2 घटी = 1 मुहूर्त्त = 1 क्षण = 48 Minutes
60 नाडी (घटी) = 30 मुहुर्त्त = 1 अहोरात्र = 24 Hours
7 अहोरात्र = 1 सप्ताह (Week)
2 सप्ताह = 1 पक्ष (fortnight)
2 पक्ष = 1 मास (Month)
2 मास = 1 ऋतु (Season)
3 ऋतु = 1 अयन
2 अयन = 1 सम्वत् = 1 वर्ष (Year)

360 वर्ष = 1 दिव्य वर्ष

सतयुग = 4800 दिव्य-वर्ष = 17,28,000 वर्ष 
त्रेता = 3600 दिव्य-वर्ष = 12,96,000 वर्ष 
द्वापर = 2400 दिव्य-वर्ष = 8,64,000 वर्ष
कलियुग = 1200 दिव्य-वर्ष = 4,32,000 वर्ष

चतुर्युग = महायुग = दिव्ययुग = देवयुग = (सतयुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग + कलियुग)

1 चतुर्युग = 43,20,000 वर्ष
71 चतुर्युग = 1 मन्वन्तर = 30,67,20,000 वर्ष

1 सन्धिकाल = 3 चतुर्युग = 1,29,60,000 वर्ष

14 मन्वन्तर + 2 सन्धिकाल = 1000 चतुर्युग
1000 चतुर्युग = 1 सृष्टि = 1 कल्प = 1 ब्राह्म-दिन = 4 अरब 32 करोड़ वर्ष
1000 चतुर्युग = 1 प्रलय = 1 विकल्प = 1 ब्राह्म-रात्रि = 4 अरब 32 करोड़ वर्ष

2000 चतुर्युग = 1 ब्राह्म-अहोरात्र = 8 अरब 64 करोड़ वर्ष
30 ब्राह्म-अहोरात्र =  1 ब्राह्म-मास
12 ब्राह्म-मास = 1 ब्राह्म-वर्ष
100 ब्राह्म-वर्ष = 1 परा = 1 महाकल्प

मुक्ति की अवधि 1 पराकाल की होती है. [मुण्डक-उपनिषद् 3.2.6]

अभी 'श्वेत वराह' नामक प्रथम ब्राह्म-दिन के 7वें 'वैवस्वत' नामक मन्वन्तर के 28वें चतुर्युग का कलियुग चल रहा है. विक्रम सम्वत् 2073 (ईसाई वर्ष 2016) में हमारे वैदिक सम्वत् निम्नलिखित चल रहे हैं:

कल्प सम्वत् = 1,97,38,13,117 वर्ष
मानव सम्वत् = 1,96,08,53,117 वर्ष
वेद सम्वत् = 1,96,08,53,112 वर्ष
कलियुग सम्वत् = 5117 वर्ष

यूरोपीय ज्योतिषी Bailley के अनुसार, अभी कलियुग सम्वत् 5118 चल रहा है.

14 मन्वंतरों के नाम:
1. स्वायम्भुव 2. स्वारोचिष 3. औत्तमेय 4. तामस 5. रैवत 6. चाक्षुष 7. वैवस्वत 8. सावर्णि 9. दक्षसावर्णि 10. ब्रह्मसावर्णि 11. धर्मसावर्णि 12. रूद्रसावर्णि 13. देवसावर्णि (रौप्यसावर्णि) 14. इन्द्रसावर्णि (मौत्यसावर्णि)

30 कल्पों (ब्राहम-दिनों) के नाम:
1. श्वेतवाराह  2. नीललोहित  3. वामदेव  4. रथन्तर  5. रौरव  6. प्राण  7. बृहत्  8. कन्दर्प   9. सद्यः  10. ईशान  11. तमः  12. सारस्वत  13. उदान  14. गारुड  15. कौर्म  16.  नरसिंह  17. समान  18. आग्नेय  19. सोम  20. मानव  21. पुमान्  22. वैकुण्ठ  23. लक्ष्मी  24. सावित्री  25. घोर  26. वाराह  27. वैराज  28. गौरी  29. माहेश्वर  30. पितृ

दिन के 15 मुहूर्त्त:
सूर्योदय से प्रथम मुहूर्त्त का प्रारम्भ होता है.
1.  रुद्र  2.  अहि  3.  मित्र  4.  पितॄ  5.  वसु  6.  वाराह  7.  विश्वेदेवा  8.  विधि  9.  सतमुखी  10.  पुरुहूत  11.  वाहिनी  12.  नक्तनकरा  13.  वरुण  14.  अर्यमन्  15.  भग 

रात्रि के 15 मुहूर्त्त:
1.  गिरीश  2.  अजपाद  3.  अहिर्बुध्न्य  4.  पुष्य  5.  अश्विनी  6.  यम  7.  अग्नि  8.  विधातृ  9.  कण्ड  10.  अदिति  11.  जीव/अमृत  12.  विष्णु  13.  द्युमद्गद्युति  14.  ब्रह्म  15.  समुद्रम् 

14 लोकों (भुवनों) के नाम:
1. भू:  2. भुवः  3. स्वः  4. मह:  5. जनः  6. तपः  7. सत्य  8. अतल  9. वितल  10. सुतल  11. तलातल  12. महातल  13. रसातल  14. पाताल

भूलोक के 7 भाग हैं, जिन्हें महाद्वीप (सप्तद्वीपा वसुमती) Continent कहते हैं:
1. जम्बूद्वीप (Asia) 2. प्लक्ष  3. शाल्मलि  4. कुश  5. क्रौन्च  6. शाक  7. पुष्कर

जम्बूद्वीप के भीतर 9 खण्ड हैं:
1. भारतवर्ष  2. इलावृत्तवर्ष  3. रम्यकवर्ष  4. हिरण्यवर्ष  5. कुरुवर्ष  6. हरिवर्ष  7. किन्नरवर्ष  8. भद्राश्ववर्ष  9. केतुमालवर्ष

आर्यावर्त्त = वर्त्तमान भारत + पाकिस्तान + बांग्लादेश
भारतवर्ष = आर्यावर्त्त + अफगानिस्तान (गान्धार) + म्यान्मार (ब्रह्मा) + भूटान + तिब्बत (त्रिविष्टप) + नेपाल + श्रीलंका + थाईलैंड (श्याम) + मलेशिया (मलय) + वियतनाम + इंडोनेशिया

सन्दर्भ ग्रन्थ:
ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, मनुस्मृति, सूर्यसिद्धान्त आदि
[2/13, 19:03] राम भवनमणि त्रिपाठी: सप्त पवित्र नदियों के जल का महत्व....

1. गंगा में स्नान से पाप धुलते हैं,
2. यमुना के आचमन से पाप धुलते हैं,
3. नर्मदा के दर्शन मात्र से पाप खत्म होते हैं, 
4. शिप्रा के स्नान से मोक्ष मिल जाता हैं स्मरण मात्र से पाप धुलते हैं,
5. गोदावरी में स्नान से पितरों को भी मोक्ष मिल जाता है,
6. कावेरी में स्नान से सहस्त्र यज्ञ का फल प्राप्त होता है,
7. चर्मण्वती में स्नान से तेज प्राप्त होता है !
[2/13, 20:37] ओमीश Omish Ji: मेरे भाग्य में कितना धन है.....

एक आदमी ने नारदमुनि से पूछा मेरे भाग्य में कितना धन है...

नारदमुनि ने कहा - भगवान विष्णु से पूछकर कल बताऊंगा...

नारदमुनि ने कहा- 1 रुपया रोज तुम्हारे भाग्य में है...

आदमी बहुत खुश रहने लगा...
उसकी जरूरते 1 रूपये में पूरी हो जाती थी...

एक दिन उसके मित्र ने कहा में तुम्हारे सादगी जीवन और खुश देखकर बहुत प्रभावित हुआ हूं और अपनी बहन की शादी तुमसे करना चाहता हूँ...

आदमी ने कहा मेरी कमाई 1 रुपया रोज की है इसको ध्यान में रखना...
इसी में से ही गुजर बसर करना पड़ेगा तुम्हारी बहन को...

मित्र ने कहा कोई बात नहीं मुझे रिश्ता मंजूर है...

अगले दिन से उस आदमी की कमाई 11 रुपया हो गई...

उसने नारदमुनि को बुलाया की हे मुनिवर मेरे भाग्य में 1 रूपया लिखा है फिर 11 रुपये क्यो मिल रहे है...??

नारदमुनि ने कहा - तुम्हारा किसी से रिश्ता या सगाई हुई है क्या...??

हाँ हुई है...

तो यह तुमको 10 रुपये उसके भाग्य के मिल रहे है...
इसको जोड़ना शुरू करो तुम्हारे विवाह में काम आएंगे...

एक दिन उसकी पत्नी गर्भवती हुई और उसकी कमाई 31 रूपये होने लगी...

फिर उसने नारदमुनि को बुलाया और कहा है मुनिवर मेरी और मेरी पत्नी के भाग्य के 11 रूपये मिल रहे थे लेकिन अभी 31 रूपये क्यों मिल रहे है...
क्या मै कोई अपराध कर रहा हूँ...??

मुनिवर ने कहा- यह तेरे बच्चे के भाग्य के 20 रुपये मिल रहे है...

हर मनुष्य को उसका प्रारब्ध (भाग्य) मिलता है...
किसके भाग्य से घर में धन दौलत आती है हमको नहीं पता...

लेकिन मनुष्य अहंकार करता है कि मैने बनाया,,,मैंने कमाया,,,
मेरा है,
मै कमा रहा हूँ,,, मेरी वजह से हो रहा है...

हे प्राणी तुझे नहीं पता तू किसके भाग्य का खा कमा रहा है...।।
[2/14, 05:47] राम भवनमणि त्रिपाठी: बन्धनानि किल सन्ति बहूनि,
प्रेमरज्जु कृत बन्धनमन्यत् ।।
दारूभेद निपूणोऽपि षडंघ्रि,
निष्क्रियो भवति पङ्कजकोशे ॥

दुनिया मे कई प्रकार के बन्धन है किन्तु उन सबमें प्रेमरूपि बन्धन कुछ अलग ही है। बांस की लकड़ी काटने मे कुशल भँवरा भी कमल की कोमल पंखडियोंमे बन्द हो जाता है ।
                    🌹सुप्रभातम्🌹
[2/14, 05:55] पं सत्यशु: 👏👏 " श्रीमद्भागवत कथा गतांक से आगे "

संत नारदजी प्रभु के चरित्र का दर्शन कर के लौटे तो भगवान् ने कहा- आपका कैसे आना हुआ मुनिवर? नारदजी ने कहा- गोपाल, आजकल  पाण्ड़वों ने एक नयी राजधानी बनायी है जिसका नाम है इन्द्रप्रस्थ, नारदजी कहते हैं, पाण्ड़वों की नयी राजधानी है इन्द्रप्रस्थ और पाण्डव वहाँ राजसूय यज्ञ करना चाहते हैं, आप वहाँ पधारिये।

सज्जनों! उसी इन्द्रप्रस्थ को विदेशियों ने दिल्ली बना दिया, आजकल जिसे हम दिल्ली कहते हैं ये कभी पाण्ड़वों की राजधानी इन्द्रप्रस्थ थी, मुस्लिम साम्राज्य भारत में आने से मुसलमानों ने भारत के संस्कृति की जड़ो को खोखली कर दिया और तो क्या, यहाँ के शहरों के नाम बदल दिये, भाग्यनगर का नाम हैदराबाद रख दिया, सम्भाजी नगर का नाम औरंगाबाद रख दिया, हरिगढ़ का नाम अलीगढ़ कर दिया।

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- मुनिवर आप पाण्ड़वों सेे कहना, मैं यज्ञ में जरूर आऊँगा, नारदजी को प्रभु ने विदा किया, इतने में ही एक दूत आया और उसने कहा, मैं गया क्षेत्र से आया हूंँ, भगवान् बोले- कहो क्या बात है? कैसे आये हो? दूत ने कहा- मगध के जो राजा हैं जरासंध, उसने बीस हजार राजाओं को बंदी बनाकर रखा है नर बली देने के लिये, उन राजाओं ने मुझे आपके पास भेजा है, आप ही उनकी रक्षा करें।

प्रभु ने दूत से कहा- तुम उन राजाओं से कहना, मैं उनकी रिहाई का प्रयास करूँगा और उन्हें बचाऊँगा, भगवान् ने सोचा ऐसा कुछ नाटक करूँ कि जरासंध का उद्धार हो जाये, भगवान् इन्द्रप्रस्थ में पधारे, पाण्ड़वों सेे बोले, आप लोग नयी राजधानी करना चाहते हैं, राजसूय यज्ञ करना चाहते हैं मुझे मालूम है, लेकिन क्या आपने समस्त राजाओं को जीत लिया? क्या सभी राजा आपके पक्ष में हो गये।

पाण्ड़वों ने कहा- और सब राजा तो हमारे पक्ष में ही हैं, लेकिन मगध का सम्राट जो जरासंध है वो पक्ष में नहीं है, उसके पास सेना इतनी है कि उसे कोई जीत नहीं सकता, श्रीकृष्णने यहाँ एक नीति की बात की, जिस व्यक्ति के द्वारा हजारों निरपराधों को कष्ट दिया जाता हो, ऐसे व्यक्ति को धोखे से मारने में भी पाप नहीं लगता, इसलिये प्रभु ने भीमसेन को पण्डित बनाया, अर्जुन को ब्राह्मण एवम् स्वयं भी ब्राह्मण का रूप लेकर तीनों जरासंध के यहाँ आ गये।

जरासंध ने तीनों का बड़ा स्वागत किया, आइये, पधारिये महाराज- तीन-तीन ब्राह्मण मेरे यहाँ पधारें, कहाँ से आना हुआ? भगवान् बोले- अभी तो हिमालय से आ रहे हैं, सुना था आप बड़े दानी है, इसलिये आपके पास आये हैं, जरासंध ने कहा- मैं कोई दानी नहीं था महाराज, पर आपने द्वारिकाधीश कृष्ण का नाम सुना है? कन्हैया बोले- हाँ, हाँ सुना तो है, जरासंध बोला- वो कृष्ण बड़ा पराक्रमी है महाराज, मुझे उसने सत्रह बार युद्ध में हरा दिया।

अट्ठारहवीं बार मैंने पण्डितों को पूजा पर बैठाया, उसका परिणाम ये हुआ कि कृष्ण रण छोड़कर भाग गये, उसी दिन से मेरे मन में ब्राह्मणों के प्रति बड़ा अनुराग है, पंडितजी! एक बार जो ब्राह्मण मेरे यहाँ आ जाता है, उसे मैं इतना धन देता हूंँ कि किसी दूसरे के यहाँ मांगने की उसे जरूरत ही नहीं पड़ती, आप तीन-तीन ब्राह्मण आये हैं, बोलियें, क्या सेवा करूं आपकी? क्या दूँ आपको?

भगवान् मन में कहते हैं- बड़ा खुश हो रहा है हमसे, पहचान भी नहीं पाया, कृष्ण बोले- क्या माँगें? श्रीकृष्ण की पहचान हँसी से ही होती है, जैसे ही कन्हैया हँसने लगे तो जरासंध ने कहा- सुनिये, पंडितजी मैंनें आपको कहीं देखा है, कहाँ देखा होगा? आपके यहाँ तो ब्राह्मण आते ही रहते हैं, कभी मैं भी आया होऊंगा, जरासंध ने कहा ठीक है, आप माँगिये क्या चाहिये? जो मांगोगे वो मिलेगा।

युद्धं नो देहि राजेन्द्र द्वनद्वशो यदि मन्यसे।
युद्धार्थिनो वयं प्राप्ता राजन्या नान्नकाँक्षिणः।।

मेरे प्रभु ने क्या माँगा- यदि देना ही चाहते हो तो यही देदो कि हम तीनों में से किसी एक के साथ में तुम युद्ध करो, जरासंध ने कहा- पंडित होकर युद्ध, हम लोग राजा हैं पंडित नहीं है, जरासंध ने कहा- बड़े कपटी हो तुम लोग, मुझसे तीन बचन भरवा लिये, बचन में मुझे बाँध दिया, ठीक है, युद्ध तो मैं तुमसे करूँगा लेकिन पहले अपना परिचय दो तुम हो कौन?

भगवान् परिचय दे रहे हैं- मेरी दाहिनी तरफ जो खड़े हैं इनका नाम है भीमसेन और मेरे बाँयी तरफ खड़े हैं ये इन्हीं के छोटे भाई अर्जुन हैं, जरासंध ने कहा- अच्छा, तो ये पाण्डव भाई हैं और तुम कौन हो? भगवान् बोले- मैं इनके मामा का बैटा हूंँ, तुम्हारा पुराना शत्रु कृष्ण, जरासंध ने सोचा- बड़ा चालाक है, कई बार तो पहले ही हार चुका हूंँ इससे, इस बार युद्ध में हरा दिया तो जीते हुए पर पानी फिर जायेगा।

जरासंध बोला- तुमसे तो मैं लडूंगा नहीं, क्योंकि, तुम तो बड़े डरपोक हो, रण छोड़कर भाग गये और मथुरा भी छोड़कर द्वारिका चले गये, ऐसे में मैं तुमसे युद्ध नहीं करता, कृष्ण अर्जुन से बोले- देखा, एक बार मैं ब्राह्मणों को बचाने के लिये हार गया, उसको बार-बार गाता है और मैंने सत्रह बार इसे हरा दिया वो कभी नहीं कहता, उसने अर्जुन को भी दुबला-पतला कह कर युद्ध के लिये नकार दिया, भीमसेन मेरे समान बलशाली है।

अयं तु वयसातुल्यो नातिसत्त्वो न मे समः।
अर्जुनो ने भवेद् योद्धा भीमस्तुल्यबलो मम।।

अभिमान के मारे भीमसेन का चेहरा फूल गया, भीमसेन ने सोचा, देखो कृष्ण को भी फेल कर दिया और अर्जुन को भी फेल कर दिया, मुझे ही पास किया है, क्योंकि मैं ज्यादा पराक्रमी हूंँ, दोनों में युद्ध शुरू हुआ, कई दिन हो गये युद्ध करते-करते, दिनभर युद्ध होता, रात्रि के अर्धप्रहर भीमसेन कृष्ण के पास आये और बोले- कन्हैया, ये आदमी नहीं पहाड़ है, मेरी नस-नस ढीली हो गयी, इसके पराक्रम का पता नहीं।

भगवान् बोले- पास तो उसने तुम्हें ही किया था, भीमसेन बोले- या तो भाग चलो, नहीं तो मैं अकेला भाग जाऊँगा, भगवान् ने कहा- जब इसका अंत समय आयेगा, मैं तुम्हें इशारा कर दूंगा कि इसे कैसे मारना है, फिर भीमसेन युद्ध करने लगा, तब भगवान् ने हाथ में एक घास का तिनका लिया और उसे भीमसेन को बताते-बताते चीर दिया।

भीमसेन समझ गये और भीमसेन ने भी जरासंध को निचे गिराया और एक पांव धरती पर रखा और दूसरा पांव आकाश की ओर खिंचा, चीर दिया और विपरीत दिशा में फैंक दिया, इस प्रकार जरासंध का अंत हो गया, उसके पुत्र को राजगद्दी पर बैठाकर बहुत सा धन लेकर कृष्ण इन्द्रप्रस्थ आयें, पाण्ड़वों के राजकोष में धन जमा करा दिया, इन्द्रप्रस्थ में आकर राजसूय यज्ञ का शुभारम्भ हुआ।

शेष जारी • • • • • • • • • •

जय श्री कृष्ण!
शुभ संध्या
मोतीभाई रावल
[2/14, 05:55] पं सत्यशु: एक बार अर्जुन अपने सखा श्री कृष्ण के साथ वन में विहार कर रहे थे। अचानक ही अर्जुन के मन में एक प्रश्न आया और उसने जिज्ञासा के साथ श्री कृष्ण की तरफ देखा।

श्री कृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा – हे पार्थ! क्या पूछना चाहते हो ? पूछो । अर्जुन ने पूछा, हे माधव! पूरे ब्रह्माड में सबसे बड़ा कौन हैं ? श्री कृष्ण ने कहा – हे पार्थ ! सबसे बड़ी तो धरती ही दिखती हैं, पर इसे समुद्र ने घेर रखा हैं मतलब यह बड़ी नहीं।

समुद्र को भी बड़ा नहीं कहा जा सकता, इसे अगस्त्य ऋषि ने पी लिया था, इसका मतलब अगस्त्य ऋषि बड़े हैं, पर वे भी आकाश के एक कोने में चमक रहे हैं। इसका मतलब आकाश बड़ा हैं !

पर इस आकाश को भी मेरे बामन अवतार ने अपने एक पग में नाप लिया था। इसका मतलब सबसे बड़ा मैं ही हूँ ! परंतु मैं भी बड़ा कैसे हो सकता हूँ, क्यूंकि मैं अपने भक्तों के ह्रदय में वास करता हूँ।

अर्थात सबसे बड़ा भक्त हैं । इस तरह भक्त के हृदय में भगवान बसते हैं, इसलिए इस संसार में सबसे बड़ा भक्त हैं।

🚩🚩
[2/14, 05:55] पं सत्यशु: *सनातन धर्म के अनुसार कर्म  से वर्ण जाति व्यवस्था होती है ! ...जन्म से वर्ण नहीं*

प्राचीन काल में जब बालक समिधा हाथ में लेकर पहली बार गुरुकुल जाता था तो कर्म से वर्ण का निर्धारण होता था .. यानि के बालक के कर्म गुण स्वभाव को परख कर गुरुकुल में गुरु बालक का वर्ण निर्धारण करते थे ! यदि ज्ञानी बुद्धिमान है तो ब्राह्मण ..यदि निडर बलशाली
है तो क्षत्रिय ...आदि ! यानि के एक ब्राह्मण के घर शूद्र और एक शूद्र के यहाँ ब्राह्मण का जन्म हो
सकता था ! ..लेकिन धीरे-धीरे यह व्यवस्था लोप हो गयी और जन्म से वर्ण व्यवस्था आ गयी ..और हिन्दू धर्म का पतन प्रारम्भ हो गया !.

*जय हो सत्य सनातन धर्म की* 🚩
[2/14, 05:55] पं सत्यशु: ब्राम्हण क्षत्रिय विन्षा शुद्राणच परतपः।

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभाव प्रभवे गुणिः ॥

गीता॥१८-१४१॥

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।

तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥

गीता॥४-१३॥

                अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिया , शुद्र, वैश्य का विभाजन व्यक्ति के कर्म और गुणों के हिसाब से होता है, न की जन्म के. गीता में भगवन श्री कृष्ण ने और अधिक स्पस्ट करते हुए लिखा है की की वर्णों की व्यवस्था जन्म के आधार पर नहीं कर्म के आधार पर होती है।

*सत्य सनातन धर्म की जय हो* 🚩
[2/14, 05:56] पं सत्यशु: एकवर्ण मिदं पूर्व विश्वमासीद् युधिष्ठिर ।।

कर्म क्रिया विभेदन चातुर्वर्ण्यं प्रतिष्ठितम्॥

सर्वे वै योनिजा मर्त्याः सर्वे मूत्रपुरोषजाः ।।

एकेन्दि्रयेन्द्रियार्थवश्च तस्माच्छील गुणैद्विजः ।।

शूद्रोऽपि शील सम्पन्नों गुणवान् ब्राह्णो भवेत् ।।

ब्राह्णोऽपि क्रियाहीनःशूद्रात् प्रत्यवरो भवेत्॥ (महाभारत वन पर्व)

                पहले एक ही वर्ण था पीछे गुण, कर्म भेद से चार बने। सभी लोग एक ही प्रकार से पैदा होते हैं। सभी की एक सी इन्द्रियाँ हैं। इसलिए जन्म से जाति मानना उचित नहीं हैं। यदि शूद्र अच्छे कर्म करता है तो उसे ब्राह्मण ही कहना चाहिए और कर्तव्यच्युत ब्राह्मण को शूद्र से भी नीचा मानना चाहिए।

*सत्य सनातन धर्म की जय* 🚩
[2/14, 05:56] पं सत्यशु: मनु’ने ‘मनुस्मृति’ में बताया है –

“शूद्रो बा्रह्मणतामेति ब्राह्मणश्चेति शूद्रताम्।

क्षत्रियाज्जात्मेवन्तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च।।

                   अर्थात् शूद्र कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय के समान गुण, कर्म स्वभाव वाला हो, तो वह शूद्र, ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य हो जाता है। वैसे ही जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो, उसके गुण व कर्म शूद्र के समान हो, तो वह शूद्र हो जाता है, वैसे ही क्षत्रिय या वैश्य कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण व शूद्र के समान होने पर, ब्राह्मण व शूद्र हो जाता है।

*सत्य सनातन धर्म की जय* 🚩
[2/14, 05:56] पं सत्यशु: वर्ण परिवर्तन के कुछ उदाहरण –

(1). ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे। परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की। ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है।

(2). ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे। जुआरी और हीन चरित्र भी थे। परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये।ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया। (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)

(3). सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए।

(4). राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। (विष्णु पुराण ४.१.१४)

अगर उत्तर रामायण की मिथ्या कथा के अनुसार शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता तो पृषध ये कैसे कर पाए?

(5.) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए। पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। (विष्णु पुराण ४.१.१३)

(6). धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। (विष्णु पुराण ४.२.२)

(7). आगे उन्हीं के वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए। (विष्णु पुराण ४.२.२)

(8). भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए।

(9). विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने।

(10). हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए। (विष्णु पुराण ४.३.५)

(11). क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया।(विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए। इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं।

(12). मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने।

(13). ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना।

(14). राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ।

(15). त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे।

(16). विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया। विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया।

(17). विदुर दासी पुत्र थे। तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया।

(18). वत्स शूद्र कुल में उत्पन्न होकर भी ऋषि बने (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)।

(19). मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोकों से भी पता चलता है कि कुछ क्षत्रिय जातियां, शूद्र बन गईं। वर्ण परिवर्तन की साक्षी देने वाले यह श्लोक मनुस्मृति में बहुत बाद के काल में मिलाए गए हैं। इन परिवर्तित जातियों के नाम हैं – पौण्ड्रक, औड्र,द्रविड, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पल्हव, चीन, किरात,दरद, खश।

(20). महाभारत अनुसन्धान पर्व (३५.१७-१८) इसी सूची में कई अन्य नामों को भी शामिल करता है – मेकल, लाट,कान्वशिरा, शौण्डिक, दार्व, चौर, शबर, बर्बर।

(21). आज भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलितों में समान गोत्र मिलते हैं। इस से पता चलता है कि यह सब एक ही पूर्वज, एक ही कुल की संतान हैं। लेकिन कालांतर में वर्ण व्यवस्था गड़बड़ा गई और यह लोग अनेक जातियों में बंट ग

*सत्य सनातन धर्म की जय हो* 🚩
[2/14, 05:56] पं सत्यशु: (((((((( श्रीजगन्नाथ जी कथा ))))))))
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एक बार भगवान श्री कृष्ण सो रहे थे और निद्रावस्था में उनके मुख से राधा जी का नाम निकला. पटरानियों को लगा कि वह प्रभु की इतनी सेवा करती है परंतु प्रभु सबसे ज्यादा राधा जी का ही स्मरण रहता है.
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रुक्मिणी जी एवं अन्य रानियों ने रोहिणी जी से राधा रानी व श्री कृष्ण के प्रेम व ब्रज-लीलाओं का वर्णन करने की प्रार्थना की. माता ने कथा सुनाने की हामी तो भर दी लेकिन यह भी कहा कि श्री कृष्ण व बलराम को इसकी भनक न मिले.
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तय हुआ कि सभी रानियों को रोहिणी जी एक गुप्त स्थान पर कथा सुनाएंगी. वहां कोई और न आए इसके लिए सुभद्रा जी को पहरा देने के लिए मना लिया गया.
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सुभद्रा जी को आदेश हुआ कि स्वयं श्री कृष्ण या बलराम भी आएं तो उन्हें भी अंदर न आने देना. माता ने कथा सुनानी आरम्भ की. सुभद्रा द्वार पर तैनात थी. थोड़ी देर में श्री कृष्ण एवं बलराम वहां आ पहुंचे. सुभद्रा ने अन्दर जाने से रोक लिया.
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इससे भगवान श्री कृष्ण को कुछ संदेह हुआ. वह बाहर से ही अपनी सूक्ष्म शक्ति द्वारा अन्दर की माता द्वारा वर्णित ब्रज लीलाओं को आनंद लेकर सुनने लगे. बलराम जी भी कथा का आनंद लेने लगे.
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कथा सुनते-सुनते श्री कृष्ण, बलराम व सुभद्रा के हृदय में ब्रज के प्रति अद्भुत प्रेम भाव उत्पन्न हुआ. उस भाव में उनके पैर-हाथ सिकुड़ने लगे जैसे बाल्य काल में थे. तीनों राधा जी की कथा में ऐसे विभोर हुए कि मूर्ति के समान जड़ प्रतीत होने लगे.
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बड़े ध्यान पूर्वक देखने पर भी उनके हाथ-पैर दिखाई नहीं देते थे. सुदर्शन ने भी द्रवित होकर लंबा रूप धारण कर लिया. उसी समय देवमुनि नारद वहां आ पहुंचे. भगवान के इस रूप को देखकर आश्चर्यचकित हो गए और निहारते रहे.
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कुछ समय बाद जब तंद्रा भंग हुई तो नारद जी ने प्रणाम करके भगवान श्री कृष्ण से कहा- हे प्रभु ! मेरी इच्छा है कि मैंने आज जो रूप देखा है, वह रूप आपके भक्त जनों को पृथ्वी लोक पर चिर काल तक देखने को मिले. आप इस रूप में पृथ्वी पर वास करें.
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भगवान श्री कृष्ण नारद जी की बात से प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि ऐसा ही होगा. कलिकाल में मैं इसी रूप में नीलांचल क्षेत्र में अपना स्वरूप प्रकट करुंगा.
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कलियुग आगमन के उपरांत प्रभु की प्रेरणा से मालव राज इन्द्रद्युम्न ने भगवान श्री कृष्ण, बलभद्र जी और बहन सुभद्रा जी की ऐसी ही प्रतिमा जगन्नाथ मंदिर में स्थापित कराई. यह रोचक कथा आगे पड़े.
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राजा इन्द्रद्युम्न श्रेष्ठ प्रजा पालक राजा थे. प्रजा उन्हें बहुत प्रेम करती थी. प्रजा सुखी और संतुष्ट थी. राजा के मन में इच्छा थी कि वह कुछ ऐसा करे जिससे सभी उन्हें स्मरण रखें.
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दैवयोग से इंद्रद्युम्न के मन में एक अज्ञात कामना प्रगट हुई कि वह ऐसा मंदिर का निर्माण कराएं जैसा दुनिया में कहीं और न हो. इंद्रद्युम्न विचारने लगे कि आखिर उनके मंदिर में किस देवता की मूर्ति स्थापित करें.
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राजा के मन में यही इच्छा और चिंतन चलने लगा. एक रात इसी पर गंभीर चिंतन करते सो गए. नीद में राजा ने एक सपना देखा. सपने में उन्हें एक देव वाणी सुनाई पड़ी.
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इंद्रद्युम्न ने सुना- राजा तुम पहले नए मंदिर का निर्माण आरंभ करो. मूर्ति विग्रह की चिंता छोड़ दो. उचित समय आने पर तुम्हें स्वयं राह दिखाई पड़ेगी. राजा नीद से जाग उठे. सुबह होते ही उन्होंने अपने मंत्रियों को सपने की बात बताई.
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राज पुरोहित के सुझाव पर शुभ मुहूर्त में पूर्वी समुद्र तट पर एक विशाल मंदिर के निर्माण का निश्चय हुआ. वैदिक-मंत्रोचार के साथ मंदिर निर्माण का श्रीगणेश हुआ.
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राजा इंद्रद्युम्न के मंदिर बनवाने की सूचना शिल्पियों और कारीगरों को हुई. सभी इसमें योगदान देने पहुंचे. दिन रात मंदिर के निर्माण में जुट गए. कुछ ही वर्षों में मंदिर बनकर तैयार हुआ.
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सागर तट पर एक विशाल मंदिर का निर्माण तो हो गया परंतु मंदिर के भीतर भगवान की मूर्ति की समस्या जस की तस थी. राजा फिर से चिंतित होने लगे. एक दिन मंदिर के गर्भगृह में बैठकर इसी चिंतन में बैठे राजा की आंखों से आंसू निकल आए.
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राजा ने भगवान से विनती की- प्रभु आपके किस स्वरूप को इस मंदिर में स्थापित करूं इसकी चिंता से व्यग्र हूं. मार्ग दिखाइए. आपने स्वप्न में जो संकेत दिया था उसे पूरा होने का समय कब आएगा ? देव विग्रह विहीन मंदिर देख सभी मुझ पर हंसेंगे.
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राजा की आंखों से आंसू झर रहे थे और वह प्रभु से प्रार्थना करते जा रहे थे- प्रभु आपके आशीर्वाद से मेरा बड़ा सम्मान है. प्रजा समझेगी कि मैंने झूठ-मूठ में स्वप्न में आपके आदेश की बात कहकर इतना बड़ा श्रम कराया. हे प्रभु मार्ग दिखाइए.
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राजा दुखी मन से अपने महल में चले गए. उस रात को राजा ने फिर एक सपना देखा. सपने में उसे देव वाणी सुनाई दी- राजन ! यहां निकट में ही भगवान श्री कृष्ण का विग्रह रूप है. तुम उन्हें खोजने का प्रयास करो, तुम्हें दर्शन मिलेंगे.
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इन्द्रद्युम्न ने स्वप्न की बात पुनः पुरोहित और मंत्रियों को बताई. सभी यह निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रभु की कृपा सहज प्राप्त नहीं होगी. उसके लिए हमें निर्मल मन से परिश्रम आरंभ करना होगा.
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भगवान के विग्रह का पता लगाने की जिम्मेदारी राजा इंद्रद्युम्न ने चार विद्वान पंडितों को सौंप दिया. प्रभु इच्छा से प्रेरित होकर चारों विद्वान चार दिशाओं में निकले.
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उन चारों में एक विद्वान थे विद्यापति. वह चारों में सबसे कम उम्र के थे. प्रभु के विग्रह की खोज के दौरान उनके साथ बहुत से अलौकिक घटनाएं हुई. प्रभु का विग्रह किसे मिला ? यह प्रसंग आगे पढ़ें.
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पंडित विद्यापति पूर्व दिशा की ओर चले. कुछ आगे चलने के बाद विद्यापति उत्तर की ओर मुडे तो उन्हें एक जंगल दिखाई दिया. वन भयावह था. विद्यापति श्री कृष्ण के उपासक थे. उन्होंने श्री कृष्ण का स्मरण किया और राह दिखाने की प्रार्थना की.
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भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से उन्हें राह दिखने लगी. प्रभु का नाम लेते वह वन में चले जा रहे थे. जंगल के मध्य उन्हें एक पर्वत दिखाई दिया. पर्वत के वृक्षों से संगीत की ध्वनि सा सुरम्य गीत सुनाई पड़ रहा था.
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विद्यापति संगीत के जान कार थे. उन्हें वहां मृदंग, बंसी और करताल की मिश्रित ध्वनि सुनाई दे रही थी. यह संगीत उन्हें दिव्य लगा. संगीत की लहरियों को खोजते विद्यापति आगे बढ़ चले.
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वह जल्दी ही पहाड़ी की चोटी पर पहुंच गए. पहाड़ के दूसरी ओर उन्हें एक सुंदर घाटी दिखी जहां भील नृत्य कर रहे थे. विद्यापति उस दृश्य को देखकर मंत्र मुग्ध थे. सफर के कारण थके थे पर संगीत से थकान मिट गयी और उन्हें नींद आने लगी.
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अचानक एक बाघ की गर्जना सुनकर विद्यापति घबरा उठे. बाघ उनकी और दौड़ता आ रहा था. बाघ को देखकर विद्यापति घबरा गए और बेहोश होकर वहीं गिर पडे.
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बाघ विद्यापति पर आक्रमण करने ही वाला था कि तभी एक स्त्री ने बाघ को पुकारा- बाघा..!! उस आवाज को सुनकर बाघ मौन खडा हो गया. स्त्री ने उसे लौटने का आदेश दिया तो बाघ लौट पड़ा.
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बाघ उस स्त्री के पैरों के पास ऐसे लोटने लगा जैसे कोई बिल्ली पुचकार सुनकर खेलने लगती है. युवती बाघ की पीठ को प्यार से थपथपाने लगी और बाघ स्नेह से लोटता रहा.
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वह स्त्री वहां मौजूद स्त्रियों में सर्वाधिक सुंदर थी. वह भीलों के राजा विश्वावसु की इकलौती पुत्री ललिता थी. ललिता ने अपनी सेविकाओं को अचेत विद्यापति की देखभाल के लिए भेजा.
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सेविकाओं ने झरने से जल लेकर विद्यापति पर छिड़का. कुछ देर बाद विद्यापति की चेतना लौटी. उन्हें जल पिलाया गया. विद्यापति यह सब देख कर कुछ आश्चर्य में थे.
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ललिता विद्यापति के पास आई और पूछा- आप कौन हैं और भयानक जानवरों से भरे इस वन में आप कैसे पहुंचे. आपके आने का प्रयोजन बताइए ताकि मैं आपकी सहायता कर सकूं.
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विद्यापति के मन से बाघ का भय पूरी तरह गया नहीं था. ललिता ने यह बात भांप ली और उन्हें सांत्वना देते हुए कहा- विप्रवर आप मेरे साथ चलें. जब आप स्वस्थ हों तब अपने लक्ष्य की ओर प्रस्थान करें.
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विद्यापति ललिता के पीछे-पीछे उनकी बस्ती की तरफ चल दिए. विद्यापति भीलों के पाजा विश्वावसु से मिले और उन्हें अपना परिचय दिया. विश्वावसु विद्यापति जैसे विद्वान से मिलकर बड़े प्रसन्नता हुए.
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विश्वावसु के अनुरोध पर विद्यापति कुछ दिन वहां अतिथि बनकर रूके. वह भीलों को धर्म और ज्ञान का उपदेश देने लगे. उनके उपदेशों को विश्वावसु तथा ललिता बड़ी रूचि के साथ सुनते थे. ललिता के मन में विद्यापति के लिए अनुराग पैदा हो गया.
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विद्यापति ने भी भांप लिया कि ललिता जैसी सुंदरी को उनसे प्रेम हो गया है किंतु विद्यापति एक बड़े कार्य के लिए निकले थे. अचानक एक दिन विद्यापति बीमार हो गए. ललिता ने उसकी सेवा सुश्रुषा की.
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इससे विद्यापति के मन में भी ललिता के प्रति प्रेम भाव पैदा हो गया. विश्वावसु ने प्रस्ताव रखा की विद्यापति ललिता से विवाह कर ले. विद्यापति ने इसे स्वीकार कर लिया.
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कुछ दिन दोनों के सुखमय बीते. ललिता से विवाह करके विद्यापति प्रसन्न तो था पर जिस महत्व पूर्ण कार्य के लिए वह आए थे, वह अधूरा था. यही चिंता उन्हें बार बार सताती थी.
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इस बीच विद्यापति को एक विशेष बात पता चली. विश्वावसु हर रोज सवेरे उठ कर कहीं चला जाता था और सूर्योदय के बाद ही लौटता था. कितनी भी विकट स्थिति हो उसका यह नियम कभी नहीं टूटता था.
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विश्वावसु के इस व्रत पर विद्यापति को आश्चर्य हुआ. उनके मन में इस रहस्य को जानने की इच्छा हुई. आखिर विश्वावसु जाता कहां है. एक दिन विद्यापति ने ललिता से इस सम्बन्ध में पूछा. ललिता यह सुनकर सहम गई.
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आखिर वह क्या रहस्य था ? क्या वह रहस्य विद्यापति के कार्य में सहयोगी था या विद्यापति पत्नी के प्रेम में मार्ग भटक गए. यह प्रसंग आगे पढ़ें
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विद्यापति ने ललिता से उसके पिता द्वारा प्रतिदिन सुबह किसी अज्ञात स्थान पर जाने और सूर्योदय के पूर्व लौट आने का रहस्य पूछा. विश्ववासु का नियम किसी हाल में नहीं टूटता था चाहे कितनी भी विकट परिस्थिति हो.
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ललिता के सामने धर्म संकट आ गया. वह पति की बात को ठुकरा नहीं सकती थी लेकिन पति जो पूछ रहा था वह उसके वंश की गोपनीय परंपरा से जुड़ी बात थी जिसे खोलना संभव नहीं था.
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ललिता ने कहा- स्वामी ! यह हमारे कुल का रहस्य है जिसे किसी के सामने खोला नहीं जा सकता परंतु आप मेरे पति हैं और मैं आपको कुल का पुरुष मानते हुए जितना संभव है उतना बताती हूं.
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यहां से कुछ दूरी पर एक गुफा है जिसके अन्दर हमारे कुल देवता हैं. उनकी पूजा हमारे सभी पूर्वज करते आए हैं. यह पूजा निर्बाध चलनी चाहिए. उसी पूजा के लिए पिता जी रोज सुबह नियमित रूप से जाते हैं.
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विद्यापति ने ललिता से कहा कि वह भी उनके कुल देवता के दर्शन करना चाहते हैं. ललिता बोली- यह संभव नहीं. हमारे कुल देवता के बारे में किसी को जानने की इच्छा है, यह सुनकर मेरे पिता क्रोधित हो जाएंगे.
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विद्यापति की उत्सुक्ता बढ़ रही थी. वह तरह-तरह से ललिता के अपने प्रेम की शपथ देकर उसे मनाने लगे. आखिर कार ललिता ने कहा कि वह अपने पिता जी से विनती करेगी कि वह आपको देवता के दर्शन करा दें.
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ललिता ने पिता से सारी बात कही. वह क्रोधित हो गए. ललिता ने जब यह कहा कि मैं आपकी अकेली संतान हूं. आपके बाद देवता के पूजा का दायित्व मेरा होगा. इसलिए मेरे पति का यह अधिकार बनता है क्योंकि आगे उसे ही पूजना होगा.
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विश्वावसु इस तर्क के आगे झुक गए. वह बोले- गुफा के दर्शन किसी को तभी कराए जा सकते हैं जब वह भगवान की पूजा का दायित्व अपने हाथ में ले ले. विद्यापति ने दायित्व स्वीकार किया तो विश्वावसु देवता के दर्शन कराने को राजी हुए.
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दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व विद्यापति की आंखों पर पट्टी बांधकर विश्वावसु उनका दाहिना हाथ पकड़ कर गुफा की तरफ निकले. विद्यापति ने मुट्ठी में सरसों रख लिया था जिसे रास्ते में छोड़ते हुए गए.
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गुफा के पास पहुंचकर विश्वावसु रुके और गुफा के पास पहुंच गए. विश्वावसु ने विद्यापति के आँखों की काली पट्टी खोल दी. उस गुफा में नीले रंग का प्रकाश चमक उठा. हाथों में मुरली लिए भगवान श्री कृष्ण का रूप विद्यापति को दिखाई दिया.
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विद्यापति आनंद मग्न हो गए. उन्होंने भगवान के दर्शन किए. दर्शन के बाद तो जैसे विद्यापति जाना ही नहीं चाहते थे. पर विश्वावसु ने लौटने का आदेश दिया. फिर उनकी आंखों पर पट्टी बांधी और दोनों लौट पड़े.
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लौटने पर ललिता ने विद्यापति से पूछा. विद्यापति ने गुफा में दिखे अलौकिक दृश्य के बारे में पत्नी को बताना भी उसने उचित नहीं समझा. वह टाल गए. यह तो जानकारी हो चुकी थी कि विश्वावसु श्री कृष्ण की मूर्ति की पूजा करते हैं.
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विद्यापति को आभास हो गया कि महाराज ने स्वप्न में जिस प्रभु विग्रह के बारे में देव वाणी सुनी थी, वह इसी मूर्ति के बारे में थी. विद्यापति विचार करने लगे कि किसी तरह इसी मूर्ति को लेकर राजधानी पहुंचना होगा.
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वह एक तरफ तो गुफा से मूर्ति को लेकर जाने की सोच रहे थे दूसरी तरफ भील राज और पत्नी के साथ विश्वासघात के विचार से उनका मन व्यथित हो रहा था. विद्यापति धर्म-अधर्म के बारे में सोचता रहे.
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फिर विचार आया कि यदि विश्वावसु ने सचमुच उसपर विश्वास किया होता तो आंखों पर पट्टी बांधकर गुफा तक नहीं ले जाता. इसलिए उसके साथ विश्वास घात का प्रश्न नहीं उठता. उसने गुफा से मूर्ति चुराने का मन बना लिया.
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विद्यापति ने ललिता से कहा कि वह अपने माता-पिता के दर्शन करने के लिए जाना चाहता है. वे उसे लेकर परेशान होंगे. ललिता भी साथ चलने को तैयार हुई तो विद्यापति ने यह कह कर समझा लिया कि वह शीघ्र ही लौटेगा तो उसे लेकर जाएगा.
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ललिता मान गई. विश्वावसु ने उसके लिए घोड़े का प्रबंध किया. अब तक सरसों के दाने से पौधे निकल आए थे. उनको देखता विद्यापति गुफा तक पहुंच गया. उसने भगवान की स्तुति की और क्षमा प्रार्थना के बाद उनकी मूर्ति उठाकर झोले में रख ली.
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शाम तक वह राजधानी पहुंच गया और सीधा राजा के पास गया. उसने दिव्य प्रतिमा राजा को सौंप दी और पूरी कहानी सुनायी. राजा ने बताया कि उसने कल एक सपना देखा कि सुबह सागर में एक कुन्दा बहकर आएगा.
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उस कुंदे की नक्काशी करवाकर भगवान की मूर्ति बनवा लेना जिसका अंश तुम्हें प्राप्त होने वाला है. वह भगवान श्री विष्णु का स्वरूप होगा. तुम जिस मूर्ति को लाए हो वह भी भगवान विष्णु का अंश है. दोनों आश्वस्त थे कि उनकी तलाश पूरी हो गई है.
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राजा ने कहा कि जब भगवान द्वारा भेजी लकड़ी से हम इस प्रतिमा का वड़ा स्वरूप बनवा लेंगे तब तुम अपने ससुर से मिलकर उन्हें मूर्ति वापस कर देना. उनके कुल देवता का इतना बड़ा विग्रह एक भव्य मंदिर में स्थापित देखकर उन्हें खुशी ही होगी.
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दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व राजा विद्यापति तथा मंत्रियों को लेकर सागर तट पर पहुंचा. स्वप्न के अनुसार एक बड़ा कुंदा पानी में बहकर आ रहा था. सभी उसे देखकर प्रसन्न हुए. दस नावों पर बैठकर राजा के सेवक उस कुंदे को खींचने पहुंचे.
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मोटी-मोटी रस्सियों से कुंदे को बांधकर खींचा जाने लगा लेकिन कुंदा टस से मस नहीं हुआ. और लोग भेजे गए लेकिन सैकड़ों लोग और नावों का प्रयोग करके भी कुंदे को हिलाया तक नहीं जा सका.
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राजा का मन उदास हो गया. सेनापति ने एक लंबी सेना कुंदे को खींचने के लिए भेज दी. सारे सागर में सैनिक ही सैनिक नजर आने लगे लेकिन सभी मिल कर कुंदे को अपने स्थान से हिला तक न सके. सुबह से रात हो गई.
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अचानक राजा ने काम रोकने का आदेश दिया. उसने विद्यापति को अकेले में ले जाकर कहा कि वह समस्या का कारण जान गया है. राजा के चेहरे पर संतोष के भाव थे. राजा ने विद्यापति को गोपनीय रूप से कहीं चलने की बात कही.
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राजा इंद्रद्युम्न ने कहा कि अब भगवान का विग्रह बन जाएगा. बस एक काम करना होगा. भगवान श्री कृष्ण ने राजा को ऐसा क्या संकेत दे दिया था कि उसकी सारी परेशानी समाप्त हो गई. यह प्रसंग आगे पढ़ें.
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राजा इंद्रध्युम्न को भगवान की प्रेरणा से समझ में आने लगा कि आखिर प्रभु के विग्रह के लिए जो लकड़ी का कुंदा पानी में बह कर आया है वह हिल-डुल भी क्यों नहीं रहा.
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राजा ने विद्यापति को बुलाया और कहा- तुम जिस दिव्य मूर्ति को अपने साथ लाए हो उसकी अब तक जो पूजा करता आया था उससे तुरंत भेंट करके क्षमा मांगनी होगी. बिना उसके स्पर्श किए यह कुंदा आगे नहीं बढ सकेगा.
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राजा इंद्रद्युम्न और विद्यापति विश्वावसु से मिलने पहुंचे. राजा ने पर्वत की चोटी से जंगल को देखा तो उसकी सुंदरता को देखता ही रह गया. दोनों भीलों की बस्ती की ओर चुपचाप चलते रहे.
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इधर विश्वावसु अपने नियमित दिनचर्या के हिसाब से गुफा में अपने कुल देवता की पूजा के लिए चले. वहां प्रभु की मूर्ति गायब देखी तो वह समझ गए कि उनके दामाद ने ही यह छल किया है.
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विश्वावसु लौटे और ललिता को सारी बात सुना दी. विश्वावसु पीड़ा से भरा घर के आंगन में पछाड़ खाकर गिर गए. ललिता अपने पति द्वारा किए विश्वास घात से दुखी थी और स्वयं को इसका कारण मान रही थी. पिता-पुत्री दिन भर विलाप करते रहे.
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उन दोनों ने अन्न का एक दाना भी न छुआ. अगली सुबह विश्वावसु उठे और सदा की तरह अपनी दिनचर्या का पालन करते हुए गुफा की तरफ बढ़ निकले. वह जानते थे कि प्रभु का विग्रह वहां नहीं है फिर भी उनके पैर गुफा की ओर खींचे चले जाते थे.
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विश्वावसु के पीछे ललिता और रिश्तेदार भी चले. विश्वावसु गुफा के भीतर पहुंचे. जहां भगवान की मूर्ति होती थी उस चट्टान के पास खड़े होकर हाथ जोड़ कर खडे रहे. फिर उस ऊंची चट्टान पर गिर गए और बिलख–बिलख कर रोने लगे. उनके पीछे प्रजा भी रो रही थी.
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एक भील युवक भागता हुआ गुफा के पास आया और बताया कि उसने महाराज और उनके साथ विद्यापति को बस्ती की ओर से आते देखा है. यह सुन कर सब चौंक उठे. विश्वावसु राजा के स्वागत में गुफा से बाहर आए लेकिन उनकी आंखों में आंसू थे.
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राजा इंद्रद्युमन विश्वावसु के पास आए और उन्हें अपने हृदय से लगा लिया. राजा बोले- भीलराज, तुम्हारे कुल देवता की प्रतिमा का चोर तुम्हारा दामाद नहीं मैं हूं. उसने तो अपने महाराज के आदेश का पालन किया. यह सुन कर सब चौंक उठे.
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विश्वावसु ने राजा को आसन दिया. राजा ने उस विश्वावसु को शुरू से अंत तक पूरी बात बता कर कहा कि आखिर क्यों यह सब करना पड़ा. फिर राजा ने उनसे अपने स्वप्न और फिर जगन्नाथ पुरी में सागर तट पर मंदिर निर्माण की बात कह सुनाई.
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राजा ने विश्वावसु से प्रार्थना की- भील सरदार विश्वावसु, कई पीढ़ियों से आपके वंश के लोग भगवान की मूर्ति को पूजते आए हैं. भगवान के उस विग्रह के दर्शन सभी को मिले इसके लिए आपकी सहायता चाहिए.
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ईश्वर द्वारा भेजे गए लकड़ी के कुंदे से बनी मूर्ति के भीतर हम इस दिव्य मूर्ति को सुरछित रखना चाहते हैं. अपने कुल की प्रतिमा को पुरी के मंदिर में स्थापित करने की अनुमति दो. उस कुंदे को तुम स्पर्श करोगे तभी वह हिलेगा.
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विश्वावसु राजी हो गए. राजा सपरिवार विश्वावसु को लेकर सागर तट पर पहुंचे. विश्वावसु ने कुंदे को छुआ. छूते ही कुंदा अपने आप तैरता हुआ किनारे पर आ लगा. राजा के सेवकों ने उस कुंदे को राज महल में पहुंचा दिया.
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अगले दिन मूर्तिकारों और शिल्पियों को राजा ने बुलाकर मंत्रणा की कि आखिर इस कुंदे से कौन सी देवमूर्ति बनाना शुभ दायक होगा. मूर्तिकारों ने कह दिया कि वे पत्थर की मूर्तियां बनाना तो जानते हैं लेकिन लकड़ी की मूर्ति बनाने का उन्हें ज्ञान नहीं.
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एक नए विघ्न के पैदा होने से राजा फिर चिंतित हो गए. उसी समय वहां एक बूढा आया. उसने राजा से कहा- इस मंदिर में आप भगवान श्री कृष्ण को उनके भाई बलभद्र तथा बहन सुभद्रा के साथ विराज मान करें. इस दैवयोग का यही संकेत है.
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राजा को उस बूढ़े व्यक्ति की बात से सांत्वना तो मिली लेकिन समस्या यह थी कि आखिर मूर्ति बने कैसे ? उस बूढ़े ने कहा कि मैं इस कला में कुशल हूं. मैं इस पवित्र कार्य को पूरा करूंगा और मूर्तियां बनाउंगा. पर मेरी एक शर्त है.
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राजा प्रसन्न हो गए और उनकी शर्त पूछी. बूढ़े शिल्पी ने कहा- मैं भगवान की मूर्ति निर्माण का काम एकांत में करूंगा. मैं यह काम बंद कमरे में करुंगा. कार्य पूरा करने के बाद मैं स्वयं दरवाजा खोल कर बाहर आऊंगा. इस बीच कोई मुझे नहीं बुलाए.
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राजा सहमत तो थे लेकिन उन्हें एक चिंता हुई और बोले- यदि कोई आपके पास नहीं आएगा तो ऐसी हालत में आपके खाने पीने की व्यवस्था कैसे होगी ? शिल्पी ने कहा- जब तक मेरा काम पूर्ण नहीं होता मैं कुछ खाता-पीता नहीं हूं.
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राज मंदिर के एक विशाल कक्ष में उस बूढ़े शिल्पी ने स्वयं को 21 दिनों के लिए बंद कर लिया और काम शुरू कर दिया. भीतर से आवाजें आती थीं. महारानी गुंडीचा देवी दरवाजे से कान लगाकर अक्सर छेनी-हथौड़े के चलने की आवाजें सुना करती थीं.
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महारानी रोज की तरह कमरे के दरवाजे से कान लगाए खड़ी थीं. 15 दिन बीते थे कि उन्हें कमरे से आवाज सुनायी पडनी बंद हो गई. जब मूर्ति कार के काम करने की कोई आवाज न मिली तो रानी चिंतित हो गईं.
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उन्हें लगा कि वृद्ध आदमी है, खाता-पीता भी नहीं कहीं उसके साथ कुछ अनिष्ट न हो गया हो. व्याकुल होकर रानी ने दरवाजे को धक्का देकर खोला और भीतर झांककर देखा.
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महारानी गुंडीचा देवी ने इस तरह मूर्ति कार को दिया हुआ वचन भंग कर दिया था. मूर्ति कार अभी मूर्तियां बना रहा था. परंतु रानी को देखते ही वह अदृश्य हो गए. मूर्ति निर्माण का कार्य अभी तक पूरा नहीं हुआ था. हाथ-पैर का निर्माण पूर्ण नहीं हुआ था.
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वृद्ध शिल्प कार के रूप में स्वयं देवताओं के शिल्पी भगवान विश्वकर्मा आए थे. उनके अदृश्य होते ही मूर्तियां अधूरी ही रह गईं. इसी कारण आज भी यह मूर्तियां वैसी ही हैं. उन प्रतिमाओं को ही मंदिर में स्थापित कराया गया.
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कहते हैं विश्वावसु संभवतः उस जरा बहेलिए का वंशज था जिसने अंजाने में भगवान कृष्ण की ह्त्या कर दी थी. विश्वावसु शायद कृष्ण के पवित्र अवशेषों की पूजा करता था. ये अवशेष मूर्तियों में छिपाकर रखे गए थे.
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विद्यापति और ललिता के वंशज जिन्हें दैत्य्पति कहते हैं उनका परिवार ही यहां अब तक पूजा करता है.
Bhakti Kathayen भक्ति कथायें ...
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  (((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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[2/14, 07:25] पं अर्चना जी: 🌺 *::~ सुबह-सुबह की नमस्ते ~::* 🌺

         जिंदगी में पीछे देखोगे तो *"अनुभव"* मिलेगा...,
         जिंदगी में आगे देखोगे तो *"आशा"* मिलेगी...,
         दांए-बांए देखोगे तो *"सत्य"* मिलेगा...,
         लेकिन अगर भीतर देखोगे तो *"परमात्मा"* मिलेगा...,
         *"आत्मविश्वास"* मिलेगा...।

*हमेशा खुश रहिए ताकि दूसरे भी आपसे खुश हो जाएँ।*
👏🏻 *...आपका दिन शुभ हो...*                       🌷🌴शुभप्रभात🌴🌷
[2/14, 07:58] राम भवनमणि त्रिपाठी: 🔶🔷 कुसंग और सुसंग🔷🔶
      धन्य घरी सोई जब सतसंगा।।
हानि कुसंग सुसंगति लाहु।लोकहुँ वेद बिदित सब काहू।।
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा।कीचहिं मिलइ नीच जल संगा।।
साधु असाधु सदन सुक सारीं।सुमरहिं राम देंही गनि गारीं।।
धूम कुसंगत कारिख होई।लखिअ पुरान मंजू मसि सोई।।
पृथ्वी की धूल हवा की संगति से आकाश में चढ़ जाती है।परंतु वही धूल जल की संगति से कीचड़ का रूप धारण कर लेती है।साधु के घर रहनेवाला तोता राम राम की रट लगता है।और दुर्जनो के घर तोता गन्दी गलियां बोलता है।कुसंग के कारण धुँआ कालिख कहलाता है, वही धुँआ सुसंग से सुन्दर स्याही बनकर सद्ग्रन्थ लिखने के काम आता है।
ग्रह भेषज जल पवन पट,
              पाई कुजोग सुजोग,
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग,
              लखहिं सुलच्छन लोग।।
अर्थात ग्रह ओषधि,जल,वायु और वस्त्र ये सब ही कुसंग या सुसंग पाकर बुरे या भले बहन जाते है।
सतसंगत मुद मंगल मूलानसोई फल सिधि सब साधन मूला।।
सठ सुधरहिं सतसंगत पाई।पारस परस कुधातु सुहाई।।
संतो की संगति आनंद और कल्याण का मूल है।जैसे पारस की संगति से लोहा भी सोना बन जाता है।इसी प्रकार साधु की सत संगति पाकर दुष्ट व्यक्ति भी सज्जन बन जाते है।
[2/14, 08:06] ‪+91 90241 11290‬: माता रामो मत्पिता रामचन्द्र:
(वाल्मीकीयरामायण)
मां बाप ही राम हैं अथवा भगवान् राम ही माता पिता हैं|
[2/14, 08:06] ‪+91 90241 11290‬: देह चर्म को उतारकर ,उसकी जूती बनवाकर भी हम अगर इनको पहनावें तो भी उरिन नहीं हो सकते,मेरी बुद्धि से तो ||
भगवान् की सेवाकर भले ही उरिन हो जाए |
[2/14, 08:06] ‪+91 90241 11290‬: मां सिर्फ एक ही बार अपने बच्चे रोने की उम्मीद करती है,जब वो पैदा होता हैं,बाकी शेष जीवन में हंसता हुआ देखना चाहती हैं|
[2/14, 08:13] ‪+91 99773 99419‬: *🔔मूल श्लोकः 🔔*
अर्जुन उवाच-
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥ २.४ ॥
*🏹पदच्छेदः........*
कथम्, भीष्मम्, अहम्, सङ्ख्ये, द्रोणम्, च, मधुसूदन । इषुभिः, प्रतियोत्स्यामि, पूजार्हौ, अरिसूदन ॥
*🌹पदपरिचयः......🌹*
मधुसूदन—अ.पुं.सम्बो.एक.
अहम् —अस्मद्-द.सर्व.प्र.एक.
सङ्ख्ये—अ.नपुं.स.एक.
कथम्—अव्ययम् 
पूजार्हौ—अ.पुं.द्वि.एक.
भीष्मम्—अ.पुं.द्वि.एक.
द्रोणम्—अ.पुं.द्वि.एक.
च—अव्ययम्
इषुभिः—उ.पु.द्वि.बहु.
प्रतियोत्स्यामि—प्रति+युध प्रहारे-पर.कर्तरि, लट्.उपु.एक.
अरिसूदन—अ.पुं.सम्बो.एक.
*🌷पदार्थः...... 🌷*
कथम् — केन प्रकारेण
भीष्मम् — भीष्मम्
अहम् — अहम्
सङ्ख्ये — युद्धे
द्रोणम् — द्रोणम्
च — च
मधुसूदन — हे कृष्ण !
इषुभिः — बाणैः
प्रतियोत्स्यामि — सम्प्रहरिष्यामि
पूजार्हौ — सम्मान्यौ
अरिसूदन — हे शत्रुभञ्जन !
*🌻अन्वयः 🌻*
मधुसूदन ! अहं सङ्ख्ये कथम् इषुभिः पूजार्हौ भीष्मं द्रोणं च प्रतियोत्स्यामि ? अरिसूदन !
*🐚आकाङ्क्षाः🐚*
_प्रतियोत्स्यामि।_
कुत्र प्रतियोत्स्यामि?
*सङ्ख्ये प्रतियोत्स्यामि।*
सङ्ख्ये कं प्रतियोत्स्यामि?
*सङ्ख्ये भीष्मं प्रतियोत्स्यामि।*
सङ्ख्ये भीष्मं पुनश्च कं प्रतियोत्स्यामि?
*सङ्ख्ये भीष्मं द्रोणं च प्रतियोत्स्यामि।*
सङ्ख्ये कीदृशौ भीष्मं द्रोणं च प्रतियोत्स्यामि?
*सङ्ख्ये पूजार्हौ भीष्मं द्रोणं च प्रतियोत्स्यामि।*
सङ्ख्ये पूजार्हौ भीष्मं द्रोणं च कैः प्रतियोत्स्यामि?
*सङ्ख्ये पूजार्हौ भीष्मं द्रोणं च इषुभिः प्रतियोत्स्यामि।*
सङ्ख्ये कथं पूजार्हौ भीष्मं द्रोणं च इषुभिः  प्रतियोत्स्यामि ?
*📢 तात्पर्यम्......*
हे मधुसूदन ! पितामहः भीष्‍मः आचार्यः द्रोणश्च मम अत्यन्तं पूजार्हौ । अहं युद्धे कथं तौ प्रति बाणप्रयोगं करवाणि ?
*🌻व्याकरणम्.......*
▶सन्धिः
पूजार्हावरिसूदन = पूजार्हौ + अरिसूदन — यान्तवान्तादेशसन्धिः ।
▶ समासः
पूजार्हौ = पूजाम् अर्हौ – द्वितीयातत्पुरुषः ।
▶ कृदन्तः
अर्हः = अर्ह् + अच् (कर्तरि) ।
🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹
                              *गीताप्रवेशात्*
[2/14, 08:25] ‪+91 98895 15124‬: .     ।। 🕉 ।।
   🌞 *सुप्रभातम्* 🌞
««« *आज का पंचांग* »»»
कलियुगाब्द................5118
विक्रम संवत्..............2073
शक संवत्.................1938
रवि....................उत्तरायण
मास......................फाल्गुन
पक्ष..........................कृष्ण
तिथी........................चतुर्थी
रात्रि 05.51 पर्यंत पश्चात पंचमी
तिथि स्वामी.................यम
नित्यदेवी...................भेरुंडा
सूर्योदय..........06.59.15 पर
सूर्यास्त..........06.23.44 पर
नक्षत्र............उत्तराफाल्गुनी
प्रातः 09.56 पर्यंत पश्चात हस्त
योग..........................धृति
संध्या 06.55 पर्यंत पश्चात शूल
करण..........................बव
संध्या 05.19 पर्यंत पश्चात बालव
ऋतु.........................बसंत
दिन.....................मंगलवार

🇰🇾 *आंग्ल मतानुसार* :-
14 फरवरी सन 2017 ईस्वी |

☸ शुभ अंक............5
🔯 शुभ रंग............लाल

👁‍🗨 *राहुकाल* :
दोप 03.29 से 04.53 तक ।

🚦 *दिशाशूल* :-
उत्तरदिशा -
यदि आवश्यक हो तो गुड़ का सेवन कर यात्रा प्रारंभ करें।

✡ *चौघडिया* :-
प्रात: 09.51 से 11.16 तक चंचल
प्रात: 11.16 से 12.40 तक लाभ
दोप. 12.40 से 02.04 तक अमृत
दोप. 03.29 से 04.53 तक शुभ
रात्रि 07.53 से 09.29 तक लाभ ।

🎶 *आज का मंत्र* :-
|| ॐ अजेषाय नमः ||

📣 *संस्कृत सुभाषितानि* :-
*अष्टावक्र गीता - तृतीय अध्याय :-* 
अष्टावक्र उवाच -
अविनाशिनमात्मानं
एकं विज्ञाय तत्त्वतः।
तवात्मज्ञानस्य धीरस्य
कथमर्थार्जने रतिः॥३- १॥
अर्थात :-
अष्टावक्र कहते हैं - आत्मा को अविनाशी और एक जानो । उस आत्म-ज्ञान को प्राप्त कर, किसी बुद्धिमान व्यक्ति की  रूचि धन अर्जित करने में कैसे हो सकती है॥१॥

🍃 *#‎ आरोग्यं :-*
शरीर व सांस की दुर्गध कैसे रोकें :-
1. गाजर का जूस रोज पिएं। तन की दुर्गध दूर भगाने में यह कारगर है।
2. पान के पत्ते और आंवला को बराबर मात्रा में पीसे। नहाने के पहले इसका पेस्ट लगाएं। फायदा होगा।
3. सांस की बदबू दूर करने के लिए रोज तुलसी के पत्ते चबाएं।
4. इलाइची और लौंग चूसने से भी सांस की बदबू से निजात मिलता है।
5. नहाने से पहले शरीर पर बेसन और दही का पेस्ट लगाएं। इससे त्वचा साफ हो जाती है और बंद रोम छिद्र भी खुल जाते हैं।

⚜ *आज का राशिफल* :-

🐏 *राशि फलादेश मेष* :-
वाहन-मशीनरी से दुर्घटना के योग हैं, सावधानी रखें। दिन अशांतिपूर्ण रहेगा। व्यापार-निवेश आदि की जोखिम न उठाएं।
          
🐂 *राशि फलादेश वृष* :-
कार्यों में सफलता मिलेगी। पराक्रम से लाभ के अवसर बढ़ेंगे। शुभता में वृद्धि तथा शत्रु शांत रहेंगे। लाभ-प्रतिष्ठा में वृद्धि के योग हैं।
                              
👫 *राशि फलादेश मिथुन* :-
कुसंग हानिकारक रहेगा। पराक्रम से लाभ-सम्मान बढ़ेगा। व्यापार-व्यवसाय, निवेश, नौकरी से लाभ का समय श्रेष्ठ है। इच्छित कार्य पूर्ण होंगे।
                       
🦀 *राशि फलादेश कर्क* :-
विरोधी सक्रिय होंगे। मातृपक्ष की चिंता रहेगी। यात्रा, व्यापार, निवेश, नौकरी आदि के लिए श्रेष्ठ समय है। यात्रा में सावधानी रखें।
                           
🦁 *राशि फलादेश सिंह* :-
दुर्घटना, चोरी इत्यादि का संयोग हो सकता है। व्यय बढ़ेगा। शत्रु परेशान करेंगे। निवेश सोच-समझकर करें। रिश्तेदारों से भेंट होगी ।
                       
👸🏻 *राशि फलादेश कन्या* :-
अस्वस्थता रहेगी। बकाया धन के लिए कोशिश लाभ देगी। व्यापार, निवेश, नौकरी से लाभ होगा। सामाजिक कार्यों में रुचि लेंगे।
                   
⚖ *राशि फलादेश तुला* :-
योजनाएं लाभ देंगी। शरीर अस्वस्थ रह सकता है। निवेश, नौकरी, व्यवसाय लाभदायक होंगे। प्रतिष्ठा बढ़ेगी। भौतिक सुख के साधन मिलेंगे।
                     
🦂 *राशि फलादेश वृश्चिक* :-
गृहस्थ जीवन सुखी होगा। धार्मिक कार्य होंगे। व्यापार-नौकरी व निवेश लाभदायक होंगे। योजनाएं लाभ देंगी। खान-पान में सावधानी रखें।
            
🏹 *राशि फलादेश धनु* :-
दुर्घटना हानि से बचें। वाद-विवाद से दूर रहें। व्यापार-व्यवसाय, नौकरी, निवेश में विवेक से किया गया कार्य लाभ देगा।
                         
🐊 *राशि फलादेश मकर* :-
गृहस्थ जीवन सुखी, यात्रा, राजकार्य, व्यापार, निवेश लाभदायक रहेगा। यात्रा में सावधानी रखें। योजनाएं ठीक रहेंगी। प्रतिष्ठा बढ़ेगी।
          
🏺 *राशि फलादेश कुंभ* :-
कुसंग हानिकारक रहेगा। व्यापार-नौकरी में लाभ, निवेश, यात्रा लाभकारक रहेगी। प्रमोशन, पारितोषिक मिल सकता है।
                 
🐬 *राशि फलादेश मीन* :-
मेहमान बनना शुभ रहेगा। बौद्धिक कार्य होंगे। दूरदराज से शुभ समाचार मिल सकता है। निवेश, आवेदन शुभ रहेगा। व्यापार अच्छा चलेगा।
            
☯ आज का दिन सभी के लिए मंगलमय हो ।

☯ आज मंगलवार है अपने नजदीक के मंदिर में संध्या 7 बजे सामूहिक हनुमान चालीसा पाठ में अवश्य सम्मिलित होवें |

।। 🐚 *शुभम भवतु* 🐚 ।।

🇮🇳🇮🇳 *भारत माता की जय* 🚩🚩
[2/14, 08:29] ओमीश Omish Ji: जब तक हमें घर-परिवारकी चिन्ता है और भगवान की कृपापर भरोसा नहीं है, तब तक हमें चिन्ता-युक्त ही रहना पड़ेगा।चिन्ता से छुटने के लिये *सत्संग* एवं *शरणागति* ही एकमात्र उपाय है।

🙏जय श्री मन्नारायण🙏
[2/14, 08:35] पं ज्ञानेश: ( योगी महात्मा पुरुषों के आचरण और उनकी महिमा ) यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः॥
जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि द्वारा भस्म हो गए हैं, उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं
॥19॥
~ अध्याय 4 - श्लोक : 19

💐💐💐सुप्रभातम्💐💐💐
[2/14, 08:40] ओमीश Omish Ji: *🌷सूक्ति-सुधा🌷*

कायः परहितो यस्य कलिस्तस्य करोति किम्?
       — जिसका शरीर परहित के लिए हो, उसका कलियुग क्या बिगाड़ लेगा?
[2/14, 08:41] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

श्रीमद्भगवद्गीता :  श्रीरामानुजभाष्य
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अध्याय – 18
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यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्॥5॥

यज्ञदानतप:कर्म = यज्ञ दान और तपरूप कर्म ; न त्याज्यम् = त्यागने के योग्य नहीं है (किन्तु) ; तत् = वह ; एव = नि:सन्देह ; कार्यम् = करना कर्तव्य है (क्योंकि); यज्ञ: = यज्ञ ; दानम् = दान ; च = और ; तप: = तप (यह तीनों) ; एव = ही ; मनीषिणाम् = बुद्धिमान् पुरुषों को ; पावनानि = पवित्र करने वाले हैं ।

अर्थ
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यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं हैं, बल्कि वे तो करने योग्य ही कर्त्तव्य-कर्म हैं (क्योंकि) यज्ञ, दान और तप बुद्धिमानों को भी पवित्र करने वाले हैं।

भाष्य
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यज्ञदानतपः प्रभृति वैदिकं कर्म मुमुक्षुणा न कदाचिद् अपि त्याज्यम्; अपि तु आप्रयाणाद् अहरहः कार्यम् एव; कुतः? यज्ञदानतपःप्रभृतीनि वर्णाश्रमसम्बन्धीनि कर्माणि मनीषिणां मननशीलानां पावनानि। मननम् उपासनम्। मुमुक्षूणां यावज्जीवम् उपासनं कुर्वताम् उपासननिष्पत्ति विरोधिप्राचीनकर्मविनाशनानि इत्यर्थः।

भाष्य की हिंदी
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यज्ञ, दान और तप आदि वैदिक कर्म मुमुक्षु पुरुषों के लिये कदापि त्याज्य नहीं हैं, प्रत्युत मरणकालपर्यन्त नित्यप्रति कर्तव्य हैं। क्योंकि मनीषी- मनन करने वाले पुरुषों के लिये यज्ञ, दान और तप आदि वर्णाश्रमसम्बन्धी कर्म पवित्र करने वाले होते हैं। मनन उपासना को कहते हैं। अभिप्राय यह है कि जीवनपर्यन्त उपासना करने वाले मुमुक्षु पुरुषों के लिये ये कर्म उपासना की सिद्धि के विरोधी सम्पूर्ण प्राचीन कर्मों का नाश करने वाले हैं।

             – रमेशप्रसाद शुक्ल

             –जय श्रीमन्नारायण।

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