Friday, March 3, 2017

धर्मार्थ वार्ता

[2/10, 21:47] ‪+91 8076 170 336‬: आत्मदोषैर्नियच्छन्ति सर्वे सुखदुखे जनाः”।
सब को अपने कर्मानुसार सुख्दुःख भुगतने पडते है।

“दुःखादुद्विजते जन्तुः सुखं सर्वाय रुच्यते”।
दुःख से मानव थक जाता है, सुख सबको भाता है।

राधे राधे........ हरिहर
[2/10, 21:48] ‪+91 8076 170 336‬: न नित्यं लभते दुःखं न नित्यं लभते सुखम् ।
किसी को सदैव दुःख नहीं मिलता या सदैव सुख भी लाभ नहीं होता।

हान् भवत्यनिर्विण्णः सुखं चानन्त्यमश्नुते ।
सतत उद्योग करने वाला मानव ही महान बनता है और अक्षय सुख प्राप्त करता है।
[2/11, 06:53] राम भवनमणि त्रिपाठी: शब्दों की उत्पत्ति माहेश्वर सूत्र से हुई है

(संस्कृत: शिवसूत्राणि या महेश्वर सूत्राणि) को संस्कृत व्याकरण का आधार माना जाता है। पाणिनि ने संस्कृत भाषा के तत्कालीन स्वरूप को परिष्कृत एवं नियमित करने के उद्देश्य से भाषा के विभिन्न अवयवों एवं घटकों यथा ध्वनि-विभाग (अक्षरसमाम्नाय), नाम (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण), पद, आख्यात, क्रिया, उपसर्ग, अव्यय, वाक्य, लिङ्ग इत्यादि तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों का समावेश अष्टाध्यायी में किया है। अष्टाध्यायी में ३२ पाद हैं जो आठ अध्यायों मे समान रूप से विभक्त हैं

व्याकरण के इस महनीय ग्रन्थ मे पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन करीब ४००० सूत्रों में, जो आठ अध्यायों मे संख्या की दृष्टि से असमान रूप से विभाजित हैं, किया है। तत्कालीन समाज मे लेखन सामग्री की दुष्प्राप्यता के मद्देनज़र पाणिनि ने व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है। पुनः, विवेचन को अतिशय संक्षिप्त बनाने हेतु पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से प्राप्त उपकरणों के साथ-साथ स्वयं भी अनेक उपकरणों का प्रयोग किया है जिनमे शिवसूत्र या माहेश्वर सूत्र सबसे महत्वपूर्ण हैं।

उत्पत्ति

माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति भगवान नटराज (शिव) के द्वारा किये गये ताण्डव नृत्य से मानी गयी है।

    नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्।
    उद्धर्त्तुकामो सनकादिसिद्धानेतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्॥

अर्थात:- "नृत्य (ताण्डव) के अवसान (समाप्ति) पर नटराज (शिव) ने सनकादि ऋषियों की सिद्धि और कामना का उद्धार (पूर्ति) के लिये नवपञ्च (चौदह) बार डमरू बजाया। इस प्रकार चौदह शिवसूत्रों का ये जाल (वर्णमाला) प्रकट हुयी।"

डमरु के चौदह बार बजाने से चौदह सूत्रों के रूप में ध्वनियाँ निकली, इन्हीं ध्वनियों से व्याकरण का प्रकाट्य हुआ। इसलिये व्याकरण सूत्रों के आदि-प्रवर्तक भगवान नटराज को माना जाता है। प्रसिद्धि है कि महर्षि पाणिनि ने इन सूत्रों को देवाधिदेव शिव के आशीर्वाद से प्राप्त किया जो कि पाणिनीय संस्कृत व्याकरण का आधार बना।

माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या १४ है जो निम्नलिखित हैं:

१. अ इ उ ण्।
२. ॠ ॡ क्।
३. ए ओ ङ्।
४. ऐ औ च्।
५. ह य व र ट्।
६. ल ण्
७. ञ म ङ ण न म्।
८. झ भ ञ्।
९. घ ढ ध ष्।
१०. ज ब ग ड द श्।
११. ख फ छ ठ थ च ट त व्।
१२. क प य्।
१३. श ष स र्।
१४. ह ल्।

माहेश्वर सूत्र की व्याख्या

उपर्युक्त्त १४ सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार से संयोजित किया गया है। फलतः, पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों मे जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों (अक्षरों) को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप मे ग्रहण करते हैं। माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं। प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे दर्शाया गया है।

इन १४ सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है। प्रथम ४ सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष १० सूत्र व्यञ्जन वर्णों की गणना की गयी है। संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् एवं व्यञ्जन वर्णों को हल् कहा जाता है। अच् एवं हल् भी प्रत्याहार हैं।

प्रत्याहार

प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन। अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।

आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्सञ्ज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है।
उदाहरण: अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐ औच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है। यह अच् प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है। अतः,

अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ।

इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि 5वें सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ‘ह’ को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है। फलतः,

    हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह।

उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण की इत् संज्ञा पाणिनि ने की है। इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है। किन वर्णों की इत् संज्ञा होती है, इसका निर्देश पाणिनि ने निम्नलिखित सूत्रों द्वारा किया है:
[2/11, 08:04] ‪+91 98895 15124‬: काँटों पर चलकर फूल खिलते हैं,
       विश्वास पर चलकर .
       भगवान .. मिलते हैं,

एक बात सदा याद रखना दोस्त!!
      
  सुख में सब मिलते है, लेकिन
             दुख में सिर्फ ..
        भगवान .. मिलते है. .  

          *👣 Զเधे -Զเधे 👣*
[2/11, 08:49] ओमीश Omish Ji: इन्दुं निन्दति तस्करो गृहपतिं
                          जारो सुशीलं खलः
साध्वीमप्यसती कुलीनमकुलो
                          जह्यात् जरन्तं युवा।
विद्यावन्तमनक्षरो धनपतिं
                          नीचश्च रूपोज्ज्वलम्
वैरूप्येण हतः प्रबुद्धमबुधो
                           कृष्टं निकृष्टो जनः ॥

अर्थात्- चोर चंद्र की निंदा करता है, व्याभिचारी गृहपति की, दुष्ट सुशील की, असती स्त्री साध्वी की, और अकुलीन कुलीन की निंदा करते हैं। युवान वृद्ध का त्याग करता है; अनपढ विद्वान की, नीच धनवान की, कुरुप सुरुप की, अज्ञानी ज्ञानी की, और नीच मनुष्य अच्छे मनुष्य की निंदा करते हैं।

🙏🌻🌺 सुप्रभातम् 🌺🌻🙏
[2/11, 09:02] बाबा जी: 🌿🐾सुप्रभारम्🐾🌿
सुजीर्णमन्नं सुविचक्षणः सुतः।
सुशासिता स्त्री नृपतिः सुसेवितः।
सुचिन्त्य चोक्तं सुविचार्य यत्कृतं
सुदीर्घकालेपि न याति विक्रियाम्।।

अच्छी तरह से पचाया भोजन, आज्ञाकारी व सेवाभावी स्त्री, पढ़ा-लिखा व विद्वान पुत्र, अच्छी तरह सेवा पाने वाला राजा, बहुत सोचकर बोली गई बात और सोच विचारकर किए कामों में काफ़ी दिनों तक दोष पैदा नहीं होते यानी जीवन के लिए ये सभी सुखद ही सिद्ध होते हैं।
☘☘🌴🙏�🌴☘☘
[2/11, 09:10] पं ज्ञानेश: श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते॥
फल को न चाहने वाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किए हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक कहते हैं
॥17॥
~ अध्याय 17 - श्लोक : 17
💐💐💐सुप्रभातम्💐💐💐
[2/11, 09:11] राम भवनमणि त्रिपाठी: का त्वं बाले कान्चनमाला कस्या: पुत्री कनकलताया: ॥

हस्ते किं ते तालीपत्रं का वा रेखा क ख ग घ ॥

बाला , तुम कौन हो ऋ कान्चनमाला किनकी पुत्री ? कनकलताकी हाथ में क्या है ? तालीपत्र क्या लिखा है ? क ख ग घ

अप्यब्धिपानान्महत: सुमेरून्मूलनादपि ।
अपि वहन्यशनात् साधो विषमश्चित्तनिग्रह: ॥

अपने स्वयं के मन का स्वामी होना यह संपूर्ण सागर के जल को पिना, मेरू पर्वत को उखाडना या फिर अग्नी को खाना ऐसे असंभव बातों से भी कठिन है ।
अधीत्य चतुरो वेदान् सर्वशास्त्राण्यनेकश: ।
ब्रम्ह्मतत्वं न जानाति दर्वी सूपरसं यथा ॥

सिर्फ वेद तथा शास्त्रों का बार बार अध्ययन करनेसे किसी को ब्राह्मतत्व का अर्थ नही होता ।
जैसे जिस चमच से खाद्य पदार्थ परोसा जाता है उसे उस खाद्य पदार्थ का गुण तथा सुगंध प्रााप्त नही होता ।

यस्य चित्तं निर्विषयं )दयं यस्य शीतलम् ।
तस्य मित्रं जगत्सर्वं तस्य मुक्ति: करस्थिता ।
जिस का मन इंद्रियोंके वश में नही ह,ै जिस का )दय शांत है, संपूर्ण विश्व जिस का मित्र है ऐसे मनुष्य को मुक्ति सहजता से प्रााप्त होती है ।
[2/11, 09:42] ‪+91 99673 46057‬: राधे राधे - आज का भगवद चिंतन,
             11-02-2016
   🌺     जितना दायित्व, घर का, समाज का, देश का आपके प्रति है ठीक उतना ही दायित्व घर, समाज व् देश के प्रति आपका भी है। घर-समाज-देश के प्रति अपने दायित्वों को पूर्ण ना करना अपनी जिम्मेदारियों से भागना है।
  🌺      आज का आदमी ये तो अवश्य याद रखता है कि परिवार व समाज ने मुझे क्या दिया ? मगर वो यह भूल जाता है कि मैंने परिवार और समाज को क्या दिया ? दूसरों को हमारे साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, यह तो ध्यान है मगर मुझे कैसा व्यवहार करना चाहिए, ये सोचना हमने छोड़ दिया है।
  🌺      केवल अधिकार नहीं अपने कर्तव्यों का भी ध्यान रखो। महत्वपूर्ण यह नहीं कि हमें सफलता मिली या असफलता ? महत्वपूर्ण यह है कि कर्तव्य का ईमानदारी से पालन हुआ है या नहीं।
[2/11, 11:02] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: तिलेषु तैलवद्वेदे वेदान्तः सुप्रतिष्ठितः ॥ ९॥" (मुक्तिक उपनिषद्)

जिस प्रकार तिल में तेल भरा होता है, उसी प्रकार उपनिषद या वेदान्त वेद में प्रतिष्ठित है। इसीलिये हमलोग अपनी उस प्राचीन संस्कृति को जो वेद पर सू-प्रतिष्ठित है, अस्वीकार नहीं कर सकते हैं। वेद केवल हिन्दुओं का नहीं है। उपनिषद केवल हिन्दुओं का नहीं है। गीता केवल हिन्दुओं का नहीं है।रामकृष्ण-विवेकननन्द चिन्तनधारा केवल हिन्दुओं के लिये नहीं है-ये सब सम्पूर्ण मानव जाति की अमुल्य संपदा है, मार्गदर्शक हैं।
🌻🙏🏻🌻😊
[2/11, 12:27] ‪+91 99673 46057‬: न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा ,वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम् । धर्म: स नो यत्र न सत्यमस्ति, सत्यं न तद् यच्छलमभ्युपैति ॥ (महाभारत उ. ३५.५८)

वह सभा सभा नहीं है जहां वृद्ध न हों, वे वृद्ध वृद्ध नहीं हैं जो धर्म की बात नहीं कहते, वह धर्म धर्म नही है जिसमें सत्य न हो और वह सत्य सत्य नहीं है जो छल का सहारा लेता हो ।
[2/11, 12:29] राम भवनमणि त्रिपाठी: मरण मुखिया रूग्ण मानव, सेवन औषध न करे।
कुपथ्य करके ज्यों आतुर, अपने कर्मों से मरे।।
त्यों ही उसके कथन पर न, कर्ण उसने तो धरे।
उलटा होकर बहुत कुपित, वचन बोला किर किरे।। 41।।
जो मारीच तूने कही, विषमयी यह बात है।
वीर भाव न रहा तुझमें, नहि विचार उद्दात है।।
जिस प्रवासी रघुपति ने, किया आसुर घास है।
उसकी पत्नी हरण में तो, मेरा बल विख्यात है।। 42।।
बहुत ही विपरीत है यों, उलट बातें बोलना।
भूप से अति उलट चलना, मुँह बढ़कर खोलना।।
कथन नहीं तुरन्त करना, चित्त में विष घोलना।
विनय शिष्टाचार सभी तज, व्यर्थ युक्ति तोलना।। 43।।
माननीय भूपति है, सर्व को सब काल में।
अग्नि सम प्रचण्ड है वह, चतुर है शुभ चाल में।।
देवरूप दिव्य भूप है, शक्ति तेज विशाल में।
रूष्ट करना उसे है ही, पड़ना काल गाल में।।44।।
भूप मैं हूं अतिथि तेरा, दे मुझे अति तोष को।
निजू अवगुण नहीं पूछे, नहीं पूछा दोष को।।
कथन करे यदि तू मेरा, पायगा परितोष को।
आज्ञा भंग से नहीं तो, सहेगा मम रोष को।।45।।
मार डालूँगा तुझे मैं, यदि अब तू नहीं चले।
तुझे तो कर हनन दूंगा, सीता को यदि न छले।।
खो देगा तू जी जीवन, यदि हठ से नहीं टले।
अभी मेरे कोप से तव, अंग जायेंगे दले।।46।।
बलात्कार से है करना, तुझे मेरा काम तो।
रघुपति पै भय होगा, यहाँ पर यम धाम तो।।
राज वचन न मानना है, त्यागना आराम तो।
मेरे लिए दुःख सह कर, पायगा सुख नाम तो।।47।।
[2/11, 12:37] ‪+91 96859 71982‬: तवाज्ञाचक्रस्थं तपनशशिकोटिद्युतिधरं
परं शंभुं वन्दे परिमिलितपार्श्वं परचिता ।
यमाराध्यन् भक्त्या रविशशिशुचीनामविषये
निरालोकेअ्लोके निवसति हि भालोकभुवने ।।
36 ।।

अर्थ - तुम्हारे आज्ञाचक्र में स्थित करोड़ों सूर्य और चन्द्र के प्रकाश से युक्त परशिव की मैं वन्दना करता हूँ जिसका वामपार्श्व पराचिति से एकीभूत है । भक्ति पूर्वक जो मनुष्य
इस रूप में तुम्हारी उपासना करते हैं वे उस प्रकाशमान लोक में निवास करते हैं जो सूर्य , चन्द्र ,और अग्नि का विषय नहीं है अथवा इन तीनों का विषय न होने के कारण उनके प्रकाश से प्रकाशित नहीं है । भगवती की काल्पनिक मूर्ति को ध्यान में लाकर उसके भ्रूमध्यस्थ स्थान में पराचिति को वामाड़्क में लिए हुए पर शिव की आराधना का विधान है । आज्ञाचक्र की भावना पूर्वक अर्चना करने से भालोक भुवन की प्राप्ति होती है । मूलाधार - स्वाधिष्ठान दोनों अग्निमण्डलान्तर्गत हैं , मणिपूर - अनाहत सूर्यमण्डलान्तर्गत एवं विशुद्धि - आज्ञा चन्द्रमण्डलान्तर्गत है । आज्ञा से ऊपर सहस्त्रार जो सदा पूर्णज्योति का परम स्थान है , वह इन तीनों से ऊपर है । वहाँ जाकर साधक जन्म - मरण के आतंक से छूट जाता है ।🙏🏼🙏🏼🙏🏼
[2/11, 13:36] पं अर्चना जी: करुणानिधान स्वामिनी किशोरी करुणा अब बरसाओ
नाम तिहारा रटूं किशोरी मोहे सेवा योग्य बनाओ

हूँ निर्धन दो नाम धन अपना श्यामा तुम करुणा की खान
शरण पड़ा हो तेरी राधिके अपनाया है अपना जान
इस दासी की विनती सुनलो श्यामा मोहे दासी अपनाओ
करुणानिधान स्वामिनी किशोरी करुणा अब बरसाओ
नाम तिहारा रटूं किशोरी मोहे सेवा योग्य बनाओ

तेरे महलों की बनूँ बुहारिन श्यामा नित नित कुञ्ज सजाऊँ
नहीं जानूँ मैं कोई विधि भी किशोरी तुमको कैसे रिझाऊँ
कृपाकोर अब कृपा करो तुम जैसी भी हूँ मुझे अपनाओ
करुणानिधान स्वामिनी किशोरी करुणा अब बरसाओ
नाम तिहारा रटूं किशोरी मोहे सेवा योग्य बनाओ

ब्रजमण्डल की तुम हो स्वामिनी सारे जगत की तुम्हीं आधारा
क्या गुण गाऊँ तेरी रहमत के श्यामा मैंने अपना जीवन वारा
जैसे चाहो तुम रखना मुझको अपनाओ या मुझे ठुकराओ
करुणानिधान स्वामिनी किशोरी करुणा अब बरसाओ
नाम तिहारा रटूं किशोरी मोहे सेवा योग्य बनाओ

जय जय श्री राधे
जय जय श्री राधे
जय जय श्री राधे
[2/11, 13:45] राम भवनमणि त्रिपाठी: विफल शास्त्र के हो जाने पर,
शस्त्र जगाना पड़ता है ।
ऊँ शांति वालों को  भी  फिर,
युद्ध  रचाना  पड़ता है ||

जब अधर्म हावी हो जाये और,
धर्म  सहमा  सहमा |
तब तब वंशी त्याग कृष्ण को,
चक्र उठाना पड़ता है ||

            🚩जय जय श्री राम 🚩
[2/11, 14:37] ‪+91 84259 90587‬: शास्त्र कहते हैं कि संसार में अनेकानेक प्रकार के व्रत, विविध तीर्थस्नान नाना प्रकारेण दान अनेक प्रकार के यज्ञ तरह-तरह के तप तथा जप आदि भी महाशिवरात्रि व्रत की समानता नहीं कर सकते। अतः अपने हित साधनार्थ सभी को इस व्रत का अवश्य पालन करना चाहिए। महाशिवरात्रि व्रत परम मंगलमय और दिव्यतापूर्ण है ! इससे सदा सर्वदा भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह शिव रात्रि व्रत व्रतराज के नाम से विख्यात है एवं चारों पुरूषार्थो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाला है।

व्रतराज के सिद्धांत और पौराणिक शास्त्रों के अनुसार शिवरात्रि के व्रत के बारे में भिन्न-भिन्न मत हैं, परन्तु सर्वसाधारण मान्यता के अनुसार जब प्रदोष काल रात्रि का आरंभ एवं निशीथ काल (अर्द्धरात्रि) के समय चतुर्दशी तिथि रहे उसी दिन शिवरात्रि का व्रत होता है। समर्थजनों को यह व्रत प्रातः काल से चतुर्दशी तिथि रहते रात्रि पर्यन्त तक करना चाहिए। रात्रि के चारों प्रहरों में भगवान शंकर की पूजा अर्चना करनी चाहिए। इस विधि से किए गए व्रत से जागरण पूजा उपवास तीनों पुण्य कर्मों का एक साथ पालन हो जाता है और भगवान शिव की विशेष अनुकम्पा प्राप्त होती है।

इससे व्यक्ति जन्मांतर के पापों से मुक्त होता है। इस लोक में सुख भोगकर व्यक्ति अन्त में शिव सायुज्य को प्राप्त करता है। जीवन पर्यन्त इस विधि से श्रद्धा विश्वास पूर्वक व्रत का आचरण करने से भगवान शिव की कृपा से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। जो लोक इस विधि से व्रत करने में असमर्थ हों वे रात्रि के आरंभ में तथा अर्द्धरात्रि में भगवान शिव का पूजन करके व्रत पूर्ण कर सकते हैं।

यदि इस विधि से भी व्रत करने में असमर्थ हों तो पूरे दिन व्रत करके सांयकाल में भगवान शंकर की यथाशक्ति पूजा अर्चना करके व्रत पूर्ण कर सकते हैं। इस विधि से व्रत करने से भी भगवान शिव की कृपा से जीवन में सुख ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। शिवरात्रि में संपूर्ण रात्रि जागरण करने से महापुण्य फल की प्राप्ति होती है। गृहस्थ जनों के अलावा सन्यासी लोगों के लिए महारात्रि की साधना एवं गुरूमंत्र दीक्षा आदि के लिए विशेष सिद्धिदायक मुहूर्त होता है।

अपनी गुरू परम्परा के अनुसार सन्यासी जन महारात्रि में साधना करते हैं। महाशिवरात्रि की रात्रि महा सिद्धिदात्री होती है। इस समय में किए गए दान पुण्य शिवलिंग की पूजा स्थापना का विशेष फल प्राप्त होता है। इस सिद्ध मुहूर्त में पारद अथवा स्फटिक शिवलिंग को प्राण प्रतिष्ठा के अनुष्ठान के बाद अपने घर में अथवा व्यवसाय स्थल या कार्यालय में स्थापित करने से घर परिवार व्यवसाय और नौकरी में भगवान शिव की कृपा से विशेष उन्नति एवं लाभ की प्राप्ति होती है। परमदयालु भगवान शंकर प्रसन्न होकर मनोवांछित फल प्रदान करते हैं। अटके हुए मंगल कार्य सम्पन्न होते है....कन्याओं की विवाह बाधा दूर होती है।

शिवपुराण के अनुसार महाशिवरात्रि व्रत के दिन  प्रातः-काल नित्यक्रिया से निवृत्त होकर मस्तक पर  तिलक लगाना चाहिए । यदि घर में रुद्राक्ष की माला हो तो गले में रुद्राक्ष की माला धारण करें। इसके बाद नजदीक के  किसी शिव मंदिर में जाकर गौरी-शंकर की तथा  शिवलिंग का विधिपूर्वक पूजा-अर्चना करना चाहिए। शिवरात्रि व्रत का संकल्प निम्न मन्त्र से लेना चाहिए!

महाशिवरात्रि का व्रत भक्तो को अपनी श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुसार ही करना चाहिए।  इस दिन सामान्यतः लोग शिवलिंग पर बिल्व-पत्र, धतूरा तथा धतूरा पत्र  चढा़ते हैं। परन्तु किसी भी सूरत में गौरी-शंकर की पूजा-अर्चना करना नहीं भूलना चाहिए। शिवलिंग के  ऊपर दुधाभिषेक या जलाभिषेक करना चाहिए। इस दिन  कच्चे दूध से शिवलिंग को स्नान करना चाहिए, धूप-दीप से आराधना करना चाहिए तथा पूरा दिन उपवास रखना चाहिए। शिवलिंग की पूजा के समय “उँ नम: शिवाय” मंत्र  तथा महामृत्युंजय मन्त्र का जाप करना चाहिए। यदि सारी रात जागकर पूजन सम्भव ना हो तब प्रथम प्रहर की पूजा अवश्य करनी चाहिए। रात को जागरण करके शिव स्तुति का पाठ करना चाहिए या सुनना चाहिये।

पुनः प्रदोष काल में या अर्धरात्रि में पूजन करके दूसरे दिन व्रत का पारण करना श्रेष्ठकर होता है पारण पूर्व यदि संभव हो तो तिल, जौ, बेलपत्र आदि से हवन करना भी श्रेष्ठकर होता है। यदि आप सामर्थ्यवान है या कुंडली में मारकेश की दशा चल रही हो या कोई अन्य प्रकार का दोष है तो  इस दिन प्रदोषकाल में स्नान आदि से निवृत होकर वैदिक मंत्रों से रुद्राभिषेक करना चाहिए।महाशिवरात्रि के दिन प्रत्येक व्यक्ति अपनी मनोवांच्छित फल की प्राप्ति के लिए इच्छित विषय को आधृत करके पूजन तथा मंत्र का जाप करके महादेव शिवजी की कृपा से मनोनुकूल फल प्राप्त कर सकता है।✨👁✨

ॐ  नमः  शिवाय  ~~ शुभ  रात्रि  🙏🏻✨❤🙏🏻
[2/11, 14:37] ‪+91 84259 90587‬: ।। प्रभु श्री कृष्ण के विवाह की रोचक जानकारी ।।
भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को लेकर वन में घूमने जा रहे थे, वहाँ एक साँवली सलोनी नारी को देखा, यमुना के किनारे एक परम सुंदरी स्त्री बैठी थी, एकदम समाधि की स्थिति में, अर्जुन ने उस स्त्री से पूछा- आप कौन हो देवी? नितांत निर्जन वन में अकेली क्यों बैठीं है, उस स्त्री ने कहा- मैं सूर्य पुत्री हूंँ और यमराज की बहन हूंँ, मेरा नाम कालिन्दी (यमुना) हैं।

अहं देवस्य सवितुर्दुहितापतिमिच्छती।
विष्णुं वरेण्यं वरदं तपः परममास्थिता।।

यमुनाजी ने आगे कहा- श्रीकृष्ण को पति रूप में वरण करने के लिये मैं यहाँ तपस्या कर रही हूंँ, अर्जुन बोले, श्रीकृष्ण तो मेरे रथ में बिराजमान है, अर्जुन ने यमुनाजी का हाथ श्रीकृष्ण के हाथ में सौंपकर मंत्र पढ़ दिया, भगवान् का चौथा विवाह हुआ कालिन्दी के साथ, विन्द और अरविन्द नाम के राजा दोनों भाई हैं, दोनों की परम लाड़ली बहन का नाम है मित्रवृन्दा, श्रीकृष्ण का पाँचवा विवाह परम सुन्दरी मित्रवृन्दा से हुआ।

नग्नजित् नाम के राजा हैं, उनके यहाँ सात बैल हैं, बड़े यशस्वी बलशाली बैल, ऐसे पराक्रमी कि मनुष्य से भी ज्यादा बुद्धिमान, राजा ने कहा- जो इन सातों बैलों के नाक में एक साथ जो नकेल जो डाल देगा उसको मैं मेरी बेटी दे दूँगा, श्रीकृष्ण ने ऐसा किया और छठवाँ विवाह नाग्नजिती के साथ हुआ, इनका दूसरा नाम सत्या भी है।

एक राजांधिदेवी नाम की पराक्रमी स्त्री है, स्वयं राज सम्हालती है, राजांधिदेवी की पुत्री का नाम है भद्रा, गोविन्द का सातवाँ विवाह भद्रा के साथ हुआ, मद्रदेश के राजा की बिटिया का नाम है लक्ष्मणा, आठवाँ विवाह श्रीकृष्ण का लक्ष्मणा से हुआ, एक और पराक्रमी राजा है भौमासुर, जो भूमि से उत्पन्न हुआ, इसलिये उसका नाम भौमासुर है, भौमासुर ने अपने बल का दुरूपयोग किया।

सज्जनों! कभी-कभी व्यक्ति धन का दुरुपयोग करते हैं, अपने बल का दुरूपयोग करते हैं, मैंने कहा था न- यदि विवेक साथ में नहीं है तो धन ऐश्वर्य व्यक्ति को बिगाड़ देता है, विवेक तो साथ में होना ही चाहिये, भौमासुर ने अपने बल का दुरूपयोग किया, बड़े-बड़े राजघरानों में जाता और राजकुमारीयों का हरण करके ले आता, मन में यह संकल्प कर लिया कि जब ये राजकुमारीयाँ बीस हजार हो जायेंगी तो एक साथ विवाह कर लूँगा।

सोलह हजार एक सौ राजकुमारीयों को उसने बंदी बनाया, देवताओं ने भगवान् श्रीकृष्ण के पास सूचना भेजी, क्योंकि देवताओं की माता अदिति के कुण्डल और वरूण देवता का छत्र भी उसने हड़प लिया था, सभी देवता भौमासुर के आतंक से त्रस्त थें, भगवान् सत्यभामाजी को साथ लेकर भौमासुर के पास गये, बड़ा विचित्र युद्ध उसके साथ में छिड़ गया।

भौमासुर श्रीकृष्ण के हाथों मारा गया, मेरे प्रभु ने भौमासुर के कारागार में प्रवेश किया तो कारागृह में सोलह हजार एक सौ राजकुमारीयों को देखा, मेरे गोविन्द के नेत्र सजल हो गये और सोचने लगे अब ये राजकुमारीयाँ जायेंगी कहाँ? दुनिया का कोई भी राजकुमार इनसे विवाह तो करेगा नहीं, कहेगा, भौमासुर के कारागृह में बंदी रह कर आयी हुई से विवाह कैसे करें? इनके माता-पिता भी इन्हें स्वीकार नहीं करेंगे।

इन राजकुमारीयों के सामने तो केवल दो विकल्प है, या तो ये सभी आत्महत्या कर लेंगी या ये सभी गंदे रास्ते पर चली जायेंगी, भगवान् ने उन राजकुमारीयों से कहा- तुम्हारे मन में कोई अन्यथा विचार नहीं हो तो मैं आप सबको अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करता हूँ, मेरे गोविन्द ने उन सोलह हजार एक सौ राजकुमारीयों के संग एक शुभ मूहूर्त में विवाह कर लिया।

शुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! यदि श्रीकृष्ण ऐसा नहीं करते तो बताओ समाज में कितनी बड़ी विकृति पैदा हो जाती, वे राजकुमारीयाँ तो धन्य हो गयीं कि श्रीकृष्ण ने सभी को पत्नी रूप में स्वीकार किया और मानवीय गुणों से जीने का अधिकार प्रदान कर दिया, भगवान् द्वारिका में आ गये, बड़ा सुन्दर परिवार है और बड़ी शान्ति है।

भगवान् ने सोलह हजार एक सौ आठ विवाह कियें, इसका मतलब क्या है? वेद में तीन काण्ड है- ज्ञान काण्ड- ज्ञान के चार हजार मंत्र है, कर्म काण्ड- अस्सी हजार मंत्र है कर्मकाण्ड के, उपासना काण्ड- सोलह हजार मंत्र है उपासना काण्ड के, "उप समीपे असनम् उपासनम्" परमात्मा के समीप चले जाना ही उपासना है, सोलह हजार वेद के जो उपासना काण्ड के मंत्र है, वही श्री कृष्ण की सोलह हजार पत्नी हैं।

सौ प्रकार के जो उपनिषद् है वेदांत- जिनमें कृष्ण भक्ति का प्रतिपादन किया जाता है, वे सौ प्रकार के उपनिषद् ही श्रीकृष्ण की सौ पत्नी हैं, आठ प्रकार की प्रकृति होती है- भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार, ये आठ प्रकार की प्रकृति है, गीता में एक श्लोक आता है।

भूमिरापोनलोवायुखंमनोबुद्धिरेव च्।
अहंकार इति यं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधाः।।

जीव में और ईश्वर में अन्तर क्या है? जो प्रकृति के वश में रहता है वो जीव है, और जो प्रकृति को वश में रखता है वो ईश्वर है, परमात्मा प्रकृति के वश में नहीं है, प्रकृति उनके वश में है, आठ प्रकार की प्रकृति श्री कृष्ण की अष्ट पटरानी हैं, सौ प्रकार के उपनिषद् श्री कृष्ण की सौ पत्नी और वेद के सोलह हजार उपासना काण्ड के मंत्र कृष्ण की सोलह हजार पत्नी, इस प्रकार सोलह हजार एक सौ आठ पत्नीयाँ इनका पूर्ण भाव ह

जय श्री कृष्ण!
[2/11, 14:53] राम भवनमणि त्रिपाठी: धर्म-संसार-सनातन धर्म इतिहास
हिन्दू धर्म की 16 कहानियां, जानना जरूरी... देखे भाग-2

2. ऋषि कश्यप, हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष जैसा कि हम पहले बता चुके हैं कि संपूर्ण धरती पर पहले जल ही था। जल जब हटा तो धरती का सर्वप्रथम हिस्सा जो प्रकट हुआ, वह मेरू पर्वत के आसपास का क्षेत्र था। यह पर्वत हिमालय के बीचोबीच का हिस्सा है। यहीं पर कैलाश पर्वत है। कश्मीर को कश्यप ऋषि के कुल के लोगों ने ही बसाया था।

ऋषि कश्यप एक ऐसे ऋषि थे जिन्होंने बहुत-सी स्त्रियों से विवाह कर अपने कुल का विस्तार किया था। आदिम काल में जातियों की विविधता आज की अपेक्षा कई गुना अधिक थी। ऋषि कश्यप ब्रह्माजी के मानस-पुत्र मरीचि के विद्वान पुत्र थे। सुर-असुरों के मूल पुरुष ऋषि कश्यप का आश्रम मेरू पर्वत के शिखर पर था, जहां वे परब्रह्म परमात्मा के ध्यान में लीन रहते थे। समस्त देव, दानव एवं मानव ऋषि कश्यप की आज्ञा का पालन करते थे। कश्यप ने बहुत से स्मृति-ग्रंथों की रचना की थी।

ऋषि कश्यप का कुल-
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पुराण के अनुसार सृष्टि की रचना
और विकास के काल में धरती पर सर्वप्रथम भगवान ब्रह्माजी प्रकट हुए। ब्रह्माजी से दक्ष प्रजापति का जन्म हुआ। ब्रह्माजी के निवेदन पर दक्ष प्रजापति ने अपनी पत्नी असिक्नी के गर्भ से 66 कन्याएं पैदा कीं। इन कन्याओं में से 13 कन्याएं ऋषि कश्यप की पत्नियां बनीं। मुख्यत: इन्हीं कन्याओं से सृष्टि का विकास हुआ और कश्यप सृष्टिकर्ता कहलाए। उल्लेखनीय है कि ब्रह्मा के पुत्रों के कुल के लोगों ने ही आपस में रोटी-बेटी का संबंध रखकर कुल का विस्तार किया।

कश्यप की पत्न‍ियां :- इस प्रकार ऋषि कश्यप की अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सुरसा, तिमि, विनता, कद्रू, पतांगी और यामिनी आदि पत्नियां बनीं। इन पत्नियों की कहानी भी बड़ी रोचक है। हिन्दुओं को इनकी कहानियां पढ़ना चाहिए।

1. अदिति :- पुराणों के अनुसार कश्यप ने अपनी पत्नी अदिति के गर्भ से 12 आदित्यों को जन्म दिया जिनमें भगवान नारायण का वामन अवतार भी शामिल था। ये 12 पुत्र इस प्रकार थे- विवस्वान (सूर्य), अर्यमा, पूषा, त्वष्टा (विश्‍वकर्मा), सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन)। माना जाता है कि ऋषि कश्यप के पुत्र विवस्वान से वैवस्वत मनु का जन्म हुआ।

नोट :- महाराज वैवस्वत मनु को इक्ष्वाकु, नृग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यंत, प्रांशु, नाभाग, दिष्ट, करुष और पृषध्र नामक 10 श्रेष्ठ पुत्रों की प्राप्ति हुई। इनके ही कुल में आगे चलकर राम हुए। यह सूर्यवंशियों का कुल था, जबकि चंद्रवंशियों की उत्पत्ति ब्रह्मा के पुत्र अत्रि से हुई थी। ब्रह्मा से अत्रि, अत्रि से चंद्रमा, चंद्रमा से बुध, बुध से पुरुरवा, पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से यति, ययाति, संयाति, आयति, वियाति और कृति नामक 6 महाबल-विक्रमशाली पुत्र हुए। इधर, सूर्यवंश- ब्रह्मा से मरीचि, मरीचि से कश्यप और कश्यप से विवस्वान (सूर्य), विवास्वान से वैवस्वत मनु का जन्म हुआ।

2. दिति :- कश्यप ऋषि ने दिति के गर्भ से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र एवं सिंहिका नामक एक पुत्री को जन्म दिया। श्रीमद्भागवत के अनुसार इन तीन संतानों के अलावा दिति के गर्भ से कश्यप के 49 अन्य पुत्रों का जन्म भी हुआ, जो कि मरुंदगण कहलाए। कश्यप के ये पुत्र नि:संतान रहे। जबकि हिरण्यकश्यप के 4 पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद
और संहल्लाद।

देवासुर संग्राम :-उक्त दोनों के पुत्रों को सुर और असुर कहा जाता है। दोनों के ही पुत्रों में धरती पर स्वर्ग के अधिकार को लेकर घनघोर युद्ध होता था। माना जाता है कि देवासुर संग्राम लगभग 12 बार हुआ। इन दोनों के पुत्रों में अदिति के पुत्र इंद्र और विवस्वान की प्रतिद्वंद्विता दिति के पुत्र हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष से चलती रहती थी। अदिति के पुत्र वरुण देव और असुर दोनों को ही प्रिय थे इसलिए उनको असुरों का समर्थक भी माना गया है। वरुण देव जल के देवता हैं।

हिरण्याक्ष :- हिरण्याक्ष भयंकर दैत्य था। वह तीनों लोकों पर अपना अधिकार चाहता था। हिरण्याक्ष का दक्षिण भारत पर राज था। ब्रह्मा से युद्ध में अजेय और अमरता का वर मिलने के कारण उसका धरती पर आतंक हो चला था। हिरण्याक्ष भगवान वराहरूपी विष्णु के पीछे लग गया था और वह उनके धरती निर्माण के कार्य की खिल्ली उड़ाकर उनको युद्ध के लिए ललकारता था। वराह भगवान ने जब रसातल से बाहर निकलकर धरती को समुद्र के ऊपर स्थापित कर दिया, तब उनका ध्यान हिरण्याक्ष पर गया।

आदि वराह के साथ भी महाप्रबल वराह सेना थी। उन्होंने अपनी सेना को लेकर हिरण्याक्ष के क्षे‍त्र पर चढ़ाई कर दी और विंध्यगिरि के पाद प्रसूत जल समुद्र को पार कर उन्होंने हिरण्याक्ष के नगर को घेर लिया।✍🍀💕
[2/11, 16:36] ‪+91 91656 66823‬: ब्राह्मण क्यों देवता ?

•पृथिव्यां यानी तीर्थानि तानी तीर्थानि सागरे ।
सागरे  सर्वतीर्थानि पादे विप्रस्य दक्षिणे ।।
चैत्रमाहात्मये तीर्थानि दक्षिणे पादे वेदास्तन्मुखमाश्रिताः  ।
सर्वांगेष्वाश्रिता देवाः पूजितास्ते तदर्चया  ।।
अव्यक्त रूपिणो विष्णोः स्वरूपं ब्राह्मणा भुवि ।
नावमान्या नो विरोधा कदाचिच्छुभमिच्छता ।।

•अर्थात पृथ्वी में जितने भी तीर्थ हैं वह सभी समुद्र में मिलते हैं और समुद्र में जितने भी तीर्थ हैं वह सभी ब्राह्मण के दक्षिण पैर में  है । चार वेद उसके मुख में हैं  अंग में सभी देवता आश्रय करके रहते हैं इसवास्ते ब्राह्मण को पूजा करने से सब देवों का पूजा होती है । पृथ्वी में ब्राह्मण जो है विष्णु रूप है इसलिए  जिसको कल्याण की इच्छा हो वह ब्राह्मणों का अपमान तथा द्वेष  नहीं करना चाहिए ।

•देवाधीनाजगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवता: ।
ते मन्त्रा: ब्राह्मणाधीना:तस्माद् ब्राह्मण देवता ।

•अर्थात् सारा संसार देवताओं के अधीन है तथा देवता मन्त्रों के अधीन हैं और मन्त्र ब्राह्मण के अधीन हैं इस कारण ब्राह्मण देवता हैं ।    
🌹उत्तम ब्राम्हण की महिमा🌹

ऊँ जन्मना ब्राम्हणो, ज्ञेय:संस्कारैर्द्विज उच्चते।
विद्यया याति विप्रत्वं,
त्रिभि:श्रोत्रिय लक्षणम्।।

ब्राम्हण के बालक को जन्म से ही ब्राम्हण समझना चाहिए।
संस्कारों से "द्विज" संज्ञा होती है तथा विद्याध्ययन से "विप्र"
नाम धारण करता है।

जो वेद,मन्त्र तथा पुराणों से शुद्ध होकर तीर्थस्नानादि के कारण और भी पवित्र हो गया है,
वह ब्राम्हण परम पूजनीय माना गया है।

ऊँ पुराणकथको नित्यं,
     धर्माख्यानस्य सन्तति:।
अस्यैव दर्शनान्नित्यं,
अश्वमेधादिजं फलम्।।

जिसके हृदय में गुरु,देवता,माता-पिता और अतिथि के प्रति भक्ति है।
जो दूसरों को भी भक्तिमार्ग पर अग्रसर करता है,
जो सदा पुराणों की कथा करता और धर्म का प्रचार करता है ऐसे ब्राम्हण के दर्शन से ही अश्वमेध यज्ञों का फल प्राप्त होता है।

पितामह भीष्म जी पुलस्त्य जी से पूछा--
गुरुवर!मनुष्य को देवत्व, सुख, राज्य, धन, यश, विजय, भोग, आरोग्य, आयु, विद्या, लक्ष्मी, पुत्र, बन्धुवर्ग एवं सब प्रकार के मंगल की प्राप्ति कैसे हो सकती है?
यह बताने की कृपा करें।

पुलस्त्यजी ने कहा--
राजन!इस पृथ्वी पर ब्राम्हण सदा ही विद्या आदि गुणों से युक्त और श्रीसम्पन्न होता है।
तीनों लोकों और प्रत्येक युग में विप्रदेव नित्य पवित्र माने गये हैं।
ब्राम्हण देवताओं का भी देवता है।
संसार में उसके समान कोई दूसरा नहीं है।
वह साक्षात धर्म की मूर्ति है और सबको मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाला है।

ब्राम्हण सब लोगों का गुरु,पूज्य और तीर्थस्वरुप मनुष्य है।

पूर्वकाल में नारदजी ने ब्रम्हाजी से पूछा था--
ब्रम्हन्!किसकी पूजा करने पर भगवान लक्ष्मीपति प्रसन्न होते हैं?"

ब्रम्हाजी बोले--जिस पर ब्राम्हण प्रसन्न होते हैं,उसपर भगवान विष्णुजी भी प्रसन्न हो जाते हैं।
अत: ब्राम्हण की सेवा करने वाला मनुष्य निश्चित ही परब्रम्ह परमात्मा को प्राप्त होता है।
ब्राम्हण के शरीर में सदा ही श्रीविष्णु का निवास है।

जो दान,मान और सेवा आदि के द्वारा प्रतिदिन ब्राम्हणों की पूजा करते हैं,
उसके द्वारा मानों शास्त्रीय पद्धति से उत्तम दक्षिणा युक्त सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान हो जाता है।

जिसके घरपर आया हुआ ब्राम्हण निराश नहीं लौटता,
उसके समस्त पापों का नाश हो जाता है।
पवित्र देशकाल में सुपात्र ब्राम्हण को जो धन दान किया जाता है वह अक्षय होता है।
वह जन्म जन्मान्तरों में फल देता है,
उनकी पूजा करने वाला कभी दरिद्र, दुखी और रोगी नहीं होता है।
जिस घर के आँगन में ब्राम्हणों की चरणधूलि पडने से वह पवित्र होते हैं वह तीर्थों के समान हैं।

ऊँ न विप्रपादोदककर्दमानि,
न वेदशास्त्रप्रतिघोषितानि!
स्वाहास्नधास्वस्तिविवर्जितानि,
श्मशानतुल्यानि गृहाणि तानि।।

जहाँ ब्राम्हणों का चरणोदक नहीं गिरता,
जहाँ वेद शास्त्र की गर्जना नहीं होती,
जहाँ स्वाहा,स्वधा,स्वस्ति और मंगल शब्दों का उच्चारण नहीं होता है।
वह चाहे स्वर्ग के समान भवन भी हो तब भी वह श्मशान के समान है।

भीष्मजी!पूर्वकाल में विष्णु भगवान के मुख से ब्राम्हण, बाहुओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई।

पितृयज्ञ(श्राद्ध-तर्पण), विवाह, अग्निहोत्र, शान्तिकर्म और समस्त मांगलिक कार्यों में सदा उत्तम माने गये हैं।

ब्राम्हण के मुख से देवता हव्य और पितर कव्य का उपभोग करते हैं।
ब्राम्हण के बिना दान,होम तर्पण आदि सब निष्फल होते हैं।

जहाँ ब्राम्हणों को भोजन नहीं दिया जाता,वहाँ असुर,प्रेत,दैत्य और राक्षस भोजन करते हैं।

ब्राम्हण को देखकर श्रद्धापूर्वक उसको प्रणाम करना चाहिए।

उनके आशीर्वाद से मनुष्य की आयु बढती है,वह चिरंजीवी होता है।
ब्राम्हणों को देखकर भी प्रणाम न करने से,उनसे द्वेष रखने से तथा उनके प्रति अश्रद्धा रखने से मनुष्यों की आयु क्षीण होती है,
धन ऐश्वर्य का नाश होता है तथा परलोक में भी उसकी दुर्गति होती है।

चौ- पूजिय विप्र सकल गुनहीना।
शूद्र न गुनगन ग्यान प्रवीणा**।।

कवच अभेद्य विप्र गुरु पूजा।
एहिसम विजयउपाय न दूजा।।
रामचरित मानस......

ऊँ नमो ब्रम्हण्यदेवाय,
       गोब्राम्हणहिताय च।
जगद्धिताय कृष्णाय,
        गोविन्दाय नमोनमः।।

जगत के पालनहार गौ,ब्राम्हणों के रक्षक भगवान श्रीकृष्ण जी कोटिशःवन्दना करते हैं।

जिनके चरणारविन्दों को परमेश्वर अपने वक्षस्थल पर धारण करते हैं,
उन ब्राम्हणों के पावन चरणों में हमारा कोटि-कोटि प्रणाम है।।
ब्राह्मण जप से पैदा हुई शक्ति का नाम है,
ब्राह्मण त्याग से जन्मी भक्ति का धाम है।

ब्राह्मण ज्ञान के दीप जलाने का नाम है,
ब्राह्मण विद्या का प्रकाश फैलाने का काम है।

ब्राह्मण स्वाभिमान से जीने का ढंग है,
ब्राह्मण सृष्टि का अनुपम अमिट अंग है।

ब्राह्मण विकराल हलाहल पीने की कला है,
ब्राह्मण कठिन संघर्षों को जीकर ही पला है।

ब्राह्मण ज्ञान, भक्ति, त्याग, परमार्थ का प्रकाश है,
ब्राह्मण शक्ति, कौशल, पुरुषार्थ का आकाश है।

ब्राह्मण न धर्म, न जाति में बंधा इंसान है,
ब्राह्मण मनुष्य के रूप में साक्षात भगवान है।

ब्राह्मण कंठ में शारदा लिए ज्ञान का संवाहक है,
ब्राह्मण हाथ में शस्त्र लिए आतंक का संहारक है।

ब्राह्मण सिर्फ मंदिर में पूजा करता हुआ पुजारी नहीं है,
ब्राह्मण घर-घर भीख मांगता भिखारी नहीं है।

ब्राह्मण गरीबी में सुदामा-सा सरल है,
ब्राह्मण त्याग में दधीचि-सा विरल है।

ब्राह्मण विषधरों के शहर में शंकर के समान है,
ब्राह्मण के हस्त में शत्रुओं के लिए परशु कीर्तिवान है।

ब्राह्मण सूखते रिश्तों को संवेदनाओं से सजाता है,
ब्राह्मण निषिद्ध गलियों में सहमे सत्य को बचाता है।

ब्राह्मण संकुचित विचारधारों से परे एक नाम है,
ब्राह्मण सबके अंत:स्थल में बसा अविरल राम है..
[2/11, 17:39] ‪+91 96859 71982‬: न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एव अभिवर्तते ।।
यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः ।
एकस्यापि न पर्याप्तं तस्मात्तृष्णां परित्यजेत् ।।
- अर्थात् आग मे घी डालने से आग और भड़क उठती है, उसी प्रकार कामनाओं का उपभोग करने से क्रमशः और भी बढती जाती है, घटती नहीं है। इस पृथिवी पर जो भी धान-जौ (अन्न), स्वर्ण, पशुधन एवं स्त्रियां हैं वे सब एक मनुष्य को मिलें तो भी पर्याप्त नहीं होंगे । इस तथ्य को जानते हुए व्यक्ति को चाहिए कि तृष्णा का परित्याग करे ।🙏🏼🙏🏼🙏🏼
[2/11, 17:50] ‪+91 99936 26447‬: 👌बहुत ही सुन्दर मैसेज👌

👉जहाँ सूर्य की कीरण हो…
वही प्रकाश होता है…
जहाँ मां बाप का सम्मान हो…
वही भव पार होता है…
जहाँ संतो की वाणी हो…
वही उद्धार होता है…
और…
जँहा प्रेम की भाषा हो…
वही परीवार होता है…

🙏 *🌹जय श्री कृष्णा🌹* 🙏
[2/11, 17:53] ओमीश Omish Ji: 🙏श्री मात्रे नमः 🙏
**************
जीवात्मा को चलना परमात्मा के ही अनुसार पड़ता है ।
जीवात्मा कोशिश कितनी भी करले ।
जो उसने तय किया उसे एक दिन स्वीकार करना ही पड़ता है ।
कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ता है ।
कभी कभी कुछ कार्य समय से पहले नही होते उनका इन्तजार करना ही बुद्धिमता है ।
       🙏आचार्य ओमीश 🙏
[2/11, 19:44] ‪+91 96859 71982‬: सुना है राम
कि तुमने मारा था मारीच को
जब वह
स्वर्ण मृग बन दौड़ रहा था
वन-वन।
सुना है
कि तुमने मारा था रावण को
जब वह
दुष्टता की हदें पार कर
लड़ रहा था तुमसे
युध्य भूमी में

सोख लिए थे तुमने उसके अमृत-कलश
अपने एक ही तीर से
विजयी होकर लौटे थे तुम
मनी थी दीवाली
घर-घर।
मगर आज भी
जब मनाता हूँ विजयोत्सव
जलाता हूँ दिये
तो लगता है कि कोई
अंधेरे में छुपकर
हंस रहा है मुझपर
फंस चुके हैं हम
फिर एक बार
रावण-मारीच के किसी बड़े षड़यंत्र में।

आज भी होता है
सीता हरण
और भटकते हैं राम
घर में ही
निरूपाय
नहीं होता कोई
लक्ष्मण सा अनुज
जटायू सा सखा
या हनुमान सा भक्त

लगता है
सब मर चुके हैं तुम्हारे साथ
जीवित हैं तो सिर्फ
मारीच और रावण !
तुम सिर्फ एक बार अवतरित हुए हो
और समझते हो कि सदियों तक
तुम्हारे वंशज
मनाते रहें
विजयोत्सव !🙏🏼🙏🏼🙏🏼
आखिर तुम कहाँ हो मेरे राम ?

[2/11, 19:48] ‪+91 97545 35118‬: *💫शनिदेव💫*
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
शनिदेव का जन्म ज्येष्ठ माह की कृष्ण अमावस्या के दिन हुआ था। सूर्य के अन्य पुत्रों की अपेक्षा शनि शुरू से ही विपरीत स्वभाव के थे। शनि भगवान सूर्य तथा छाया (संवर्णा) के पुत्र हैं। ये क्रूर ग्रह माने जाते हैं। इनकी दृष्टि में जो क्रूरता है, वह इनकी पत्नी के शाप के कारण है। 'शनिधाम' कोकिलावन के महंत प्रेमदास महाराज के अनुसार जब शनि देव का जन्म हुआ तो उनकी दृष्टि पिता पर पड़ते ही सूर्य को कुष्ठ रोग हो गया। धीरे-धीरे शनि देव का पिता से मतभेद होने लगा। सूर्य चाहते थे कि शनि अच्छा कार्य करें, मगर उन्हें हमेशा निराश होना पड़ा। संतानों के योग्य होने पर सूर्य ने प्रत्येक संतान के लिए अलग-अलग लोक की व्यवस्था की, मगर शनि देव अपने लोक से संतुष्ट नहीं हुए। उसी समय शनि ने समस्त लोकों पर आक्रमण की योजना बना डाली।
*💫ब्रह्म पुराण में शनि कथा💫*
*ब्रह्म पुराण में शनि की कथा इस प्रकार आयी है-:*
बचपन से ही शनि भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। वे श्रीकृष्ण के अनुराग में निमग्न रहा करते थे। वयस्क होने पर इनके पिता ने चित्ररथ की कन्या से इनका विवाह कर दिया था। इनकी पत्नी सती, साध्वी और परम तेजस्विनी थी। एक रात वह ऋतु स्नान करके पुत्र प्राप्ति की इच्छा से शनि के पास पहुँची, पर यह श्रीकृष्ण के ध्यान में निमग्न थे। इन्हें बाह्य संसार की सुध ही नहीं थी। पत्नी प्रतीक्षा करके थक गयी। उसका ऋतुकाल निष्फल हो गया। इसलिये उसने क्रुद्ध होकर शनि देव को शाप दे दिया कि आज से जिसे तुम देख लोगे, वह नष्ट हो जायगा। ध्यान टूटने पर शनि देव ने अपनी पत्नी को मनाया। पत्नी को भी अपनी भूल पर पश्चात्ताप हुआ, किन्तु शाप के प्रतिकार की शक्ति उसमें न थी, तभी से शनि देवता अपना सिर नीचा करके रहने लगे। क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि इनके द्वारा किसी का अनिष्ट हो।
*💫शनि के अधिदेवता💫*
शनि के अधिदेवता प्रजापति ब्रह्मा और प्रत्यधिदेवता यम हैं। इनका वर्ण कृष्ण, वाहन गिद्ध तथा रथ लोहे का बना हुआ है। यह एक-एक राशि में तीस-तीस महीने तक रहते हैं। यह मकर और कुम्भ राशि के स्वामी हैं तथा इनकी महादशा 19 वर्ष की होती है।
*💫ज्योतिषशास्त्र के अनुसार,*💫:-
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार शनि ग्रह यदि कहीं रोहिणी-शकट भेदन कर दे तो पृथ्वी पर बारह वर्ष घोर दुर्भिक्ष पड़ जाये और प्राणियों का बचना ही कठिन हो जाय। शनि ग्रह जब आने वाला था, तब ज्योतिषियों ने महाराज दशरथ से बताया कि यदि शनि का योग आ जायगा तो प्रजा अन्न-जल के बिना तड़प-तड़प कर मर जाएगी। प्रजा को इस कष्ट से बचाने के लिये महाराज दशरथ अपने रथ पर सवार होकर नक्षत्र मण्डल में पहुँचे। पहले तो महाराज दशरथ ने शनि देवता को नित्य की भाँति प्रणाम किया और बाद में क्षत्रिय-धर्म के अनुसार उनसे युद्ध करते हुए उन पर संहारास्त्र का संधान किया। शनि देवता महाराज की कर्तव्यनिष्ठा से परम प्रसन्न हुए और उनसे वर माँगने के लिये कहा। महाराज दशरथ ने वर माँगा कि जब तक सूर्य, नक्षत्र आदि विद्यमान हैं, तब तक आप शकट भेदन न करें। शनिदेव ने उन्हें वर देकर संतुष्ट कर दिया।
*💫दंडाधिकारी💫*
सूर्य देव के कहने पर भगवान शिव ने शनि को बहुत समझाया, मगर वह नहीं माने। उनकी मनमानी पर भगवान शिव ने शनि को दंडित करने का निश्चय किया और दोनों में घनघोर युद्ध हुआ। भगवान शिव के प्रहार से शनिदेव अचेत हो गए, तब सूर्य का पुत्र मोह जगा और उन्होंने शिव से पुत्र के जीवन की प्रार्थना की। तत्पश्चात शिव ने शनि को दंडाधिकारी बना दिया। शनि न्यायाधीश की भाँति जीवों को दंड देकर भगवान शिव का सहयोग करने लगे। एक बार पिप्पलाद मुनि की बाल्यावस्था में ही उनके पिता का देहावसान हो गया। बड़े होने पर उनको ज्ञात हुआ कि उनकी पिता की मृत्यु का कारण शनि है तो उन्होंने शनि पर ब्रह्मदंड का संधान किया। उनके प्रहार सहने में असमर्थ शनि भागने लगे। विकलांग होकर शनि भगवान शिव से प्रार्थना करने लगे। भगवान शिव ने प्रकट होकर पिप्पलाद मुनि को बोध कराया कि शनि तो केवल सृष्टि नियमों का पालन करते हैं। यह जानकर पिप्पलाद ने शनि को क्षमा कर दिया।

*💫महत्त्वपूर्ण तथ्य💫*

*शनि देव के विषय में यह कहा जाता है कि-:*
शनिदेव के कारण गणेश जी का सिर छेदन हुआ।
शनिदेव के कारण राम जी को वनवास हुआ था।
रावण का संहार शनिदेव के कारण हुआ था।
शनिदेव के कारण पांडवों को राज्य से भटकना पड़ा।
शनि के क्रोध के कारण विक्रमादित्य जैसे राजा को कष्ट झेलना पड़ा।
शनिदेव के कारण राजा हरिशचंद्र को दर-दर की ठोकरें खानी पड़ी।
राजा नल और उनकी रानी दमयंती को जीवन में कई कष्टों का सामना करना पड़ा था।
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
[2/11, 20:11] ‪+91 98896 25094‬: एक डलिया में संतरे बेचती बूढ़ी औरत से एक युवा अक्सर संतरे
खरीदता ।
अक्सर, खरीदे संतरों से एक संतरा निकाल उसकी एक फाँक
चखता और कहता,
"ये कम मीठा लग रहा है, देखो !"
बूढ़ी औरत संतरे को चखती और प्रतिवाद करती
"ना बाबू मीठा तो है!"
वो उस संतरे को वही छोड़,बाकी संतरे ले गर्दन झटकते आगे बढ़
जाता।
युवा अक्सर अपनी पत्नी के साथ होता था,
एक दिन पत्नी नें पूछा "ये संतरे हमेशा मीठे ही होते हैं, पर यह
नौटंकी तुम हमेशा क्यों करते हो ?
"युवा ने पत्नी को एक मधुर मुस्कान के साथ बताया -
"वो बूढ़ी माँ संतरे बहुत मीठे बेचती है, पर खुद कभी नहीं खाती,
इस तरह मै उसे संतरा खिला देता हूँ ।
एक दिन, बूढ़ी माँ से, उसके पड़ोस में सब्जी बेचनें वाली औरत ने
सवाल किया,
- ये झक्की लड़का संतरे लेते इतनी चख चख करता है, पर संतरे तौलते
हुए मै तेरे पलड़े को देखती हूँ, तुम हमेशा उसकी चख चख में, उसे
ज्यादा संतरे तौल देती है ।
बूढ़ी माँ नें साथ सब्जी बेचने वाली से कहा -
"उसकी चख चख संतरे के लिए नहीं, मुझे संतरा खिलानें को लेकर
होती है,
वो समझता है में उसकी बात समझती नही,मै बस उसका प्रेम
देखती हूँ, पलड़ो पर संतरे अपनें आप बढ़ जाते हैं ।
.
मेरी हैसीयत से ज्यादा मेरी थाली मे तूने परोसा है.
तू लाख मुश्किलें भी दे दे मालिक, मुझे तुझपे भरोसा है.
एक बात तो पक्की है की...
छीन कर खानेवालों का कभी पेट नहीं भरता
और बाँट कर खानेवाला कभी भूखा नहीं मरता...!!!
.
"ऊँचा उठने के लिए पंखो की जरूरत तो पक्षीयो को पड़ती है..
इंसान तो जितना नीचे झुकता है,
वो उतना ही ऊपर उठता जाता है..!!"👏👏👏👏
[2/11, 20:35] पं अर्चना जी: *|| श्रीकृष्ण स्तुति ||*

श्री कृष्ण चन्द्र
कृपालु भजमन,
नन्द नन्दन
सुन्दरम्।

अशरण शरण
भव भय हरण,
आनन्द घन
राधा वरम्॥

सिर मोर मुकुट
विचित्र मणिमय,
मकर कुण्डल
धारिणम्।

मुख चन्द्र द्विति
नख चन्द्र द्विति,
पुष्पित
निकुंजविहारिणम्॥

मुस्कान मुनि
मन मोहिनी,
चितवन चपल
वपु नटवरम्।

वन माल ललित
कपोल मृदु,
अधरन मधुर
मुरली धरम्॥

वृषुभान नन्दिनि
वामदिशि,
शोभित सुभग
सिहासनम्।

ललितादि सखी
जिन सेवहि,
करि चवर छत्र
उपासनम्॥

*!! सब द्वारिन को*
*छाड़ि के आयो*
*मैं तेरे द्वार !!*
*!! ओ वृषभानु की*
*लाड़ली अब*
*मेरी ओर निहार !!*

*!! मुझे चरणों से*
*लगा ले मेरे*
*श्याम मुरली वाले !!*
*!! मेरी सांस सांस*
*में है तेरा*
*नाम मुरली वाले !!*

*जय श्री राधे !!*
*जय श्री कृष्णा !!*
*जय श्री राधे कृष्णा !!*
*जय जय श्री यशोदानंदन !!*
*श्री राधा कृष्णाय नमः !!*
*श्री कृष्ण: शरणम् मम !!*

*!! श्री कृष्ण गोविन्द*
*हरे मुरारी !!*
*|| हे नाथ नारायण*
*वासुदेवाय  !!*
[2/11, 21:25] ‪+91 99936 26447‬: गरुड़ पुराणः ये हैं 36 नर्क, जानिए किसमें कैसे दी जाती है सजा
हिंदू धर्म ग्रंथों में लिखी अनेक कथाओं में स्वर्ग और नर्क के बारे में बताया गया है। पुराणों के अनुसार स्वर्ग वह स्थान होता है जहां देवता रहते हैं और अच्छे कर्म करने वाले इंसान की आत्मा को भी वहां स्थान मिलता है, इसके विपरीत बुरे काम करने वाले लोगों को नर्क भेजा जाता है, जहां उन्हें सजा के तौर पर गर्म तेल में तला जाता है और अंगारों पर सुलाया जाता है।
हिंदू धर्म के पौराणिक ग्रंथों ने 36 तरह के मुख्य नर्कों का वर्णन किया गया है। अलग-अलग कर्मों के लिए इन नर्कों में सजा का प्रावधान भी माना गया है। गरूड़ पुराण, अग्रिपुराण, कठोपनिषद जैसे प्रामाणिक ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। आज हम आपको उन नर्कों के बारे में संक्षिप्त रूप से बता रहे हैं-
1. महावीचि
2. कुंभीपाक
3. रौरव
4. मंजूष
5. अप्रतिष्ठ
6. विलेपक
7. महाप्रभ
8. जयंती
9. शाल्मलि
10. महारौरव
11. तामिस्र
12. महातामिस्र
13. असिपत्रवन
14. करम्भ बालुका
15. काकोल
16. कुड्मल
17. महाभीम
18. महावट
19. तिलपाक
20. तैलपाक
21. वज्रकपाट
22. निरुच्छवास
23. अंगारोपच्य
24. महापायी
25. महाज्वाल
26. क्रकच
27. गुड़पाक
28. क्षुरधार
29. अम्बरीष
30. वज्रकुठार
31. परिताप
32. काल सूत्र
33. कश्मल
34. उग्रगंध
35. दुर्धर
36. वज्रमहापीड
1. महावीचि- यह नर्क पूरी तरह रक्त यानी खून से भरा है और इसमें लोहे के बड़े-बड़े कांटे हैं। जो लोग गाय की हत्या करते हैं, उन्हें इस नर्क में यातना भुगतनी पड़ती है।
2. कुंभीपाक- इस नर्क की जमीन गरम बालू और अंगारों से भरी है। जो लोग किसी की भूमि हड़पते हैं या ब्राह्मण की हत्या करते हैं। उन्हें इस नर्क में आना पड़ता है।
3. रौरव- यहां लोहे के जलते हुए तीर होते हैं। जो लोग झूठी गवाही देते हैं उन्हें इन तीरों से बींधा जाता है।
4. मंजूष- यह जलते हुए लोहे जैसी धरती वाला नर्क है। यहां उनको सजा मिलती है, जो दूसरों को निरपराध बंदी बनाते हैं या कैद में रखते हैं।
5. अप्रतिष्ठ- यह पीब, मूत्र और उल्टी से भरा नर्क है। यहां वे लोग यातना पाते हैं, जो ब्राह्मणों को पीड़ा देते हैं या सताते हैं।
6. विलेपक- यह लाख की आग से जलने वाला नर्क है। यहां उन ब्राह्मणों को जलाया जाता है, जो शराब पीते हैं।
7. महाप्रभ- इस नर्क में एक बहुत बड़ा लोहे का नुकीला तीर है। जो लोग पति-पत्नी में फूट डालते हैं, पति-पत्नी के रिश्ते तुड़वाते हैं वे यहां इस तीर में पिरोए जाते हैं।
8. जयंती- यहां जीवात्माओं को लोहे की बड़ी चट्टान के नीचे दबाकर सजा दी जाती है। जो लोग पराई औरतों के साथ संभोग करते हैं, वे यहां लाए जाते हैं।
9. शाल्मलि- यह जलते हुए कांटों से भरा नर्क है। जो औरत कई पुरुषों से संभोग करती है व जो व्यक्ति हमेशा झूठ व कड़वा बोलता है, दूसरों के धन और स्त्री पर नजर डालता है। पुत्रवधू, पुत्री, बहन आदि से शारीरिक संबंध बनाता है व वृद्ध की हत्या करता है, ऐसे लोगों को यहां लाया जाता है।
10. महारौरव- इस नर्क में चारों तरफ आग ही आग होती है। जैसे किसी भट्टी में होती है। जो लोग दूसरों के घर, खेत, खलिहान या गोदाम में आग लगाते हैं, उन्हें यहां जलाया जाता है।
11. तामिस्र- इस नर्क में लोहे की पट्टियों और मुग्दरों से पिटाई की जाती है। यहां चोरों को यातना मिलती है।
12. महातामिस्र- इस नर्क में जौंके भरी हुई हैं, जो इंसान का रक्त चूसती हैं। माता, पिता और मित्र की हत्या करने वाले को इस नर्क में जाना पड़ता है।
13. असिपत्रवन- यह नर्क एक जंगल की तरह है, जिसके पेड़ों पर पत्तों की जगह तीखी तलवारें और खड्ग हैं। मित्रों से दगा करने वाला इंसान इस नर्क में गिराया जाता है।
14. करम्भ बालुका- यह नर्क एक कुएं की तरह है, जिसमें गर्म बालू रेत और अंगारे भरे हुए हैं। जो लोग दूसरे जीवों को जलाते हैं, वे इस कुएं में गिराए जाते हैं।
15. काकोल- यह पीब और कीड़ों से भरा नर्क है। जो लोग छुप-छुप कर अकेले ही मिठाई खाते हैं, दूसरों को नहीं देते, वे इस नर्क में लाए जाते हैं।
16. कुड्मल- यह मूत्र, पीब और विष्ठा (उल्टी) से भरा है। जो लोग दैनिक जीवन में पंचयज्ञों ( ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ, मनुष्य यज्ञ) का अनुष्ठान नहीं करते वे इस नर्क में आते हैं।
17. महाभीम- यह नर्क बदबूदार मांस और रक्त से भरा है। जो लोग ऐसी चीजें खाते हैं, जिनका शास्त्रों ने निषेध बताया है, वो लोग इस नर्क में गिरते हैं।
18. महावट- इस नर्क में मुर्दे और कीड़े भरे हैं, जो लोग अपनी लड़कियों को बेचते हैं, वे यहां लाए जाते हैं।
19. तिलपाक- यहां दूसरों को सताने, पीड़ा देने वाले लोगों को तिल की तरह पेरा जाता है। जैसे तिल का तेल निकाला जाता है, ठीक उसी तरह।
20. तैलपाक- इस नर्क में खौलता हुआ तेल भरा है। जो लोग मित्रों या शरणागतों की हत्या करते हैं, वे यहां इस तेल में तले जाते हैं।
21. वज्रकपाट- यहां वज्रों की पूरी श्रंखला बनी है। जो लोग दूध बेचने का व्यवसाय करते हैं, वे यहां प्रताड़ना पाते हैं।
22. निरुच्छवास- इस नर्क में अंधेरा है, यहां वायु नहीं होती। जो लोग दिए जा रहे दान में विघ्न डालते हैं वे यहां फेंके जाते हैं।
23. अंगारोपच्य- यह नर्क अंगारों से भरा है। जो लोग दान देने का वादा करके भी दान देने से मुकर जाते हैं। वे यहां जलाए जाते हैं।
24. महापायी- यह नर्क हर तरह की गंदगी से भरा है। हमेशा असत्य बोलने वाले यहां औंधे मुंह गिराए जाते हैं।
25. महाज्वाल- इस नर्क में हर तरफ आग है। जो लोग हमेशा ही पाप में लगे रहते हैं वे इसमें जलाए जाते हैं।
26. गुड़पाक- यहां चारों ओर गरम गुड़ के कुंड हैं। जो लोग समाज में वर्ण संकरता फैलाते हैं, वे इस गुड़ में पकाए जाते हैं।
27. क्रकच- इस नर्क में तीखे आरे लगे हैं। जो लोग ऐसी महिलाओं से संभोग करते हैं, जिसके लिए शास्त्रों ने निषेध किया है, वे लोग इन्हीं आरों से चीरे जाते हैं।
28. क्षुरधार- यह नर्क तीखे उस्तरों से भरा है। ब्राह्मणों की भूमि हड़पने वाले यहां काटे जाते हैं।
29. अम्बरीष- यहां प्रलय अग्रि के समान आग जलती है। जो लोग सोने की चोरी करते हैं, वे इस आग में जलाए जाते हैं।
30. वज्रकुठार- यह नर्क वज्रों से भरा है। जो लोग पेड़ काटते हैं वे यहां लंबे समय तक वज्रों से पीटे जाते हैं।
31. परिताप- यह नर्क भी आग से जल रहा है। जो लोग दूसरों को जहर देते हैं या मधु (शहद) की चोरी करते हैं, वे यहां जलाए जाते हैं।
32. काल सूत्र- यह वज्र के समान सूत से बना है। जो लोग दूसरों की खेती नष्ट करते हैं। वे यहां सजा पाते हैं।
33. कश्मल- यह नर्क नाक और मुंह की गंदगी से भरा होता है। जो लोग मांसाहार में ज्यादा रुचि रखते हैं, वे यहां गिराए जाते हैं।
34. उग्रगंध- यह लार, मूत्र, विष्ठा और अन्य गंदगियों से भरा नर्क है। जो लोग पितरों को पिंडदान नहीं करते, वे यहां लाए जाते हैं।
35. दुर्धर- यह नर्क जौक और बिच्छुओं से भरा है। सूदखोर और ब्याज का धंधा करने वाले इस नर्क में भेजे जाते हैं।
36. वज्रमहापीड- यहां लोहे के भारी वज्र से मारा जाता है। जो लोग सोने की चोरी करते हैं, किसी प्राणी की हत्या कर उसे खाते हैं, दूसरों के आसन, शय्या और वस्त्र चुराते हैं, जो दूसरों के फल चुराते हैं, धर्म को नहीं मानते ऐसे सारे लोग यहां लाए जाते हैं।
[2/11, 23:11] ‪+91 98239 16297‬: *सूर्यसिद्धांतीय देशपांडे दैनिक पंचांग-- १२ फेब्रुवारी २०१७*

***!!श्री मयूरेश्वर प्रसन्न!!***
☀धर्मशास्त्रसंमत प्राचीन शास्त्रशुद्ध सूर्यसिद्धांतीय देशपांडे पंचांग (पुणे) नुसार
दिनांक १२ फेब्रुवारी २०१७
पृथ्वीवर अग्निवास दिवसभर.
चंद्र मुखात ०९:०८ पर्यंत नंतर मंगळ मुखात आहुती आहे.
शिववास सभेत,काम्य शिवोपासनेसाठी अशुभ दिवस आहे.
☀ *सूर्योदय* -०७:०८
☀ *सूर्यास्त* -१८:३०
*शालिवाहन शके* -१९३८
*संवत्सर* -दुर्मुख
*अयन* -उत्तरायण
*ऋतु* -शिशिर (सौर)
*मास* -माघ
*पक्ष* -कृष्ण
*तिथी* -द्वितीया
*वार* -रविवार
*नक्षत्र* -मघा (०९:०८ नंतर पू.फा.)
*योग* -अतिगंड
*करण* -तैतिल (१७:१२ नंतर गरज)
*चंद्र रास* -सिंह
*सूर्य रास* -मकर (२३:४७ नंतर कुंभ)
*गुरु रास* -तुळ
*राहु काळ* -१६:३० ते १८:००
*पंचांगकर्ते*:सिद्धांती ज्योतिषरत्न गणकप्रवर
*पं.गौरवशास्त्री देशपांडे-०९८२३९१६२९७*
*विशेष*-यमघंट ०९:०८ पर्यंत,रवि कुंभेत २३:४७,संक्रांती पुण्यकाल १२:४९ ते सूर्यास्त,या दिवशी पाण्यात केशर घालून स्नान करावे.संक्रांती पुण्यकाळात अन्न, वस्त्र यांचे दान करावे.त्रैलोक्यमंगल सूर्य कवच या स्तोत्राचे पठण करावे."-हीं सूर्याय नमः" या मंत्राचा किमान १०८ जप करावा.सत्पात्री व्यक्तिस गहू दान करावे.सूर्यदेवांना केशर भाताचा नैवेद्य दाखवावा.यात्रेसाठी घरातून बाहेर पडताना तूप प्राशन करुन बाहेर पडल्यास प्रवासात ग्रहांची अनुकूलता प्राप्त होईल.
*विशेष टीप* - *आगामी नूतन संवत्सरारंभी येणारा गुढीपाडवा सूर्यसिद्धांतीय पंचांगानुसार म्हणजेच मुख्यतः धर्मशास्त्रानुसार या वेळी मंगळवार दि.२८ मार्च २०१७ रोजी नसून फक्त बुधवार दि.२९ मार्च २०१७ रोजीच आहे.कारण दि.२८ मार्च रोजी सूर्योदयास अमावस्या तिथी आहे व दि.२९ मार्च रोजीच फक्त सूर्योदयास प्रतिपदा तिथी आहे.याची विशेष नोंद हिंदूंनी घ्यावी व सर्वांनी गुढी-ब्रम्हध्वज पूजन हे फक्त चैत्र शु.प्रतिपदेला बुधवार दि.२९ मार्च २०१७ रोजीच करावे.*
www.facebook.com/DeshpandePanchang
*टीप*-->>सर्व कामांसाठी प्रतिकूल दिवस आहे.
**या दिवशी तोंडल्याची भाजी व आलं खावू नये.
**या दिवशी केशरी वस्त्र परिधान करावे.
*आगामी नूतन संवत्सराचे सर्वांना उपयुक्त फायदेशीर असे धर्मशास्त्रसंमत सूर्यसिद्धांतीय देशपांडे पंचांग सर्वत्र उपलब्ध आहे.*
♦ *लाभदायक वेळा*-->>
लाभ मुहूर्त--  सकाळी १० ते सकाळी ११.३०
अमृत मुहूर्त--  सकाळी ११.३० ते दुपारी १.००
|| *यशस्वी जीवनाचे प्रमुख अंग* ||
|| *सूर्यसिध्दांतीय देशपांडे पंचांग* ||
आपला दिवस सुखाचा जावो,मन प्रसन्न राहो.
(कृपया वरील पंचांग हे पंचांगकर्त्यांच्या नावासहच व अजिबात नाव न बदलता शेअर करावे.या लहानश्या कृतीने तात्त्विक आनंद व नैतिक समाधान मिळते.@copyright)
[2/11, 23:16] पं अर्चना जी: दिनांक:31.03.1972को इस
धरती पर अवतार लेने वाले
"लिपिरूपावतार " बाबाजी
{यानी परमपितापरमात्मा},
जिनसे "त्रिदेव(यानी ब्रह्मा-
विष्णु-महेश ) " उत्पन्न होते
हैं,ने स्पष्ट किया है कि जो
भी समर्पण-भाव के साथ उन
की भक्ति करता  है , उसकी
राह बाबाजी स्वयं बनजाते
हैं!
[बाँट रहा अमृत जो,पीकर-
      जीवन-का-विष सारा!
उसकी करुणाके सागर का,
       पाये कौन किनारा??]
.....K.D.TRIPATHI.....
💐💐💐💐💐💐💐
     ॐ शिवः हरिः।।
बाबाजी के चरणारविन्दों में
लयावस्था प्राप्त करो!
[जीवत जानो जीवत बूझो,
       जीवत मुक्ति निवासा!
मूये मुक्ति कहैं गुरु लोभी,
         झूठा दें विश्वासा॥]
..................ॐ शिवः हरिः
[2/11, 23:43] ओमीश Omish Ji: *🌺अथ द्वितीयोsध्यायः।🌺*
         *🌸सांख्ययोगः।🌸*
*🔔मूलश्लोक 🔔*
संजय उवाच-
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः।।२. १।।
*🏹पदच्छेदः.........*
सञ्जयः उवाच
तम्, तथा, कृपया, आविष्टम्, अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तम्, इदम्, वाक्यम्, उवाच, मधुसूदनः।।
*🌹पदपरिचयः........🌹*
तम् - तद्. द. सर्व. पुुं. द्वि. एक.
तथा - अव्ययम्
कृपया - आ. स्त्री. तृ. एक.
आविष्टम् - अ. पुं. द्वि. एक.
अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्- अ. पुं. द्वि. एक.
विषीदन्तम् - विषीदत् -त. पुं. द्वि. एक.
इदम् - इदम्- म. सर्व. नपुं. द्वि. एक.
वाक्यम् - अ. नपुं. द्वि. एक.
उवाच - वच् -पर.कर्तरि लिट्. प्रपु. एक.
मधुसूदनः - अ. पुं. प्र. एक.
*🌷पदार्थः...... 🌷*
मधुसूदनः -श्रीकृष्णः
तथा - तेन प्रकारेण
कृपया - दयया
आविष्टम् - आक्रान्तम्
अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्- बाष्पपूर्णनेत्रम्
विषीदन्तम् - दुःखितम्
तम् - तम् (अर्जुनम्)
इदम् - एतत्
वाक्यम् - वचनम्
उवाच - अवदत्
*🌻अन्वयः 🌻*
मधुसूदनः तथा कृपया आविष्टम् अश्रुपूर्णाकुलेक्षणं विषीदन्तम् तम् इदं वाक्यम् उवाच।
*🐚आकाङ्क्षाः 🐚*
_उवाच। _
कः उवाच?
*मधुसूदनः उवाच।*
मधुसूदनः कम् उवाच?
*मधुसूदनः तम् उवाच।*
मधुसूदनः कथंभूतं तम् उवाच?
*मधुसूदनः आविष्टं तम् उवाच।*
मधुसूदनः कया आविष्टं तम् उवाच?
*मधुसूदनः कृपया आविष्टं तम् उवाच।*
मधुसूदनः कृपया आविष्टं कथम् तम् उवाच?
*मधुसूदनः कृपया तथा आविष्टं तम् उवाच।*
मधुसूदनः कृपया तथा आविष्टं पुनश्च कीदृशं तम् उवाच?
*मधुसूदनः कृपया तथा आविष्टम् अश्रुपूर्णाकुलेक्षणं तम् उवाच।*
मधुसूदनः कृपया तथा आविष्टं अश्रुपूर्णाकुलेक्षणं किं कुर्वन्तं तम् उवाच?
*मधुसूदनः कृपया तथा आविष्टम् अश्रुपूर्णाकुलेक्षणं विषीदन्तं तम् उवाच।*
मधुसूदनः कृपया तथा आविष्टम् अश्रुपूर्णाकुलेक्षणं विषीदन्तं तं किम् उवाच?
*मधुसूदनः कृपया तथा आविष्टम् अश्रुपूर्णाकुलेक्षणं विषीदन्तं तं वाक्यम् उवाच।*
मधुसूदनः कृपया तथा आविष्टम् अश्रुपूर्णाकुलेक्षणं विषीदन्तं तम् किं वाक्यम् उवाच?
*मधुसूदनः कृपया तथा आविष्टम् अश्रुपूर्णाकुलेक्षणं विषीदन्तं तम् इदं वाक्यम् उवाच।*
*📢 तात्पर्यम्..........*
भगवान् श्रीकृष्णः अर्जुनस्य शोचनीयाम् अवस्थां दृष्ट्वान्। ततः दयया आक्रान्तं शोकं च अनुभवन्तं तं सः एवम् उक्तवान।
*🌻व्याकरणम्.......*
▶ सन्धिः
कृपयाविष्टम् - कृपया + आविष्टम् - सवर्णदीर्घसन्धिः।
▶ समासः
अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्- अश्रुभिः पूर्णे अश्रुपूर्णे - तृतीयातत्पुरुषः।
- अश्रुपूर्णे च आकुले च - अश्रुपूर्णाकुले - कर्मधारयः।
- अश्रुपूर्णाकुले ईक्षणे यस्य सः, तम् - बहुव्रीहिः।
▶ कृदन्तः
विषीदन्तम् - वि + सद् + शतृ (कर्तरि) तम्।
आविष्टम् - आ + विश् + क्त (कर्तरि) तम्।
मधुसूदनः - मधु + सूद् + णिच् (स्वार्थे) + ल्यु (अन)
🌹🌻🌷🌺🌹🌻🌷🌺🌹🌻🌷🌺🌹🌻🌷🌺🌹
                                  *गीताप्रवेशात्*
[2/11, 23:43] ‪+91 96859 71982‬: ब्रह्म_संहिता

वामांगादसृजद्विष्णुं दक्षिणांगात्प्रजापतिम्।
ज्योतिर्लिंगमयं शम्भुं कूर्चदेशादवासृजत्।।१५।।

वाम-अंगात् = उनके बायें अंग से
असृजत् = उन्होंने सृष्ट किया
विष्णुम् = भगवान विष्णु को
दक्षिण-अंगात् = अपने दायें अंग से
प्रजापतिम् = हिरण्यगर्भ ब्रह्मा को
ज्योतिः लिंग = दिव्य लिंगरूपी ज्योति
मयम् = से गठित
शम्भुम् = शम्भु को
कूर्च देशात् = दो भौहों के बीच के स्थान से
अवासृजत् = उन्होंने सृष्ट किया

उन्हीं महाविष्णु ने अपने बाएँ अंग से विष्णु की, दाएँ अंग से प्रथम प्रजापति ब्रह्मा की तथा अपनी दोनों भौहों के मध्यभाग से दिव्य ज्योतिर्लिंगमय शम्भु की सृष्टि की।
[2/12, 00:02] ओमीश Omish Ji: *🌷 सूक्ति - सुधा 🌷*

परोपदेशे पाण्डित्यं सर्वेषां सुकरं नृणाम्।
     - दुसरों को उपदेश देने में पाण्डित्य  दिखाना यह सभी मानवो के लिए बहुत  सरल होता है।
[2/12, 01:45] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: पौराणिक मान्यता के अनुसार- गणेश जी ने वक्रतुंड रूप में ‘मत्सरासुर’ नामक दैत्य को अभयदान देकर देवताओं की उससे रक्षा की थी। ‘एकदन्त’ रूप में गणेश जी ने महर्षि च्यवन के पुत्र बलवान पराक्रमी दैत्य ‘मदासुर’ को पराजित कर उससे कहा था कि जहां मेरी पूजा हो वहां तुम कदापि मत जाना’’ । ‘महोदर’ रूप में गणेश जी ने गुरु शुक्राचार्य के शिष्य ‘मोहासुर’ का दर्प चूर-चूर करके देवताओं को निर्भय किया था। मोहासुर ने गणेश जी की भक्ति करके उनसे निवेदन किया था कि ‘‘अब मैं कभी भी देवताओं और मुनियों के किसी भी धर्माचरण में विघ्न नहीं उपस्थित करूंगा।’’ इसी प्रकार गणेश जी का ‘लंबोदर’ रूप क्रोधासुर ‘गजानन रूप’ लोभासुर, ‘विकट रूप- कामासुर ‘विघ्नराज रूप’ ममतासुर तथा ‘धूम्रवर्ण स्वरूप अहंतासुर नामक दैत्यों का संहारक माना गया है। गणेश जी ने अपने प्रत्येक रूप में दैत्यों को पराजित कर उन्हें यथार्थ का ज्ञान कराया, देवताओं की रक्षा की तथा उन्हें आरोग्य, अमरत्व एवं अजेय होने का वरदान दिया। दानवों के अत्याचार के कारण उस समय जो अधर्म और दुराचार का राज्य स्थापित हो गया था, उसे पूर्णतया समाप्त कर न केवल देवताओं को बल्कि दैत्यों को भी अभय दान देकर उन्हें अपनी भक्ति का प्रसाद दिया और उनका भी कल्याण ही किया। अतः स्पष्ट है कि दीपावली की रात्रि को लक्ष्मी जी के साथ गणेश पूजन का धार्मिक, आध्यात्मिक, तांत्रिक एवं भौतिक सभी दृष्टियों से अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है ताकि लक्ष्मी जी प्रसन्न होकर हमें धन-संपदा प्रदान करें तथा उस धन को प्राप्त करने में हमें कोई भी कठिनाई या विघ्न ना आये, हमें आयुष्य प्राप्त हो, सभी कामनाओं की पूर्ति हो तथा सभी सिद्धियां भी प्राप्त हों। हमारी हमेशा यही ईच्छा रहती है कि हमारे समस्त शुभ कार्यों में विभिन्न आसुरी शक्तियों द्वारा किसी भी प्रकार का कोई भी विघ्न उपस्थित न हो, हम धर्म का आचरण करें, जीवन में धर्म कर्म की स्थापना हो तथा लक्ष्मी जी के प्रसाद से जो धन वैभव हमें प्राप्त हो, गणेश जी की कृपा से वह रोग, ग्रहण इत्यादि जैसे अशुभ कार्यों में व्यय न हो, हम पूर्ण सुखोपभोग करके, कल्याणमय एवं निरोगी जीवन व्यतीत करें। दीपावली की पवित्र एवं शुभ रात्रि को लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी (जो उनके मानस-पुत्र हैं) का पूजन करने में संभवतः एक भावना यह भी निहित है कि मां लक्ष्मी अपने प्रिय पुत्र की भांति हमारी सदैव रक्षा करें, उनका मातृवत स्नेह और शुभाशीष हमें सदा ही प्राप्त होता रहे अर्थात् हम आजीवन सुखी, समृद्ध एवं धन संपन्न रहें। 
[2/12, 06:33] राम भवनमणि त्रिपाठी: ॥ परशम्भुमहिम्नस्तवः ॥ शिवाभ्यां नमः परशम्भुमहिम्नस्तवः अनुक्रमणिका श्लोकसङ्ख्यासहितं १ उपोद्घातप्रकरणं प्रथमम् ॥ १॥ १८ २ पराशक्तिस्कन्धरश्मिप्रकरणं द्वितीयम् ॥ २॥ ७ ३ इच्छाशक्तिस्कन्धरश्मि प्रकरणं तृतीयम् ॥ ३॥ ८ ४ ज्ञानशक्तिस्कन्धरश्मिप्रकरणं चतुर्थम् ॥ ४॥ ६ ५ क्रियाशक्तिस्कन्धरश्मिप्रकरणं पञ्चमम् ॥ ५॥ १२ ६ कुण्डलिनीशक्तिस्कन्धरश्मिप्रकरणं षष्ठम् ॥ ६॥ ६ ७ मातृकाशक्तिस्कन्धरश्मिप्रकरणं सप्तमम् ॥ ७॥ १० ८ षडन्वयरश्मिविवेकस्कन्धप्रकरणमष्टमम् ॥ ८॥ ५ ९ पावकध्यानयोगप्रकरणं नवमम् ॥ ९॥ ११ १० महाविभूतिप्रकरणं दशमम् ॥ १०॥ १७ ११ अन्तर्यागोपाचारपरामर्शप्रकरणमेकादशम् ॥ ११॥ ८ १२ शान्तिप्रकरणं द्वादशम् ॥ १२॥ १२ १३ उपसंहारप्रकरणं त्रयोदशम् ॥ १३॥ २१ पूर्णस्तवश्लोकसङ्ख्या १४१ १. प्रथमं प्रकरणं उपोद्घात अनेकशक्तिसङ्घट्टप्रकाशलहरीतनुः । शुद्धसंविच्छिवः पायाद्विभुः श्रीपरमेश्वरः ॥ श्रीशम्भो ते महिम्नः स्तुतिपथरचिताः साङ्गवेदाः सशास्त्राः सिद्धान्ताः साङ्गविद्याः सचकितमतयो नैव पश्यन्ति पारम् । साद्यन्तास्त्वामनन्तं परमशिवगुरुं ते कथं वर्णयेयु- स्तस्मात्प्रज्ञानुसारादहमपि भवतः स्तौमि किञ्चिच्चरित्रम् ॥ १॥ क्वानन्दात्मप्रकाशस्तव परमहिमापारपीयूषसिन्धु- स्त्वद्भक्त्यामोदमग्नाः क्व च कविमधुपा ब्रह्मविष्णुप्रमुख्याः ॥ श्रीशम्भो मोहजृम्भो न जनयति परां स्वात्मवत्तां किमेत- च्चित्रं तद्वन्मयापि स्वमतिविभवतः स्तूयसे त्वं न दोषः ॥ २॥ श्रीमद्भिर्दृश्यभावैरहमहमिदमित्यात्मजृम्भाधिरूढै- र्नानारूपैः पदार्थैरनवधिविभवैराशुदेदीप्यमानः । सर्वातीतस्त्वमेकः परशिवचरण स्वप्रकाशात्मशम्भो नान्यस्त्वत्तः परोऽस्तीत्यहमिह गुरुणा त्वां स्वभावैरवैमि ॥ ३॥ आत्मैवैष स्वकीयो निरतिशयचिदानन्दसद्ब्रह्मपूर्णो जिह्मः संसारभावैरतिदुरधिगमैरात्तमायाविलासैः । सर्वात्मत्वादनन्तस्तव शिवमहसः श्रीगुरोः सत्यवाक्यैः निस्तर्कोपाधिभेदैः परमपुरुष ते तत्त्वमद्वैतमेति ॥ ४॥ दीक्षां यः शाम्भवीयां शिवगुरुविहितां दिव्यबीजागमोक्तां प्राप्य श्रीशम्मुतादात्म्यवितरणचणां जन्ममृत्युप्रभेत्रीम् ॥ भित्वा भेद्यं पशुत्वं परशिवचरणध्यानयोगेन पूर्णः स्वाघोरब्रह्मविद्याविदितपरपदं ब्रह्म स प्रैति विद्वान् ॥ ५॥ ब्रह्माण्डं पिण्डमेतत्पितरमिव सुतस्तत्समं नैकधर्मं विज्ञायाज्ञानमुक्तः शिवगुरुवचनैरात्मविज्ञानशान्तः । सर्वात्मैकप्रभोस्ते परशिवचरणाराधनासक्तचित्तो यः कोऽप्येकः स योगी जयति जनिमृती भो महामृत्युमृत्यो ॥ ६॥ पिण्डे षाट्कोशिकेऽस्मिन्नवविवरपुरे पञ्चभूतेन्द्रियाढ्ये पुंस्के स्त्रैणे च षाण्डे शिवगुरुवचनैरत्र विज्ञायसे चेत् । केनाप्यन्नासुचित्तप्रमितिनिरुपमानन्दकोशात्तराशि- स्त्वं षोढा भिन्नमूर्तिः परशिव स बुधो विश्वरूपत्वमीयात् ॥ ७॥ सर्वेश श्रीपुरेश त्रिभुवनभवनव्यक्तयः शक्तयस्ते- ंअन्ताद्याः श्रीपराद्या निरवधिविभवा मातृकान्ताः क्षकान्ताः । विज्ञाताः स्युः स्वरूपे यदि शिवगुरुणा विश्वदृश्यप्रपञ्च- स्वात्मज्योतिर्विलीनान्विदधति विदुषो योगिनः सैव मुक्तिः ॥ ८॥ या षोढा पञ्चधा च प्रकटितविभवा श्रीपरा देव शम्भो सैव श्रीसुन्दरीति श्रुतिभिरभिनुता चक्रराजासनस्था । सर्वत्रानेककोटिप्रकटितगणनायोगिनीर्व्यश्नुवाना त्वत्तेजोऽन्तर्निरूढा रचयति जगतामादिमध्यान्तकालान् ॥ ९॥ या शक्तिः पञ्चवाहप्रवहणलहरीव्यक्तनैजात्मतेजः संवर्ताग्निप्रपीतत्रिभुवनजलधिः कालसङ्कर्षणी ते । दिक्कालातीतमूर्ते परशिव महतां भक्तिभाजामविद्यां मृत्युं विज्ञानदानात्प्रहरति विदुषां तन्महत्वं त्वमेव ॥ १०॥ सर्वज्ञो नित्यतृप्तः सदसदुभयङ्गोऽनादिबोधः स्वतन्त्रो नित्या लुप्तात्मशक्तिर्निरुपमचरितोऽनन्त इत्यङ्गषट्कैः । षट्च्छक्तिव्यक्तभावस्त्वमिह यदि शिव ज्ञायसे देशिकोक्त्या येन स्वात्मन्यनादौ सकलविलसितं ते परायाः स भेदः ॥ ११॥ गायत्री वेदधात्री शतमखफलदा वेदशास्त्रैकवेद्या चिच्छक्तिं ब्रह्मविद्या परमशिव तव श्रीपरां व्याकरोति । शब्दब्रह्मैक्यवाच्यामखिलमतमिति व्यक्ततत्त्वामवाच्यां सप्तस्रोतोविभूतिं त्रिभुवनमयतां तत्त्वतः सर्वतुर्याम् ॥ १२॥ संसारासारभावप्रवहणचतुरामादिशक्तिं परां तां स्वात्माभिन्नां विदित्वा वपुरनुमतिभिर्नावृताहङ्कृतिस्थः । त्रैलोक्ये ब्रह्मविश्वप्रसरमनवधिस्वप्रकाशप्रपूर्णं ज्ञात्वा मुक्तः स योगी भवति गतभवस्त्वत्प्रसादान्महेश ॥ १३॥ विश्वेश स्वप्रकाशप्रसरमिह विना नान्यदस्तीति तत्त्वं मीमांसारूपमेतत्तव परमगुरो श्रीमुखाम्नायजालम् । स्वप्रत्यक्षं विहाय स्वरहितमिति चेदस्ति चान्यत्र तत्त्वं ये धीरास्तर्कयेयुस्त इह जनिमृतीराप्नुवन्त्यङ्गभारैः ॥ १४॥ न ब्रह्मा विष्णुरुद्रौ सुरपतिरमरा नासुरा नैव पृथ्वी नापोऽग्निर्नैव वायुर्न च गगनतलं नो दिशो नैव कालः । नो वेदा नैव यज्ञा न च रविशशिनौ नो वियन्नो विकल्पः स्वज्योतिः सत्यमेकं जयति तव पदं सच्चिदानन्दमूर्ते ॥ १५॥ शम्भो सैद्धान्तिका ये स्वमतिविभवतोऽखर्वगर्वाः प्रमाणैः मीमांसन्ते भवन्तं बहुमतजनकैरावृता शुद्धविद्यैः । अन्योन्यस्पर्धिनस्ते कथमिह भवतस्तत्त्वमीयुः स्वतेजः सर्वातीतं विकल्पग्रहरहितमजं मानतर्काद्यगम्यम् ॥ १६॥ धीराः केचिन्महान्तो गुरुवचनरतास्त्यक्तसंसारभावा निःशङ्काघोरविद्या परिणतमतयः सर्वसङ्कल्पमुक्ताः । त्वत्कारुण्याक्षिलक्ष्याः परमशिव भवत्साधकाः पुण्यपापैः कृत्याकृत्यैर्विहीनाः परपदविभवं त्वां प्रपश्यन्ति विश्वम् ॥ १७॥ सिद्धान्तः शाम्भवोऽयं शिवगुरुवचनाघोरविद्याक्षरोक्तः स्तोत्रव्याजेन निर्वाह्यत इति भवतः श्रीविभो चापलं मे । अत्र न्यूनातिरेकोक्तिजनितमसकृत्क्षम्यतां दासबुद्ध्या मच्चित्तस्थः प्रमेयं समुपदिश परं मातृकावर्णराशिम् ॥ १८॥ इति श्रीदूर्वासकृतपरशम्भुमहिम्नस्तवे
[2/12, 06:47] पं अर्चना जी: *दीपक मिट्टी का है*
          *या सोने का,*
               *यह महत्वपूर्ण नहीं है;*
*बल्कि वो अंधेरे में*
        *प्रकाश कितना देता है*
                     *यह महत्वपूर्ण है।*

*उसी तरह मित्र*
        *गरीब है या अमीर है,*
               *यह महत्वपूर्ण नहीं है।*
*बल्कि वो आपकी*
      *मुसीबत में आपका*
            *कितना साथ देता है*
                     *यह महत्वपूर्ण है।*
        🙏🙏🌾🌴🌴💐
                शुभ प्रभात
[2/12, 07:16] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

श्रीमद्भगवद्गीता : श्रीरामानुजभाष्य
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अध्याय –18
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संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन॥1॥

महाबाहो = हे महाबाहो ; हृषीकेश = हे अन्तर्यामिन् = केशिनिषूदन = हे वासुदेव (मैं) ; संन्यासस्य = संन्यास ; च = और ; त्यागस्त्र = त्याग के ; तत्त्वम् = तत्त्व को ; पृथक् = पृथक् पृथक् ; वेदितुम् = जानना ; इच्छामि = चाहता हूं ।

हिन्दी अर्थ
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अर्जुन बोले– हे महाबाहो अन्तर्यामिन् हृषीकेश केशिनिषूदन वासुदेव  ! मैं संन्यास और त्याग के तत्त्व को पृथक्-पृथक् जानना चाहता हूँ।।1।।

भाष्य
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त्यागसंन्यासौ हि मोक्षसाधनतया विहितौ-‘न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनै के अमृतत्वमानुशुः’  ‘वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः संन्यास योगोद्यतयः शुद्धसत्वाः। ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे।।’  इत्यादिषु। अस्य संन्यासस्य त्यागस्य च तत्वं याथात्म्यं पृथग् वेदितुम् इच्छामि। अयम् अभिप्रायः-किम् एतौ संन्यास त्यागशब्दौ पृथगर्थौ, उत एकार्थी एव? यदा पृथगर्थौ, तदा अनयोः पृथक्त्वेन स्वरूपं वेदितुम् इच्छामि। एकत्वे अपि तस्य स्वरूपं वक्तव्यम् इति।

भाष्य की हिन्दी
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‘कुछ लोग कर्म से, प्रजा से और धन से नहीं, किन्तु केवल त्याग से अमृतत्व को प्राप्त हुए।’ ‘वेदान्तविज्ञान के द्वारा जिनको परमार्थवस्तु दृढ़ निश्चय हो चुका है, जिनका अन्तःकरण संन्यासयोग के द्वारा शुद्ध हो गया है, वे सब मृत्यु के पश्चात् ब्रह्मलोक में जाकर परम अमृतरूप होकर सर्वथा मुक्त हो जाते हैं।’ इत्यादि श्रुतियों में त्याग और संन्यास- ये दोनों मोक्ष के साधन बतलाये गये हैं। इन त्याग और संन्यास का तत्त्व- यथार्थ स्वरूप मैं विभाग पूर्वक जानना चाहता हूँ। अभिप्राय यह है कि क्या वे संन्यास और त्याग शब्द पृथक्-पृथक् अर्थवाले हैं, या दोनों का एक ही अर्थ है? यदि पृथक्-पृथक अर्थवाले हैं तो मैं उनका स्वरूप पृथक्-पृथक् जानना चाहता हूँ। यदि दोनों की एकता है, तो भी उनका स्वरूप बतलाना चाहिये।

            –रमेशप्रसाद शुक्ल

            –जय श्रीमन्नारायण।
[2/12, 07:20] राम भवनमणि त्रिपाठी: सदियाँ कितनी बीत गयीं, आकर हमें जगाने में।
नीद हमारी गहरी है, माहिर हम ठोकर खाने में।
काबुल कांधार हमारे थे, ईरान तुरान दुलारे थे।
अब ढाका हमसे छूट गया, लाहौर का नाता टूट गया।
गर अभी नींद से नहीं जगे, मिट जायेंगे हम पक्का है।
यदि जाति पाति में बटे रहे, लगना निश्चित धक्का है।

🙏🙏🙏🙏🙏🙏
[2/12, 08:19] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

भगवान् द्वारा परीक्षित की गर्भ में रक्षा
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मातुर्गर्भगतो वीरः स तदा भृगुनन्दन।
ददर्श पुरुषं कञ्चिद्दह्यमानोऽस्त्रतेजसा।।   

सूत जी ने शौनक जी से कहा –

हे शौनक जी ! उत्तरा के गर्भ में स्थित वह वीर शिशु परीक्षित जब अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से तेज से जलने लगा, तब उसने देखा की उसकी आँखों के सामने एक ज्योतिर्मय पुरुष है ।

अङ्गुष्ठमात्रममलं स्फुरत्पुरटमौलिनम्।
अपीव्यदर्शनं श्यामं तडिद्वाससमच्युतम्।।

श्रीमद्दीर्घचतुर्बाहुं तप्तकाञ्चनकुण्डलम्।
क्षतजाक्षं गदापाणिमात्मनः सर्वतो दिशम् ।
परिभ्रमन्तमुल्काभां भ्रामयन्तं गदां मुहुः।।
    
वह देखने में तो अंगूठे भर का हैं, परन्तु उसका स्वरुप बहुत ही निर्मल है। अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, बिजली के समान चमकता हुआ पीताम्बर धारण किये हुए है, सिर पर सोने का मुकुट झिलमिला रहा है। उस निर्विकार पुरुष के बड़ी ही सुन्दर लम्बी-लम्बी चार भुजाएँ हैं। कानों में तपाये हुए स्वर्ण के सुन्दर कुंडल हैं, आँखों में लालिमा है, हाथ में लूके के समान जलती हुई गदा लेकर उसे बार-बार घुमाता जा रहा है और स्वयं शिशु के चारों ओर घूम रहा है ।

अस्त्रतेजः स्वगदया नीहारमिव गोपतिः ।
विधमन्तं सन्निकर्षे पर्यैक्षत क इत्यसौ।।
    
जैसे सूर्य अपनी किरणों से कुहरे को भगा देते हैं, वैसे ही वह उस गदा के द्वारा ब्रह्मास्त्र के तेज को शान्त करता जा रहा था। उस पुरुष को अपने समीप देखकर वह गर्भस्थ शिशु सोचने लगा कि यह कौन है ।

विधूय तदमेयात्मा भगवान्धर्मगुब्विभुः ।
मिषतो दशमासस्य तत्रैवान्तर्दधे हरिः ।।
    
इस प्रकार उस दस मास के गर्भस्थ शिशु के सामने ही धर्मरक्षक अप्रमेय भगवान् श्रीकृष्ण ब्रह्मास्त्र के तेज को शान्त करके वहीं  अंतर्धान हो गये ।

     –भाग0 1/12/7-11

          –रमेशप्रसाद शुक्ल

          –जय श्रीमन्नारायण।
[2/12, 08:50] पं ज्ञानेश: श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥
श्री भगवान बोले- हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु हे कुंतीपुत्र अर्जुन! यह अभ्यास (गीता अध्याय 12 श्लोक 9 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखना चाहिए।) और वैराग्य से वश में होता है
॥35॥
~ अध्याय 6 - श्लोक : 35

💐💐💐सुप्रभातम्💐💐💐
[2/12, 08:55] ‪+91 99673 46057‬: राधे राधे- आज का भगवद चिंतन,
              12-02-2017
🌺       किसी को देखकर नहीं अपितु किसी के लिए जलो। किसी को देखकर जलना वहाँ मनुष्य जीवन का पतन है वहीँ किसी के लिए जलना मनुष्य जीवन की उपलब्धि।
🌺       दीपक का जीवन इसलिए वन्दनीय नहीं हैं कि वह जलता है अपितु इसलिए वन्दनीय है कि वह दूसरों के लिए जलता है। वह स्वयं वेदना सहता है और दूसरों को प्रकाश ही बाँटता है। जीवन वही सार्थक है जो मिट्टी बनने से पहले दूसरों के लिए मिट जाए, नियति तो मिटटी बनना ही है।
🌺        ईर्ष्या और द्वेष में जलना बड़ी नासमझी है। ईर्ष्या और द्वेष वो आग है जिसे पानी से बुझाना सम्भव नहीं। यह आग तब तक शांत नहीं होती जब तक स्वयं उस ईर्ष्यालु मनुष्य को पूर्ण जलाकर भस्म न कर दे।

अगर हिम्मत हो तो अवश्य जलो मगर दीपक की तरह।
[2/12, 09:56] ओमीश Omish Ji: दूरस्थोऽपि न दूरस्थो,
यो यस्य मनसि स्थित:।
यो यस्य हॄदये नास्ति,
समीपस्थोऽपि दूरत:॥
जो जिसके मन में बसता है वह उससे दूर होकर भी दूर नहीं होता और जिससे मन से सम्बन्ध नहीं होता वह पास होकर भी दूर ही होता है...आचार्य ओमीश 🙏
[2/12, 10:05] ‪+91 96859 71982‬: जिसके *योगक्षेम* का भार भगवान ने उठा लिया है, उसको कभी किसी प्रकारसे हानि होगी-यह तो मानना ही मूर्खता है। इसलिये शरणागत कभी भी दुःखी नहीं होता,निश्चिंत रहता है।

🙏जय श्री कृष्ण 🙏
[2/12, 10:12] ‪+91 91656 66823‬: ऊँ न विप्रपादोदककर्दमानि,
न वेदशास्त्रप्रतिघोषितानि!
स्वाहास्नधास्वस्तिविवर्जितानि,
श्मशानतुल्यानि गृहाणि तानि।।

जहाँ ब्राम्हणों का चरणोदक नहीं गिरता,
जहाँ वेद शास्त्र की गर्जना नहीं होती,
जहाँ स्वाहा,स्वधा,स्वस्ति और मंगल शब्दों का उच्चारण नहीं होता है।
वह चाहे स्वर्ग के समान भवन भी हो तब भी वह श्मशान के समान है।
[2/12, 10:14] ‪+91 96859 71982‬: 🙏�🌹

*मन और पानी,*

मन भी पानी जैसा ही है, पानी फर्श पर गिर जाए तो कहीं भी चला जाता है।
मन भी चंचल है, कभी भी कहीं भी चला जाता है।
मन को हमेशा सतसंग और प्रभु-सिमरन के साथ जोडे रखना है।

जैसे पानी को फ्रिज में रखने से ठंडा रहता है और आॅईस बॉक्स मे रखने से सिमट कर बर्फ में परिवर्तित हो जाता है।
वैसे ही मन फ्रिज रूपी सतसंग में ठंडा और शांत रहता है और प्रभु भजन-सिमरन करने से  सिमट कर एक हो कर परमात्मा में लीन हो जाता है।

अगर बर्फ को बाहर धूप में रखा तो वह पिघल कर पानी होकर इधर-उधर होकर बिखर जाता है।

ठिक उसी प्रकार
हम लोग भी माया रूपी धूप में सतसंग से दूर होकर बिखर जायेगे।

तो हमें हमेशा सतसंग और प्रभु भजन-सिमरन से खुद को जोड़कर रखना चाहिए । 🙏🌺🙏
[2/12, 10:28] ‪+91 96859 71982‬: श्रीकृष्ण की प्रथम पत्नी रुक्मिणी जी की कथा
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कुंडिनपुर के राजा भीष्मक की बेटी रूक्मिणी जी माता लक्ष्मी का अवतार थीं। उनका जन्म भी श्रीकृष्ण की पत्नी बनने के लिए हुए था। लेकिन उनके भाई रुक्मी ने उनका विवाह शिशुपाल से तय कर दिया। रुक्मिणी जी ने भगवान को संदेशा भेजा कि अगर लेने नहीं आए तो ये शरीर नष्ट कर लूंगी। *

*उधर शिशुपाल अपनी सेना के साथ विवाह के लिए प्रस्थान कर चुका था। रुक्मिणी जी ने मां गौरी के पूजन के लिए राज्य के बाहर स्थित मंदिर पहुंचीं। जहां सुरक्षा का भारी इंतजाम था। लेकिन उसे भेदकर श्रीकृष्ण वहां पहुंच गये।

रुक्मिणी जी ने माता के पूजन के बाद उनका आशीर्वाद हासिल करके प्रभु के गले में वरमाला डाल दी, प्रभु ने रूक्मिणीजी को रथ में बैठाकर स्वयं श्रीकृष्ण रथ को चलाने लगे कि घोड़े हवा से बात करने लगे। *

*रुक्मिणी जी की सुरक्षा में लगी टुकड़ी में से एक सैनिक बोला-
रथ की ध्वजा पर गरूडजी बैठे हैं, रथ तो गरूडजी की तरह उड़ता होगा? पता नहीं कहाँ से आया था? कितना सुंदर है, श्याम वर्ण की कांति है।

मुस्कराता कितना सुंदर है? हार कितना बढ़िया है, पीताम्बर कितनी सुंदर, हम निहाल हो गये, हम धन्य हो गये, दर्शन दे गया, अपना बना गया और भगवान् के रथ ने तो हवा से बात की,

सैनिकों ने कहा- भैया बहुत आनन्द आ गया दर्शन करके, एक सैनिक मुस्करा कर बोला- वो सब तो ठीक है लेकिन रूक्मिणीजी कहाँ है? बोले, रूक्मिणीजी भीतर मंदिर में बैठी है, पूजा कर रही हैं।

मन्दिर में देखा तो रूक्मिणीजी नहीं है, अरे भाई रूक्मिणीजी कहाँ है?
मुझे क्या मालूम कहाँ है?
अब तो एक सैनिक दूसरे सैनिक से पूछ रहा है, रूक्मिणीजी कहाँ है?
मुझे क्या मालुम कहाँ है?
एक सैनिक मुस्करा कर बोला- मैं बताऊँ कहा है

रूक्मिणीजी? सभी बोले बताओं,
बोला- ले तो गया, एक सैनिक ने कहा- हम दस हजार सैनिकों के बीच से रूक्मिणीजी को ले गया तुमने रोका क्यों नहीं?

एक बोला- मैं तो मुकुट देखने में लगा था, मुझे क्या मालुम कब ले गया?
अब एक-दूसरे को आपस में बोल रहे हैं,
तुमने क्यों नहीं रोका - तुमने क्यों नहीं रोका?

कोई कहता है मैं पीताम्बर देखने में लगा था तो कोई कहता है मैं तो मुखारविन्द देखने में लगा था,

एक ने कहा मुझे मालूम तो था ले जा रहा है, सबने कहा कि बताया क्यों नहीं?

उसने कहा- मैंने देखा उन दोनों की जोड़ी ठीक जमी है पहले ले जाने दो, बाद में ही बताऊँगा।

भगवान् ने सबको भ्रमित कर दिया, रूक्मिणीजी के बड़े भाई रुक्मी आये, रूक्मिणी को वहां नहीं देखकर सैनिकों से पूछा- रूक्मिणी कहाँ गयी?

सैनिकों ने कहा- महाराज, वो साँवला-सलौना आया और ले गया, तुम दस हजार सैनिकों के बीच में से कैसे ले गया?

सैनिक बोले- एक बार तो हम उसे मारने दौड़े थे पर वो हँस गया और हँसने के बाद क्या हुआ? ये तो जाने के बाद ही पता चला।

रुक्मी ने श्रीकृष्ण का पीछा किया, भगवान ने उसको पकड़कर आधी दाढ़ी और आधी मूँछ मुंड दी, रथ के चक्का में बाँध दिया, बलरामजी ने आकर छुड़ाया,

रूक्मिणीजी ने कहा प्रभु मेरे भाई को मारना नहीं, आप जो मिले इसकी पत्नी व मेरी भाभी की प्रेरणा से ही मिले।

मैं उसे विधवा नहीं देखना चाहती।
उधर भीष्मक राजा ने आकर रूक्मी से कहा- बेटा मेरी पुत्री जब डेढ़ वर्ष की थी तो मेरे घर संत नारदजी पधारे थे। *

*नारदजी ने हमसे कहा था कि रूक्मिणी साधारण नारी नहीं है, साक्षात् लक्ष्मी है, और लक्ष्मी का विवाह नारायण के अलावा किसी से नहीं होता, इसलिये मन की मलिनता को मिटाओ पुत्र और ये सुन्दर विवाह मुझे अपने हाथों से कन्या दान के रूप में करने दो,
भीष्मक के पुत्र ने बात मानी, रूक्मणीजी को लाये, कुंकुम् पत्रिका द्वारिका भेजी, बारात लेकर मेरे प्रभु द्वारिकाधीश पधारे।

बारात का स्वागत किया गया, कृष्ण के सभी मित्र भी साथ में पधारें बड़े धूमधाम से विवाह सम्पन्न हुआ,
शांडिल्य मुनि वेद मंत्रोच्चार कर रहे हैं, सबके मन में बड़ा आनन्द हुआ, द्वारिका वासियों ने खूब प्रेम से मंगल गीत गायें, विवाह में बड़े-बड़े ज्ञानी संत-महात्मा पधारें, विवाह में कुण्डिनपुर वासियों को युगल छवि के दर्शन करके मन में बहुत आनन्द हुआ
, लक्ष्मी स्वरूपिणी रूक्मिणीजी को बहुत अच्छा लगा, गोविन्द रूपी वर प्राप्त करके वो गद् गद् हो गयीं।

जय श्री कृष्ण
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[2/12, 11:05] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

“प्रमाण” इति शब्द:
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“स्त्री प्रमाणी यस्य स स्त्रीप्रमाणः”,
“पुरुषः प्रमाणो यस्याः सा पुरुषप्रमाणा”,
“फलं प्रमाणं यस्य तत्फलप्रमाणम्”।

प्रथमपक्षे करणे ल्युट् प्रत्ययः विहितः। करणाधिकरणयोश्च (पा.सू. ३-३-११७) “स्त्री प्रमाणी यस्य स स्त्रीप्रमाणः”, “पुरुषः प्रमाणो यस्याः सा पुरुषप्रमाणा”, “फलं प्रमाणं यस्य तत्फलप्रमाणम्” सूत्रेण। करणल्युडन्तशब्दोऽयं “विशेष्यनिघ्नः”। एष करणल्युडन्तशब्द एव भगवता पाणिनिना “अप्पूरणीप्रमाण्योः” (पा.सू. ५-४-११६) इति सूत्रे समस्तरूपे पठितः। पूरणी च प्रमाणी च पूरणीप्रमाण्यौ तयोः पूरणीप्रमाण्योः। एतस्यैव शब्दस्योदाहरणानि प्रादर्शिषत वैयाकरणैः – “स्त्री प्रमाणी यस्य स स्त्रीप्रमाणः”, “पुरुषः प्रमाणो यस्याः सा पुरुषप्रमाणा”, “फलं प्रमाणं यस्य तत्फलप्रमाणम्” - इत्यादिविग्रहेषु।
द्वितीयपक्षे भावे ल्युट् प्रत्ययः विहितः। ल्युट् च (पा.सू. ३-३-११५) इति सूत्रेण। सूत्रेऽस्मिन् नपुंसके भावे क्तः (पा.सू. ३-३-११४) इत्यस्मात्सूत्रात् “नपुंसके भावे” इति पदे अनुवर्त्येते। अत एवायं भावल्युडन्तशब्दो न “विशेष्यनिघ्नः” अपितु “नियतनपुंसकलिङ्गः”। एतादृशानि विशेषणानि “अजहल्लिङ्गानि” कथ्यन्ते। अजहल्लिङ्गविशेषणानि स्वलिङ्गं न जहति। यथा “अविवेकः परमापदां पदम्” (कि. २-३०) इत्यत्र सत्यपि “अविवेकः” इति पुल्लिङ्गविशेष्ये “पदम्” इति विशेषणं नपुंसकलिङ्गे विद्यते।
तृतीयपक्षे कर्तरि ल्युट् प्रत्ययः विहितः।  कृत्यल्युटः बहुलम् (पा.सू. ३-३-११३) इति सूत्रेण। अयमपि कर्तृल्युडन्तशब्दोऽजहल्लिङ्गो (नियतनपुंसकलिङ्गः) नियतैकवचनश्च। अत एव मेदिनीकोशकाराः प्राहुः - प्रमाणं नित्यमर्यादाशास्त्रेषु सत्यवादिनि। इयत्तायां च हेतौ च क्लीबैकत्वे प्रमातरि॥ “प्रमातरि” इत्यर्थे प्रमाणशब्दः “क्लीबैकत्वे” प्रसिद्धः। 
“वेदाः प्रमाणम्” इत्यत्र भावल्युडन्तः कर्तृल्युडन्तो वा प्रमाणशब्दः प्रयुक्तः। भावल्युडन्तपक्षे “वेदा ज्ञानम्” इत्यर्थः। कर्तृल्युडन्तपक्षे “वेदाः प्रमातारः” इत्यर्थः। अत्र विशेष्यविशेषणयोः समानलिङ्गत्वं न। अजहल्लिङ्गत्वात्। एवमेव “स्मृतयः प्रमाणम्”, “प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत्प्राणजीवनः” (विष्णुसहस्रनाम १०३), “सतां हि सन्देहपदेषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः” (शकुन्तलानाटके १-२०)  इत्यादिषु भावल्युडन्तः कर्तृल्युडन्तो वा प्रमाणशब्दः प्रयुक्तः।

“वेदाः प्रमाणा येषां ते वेदप्रमाणा ब्राह्मणाः” इत्यत्र करणल्युडन्तः प्रमाणशब्दः प्रयुक्तः। अत्र विशेष्यविशेषणयोः समानलिङ्गत्वम्। विशेष्यनिघ्नत्वात्। विशेष्यवाचकपदोत्तरविभक्तितात्पर्यविषयसङ्ख्याविरुद्ध-सङ्ख्याया अविवक्षितत्वात्समानवचनकत्वञ्च।

प्रमाणशब्दस्य विशेष्यनिघ्नताया अनित्यत्वादेव “अमरकोषे” तृतीयकाण्डे “नानार्थवर्गे” पठितोऽयं शब्दो न हि “विशेष्यनिघ्नवर्गे”। यतो हि क्वचित्स शब्दो विशेष्यनिघ्नो भवति (यदा करणे ल्युट्प्रत्ययो विहितः) क्वचित्स नियतनपुंसकलिङ्गः (यदा भावे कर्तरि वा ल्युट्प्रत्ययो विहितः)।

            –जय श्रीमन्नारायण।
[2/12, 12:04] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: स्वामी विवेकानन्द जी के विचार-------:
भारत की दुर्दशा को दूर करने का एक मात्र उपाय है-शिक्षा !और यदि वह शिक्षा केवल विद्वत समाज या धनवानों तक ही सीमित रहे तो, सम्पूर्ण देश की उन्नति कभी संभव नहीं है। देश की  अधिकांश सामान्य प्रजा को जब तक समान रूप से शिक्षा प्राप्त करने का अवसर उपलब्ध नहीं कराया जायेगा, तब तक देश के उन्नत राष्ट्र बन जाने की कोई सम्भावना नहीं है। 
किन्तु स्वामीजी ने इस बात से भी सतर्क रहने को कहा था कि यदि उनको शिक्षा के साथ साथ 'संस्कृति ' देने की व्यवस्था न की गयी तो शिक्षा कई क्षेत्रों में मानव को दानव में भी रूपांतरित कर सकती है। यदि पढ़े-लिखे लोगों में संस्कार नहीं हो, यदि संस्कृति नहीं हो, वे यदि डिग्री पाने के साथ ही साथ परिष्कृत बुद्धि के अधिकारी नहीं हों, यदि वे अपने चंचल मन को शान्त रखने की तकनीक नहीं जानते हों, यदि बुद्धि ज्ञान की ज्योति से उद्भाषित नहीं हो, तो वैसी तथाकथित शिक्षा हमलोगों में दुर्बुद्धि को उत्पन्न कर देगी,और मानव, दानव में परिणत हो जायेगा। 
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते थे,' साधारण जनता को शिक्षा के साथ संस्कृति भी दो।' क्योंकि देश की विरासत को, या समाज को विदेशी प्रभाव से बचने में केवल संस्कृति ही रक्षा कर सकती है। उनकी चेतावनी पर क्या हमलोग अब भी ध्यान नहीं देंगे ? हमलोग अपने देश में जिस आधुनिक संस्कृति का निर्माण करना चाहते हैं, उसे भी जीवन के अन्य क्षेत्रों के समान पाश्चात्य संस्कृति के अन्धानुकरण के द्वारा ही करना चाहते हैं। किन्तु आमतौर से पाश्चात्य जगत का समग्र चिन्तन केवल मनुष्य के देह को सुख-भोग पहुँचाने, या समृद्धि की चकाचौंध में डूबो देने पर केन्द्रित रहती है। यदि हमलोग केवल पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण करते रहें तो हमलोग अपनी सांस्कृतिक विरासत को खो देंगे। 
[2/12, 12:10] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: हमलोग आजकल अपनी वेश-भूषा में, बातचीत के लहजे में, आचार-व्यवहार में पारिवारिक सम्बन्धों को निभाने में, बहुत बेशर्मी के साथ पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण करने लगे हैं। (चरण-स्पर्श को घुटना-छूने जे तरीके में बदल देना, माँ -पिताजी को 'मम्मी-पापा' कहना, उनके लिये 'ओल्ड एज होम' आदि बनवाना चाचा,फूफा,मौसा -चाची, बुआ,मौसी के लिये 'अंकल-आंटी'  कहना, आदि ) हमलोग शुद्ध हिन्दी तो नहीं बोल पाते किन्तु अंग्रेजी बोलने और अंग्रेजी ढंग से 'Birth Day' गीत गाने सीखने के स्कूल खोलते हैं। हमारे पास शब्दों की गरीबी इतनी है कि हमलोग थोड़ी देर के लिए भी भारत के किसी भी भाषा में भाषण नहीं कर सकते हैं, चेष्टा करने से भी विदेशी  भाषा के शब्द बीच में आ ही जाते हैं। किन्तु इस प्रकार हम किसी नई ' भारतीय-संस्कृति ' का निर्माण नहीं कर सकते। यदि हमलोग शिक्षा प्रचार के साथ साथ संस्कृति प्राप्त करने की अनिवार्यता को थोडा भी समझते हैं, तो हमें यह समझना पड़ेगा कि हमलोग किस बुनियाद के उपर अपनी संस्कृति का निर्माण कर सकते हैं ? इसका गहराई से चिन्तन करने पर हम देखेंगे कि इसके लियेपाश्चात्य जगत की ओर न देखकर हमें अपने गौरवशाली अतीत की ओर ही निहारना पड़ेगा। 
आप सब "अपनी दृष्टि को प्राचीन भारत के महिमामय अतीत पर केन्द्रित करके देखो, तुमको कितनी गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत प्राप्त है, तुम कितने गौरवशाली अतीत के अधिकारी हो, तुम्हारे पूर्वजों ने कितना बड़े ज्ञान का भण्डार तुम्हारे लिये रख छोड़ा है !पहले उसको समझने की चेष्टा करो !"
[2/12, 13:11] ‪+91 97545 35118‬: जिस समय चन्द्रशेखर आज़ाद साईकिल ले कर चलते थे उस समय
भीमराव अम्बेडकर भारत और इंग्लैण्ड
फ्लाइट से आते जाते थे,,
जब राम प्रसाद बिस्मिल जी भुने चने खा
कर क्रान्ति की ज्वाला में खुद जल रहे थे
तब भीमराव अंबेडकर ब्रिटेन के गवर्नर के
शाही भोज में शामिल होते थे,,
जब सारा भारत स्वदेशी के नाम पर
विदेशी कपड़ों की होली जला रहा था तब
भीमराव अम्बेडकर कोट पैंट और टाई पहन
कर चलते थे,,
जब भगत सिंह एक वकील को मोहताज़ थे।
तब बैरिस्टर वकील भीमराव अंबेडकर
अंग्रेज अफसरों के मुकदमे लड़ रहे थे ....
और अंत में वही बन गया भारत भाग्य
विधाता ........
उसी को मिली भारत की नींव भरने की
जिम्मेदारी ....
अंजाम सब देख रहे हैं,,

.
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कड़वा है पर शतप्रतिशत सत्य है
शायद किसी को हजम ना हो.....
[2/12, 14:33] राम भवनमणि त्रिपाठी: #नैको #मुनिर्यस्य #वचः #प्रामाणम् #
श्रीराम!! सम्पूर्ण वेद धर्मके मूल हैं--वेदोखिलो धर्ममूलम्(मनु .स्मृ.२-६)।तर्क प्रतिष्ठा रहितहै।श्रुतियाँ भी नाना प्रकारकी हैं।कोई भी ऐसा मुनि नहीं जिसका मत प्रामाणिक हो।अतः धर्मका तत्व गुहामें छुपाहुआहै।इसलिए महापुरुष जिस मार्ग से गए हैं वही पंथ है।--
तर्कोप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना ,नैको मुनिर्यस्य वचः प्रामाणं।धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां महाजनों येन गत:स पन्थाः।(महा. भा.वन.३१३-११७)।यहाँ पहले मनु स्मृति में वेद (तदविरुद्ध सभी शास्त्र)को ही प्रमाण बताया गया है।किन्तु महाभारत के उक्क्त वचन में अप्रमाण भी कहा है।इस विरोध का विचार करते हैं--
शरीरसे भिन्न आत्मा उसी आत्मका जन्मांतरमें होना ,स्वर्गादि लोक परलोक तथा जन्मांतरकी प्राप्ति करानेवाले कर्म,इनमें कार्य -कारणभाव आदि की सिद्धि वेदके अतिरिक्त कोई प्रत्यक्षादि प्रमाण द्वारा नहीं हो सकती।अतः वेद तथा वेदानुसारी स्मृति आदि शास्त्र ही मुख्यरूपसे कर्तव्य अकर्तव्य के बारेमें प्रामाण हैं।परंतु जन सामान्य विविध वेद शास्त्रों का अनुसंधान करने कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय कर सकें यह संभव ही नहीं है।इसलिये महाभारत में उनके लिए सामान्यतः यह कहा गया है कि महापुरुष जिस मार्गसे गए हैं वह पंथ है।इससे वेदोंके प्रामाण्य का निराकरण नहीं होता।और न ही कोई विरोध है ।वेद शास्त्रोंको छोंड़कर महापुरुषोंके चरित्र को ही कर्तव्याकर्तव्य में प्रमाण मानने पर तो और बहुत बड़ी अड़चन खड़ी हो जाये गी।जैसे भरतजीने माता की आज्ञा नहीं मानी।परसुराम जी ने पिता जी आज्ञासे माता तथा भाइयों को ही मार डाला था।भरतजी नें माता का तिरस्कार किया किन्तु युधिष्ठिरजी नें माता के वचनोंका आदर करतेहुए द्रौपदी से पाँचों भाईयोंने विवाह कर लिया।इस प्रकार इतिहास में अनेकों महापुरुषोंके चरित्रों में भारी मत भेद दिखाई देता ही है।इनमें किसका चरित्र प्रमाण है , कर्तव्याकर्तव्य क्या है इसके निर्णयके लिए शास्त्र का ही मुख्यरूपसे सहारा लेना पड़ताहै।यही कारण है कि भगवान श्रीकृष्ण सभी संशयों केकर्षणक्रम में शास्त्र ही प्रमाण हैं ऐसा स्ववाणी में ही नियत कर दिया है--तस्माच्च्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्ये व्यवस्थितौ।(गीता १६-२४)।जिस विषय में कोई शास्त्र प्रामाण न मिल रहा हो उस विषयमें भी शास्त्राविरुद्ध ही निर्णय किया जाता है।।शम्।।
[2/13, 04:15] पं सत्यशु: तुरंत पूरी होगी हर मनोकामना(1) मंगलवार को शाम के समय हनुमान जी को केवड़े का इत्र व गुलाब की माला चढ़ाएं। हनुमान जी को खुश करने का यह सबसे सरल उपाय है।(2) मंगलवार के दिन व्रत करके शाम को पूजा के समय बूंदी का प्रसाद बांटने से पैसों संबंधी बड़ी से बड़ी समस्या दूर हो जाती है।(3) मंगलवार के दिन हनुमानजी के पैरों में फिटकरी रखें। जिन्हें बुरे सपने आते हों वे अपने सिरहाने फिटकरी रखें। बुरे सपने नहीं आएंगे।ये भी पढ़ेःगणेशजी के मंदिर में बनाएं उल्टा स्वास्तिक, सात बार बनते ही पूरी होती है मनमांगी मुरादये भी पढेःपूजा में इसलिए तुलसी का है विशेष महत्व, परिक्रमा से मिलता है अखंड पुण्य(4) मंगलवार को दिन हनुमानजी के मंदिर में जाएं। वहां हनुमानजी की प्रतिमा के मस्तक का सिंदूर दाहिने हाथ के अंगूठे से लेकर मां सीता के चरणों में लगा दें। इसके बाद उनसे अपनी इच्छा पूरी करने की प्रार्थना करें। कुछ ही समय में आपको लाभ दिखेगा।(5) मंगलवार की शाम को हनुमान मंदिर में जाएं। एक सरसों के तेल का और एक शुद्ध घी का दीपक जलाएं। वहीं बैठकर हनुमान चालीसा का पाठ करें। यह हनुमानजी को प्रसन्न करने का अचूक टोटका है।(6) मंगलवार के दिन हनुमानजी के मंदिर में जाकर रामरक्षास्रोत का पाठ करें। जल्दी ही आपके सारे बिगड़े काम बन जाएंगे।(7) मंगल अथवा शनि के दिन हनुमानजी की प्रतिमा के आगे बैठ कर राम नाम का जप करें। हनुमानजी को प्रसन्न करने का इससे आसान उपाय पूरी दुनिया में नहीं है। इससे आपके सारे काम पूरे होंगे।(8) मंगलवार की सुबह स्नान आदि कर बड़ के पेड़ का एक पत्ता तोड़ें। इसे साफ पानी से धोकर कुछ देर हनुमानजी के सामने रखें। इसके बाद इस पर केसर से श्रीराम लिखें। अब इस पत्ते को अपने पर्स में रख लें। साल भर आपका पर्स पैसों से भरा रहेगा।

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