Friday, March 3, 2017

धर्मार्थ वार्ता

[2/15, 23:19] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: परोपकार एवं लोक कल्याण के लिए शरीर धारण करने वाले ऋषि-मुनियों ने मनुष्य की मूल सत्ता आत्मा की बन्धन-मुक्ति को समझा और चिरंतन उसी आधार पर उसका हल भी निकाल लिया। अपने तप एवं योगबल से जान लिया कि आत्मा परमात्मा एक ही तत्व के स्थानीय दो नाम हैं। परम सत्ता जो अंश, घट में आकाश खण्ड की भाँति शरीर में विद्यमान है वह आत्मा और उसका मुक्त , विभु, विराट एवं अपरम्पार परिसार की संज्ञा से परिपूर्ण है। आत्मा अथवा परमात्मा किसी का भी सान्निध्य अथवा साक्षात्कार आत्मा की मुक्ति का आधार है।
निष्काम भावना के साथ कि हुई उपासना चमत्कार चमत्कार उत्पन्न करती और फलवती होती है। भावना को परमात्मा में पूर्ण आयोजित करके कुछ देर की, की हुई उपासना जीवन पर एक स्थायी प्रभाव डालती है जो कि उत्कृष्ट विचारों, निर्विकार स्वभाव तथा सत्कर्मों के रूप में परिलक्षित होता है। उपासना करता हुआ भी जो व्यक्ति गुण, कर्म स्वभाव एवं मन वचन कर्म से उत्कृष्ट नहीं बना तो यही मानना होगा उसने उपासना की ही नहीं केवल वैसा करने का नाटक किया है।
भजन-पूजन अथवा जाप-कीर्तन करने के समय तक भी मनुष्य अपने पास अपने हृदय अथवा अपनी चेतना में परमात्मा की समीपता, आनन्द एवं उत्साह के रूप में दिन-भर अनुभव होती रह सकती है। उपासना के समय जितनी-जितनी गहराई के साथ अपनी मानसिक भावना को परमात्मा में संयोजित किया जायेगा यह अनुभव उतनी-उतनी ही गहराई से जीवन में उतरता और स्थिर होता जायेगा और एक दिन ऐसा आ जायेगा कि मनुष्य अपने में तथा अपने से बाहर उस परमपिता को हर समय ओत-प्रोत देखने लगे।
ऐसी स्थिति आ जाने पर मनुष्य का आत्मोद्धार निश्चित है। उसके गुण, कर्म, स्वभाव परमात्मा जैसे पावन प्रभु के सामीप्य के योग्य, उत्कृष्ट एवं पवित्र हो उसे असंदिग्ध विश्वास हो जायेगा कि ‘परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है’ कोई भी प्रच्छत्र अथवा प्रकट स्थान उससे रहित नहीं है। वह अन्तर्यामी और घट-घट को जानने वाला है। परमात्मा की उपस्थिति का विश्वास होने पर प्रथम तो मनुष्य स्वाभाविक रूप से बुरा करेगा ही नहीं और यदि फिर भी धृष्टता पूर्वक ऐसा करता है तो उसे अपने इस जघन्य अपराध का कितना और कैसा यातना पूर्ण दण्ड मिलेगा इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।
उपासना का उद्देश्य केवल इतना ही है कि उसके द्वारा परमात्मा का अधिकाधिक सान्निध्य प्राप्त किया जाये जिससे कि उस परमपिता की वह कृपा पाई जा सके जो हमारी आत्मा की मुक्ति का हेतु बन सके और ऐसा तभी सम्भव हो सकता है जब हमारी उपासना निर्लोभ एवं निष्काम हो और हमारे जीवन की रीति-नीति एवं गतिविधि उपासना के अनुरूप ही महान एवं पावन हो।
[2/15, 23:32] ‪+91 98239 16297‬: *सूर्यसिद्धांतीय देशपांडे दैनिक पंचांग-- १६ फेब्रुवारी २०१७*

***!!श्री मयूरेश्वर प्रसन्न!!***
☀धर्मशास्त्रसंमत प्राचीन शास्त्रशुद्ध सूर्यसिद्धांतीय देशपांडे पंचांग (पुणे) नुसार
दिनांक १६ फेब्रुवारी २०१७
पृथ्वीवर अग्निवास ०७:२९ नंतर.
गुरु मुखात आहुती आहे.
शिववास ०७:२९ पर्यंत नंदीवर नंतर भोजनात,काम्य शिवोपासनेसाठी ०७:२९ पर्यंत शुभ नंतर अशुभ दिवस आहे.
☀ *सूर्योदय* -०७:०६
☀ *सूर्यास्त* -१८:३२
*शालिवाहन शके* -१९३८
*संवत्सर* -दुर्मुख
*अयन* -उत्तरायण
*ऋतु* -शिशिर (सौर)
*मास* -माघ
*पक्ष* -कृष्ण
*तिथी* -पंचमी (०७:२९ पर्यंत)
*वार* -गुरुवार
*नक्षत्र* -चित्रा (१३:५७ नंतर स्वाती)
*योग* -गंड
*करण* -तैतिल (०७:२९ नंतर गरज)
*चंद्र रास* -तुळ
*सूर्य रास* -कुंभ
*गुरु रास* -तुळ
*राहु काळ* -१३:३० ते १५:००
*पंचांगकर्ते*:सिद्धांती ज्योतिषरत्न गणकप्रवर
*पं.गौरवशास्त्री देशपांडे-०९८२३९१६२९७*
*विशेष*-सिद्धियोग ०७:२९ पर्यंत,रवियोग १३:५७ नंतर,या दिवशी पाण्यात हळद घालून स्नान करावे.दत्तात्रेयसहस्रनाम व बृहस्पती कवच या स्तोत्रांचे पठण करावे."बृं बृहस्पतये नमः" या मंत्राचा किमान १०८ जप करावा.सत्पात्री व्यक्तिस केळी दान करावी.दत्तगुरुंना पुरणाचा नैवेद्य दाखवावा.यात्रेसाठी घरातून बाहेर पडताना दहि प्राशन करुन बाहेर पडल्यास प्रवासात ग्रहांची अनुकूलता प्राप्त होईल.
*विशेष टीप* - *आगामी नूतन संवत्सरारंभी येणारा गुढीपाडवा सूर्यसिद्धांतीय पंचांगानुसार म्हणजेच मुख्यतः धर्मशास्त्रानुसार या वेळी मंगळवार दि.२८ मार्च २०१७ रोजी नसून फक्त बुधवार दि.२९ मार्च २०१७ रोजीच आहे.कारण दि.२८ मार्च रोजी सूर्योदयास अमावस्या तिथी आहे व दि.२९ मार्च रोजीच फक्त सूर्योदयास प्रतिपदा तिथी आहे.याची विशेष नोंद हिंदूंनी घ्यावी व सर्वांनी गुढी-ब्रम्हध्वज पूजन हे फक्त चैत्र शु.प्रतिपदेला बुधवार दि.२९ मार्च २०१७ रोजीच करावे.*
www.facebook.com/DeshpandePanchang
*टीप*-->>सर्व कामांसाठी प्रतिकूल दिवस आहे.
**या दिवशी तेल खावू नये.
**या दिवशी पिवळे वस्त्र परिधान करावे.
*आगामी नूतन संवत्सराचे सर्वांना उपयुक्त फायदेशीर असे धर्मशास्त्रसंमत सूर्यसिद्धांतीय देशपांडे पंचांग सर्वत्र उपलब्ध आहे.*
♦ *लाभदायक वेळा*-->>
लाभ मुहूर्त--  दुपारी १२.४५ ते दुपारी २.१५
अमृत मुहूर्त--  दुपारी २.१५ ते दुपारी ३.४५
|| *यशस्वी जीवनाचे प्रमुख अंग* ||
|| *सूर्यसिध्दांतीय देशपांडे पंचांग* ||
आपला दिवस सुखाचा जावो,मन प्रसन्न राहो.
(कृपया वरील पंचांग हे पंचांगकर्त्यांच्या नावासहच व अजिबात नाव न बदलता शेअर करावे.या लहानश्या कृतीने तात्त्विक आनंद व नैतिक समाधान मिळते.@copyright)
[2/15, 23:51] ‪+91 96859 71982‬: साधु साधु सबही बड़े, अपनी अपनी ठौर ।
शब्द विवेकी पारखी , ते माथे के मौर ।।

अर्थ:
अपने अपने स्थान पर सभी साधु बड़े है । साधुजनों में कोई छोटा अथवा बड़ा नहीं है क्योंकि साधु शब्द ही महानता का प्रतीक है अर्थात सभी साधु सम्मान के अधिकारी है किन्तु जो आत्मदर्शी साधु है वे सिर के मुकुट हैं🙏🏼🙏🏼
[2/15, 23:56] ‪+91 96859 71982‬: साधु साधु सबही बड़े, अपनी अपनी ठौर ।
शब्द विवेकी पारखी , ते माथे के मौर ।।

अर्थ:
अपने अपने स्थान पर सभी साधु बड़े है । साधुजनों में कोई छोटा अथवा बड़ा नहीं है क्योंकि साधु शब्द ही महानता का प्रतीक है अर्थात सभी साधु सम्मान के अधिकारी है किन्तु जो आत्मदर्शी साधु है वे सिर के मुकुट हैं🙏🏼🙏🏼
[2/16, 05:30] पं अर्चना जी: 👏🏻💐👏🏻🌹

दुनिया का सबसे खूबसूरत पौधा,
"प्रेम" और "स्नेह" का होता है ..!
       जो जमीन पर नहीं,
       दिलों में उगता है ..!!
"राहत" भी अपनों से मिलती है,
"चाहत" भी अपनों से मिलती है ..!
       अपनों से कभी रूठना नहीं, 
       क्योंकि, "मुस्कुराहट" भी सिर्फ,
       अपनों से मिलती है ..!!

         ‼अपना ख़याल रखे‼
🌹‼आपका हर पल शुभ हो‼🌹
           🌿🌺💐🌺🌿
[2/16, 05:30] पं अर्चना जी: 🌻आलपिन सारे कागज़ को
         🌺 जोड़कर रखना
                   चाहती है
    लेकिन वह हर कागज़ को
           🌺   चुभती है
        इसी प्रकार जो व्यक्ति
         परिवार समाज व् देश
           को जोड़कर रखना
         चाहता है वह लोगो की
             आँखों में चुभता है
🌹🌹🌹🌹
🙏�🙏�🙏�🙏�🙏�🙏�🙏�🙏
[2/16, 06:22] राम भवनमणि त्रिपाठी: . तृतीयं प्रकरणं इच्छाशक्तिस्कन्धरश्मि सत्त्वं चित्त्वं महत्त्वं तव परमगुरोरात्मशक्तेः परायाः पिण्डीकृत्य प्रकृत्या प्रथमरतिपतिव्याजकालान्तवह्निः । भूत्वा संसारसृष्टिस्थितिलयनिलयाद्याति तोयार्णवान्तं तन्वानो निर्ममेच्छस्त्वमिह विजयसे विष्णुमायाविभूते ॥ १॥ मायायामन्तरस्थः कुसुमशररसस्तावकीयः स्वकाले ज्ञानज्ञेयप्रमातृप्रकटितमहिमा स्वप्ररोहप्रसारैः । उत्पाद्याद्यं विरिञ्चं तदनु भुवनतामात्मना व्यश्नुवानो बीजाकारः स्वयम्भूरिति कथयति ते नाम विश्वात्मसृष्टेः ॥ २॥। आदिक्षान्तार्णसृष्टिं त्रिभुवनभवनाभासभूमिं शिवादि- क्षित्यन्तात्मीयतत्त्वावलिविकृतगतिं वैधसाण्डान्तभूमिम् । आत्मीयानुत्तरेच्छागुणपरवशतां प्राप्य संव्यश्नुवानः श्रीशम्भो विश्वसृष्टिर्भवसि निजमलत्रय्युपप्रोषितात्मा ॥ ३॥ चत्वारः कालतत्त्वे तव युगपतयस्ते च धातुश्च पुत्राः व्याख्याता द्वादशैते स्थितिकृतिविदिताः सावताराः सदाराः । श्रीकण्ठाद्याश्च नाथा धृतयुगविधयस्त्वन्नियत्युत्थितान्ता- श्चैतन्या एव तस्मात्स्थितिरिति विदितस्त्वं सहस्रार्कदीप्ते ॥ ४॥ आत्मीयानादिरश्मीनिह भवजनितानेकसिद्धान्तजाल- व्यामोहोद्यद्विकल्पानृतनिजविषयान्पुण्यपापादिभेदैः । दुर्ज्ञेयान्देशिकोक्त्या प्रविमलवपुषि स्वप्रकाशैकवह्नौ स्वात्मत्वेन प्रबुद्धाञ्झडिति विजयते यस्त्वदात्माविरोधः ॥ ५॥ जाग्रत्स्वप्नप्रसुप्तिप्रकटितविभवैरात्ममायागुणैः स्वै- र्ज्ञानेच्छाक्रोधरूपैर्विधिहरिहरकैरावृते मोक्षमार्गे । पान्थाः केचित्सुधीराः शिवगुरुवचनज्ञानशास्त्राग्निदीप्ता- स्तवत्कारुण्यैकरक्षापरिविहितभियस्त्वां प्रयान्त्यादिमूर्ते ॥ ६॥ त्वं मायाकामदेवप्रथममसि ततः स्वस्य सृष्टौ विधाता रक्षायां विष्णुरन्ते प्रबलतरमहारुद्रमूर्तिः स्वमूर्तौ । सत्योऽनन्तः प्रमाता शिवगुरुरिति च स्वात्ममूर्तिप्रभावैः स्वेच्छावस्थागुणाढ्योऽप्यगुण इति विभो वस्तुतः स्तूयसे त्वम् ॥ ७॥ इच्छाशक्त्या ययैतत्कबलितमखिलं ते जगज्जालरूपं सृष्टिस्थित्यन्तवृत्या सरसि जलधरासारतुल्यात्मगत्या । सैवानन्तान्तरङ्गप्रसरबहुविधानेकसङ्कल्पभावै- राविर्भूत्वा त्वदैङ्गप्रकटनकृतये बोधसिन्धुस्त्वमेव ॥ ८॥ इति श्रीदूर्वासकृतपरशम्भुमहिम्नस्तवे इच्छाशक्तिस्कन्धरश्मि प्रकरणं तृतीयम् ॥ ३॥
[2/16, 06:59] राम भवनमणि त्रिपाठी: अनुकूलता और प्रतिकूलता
    ***************
जीवन दो पहलु में चलता है-
एक सती प्रकरण से-
दूसरा पार्वती प्रकरण से-

1-सती प्रकरण है- प्रतिकूलता
      ***************
     सन्यासी बनाता है।
  त्याग, वैराग्य,असंगता स्वतः
        सिद्ध हो जाती है।

2-पार्वती प्रकरण है- अनुकुलता
     ******************
      प्रेम, लगाव, संगता
         जुड़ाव लाता है।

   1-सति- मृत्योर्मुक्षीय मामृतात
   2-पार्वती-तत प्रसादम परम् शांति

     ।।जय हो माँ आदिशक्ति की।।
[2/16, 07:21] पं ज्ञानेश: शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्य से कर्मबंधनैः।
सन्न्यासयोगमुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥
इस प्रकार, जिसमें समस्त कर्म मुझ भगवान के अर्पण होते हैं- ऐसे संन्यासयोग से युक्त चित्तवाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्मबंधन से मुक्त हो जाएगा और उनसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगा।
॥28॥
~ अध्याय 9 - श्लोक : 28

💐💐💐सुप्रभातम्💐💐💐
[2/16, 07:49] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: एक बार बैशाली क्षेत्र में दुष्ट-दुराचारियों का उत्पात-आतंक इतना बढ़ा कि उस प्रदेश में भले आदमियों का रहना कठिन हो गया। लोग घर छोड़-छोड़कर अन्यत्र सुरक्षित स्थानों के लिए पलायन करने लगे। इन भागने वालों में ब्राह्मण समुदाय का भी बड़ा वर्ग था। नीति-धर्म की बातें करने के कारण आक्रमण भी उन्हीं पर अधिक होते थे।
वैशाली के ब्राह्मणों ने महर्षि गौतम के आश्रम में चलकर रहना उचित समझा। तपोबल के प्रभाव से वहाँ गाय और सिंह एक घाट पर पानी पीते थे।
वे पहुँचे, आश्रय मिल गया, सुखपूर्वक रहने लगे। बहुत दिन इसी प्रकार बीत गए। उन्हें न कोई कष्ट था, न भय। एक दिन महर्षि नारद उधर से निकले, कुछ समय गौतम के आश्रम में रुकें, इस समुदाय के संरक्षण की नई व्यवस्था देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए और उदारता की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।
ब्राह्मण समुदाय से यह न देखा गया। ईर्ष्या उन्हें बेतरह सताने लगी। उनके आगमन से ही तो गौतम ने इतना श्रेय कमाया। हमने ही उन्हें यश दिलाया, अब हम ही अपना पुरुषार्थ दिखाकर उन्हें नीचा भी दिखाएँगे।
षड्यंत्र रचा गया। रातों-रात मृत गाय आश्रम के आँगन में डाली गई। कुहराम मच गया। यह गौतम ने मारी है, हत्यारा हैं, पापी है, इसका भंडाफोड़ सर्वत्र करेंगे।
गौतम योग-साधना से उठे और यह कुतूहल देखकर अवाक् रह गए। आगंतुकों को विदा करने का निश्चय हुआ। ऋषि बोले, “मूर्द्धन्यजनों की ईर्ष्या अन्यान्यों की अपेक्षा अधिक घातक और व्यापक परिणाम उत्पन्न करती है। आप लोग जहाँ रहते थे, वहाँ चले जाएँ। अपनी ईर्ष्या से जिस क्षेत्र को कलुषित किया था, उसे स्नेह-सौजन्य के सहारे सुधारने का नए सिरे से प्रयत्न करें।” यही हुआ। कलुषित क्षेत्र पुनः पवित्र हो गया।
सुप्रभात 🌻🙏🏻🌻😊
[2/16, 08:02] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णाम्,
कुरु सद्बुद्धिमं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तम्,
वित्तं तेन विनोदय चित्तम्॥

हे मोहित बुद्धि! धन एकत्र करने के लोभ को त्यागो। अपने मन से इन समस्त कामनाओं का त्याग करो। सत्यता के पथ का अनुसरण करो, अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त हो उससे ही अपने मन को प्रसन्न रखो।

नारीस्तनभरनाभीदेशम्,
दृष्ट्वा मागा मोहावेशम्।
एतन्मान्सवसादिविकारम्,
मनसि विचिन्तय वारं वारम्॥

स्त्री शरीर पर मोहित होकर आसक्त मत हो। अपने मन में निरंतर स्मरण करो कि ये मांस-वसा आदि के विकार के अतिरिक्त कुछ और नहीं हैं। (उठो, जागो।)

          –रमेशप्रसाद शुक्ल

          –जय श्रीमन्नारायण।
[2/16, 08:25] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

प्रातः स्मरामि हृदि संस्फुरदात्मतत्त्वं
सच्चित्सुखं परमहंसगतिं तुरीयम् ।
यत्स्वप्नजागरसुषुप्तिमवैति नित्यं
तद्ब्रह्म निष्कलमहं न च भूतसङ्घः ॥

प्रातर्भजामि मनसा वचसामगम्यं
वाचो विभान्ति निखिला यदनुग्रहेण ।
यन्नेतिनेतिवचनैर्निगमा अवोचं_
स्तं देवदेवमजमच्युतमाहुरग्र्यम् ॥

प्रातर्नमामि तमसः परमर्कवर्णं
पूर्णं सनातनपदं पुरुषोत्तमाख्यम् ।
यस्मिन्निदं जगदशेषमशेषमूर्तौ
रज्ज्वां भुजङ्गम इव प्रतिभासितं वै ॥

             –जय श्रीमन्नारायण।
[2/16, 08:49] ‪+91 99773 99419‬: *🔔मूल श्लोकः 🔔*
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो,
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-
स्तेsवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।२. ६।।
*🏹पदच्छेदः........*
न, च, एतत्, विद्मः, कतरत्, नः, गरीयः, यत्, वा, जयेम, यदि, वा, नः,  जयेयुः।
यान्, एव, हत्वा, न, जिजीविषामः, ते, अवस्थिताः, प्रमुखे, धार्तराष्ट्राः।।
*🌹पदपरिचयः......🌹*
न —अव्ययम्
च —अव्ययम्
एतत् —द. सर्व. नपुं. द्वि. एक.
विद्मः —विद् -पर. कर्तरि लट्. उपु. बहु.
कतरत् —कतरत् -त. नपुं. प्र. एक.
नः —अस्मद् -द. सर्व. ष.बहु.
गरीयः —गरीयस् -स. नपुं. प्र. एक.
यत् —यद्. द. सर्व. नपुं. प्र. एक.
वा —अव्ययम्
जयेम —जि -पर.कर्तरि वि.लिङ्.उपु.बहु.
यदि —अव्ययम्
नः —अस्मद्.द.सर्व.द्वि.बहु.
जयेयुः —जि-पर. कर्तरि वि.लिङ्.प्रपु.बहु.
यान्—यद्-द. सर्व. पुं. द्वि. बहु.
एव —अव्ययम्
हत्वा —क्त्वान्तम् अव्ययम्
जिजीविषामः —जीव् -(सन्) पर. कर्तरि लट्. उपु. बहु.
ते—तद्. द. सर्व. पुं. प्र. बहु.
अवस्थिताः —अ. पुं. प्र. बहु.
प्रमुखे —अ. पुं. स. एक.
धार्तराष्ट्राः —अ. पुं. प्र. बहु.
*🌷पदार्थः...... 🌷*
न च —न च
एतत् —इदम्
विद्मः —जानीमः
कतरत् —किम्
नः —अस्माकम्
गरीयः —श्रेयः
यद् वा —यदि वा
जयेम —जयं प्राप्नुयाम
यदि वा —अथ वा
नः —अस्मान्
जयेयुः —(ते) पराजयेरन्
यान् एव —यान् एव
हत्वा —मारयित्वा
न जिजीविषामः —जीवितुं न इच्छामः।
ते धार्तराष्ट्राः —तादृशाः धृतराष्ट्रस्य सुताः
प्रमुखे —सम्मुखे
अवस्थिताः —उपस्थिताः
*🌻अन्वयः 🌻*
यान् हत्वा न जिजीविषामः ते एव धार्तराष्ट्राः प्रमुखे अवस्थिताः (तस्मात्) यद् वा जयेम यदि वा नो जयेयुः (अनयोः) कतरत् नः गरीयः (इति) एतत् न विद्मः।
*🐚आकाङ्क्षाः🐚*
_न विद्मः।_
किं न विद्मः?
*एतत् न विद्मः।*
किम् एतत् न विद्मः?
*यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः (अनयोः) कतरत् गरीयः (इति) एतत् न विद्मः।*
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः अनयोः कतरत् केषां गरीयः इति एतत् न विद्मः?
*यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः अनयोः कतरत् नः गरीयः इति एतत् न विद्मः।*
कुतः यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः अनयोः कतरत् नः गरीयः इति एतत् न विद्मः?
*(यतः) अवस्थिताः (तस्मात्) यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः अनयोः कतरत् नः गरीयः इति एतत् न विद्मः।*
के अवस्थिताः यस्मात् यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः अनयोः कतरत् नः गरीयः इति एतत् न विद्मः?
*धार्तराष्ट्राः अवस्थिताः तस्मात् यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः अनयोः कतरत् नः गरीयः इति एतत् न विद्मः।*
कीदृशाः धार्तराष्ट्राः अवस्थिताः यस्मात् यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः अनयोः कतरत् नः गरीयः इति एतत् न विद्मः?
*यानेव हत्वा न जिजीविषामः ते धार्तराष्ट्राः अवस्थिताः तस्मात् यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः अनयोः कतरत् नः गरीयः इति एतत् न विद्मः।*
यानेव हत्वा न जिजीविषामः ते धार्तराष्ट्राः कुत्र अवस्थिताः यस्मात् यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः अनयोः कतरत् नः गरीयः इति एतत् न विद्मः?
*यानेव हत्वा न जिजीविषामः ते धार्तराष्ट्राः प्रमुखे अवस्थिताः तस्मात् यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः अनयोः कतरत् नः गरीयः इति एतत् न विद्मः।*
*📢 तात्पर्यम्......*
यान् हत्वा वयं जीवितुं न शक्नुमः तादृशाः दुर्योधनादयः समरे उपस्थिताः सन्ति। युद्धे अन्यस्य हननम् अन्यस्य च जीवनम् इत्येतत् अवश्यम्भावि। तस्मात् यदि वयं जीवनम् इच्छामः तर्हि अवश्यं तेषां मरणं काङ्क्षणीयम्। अथ वयं मरणम् इच्छामः। ते कामं जीवन्ति। किन्तु समरशूराणाम् अस्माकम् एतत् अवमानं भवति। तस्मात् अनयोः किम् अस्माकम् उचितमिति न जानीमः।
*🌻व्याकरणम्.......*
▶सन्धिः
चैतत् =च + एतत् - वृद्धिसन्धिः।
एतद्विद्मः = एतत् +विद्मः - जश्त्वसन्धिः।
कतरन्नः =कतरत् +नः - अनुनासिकसन्धिः।
नो गरीयो यद्वा =नः +गरीयः - विसर्गसन्धिः (सकारः), उकारः, गुणः।
गरीयः + यत् —विसर्गसन्धिः (सकारः) उकारः, गुणः।
यत् + वा —जश्त्वसन्धिः।
नो जयेयुः = नः + जयेयुः - विसर्गसन्धिः (सकारः) उकारः, गुणः।
जिजीविषामस्ते = जिजीविषामः +ते - विसर्गसन्धिः (सकारः)
तेsवस्थिताः = ते + अवस्थिताः - पूर्वरूपसन्धिः।
▶ कृदन्तः
अवस्थिताः =अव + स्था + क्त (कर्तरि)
▶ तद्धितान्तः
कतरत्= किम् + डतरच् (स्वार्थे)।
गरीयः =गुरु + ईयसुन् (अतिशये)। अतिशयेन गुरुः इत्यर्थः।
धार्तराष्ट्राः =धृतराष्ट्र+ अण् (अपत्यार्थे)।
🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹
                         *गीताप्रवेशात्*
[2/16, 10:47] ओमीश Omish Ji: *🌷सूक्ति -सुधा🌷*

न विना परवादेन रमते दुर्जनो जनः।
    —दूसरों की निन्दा के बिना दुर्जन प्रसन्न नहीं होता है।
[2/16, 10:52] ओमीश Omish Ji: विवाह का प्रकार --
१ - ब्रह्म विवाह
दोनो पक्ष की सहमति से समान वर्ग के सुयोज्ञ वर से कन्या का विवाह निश्चित कर देना 'ब्रह्म विवाह' कहलाता है। सामान्यतः इस विवाह के बाद कन्या को आभूषणयुक्त करके विदा किया जाता है। आज का "व्यवस्था विवाह" 'ब्रह्म विवाह' का ही रूप है।
२ - दैव विवाह
किसी सेवा कार्य (विशेषतः धार्मिक अनुष्टान) के मूल्य के रूप अपनी कन्या को दान में दे देना 'दैव विवाह' कहलाता है।
३ - आर्श विवाह
कन्या-पक्ष वालों को कन्या का मूल्य दे कर (सामान्यतः गौदान करके) कन्या से विवाह कर लेना 'अर्श विवाह' कहलाता है।
४ - प्रजापत्य विवाह
कन्या की सहमति के बिना उसका विवाह अभिजात्य वर्ग के वर से कर देना 'प्रजापत्य विवाह' कहलाता है।
५ - गंधर्व विवाह
परिवार वालों की सहमति के बिना वर और कन्या का बिना किसी रीति-रिवाज के आपस में विवाह कर लेना 'गंधर्व विवाह' कहलाता है। दुष्यंत ने शकुन्तला से 'गंधर्व विवाह' किया था। उनके पुत्र भरत के नाम से ही हमारे देश का नाम "भारतवर्ष" बना।
६ - असुर विवाह
कन्या को खरीद कर (आर्थिक रूप से) विवाह कर लेना 'असुर विवाह' कहलाता है।
७ - राक्षस विवाह
कन्या की सहमति के बिना उसका अपहरण करके जबरदस्ती विवाह कर लेना 'राक्षस विवाह' कहलाता है।
८ - पैशाच विवाह
कन्या की मदहोशी (गहन निद्रा, मानसिक दुर्बलता आदि) का लाभ उठा कर उससे शारीरिक सम्बंध बना लेना और उससे विवाह करना 'पैशाच विवाह' कहलाता है।
[2/16, 11:03] पं अनिल ब: 🌺🌺🏹🌳🌳🏹🌺🌺

*नमो नमः*

*।।धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ ।।*
आचार्य अनिल पाण्डेय
उपाध्यक्ष🙏🏼🌹🙏🏼

*पृथ्वी-पुत्री सीताजी के भाई :- वृक्ष*

अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त के अनुसार वृक्ष भी  मनुष्यों की ही भाँति पृथ्वी माँ के पुत्र हैं।

मनुष्यों की भाँति वृक्ष भी संवेदनशील होते हैं  और सुख-दुःख का अनुभव करते हैं, यह बात  भारतीय वैज्ञानिक जगदीशचंद्र बोस सिद्ध कर चुके हैं।

पौराणिक गाथाओं के अनुसार प्रम्लोचा अप्सरा और कंडु ऋषि की नवजात कन्या को अनाथ पड़ा देखकर वृक्ष दुःखी हो उठे और उन वृक्षों ने उस कन्या का लालन-पालन किया था, जिससे वह कन्या वार्क्षी कहलाई।

वृक्षों के राजा चंद्रमा ने उसका विवाह प्रचेताओं से किया था।
अभिज्ञान शाकुन्तलम् में शकुन्तला की विदाई पर उसके द्वारा पले-बढ़े वृक्षों के रुदन का करुण प्रसंग है।

भगवान् शंकर की भाँति स्वयं  विषैली वायु का पान कर अमृतपूर्ण वायु जग को वितरित करने वाले, अपने फल-पुष्प, पत्ते, छाँह, रस, काष्ठ आदि से जगत् का उपकार करने वाले पृथ्वी के गर्भ से समुद्भूत वृक्षों को पृथ्वी-पुत्री सीता अपने भाई के समान मानती थीं।

रामानंद संप्रदाय के प्रसिद्ध संत जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी द्वारा रचित ग्रंथ श्रीसीतारामकेलिकौमुदी के अनुसार बालिका सीताजी ने जनकपुर के प्रत्येक वृक्ष को राखी बाँधकर अपना भाई बना लिया था:-

*'सीय बिदेह पुरी प्रति पादप, राखी के ताग से जोरि के बाँधी।'* (श्रीसीतारामकेलिकौमुदी २/९९)

सीताजी बार बार वृक्षों के लिए गौरी गणेश  की आराधना करती हैं, शंकरजी से प्रार्थना  करती हैं और उनसे अपने वृक्ष भाइयों के लिए अगाध आशीर्वाद प्राप्त करती हैं:-
*बारहिं बार निहोरि महेशहिं, नेह ते गौरिहुँ को अवराधैं।*
*'गिरिधर' स्वामिनि बृक्षन के हित, आशिरबाद लहैं अवगाधैं।* (श्रीसीतारामकेलिकौमुदी २/९३)

पर्यावरण रक्षा के लिए सतत जागरूक जगद्गुरु रामभद्राचार्यजी की बाल सीता वृक्षों को सगा भाई मानकर उनकी लकड़ी कभी नहीं कटातीं।
वे अग्निहोत्र की समिधा के लिए भी हरी डालें काटने की आज्ञा नहीं देतीं।

वे कोल- किरातों को भी कभी वन काटने नहीं देतीं:-
*भाई सगे सिय मान तरून को, लाकरिहूँ कबहूँ न कटावैं।*
*पावक होत्र में सो समिधा हित, डारि हरी तरु की न छटावैं॥*

*कानन काटै न देइ किरातनि, शाखन आगिहुँ ते न हटावैं।*
*'गिरिधर' स्वामिनि पादप की, बहिनी बनि बीर बिपत्ति बटावैं॥* (श्रीसीतारामकेलिकौमुदी २/९४)

इसके साथ-साथ सीताजी सभी से कहती हैं कि संसार के सार भगवान् श्रीराम के साले होने के कारण ये वृक्ष तुम्हारे मामा हैं, अतः इन्हें भूलकर भी न काटो:-
*सीय कहें जग सार के सार ये, भोर्यौं बिरीछ कबौं न कटावौ।* (श्रीसीतारामकेलिकौमुदी २/९५)

और तो और सीताजी अशोक वृक्ष की डाल में राखी बाँधकर उसके सिर पर जौ का पौधा रखती हैं और उसे टीका लगाकर समझाती हैं कि प्रभु श्रीराम की अगली रणलीला में जब मेरे प्रतिबिंब में माया की सीता वेदवती का आवेश होगा तो रावण उनका हरण कर लंका में तुम्हारे नीचे निवास देगा, तब तुम उसकी रक्षा करना।

*आगिलि लीला में रक्षन हेतु ज्यौं, राखी अशोक की डारी में बाँधैं।*
*शीश धरैं जरई सिय सादर, टीका लगाइके भाइहिं साधैं॥* (श्रीसीतारामकेलिकौमुदी २/९३)

गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस में भी हमें कदम-कदम पर वृक्षों का अपनी बहिन सीता के प्रति गूढ़ स्नेह का परिचय प्राप्त होता है, चाहे श्रीसीतारामजी राज्य में रहें या वन में।

आइए कुछ झलकियाँ देखें:-

जब भगवान् श्रीराम अपने पिता दशरथजी ने प्रण की रक्षा हेतु १४ वर्ष के लिए वन जाने लगे, तो उस समय सीताजी उनके संग वन चलने का अनुरोध करती हुई कहती हैं कि:-

मैं आपके चरणों को धोकर अपने भाई वृक्षों की छाँह में बैठकर *(पायँ पखारि बैठि तरु छाहीं।)*

आपको अपने आँचल से हवा किया करूँगी, समतल भूमि पर घास और वृक्ष के पत्तों को बिछाकर *(सम महि तृन तरुपल्लव डासी।)* मैं पूरी रात आपके चरण दबाया करुँगी, मेरे भाई वृक्ष उत्तरीय तथा साड़ी के रूप में मुझे अपनी छाल *(बलकल बिमल दुकूल)* प्रदान करेंगे, उनके पत्तों से बनी कुटिया *(परनसाल सुख मूल॥)* में आपके संग मुझे देवभवन के समान सुख प्राप्त होगा, उनके पुष्प और पत्तों की शय्या *(कुश किसलय साथरी सुहाई।)* मुझे सुख प्रदान करेगी, उनके कंद- मूल, फल मेरे लिए अमृत समान भोजन होंगे *(कंद मूल फल अमिय अहारू।)*

जब श्रीसीतारामजी अयोध्या छोड़कर जाने लगे, तो वहाँ के बगीचों में लगे वृक्ष और लताएँ उनके विरह में सूख गईं *(बागन बिटप बेलि कुम्हिलाहीं।)*

श्रीराम का बालसखा होने के कारण निषादराज गुह अपने मित्र श्रीराम की प्रिया सियाजू और उनके भाई वृक्षों के पारस्परिक स्नेह के संबंध में परीचित है।

कदाचित् इसीलिए वह श्रीसीतारामजी के लिए फल और कंदमूल लेकर आता है *(लिए फल मूल भेंट भरि भारा।), उन्हें शिंशुपा (अशोक) वृक्ष के नीचे ठहराता है (तरु शिंशुपा मनोहर जाना॥)_*, उनके लिए कुश और पत्तों की शय्या बनाता है *(गुह सँवारि साथरी डसाई। कुश किसलयमय मृदुल सुहाई॥)*

अपने बहनोई श्रीराम को वनवासी रूप प्रदान करने के लिए भी वृक्ष ने ही उनकी सहायता की।
वटवृक्ष के दूध से ही भगवान् श्रीराम ने अपने शीश पर जटा का मुकुट धारण किया *(होत प्रात बट छीर मँगावा। जटा मुकुट निज शीष बनावा॥)*

सीताजी के भाई इन वृक्षों के नीचे जब भगवान् श्रीराम विश्राम करने के लिए बैठते हैं, तो इन वृक्षों की प्रशंसा कल्पवृक्ष भी करते हैं *(जेहि तरुतर प्रभु बैठहिं जाई। करहिं कलपतरु तासु बड़ाई॥)*

सीताजी द्वारा पूर्व में कहे वचन (कंद मूल फल अमिय अहारू।) को ध्यान में रखकर ही महर्षि भरद्वाज सुंदर कंदमूल, फल और अंकुर, शाक श्रीसीतारामजी और लक्ष्मणजी को समर्पित करते हैं *(कंद मूल फल अंकुर नीके। दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के॥)*

वाल्मीकि मुनि के आश्रम में भी वृक्ष श्रीसीतारामजी का मन मोहते हैं पहले अपने प्राकृतिक सौंदर्य से *(सरनि सरोज बिटप बन फूले)* और फिर वाल्मीकिजी द्वारा प्रदत्त अपने मधुर कंद, मूल, फलों से *(कंद मूल फल मधुर मँगाए। सिय सौमित्रि राम फल खाए॥)*

चित्रकूट में देवता कोल-किरातों के वेष में आकर भगवान् श्रीसीतारामजी के लिए पत्तों तथा घास की कुटिया बनाते हैं *(रचे परन तृन सदन सुहाए॥), कदाचित् उन्हें भी ज्ञात है कि सीताजी को अपने भाई वृक्षों के पत्तों से बनी कुटिया *(परनसाल सुख मूल॥) अच्छी लगती है, वहाँ के कोल-किरात वृक्षों के पत्तों के दोनों में कंद, मूल, फल भर-भरकर लाते हैं *(कंद मूल फल भरि भरि दोना।)* और सचमुच सीताजी को अपने प्रियतम श्रीराम के साथ पत्तों से बनी कुटी अत्यंत प्रिय लगती है *(परनकुटी प्रिय प्रियतम संगा।)*, कंद-मूल और फल का भोजन उन्हें अमृत के समान लगता है *(अशन अमिय सम कंद मूल फर॥)*

श्रीराम के साथ कुश और पत्तों की शय्या उन्हें सुख प्रदान करती है *(नाथ साथ साथरी सुहाई।)*

अपने बहिन-बहनोई श्रीसीतारामजी को चित्रकूट में निवास करते देखकर वृक्ष भी आनंदित होकर सुंदर लताओं के वितानों से आलिंगित होकर सदैव पुष्प और फल धारण करने लगे *(फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना। मंजु बलित बर बेलि बिताना॥)*

स्वभाव से सुंदर और कल्पवृक्ष के समान इन वृक्षों को देखकर ऐसा प्रतीत होता था, मानो वे स्वर्गलोक के नंदन वन को छोड़कर चित्रकूट में चले आए हों *(सुरतरु सरिस सुभाय सुहाए। मनहुँ बिबुध बन परिहरि आए॥)*

देवता भी चित्रकूट वन के पक्षी, पशु, लताएँ, वृक्ष, तृणों को पुण्यों के पुंजस्वरूप कहकर दिन-रात उनकी प्रशंसा करते हैं *(चित्रकूट के बिहग मृग, बेलि बिटप तृन जाति। पुन्य पुंज सब धन्य अस, कहहिं देव दिन राति॥)*

चित्रकूट के वृक्ष अपने बहिन-बहनोई श्रीसीतारामजी को वापिस अयोध्या ले जाने के लिए आए हुए भरतजी को देखकर अत्यंत प्रसन्न हो उठते हैं और उनके साथ-साथ लताएँ और तृण (घास) भी फूलों से लद जाते हैं *(बेलि बिटप तृन सफल सफूला।),* निषादराज गुह भरतजी को पाकड़, जामुन, आम, तमाल और वट वृक्ष दिखाता है और बताता है कि मंदाकिनी नदी के समीप इन्हीं सघन वृक्षों के पास श्रीराम की पर्णकुटी विराजमान है।

*नाथ देखियहिं बिटप बिशाला।*
*पाकरि जंबु रसाल तमाला॥*
*तिन तरुबरन मध्य बट सोहा।*
*मंजु बिशाल देखि मन मोहा॥*

वह भरतजी को श्रीराम और लक्ष्मणजी द्वारा लगाए गए तुलसीजी के अनेक श्रेष्ठ सुहावने वृक्ष भी दिखाता है *(तुलसी तरुवर बिबिध सुहाए। कहुँ सिय पिय कहुँ लखन लगाए॥)* और सीताजी द्वारा अपने हाथों से वटवृक्ष की छाँह में बनाई गई यज्ञवेदी भी *(बट छाया बेदिका बनाई। सिय निज पानि सरोज सुहाई॥)*

गुह द्वारा बताए गए उन पाँचों वृक्षों को देखकर भरतजी के नैनों में जल उमड़ आया *(सखा बचन सुनि बिटप निहारी। उमगे भरत बिलोचन बारी॥)* और उनके हृदय में अनुराग रोकने से भी नहीं रुक सका *(राम बास थल बिटप बिलोके। उर अनुराग रहत नहिं रोके॥)*

जब सीताजी के पिता महाराज जनक चित्रकूट पहुँचते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि मानो आज पृथ्वी ने स्वयं अपने वास्तविक पति जनकजी का आतिथ्य करने को शृंगार किया हो *(जाइ न बरनि मनोहरताई। जनु महि करति जनक पहुनाई॥)*

पृथ्वी के पुत्र और सीताजी के भाई वृक्ष और लताएँ सभी सुंदर फल-फूलों से युक्त हो गए *(बेलि बिटप सब सफल सफूला।)* जनकपुर से आए सभी लोग उन वृक्षों को देख-देखकर प्रेम से अनुरक्त हो उठे *(देखि देखि तरुवर अनुरागे।)*

भगवान् श्रीराम के गुरुदेव वशिष्ठजी ने सभी मिथिलावासियों के लिए अनेक प्रकार के खाने योग्य पत्ते, फल और अमृत के समान स्वाद वाले मूल, कंद भेजे *(दल फल मूल कंद बिधि नाना। पावन सुंदर सुधा समाना॥)* और सबने उनको ग्रहण किया।

जब भरतजी अत्रि ऋषि के संग चित्रकूट भ्रमण  करने जाते हैं, तो वृक्ष फूल-फल देकर तथा तृण  कोमल होकर श्रीभरतजी की सेवा करते हैं। *(बिटप फूलि फलि तृन मृदुलाहीं॥)*

मुनि अगस्त्य के आदेश से श्रीराम जब पंचवटी पहुँचते हैं और वहाँ की स्वर्गीय लताओं से आलिंगित वृक्ष उनके मन को अत्यंत भाते हैं, वे वृक्ष और लताएँ भी प्रभु श्रीराम के दर्शन कर अत्यंत सुहावने हो गए *(दिव्य लता द्रुम प्रभु मन भाये। निरखि राम तेउ भये सुहाये॥)*

सीता हरण के पश्चात् इन्हीं वृक्ष और लताओं से रो-रोकर प्रभु श्रीराम सीता का पता पूछते हैं *(पूँछत चले लता तरु पाँती॥),* किंतु वृक्ष बेचारे अचर हैं, अतः वे अपनी सीता का हरण करने वाले दुष्ट रावण के संबंध में उन्हें कैसे बता पाते?

और जब प्रभु श्रीराम प्रवर्षण पर्वत पर पधारते हैं, तो वहाँ के वन के वृक्ष पुष्पों से *(सुंदर बन कुसुमित अति शोभा।)* और कंदमूल, फल और पत्तों से लद जाते हैं *(कंद मूल फल पत्र सुहाए।)*

लंका के तट पर उतरने पर हनुमानजी के हृदय को सीताजी के भाई वृक्ष ही अपने फलों और पुष्पों  से मंत्रमुग्ध करते हैं *(नाना तरु फल फूल सुहाए।),* फिर विभीषण के भवन के बाहर अंकित रामायुध और नवीन तुलसी वृक्षों के समूह को देखकर हनुमान्जी अत्यंत प्रसन्न होते हैं *(नव तुलसिका बृंद तहँ, देखि हरष कपिराइ॥)*

विभीषण के कहने से वे अशोक वाटिका में पहुँचते हैं, जहाँ रावण ने श्रीसीता को अशोक वृक्ष के नीचे रखा था *(तब अशोक पादप तर, राखेसि जतन कराइ॥),* अशोक- वृक्ष के पत्तों में छिपे बैठे हनुमानजी *(तरु पल्लव महँ रहा लुकाई।)* रावण की दुष्टता देखते हैं और फिर सुनते हैं सीताजी की अपने भाई अशोक वृक्ष से अग्नि देने की याचना:-

*सुनहु बिनय मम बिटप अशोका।*
*सत्य नाम करु हरु मम शोका॥*
*नूतन किसलय अनल समाना।*
*देहु अगिनि तनु करउँ निदाना॥*

अरे अशोक! तू मेरी विनती सुन ले, मेरा शोक हरकर अपने नाम को सत्य कर।
तेरे नवीन पत्ते अग्नि के समान प्रतीत होते हैं, तू मुझे अग्नि दे दे, जिससे मैं उसमें अपने शरीर को भस्म कर दूँ ।

इन चौपाइयों पर जगद्गुरु रामभद्राचार्यजी  महाराज श्रीरामचरितमानस पर रचित अपनी भावार्थबोधिनी टीका में लिखते हैं कि:-
सीताजी की विनय सुनकर अशोक वृक्ष बोला, 'बहिन सीते! मैं तुम्हारा भाई हूँ, मुझे अग्नि देने का अधिकार नहीं है, मैं तो आपको अनुराग देने का अधिकारी हूँ। सौभाग्यवती महिला को पति अथवा पुत्र ही अग्नि दे सकते हैं।
आपको कुछ ही क्षण में पुत्र के समान हनुमान्जी मुद्रिका के माध्यम से श्रीरामनामरूप अग्नि सौंपेंगे।

जब हनुमानजी ने उसी समय श्रीराम मुद्रिका गिराई, तो सीताजी ने सहर्ष उसे यह सोचकर उठाया कि उनके भाई अशोक वृक्ष ने उन्हें अग्नि प्रदान की है *(जनु अशोक अंगार, दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ॥)*

जनकपुर की वाटिका में वृक्षों ने अपने पुष्पों से सीता-राम को मिलाया, तो लंका की अशोक वाटिका में वृक्षों ने अपने फलों से सीतारामजी के पुत्र हनुमान को रिझाया।

जैसे महाभारत के युद्ध में शल्य मामा ने अपने भांजों पांडवों की सहायता की थी, उसी प्रकार लंका में वृक्ष मामाओं ने अपने भांजे हनुमानजी की युद्ध में सहायता की।

रावण के पुत्र अक्षकुमार को हनुमान्जी ने वृक्ष से ही मार डाला *(आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥)* और मेघनाद के रथ को भी उन्होंने एक अत्यन्त विशाल वृक्ष को उखाड़कर उसके प्रहार से तोड़ डाला *(अति बिशाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लंकेश कुमारा॥)*

जब श्रीराम की सेना ने प्रस्थान किया, तो वृक्ष ही वानरों के अस्त्र बने *(नख आयुध गिरि पादपधारी।)* और वृक्षों ने ही अपनी बहिन सीता और बहनोई श्रीराम को मिलाने के लिए श्रीरामसेतु के निर्माण में महती भूमिका निभाई।

जाम्बवानजी के आदेश से वानर खेल-खेल में अत्यन्त विशाल वृक्षों तथा पर्वत समूहों को उखाड़कर *(अति उतंग तरु शैलगन, लीलहिं लेहिं उठाइ।)* लाकर नल-नील को दे देते हैं, जिनसे नल- नील सेतु की रचना करते हैं।

जैसे ही प्रभु श्रीराम ने सागर पार कर लंका में कदम रखा, उनके साले वृक्ष यह सोचकर अत्यंत आनंदित हुए कि अब उनकी बहिन सीता के कष्टों का अंत होगा।
अतः वे वृक्ष ऋतु और काल की गति को त्यागकर अपने बहनोई श्रीराम के हित के लिए फलों से लद गए, *(सब तरु फरे राम हित लागी। ऋतु अनऋतुहिं काल गति त्यागी॥)*

युद्ध के समय वानरों के अस्त्र उनके नख, पर्वत और वृक्ष ही थे *(भूधर नख बिटपायुध धारी।)* कुंभकर्ण के ऊपर उन्होंने वृक्ष और पर्वत उखाड़-उखाड़कर फेंके थे *(लिए उपारि बिटप अरु भूधर। कटकटाइ डारहि ता ऊपर॥)* और भालुओं ने भी रावण पर पर्वतों और वृक्षों से प्रहार किया था *(संग भालु भूधर तरु धारी। मारन लगे पचारि पचारी॥)*

भगवान् श्रीराम के राज्याभिषेक के उपरांत रामराज्य में वृक्ष सदैव पुष्पों और फलों से लदे रहते थे *(फूलहिं फलहिं सदा तरु कानन।)*, वृक्ष और लता माँगने पर ही मधु टपका देते थे *(लता बिटप माँगे मधु चवहीं।)*

मुनियों ने तो सरयूजी के समस्त तटों पर तुलसीजी के वृक्ष लगा दिए थे *(तीर तीर तुलसिका सुहाई। बृंद बृंद बहु मुनिन लगाई॥)*

*अहो! कितना सुंदर और दिव्य है वृक्षों का अपनी बहिन सीताजी से गूढ़ प्रेम.*

*जय महाँकाल*
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[2/16, 11:18] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णाम्,
कुरु सद्बुद्धिमं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तम्,
वित्तं तेन विनोदय चित्तम्॥

हे मोहित बुद्धि! धन एकत्र करने के लोभ को त्यागो। अपने मन से इन समस्त कामनाओं का त्याग करो। सत्यता के पथ का अनुसरण करो, अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त हो उससे ही अपने मन को प्रसन्न रखो।

नारीस्तनभरनाभीदेशम्,
दृष्ट्वा मागा मोहावेशम्।
एतन्मान्सवसादिविकारम्,
मनसि विचिन्तय वारं वारम्॥

स्त्री शरीर पर मोहित होकर आसक्त मत हो। अपने मन में निरंतर स्मरण करो कि ये मांस-वसा आदि के विकार के अतिरिक्त कुछ और नहीं हैं। (उठो, जागो।)

        (भजगोविन्दम्)

             –रमेशप्रसाद शुक्ल

             –जय श्रीमन्नारायण।
[2/16, 12:16] ‪+91 97586 40209‬: दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययालङ्कृतोअपि सन्।
मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकरः ।।
विद्या से विभूषित होने पर भी दुर्जन त्याग करने योग्य है। मणि से अलङ्कृत होने पर भी वह सर्प क्या भयंकर नहीं होता है अर्थात् अवश्य होता है|
[2/16, 12:20] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

ब्रह्मदर्शनम्
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यथा नभसि मेघौघो रेणुर्वा पार्थिवोऽनिले।
एवं द्रष्टरि दृश्यत्वमारोपितमबुद्धिभिः।।
    
जैसे बादल वायु के आश्रय रहते हैं और धूसरपना धूल में होता है, परन्तु अल्पबुद्धि मनुष्य बादलों का आकाश में और धूसरपने का वायु में आरोप करते हैं , वैसे ही अविवेकी पुरुष सब के साक्षी आत्मा में स्थूल दृश्यरूप जगत का आरोप करते हैं ।

अतः परं यदव्यक्तमव्यूढगुणबृंहितम्।
अदृष्टाश्रुतवस्तुत्वात्स जीवो यत्पुनर्भवः।।

इस स्थूलरूप से परे  भगवान् का एक सूक्ष्म अव्यक्त रूप है ; जो न तो स्थूल की तरह आकारादि  गुणोंवाला है और न देखने, सुनने में ही आ सकता है; वही सूक्ष्मशरीर  है। आत्मा का आरोप या प्रवेश होने से यही जीव कहलाता है और इसी का बार-बार जन्म  होता है ।

यत्रेमे सदसद्रूपे प्रतिषिद्धे स्वसंविदा।
अविद्ययात्मनि कृते इति तद्ब्रह्मदर्शनम्।।
    
उपयुक्त सूक्ष्म और स्थूलशरीर अविद्या से ही आत्मा में आरोपित हैं। जिस अवस्था में आत्मस्वरूप के ज्ञान से यह आरोप दूर हो जाता है, उसी समय ब्रह्म का साक्षात्कार होता है ।

यद्येषोपरता देवी माया वैशारदी मतिः।
सम्पन्न एवेति विदुर्महिम्नि स्वे महीयते।।
    
तत्त्वज्ञानी लोग जानते हैं कि जिस समय यह बुद्धिरूपा परमेश्वर की माया निवृत्त हो जाती है, उस समय जीव परमानंदमय हो जाता है और अपनी स्वरुप-महिमा में प्रतिष्ठित होता है ।

            –भाग0 1/3/31-34

               –रमेशप्रसाद शुक्ल

              –जय श्रीमन्नारायण।
[2/16, 13:04] ओमीश Omish Ji: यज्ञाग्नि की शिक्षा तथा प्रेरणा

अग्नि भगवान से ऐसी प्रार्थना यजमान करता है कि-

ॐ अयन्त इध्म आत्मा जातवेदसे इध्मस्वचवर्धस्व इद्धय वर्धय। -आश्वलायन गृह्यसूत्र
यज्ञ को अग्निहोत्र कहते हैं। अग्नि ही यज्ञ का प्रधान देवता हे। हवन-सामग्री को अग्नि के मुख में ही डालते हैं। अग्नि को ईश्वर-रूप मानकर उसकी पूजा करना ही अग्निहोत्र है। अग्नि रूपी परमात्मा की निकटता का अनुभव करने से उसके गुणों को भी अपने में धारण करना चाहिए एवं उसकी विशेषताओं को स्मरण करते हुए अपनी आपको अग्निवत् होने की दिशा में अग्रसर बनाना चाहिए। नीचे अग्नि देव से प्राप्त होने वाली शिक्षा तथा प्रेरणा का कुछ दिग्दर्शन कर रहे हैं

(1) अग्नि का स्वभाव उष्णता है। हमारे विचारों और कार्यों में भी तेजस्विता होनी चाहिए। आलस्य, शिथिलता, मलीनता, निराशा, अवसाद यह अन्ध-तामसिकता के गण हैं, अग्नि के गुणों से यह पूर्ण विपरीत हैं। जिस प्रकार अग्नि सदा गरम रहती है, कभी भी ठण्डी नहीं पड़ती, उसी प्रकार हमारी नसों में भी उष्ण रक्त बहना चाहिए, हमारी भुजाएँ, काम करने के लिए फड़कती रहें, हमारा मस्तिष्क प्रगतिशील, बुराई के विरुद्ध एवं अच्छाई के पक्ष में उत्साहपूर्ण कार्य करता रहे। (2) अग्नि में जो भी वस्तु पड़ती है, उसे वह अपने समान बना लेती है। निकटवर्ती लोगों को अपना गुण, ज्ञान एवं सहयोग देकर हम भी उन्हें वैसा ही बनाने का प्रयत्न करें। अग्नि के निकट पहुँचकर लकड़ी, कोयला आदि साधारण वस्तुएँ भी अग्नि बन जाती हैं, हम अपनी विशेषताओ से निकटवर्ती लोगों को भी वैसा ही सद्गुणी बनाने का प्रयत्न करें।

(3) अग्नि जब तक जलती है, तब तक उष्णता को नष्ट नहीं होने देती। हम भी अपने आत्मबल से ब्रह्म तेज को मृत्यु काल तक बुझने न दें।

(4) हमारी देह, भस्मान्तं शरीरम् है। वह अग्नि का भोजन है। न मालूम किस दिन यह देह अग्नि की भेट हो जाय, इसलिए जीवन की नश्व
[2/16, 13:07] राम भवनमणि त्रिपाठी: #भिक्षाके #अधिकारी #अनाधिकारी
वर्तमानमें सभी जातिके स्त्रीपुरुष साधुवेष में या असाधुवेषमे अकेले या स्त्री बच्चों साहित भिक्षा माँगते हुए नजर आतेहैं।उनमें से बहुत से तो युवक स्वस्थ कमाकर खाने लायक होतेहैं।इन्हें भिक्षा देना तो सर्वथा अनुचित प्रतीत होताहै।क्योंकि इससे इन लोगोंमें विना कमाकर खानेकी आदत पड़जातीहै।देशमें बेरोजगारी बढ़तीहै।विदेशोंमें बदनामी होतीहै।इसप्रकार से आए दिन प्रश्न उठता ही रहता है।अतः यह जानना आवश्यक है कि भिक्षा का अधिकारी कौन है कौन नहीं।अस्तु इसी लिए कुछ शास्त्रीय विधान प्रस्तुत है---
यतिश्च ब्रह्मचारी च विद्यार्थी गुरुपोषकः।
अध्वगः क्षीणवृत्तिश्च षडेते भिक्षुकाः  स्मृताः ।(अत्रि स्मृ.१६२)।
व्याधितस्यार्थहीनस्य कुटुंबात् प्रच्युतस्य च।
अध्वानं वा प्रपन्नस्य भिक्षाचर्या विधीयते।---अर्थात्-यति(चतुर्थाश्रमी) ब्रह्मचारी, विद्यार्थी, गुरुका पालन करने वाला राहगीर, तथा जीविका रहित ये छः भिक्षुक अर्थात् भिक्षाके अधिकारी हैं।
रोगी अर्थहीन(निर्धन)  कुटुंबसे विछड़ा हुआ, तथा मार्ग गामी के लिए भिक्षा का विधान है।
यहाँ दोनों शास्त्र वचनोंमें #जीविकारहित तथा #अर्थहीन ये दो शब्द विशेष ध्यान देने योग्य हैं।तात्पर्य यह कि धन न होनेपर ही यति ,मार्गगामी, रोगी आदि को भिक्षा का अधिकार है,धन होने पर इन्हें भी अधिकार नहीं।
इसप्रकार विचार करने पर ऐसा प्रतीत होताहै कि जो लोग अपने सम्पूर्ण जीवन को स्व -पर ,लोक परलोक,कल्याणकारी साधना में लगातेहैं अत एव जीविका का साधन न कर पाने के कारण अर्थहीनहैं ,अथवा कुटुंबसे विछड़ने , रोगी होने, आदि कारणोंसे जीविका रहित होकर निर्धन हो गए हैं,वही भिक्षाके अधिकारी हैं।इससे यह अर्थतः ही सिद्ध हो जाता है कि जो लोग अध्ययन भजन ध्यानादि कल्याणकारी साधनामें सम्पूर्ण जीवन नहीं लगाते ,धन संपन्न हैं, कमाकर खाने लायक हैं,ऐसे लोग भिक्षाके अधिकारी नहीं होते।।यही कारण है कि ' ब्रतरहित, तथा अध्ययन रहित द्विजोंको भी भिक्षा देने वाले ग्राम को राजा द्वारा दण्ड देने का विधान है।क्योंकि वे चोरोंको भिक्षा देते हैं।---
अव्रता ह्यनधीयाना यत्र भैक्षचरा द्विजा::।   तंग्रामंदण्डयेत्राजाचौरभक्तप्रदोहिसः।।(वशिष्ठ स्मृ.अ३/पराशर स्मृ.१-६०/अत्रि स्मृ. २२)।
जबकि व्रत रहित अध्ययन रहित द्विजोंको भी भिक्षा देने का निषेध है तो  जो पापी, शराबी, जुआरी, भाँग गांजा ,बीड़ी सिंगरेट,आदि मादक वस्तु सेवन करने वाले हैं ,उन्हें तो भिक्षा देनी ही नहीं चाहिए।क्योंकि इन्हें दीगई भिक्षा दाता को ही दोषी बनाती है।।   सर्वे सन्तु निरामया:।।
[2/16, 13:19] ‪+91 94153 60939‬: सायासायास्त्रिलोक्याः शरणमकरुणक्षुण्णदैत्यप्रवीरा
स्वैरं स्वैरंशसर्गैर्गहनतममहामोहहार्दं
हरन्ती ।
शस्याशस्यादधाना सकलमभिहितं भक्तिभाजः स्मृतैव स्तादस्तादभ्रदोषा द्विषदुपशमनी सर्वतः पार्वती वः ॥

             –जय श्रीमन्नारायण।
[2/16, 14:14] P anuragi. ji: धर्मार्थ वार्ता समाधान के इस पावन अजिर में सुपुष्पित सुपल्लवित सुमन  की सुगंध से आज अपार हर्ष है ।
     हम कुछ कार्याधिक्य के कारण अनुपस्थित थे । अब एक सार्थक प्रयास रहेगा कि इस उपवन के माली के सदृश अपनी सेवा दे सकूँ
           भक्त वृन्द के चरणारविन्द का चंचरीक
                  अनुरागी जी
[2/16, 15:01] ‪+91 70422 10036‬: खलील जिब्रन ने ठीक कहा है कि सच्चे प्रेमी मंदिर के दो स्तंभों की भांति होते हैं। बहुत पास भी नहीं, क्योंकि बहुत पास हों तो मंदिर गिर जाए। बहुत दूर भी नहीं, क्योंकि बहुत दूर हो तो भी मंदिर गिर जाए।... देखते हो ये स्तंभ, जिन्होंने च्वांग्त्सु - मंडप को संभाला हुआ है ? ये बहुत पास भी नहीं हैं, बहुत दूर भी नहीं हैं। थोड़ी दूरी, थोड़े पास। तो ही छप्पर सम्हला रह सकता है। एकदम पास आ जाएं तो छप्पर गिर जाए;  बहुत दूर हो जाए तो छप्पर गिर जाए। एक संतुलन चाहिए।

  असली प्रेमी न तो एक - दूसरे के बहुत  पास होते हैं, न बहुत दूर होते हैं। थोड़ा सा फासला रखते हैं, ताकि एक - दूसरे की स्वतंत्रता मेें व्याघात न हो, अतिक्रमण न हो। ताकि एक - दूसरे की सीमा मेें अकारण हस्तक्षेप न हो।

  रवींद्रनाथ के एक उपन्यास मेें एक युवती अपने प्रेमी से कहती हैं कि मैं विवाह करने को तयार हूं,  लेकिन तुम झील के उस तरफ रहोगे और मैं झील के इस तरफ।

   प्रेमी की समझ के बाहर है। वह कहता है : तू पागल हो गई है ? प्रेम करने के बाद लोग एक ही घर मेें रहते हैं।

   उसने कहा कि प्रेम करने के पहले भला एक घर मेें रहें, प्रेम करने के बाद मेें एक घर मेें रहना ठीक नहीं, खतरे से खाली नहीं। एक - दूसरे के आकाश मेें बाधाएं पड़नी शुरू हो जाती हैं। मैं झील के उस पार, तुम झील के इस पार। यह शर्त है तो विवाद होगा।  हां, कभी तुम निमंत्रण भेज देना मैं आ जाऊंगी। या मैं निमंत्रण भेज दूंगी तो तुम आना।  या कभी झील पर नौका - विहार करके अचानक मिलना हो जाएगा। या झील के पास खड़े वृक्षों के पास सुबह भ्रमण के लिए निकले हुए अचानक हम मिल जाएंगे,  चौंक कर,  प्रतिकर होगा। लेकिन गुलामी नहीं होगी। तुम्हारे बिना बुलाए मैं न आऊंगी, मेरे बिना बुलाए तुम न आना। तुम आना चाहो तो ही आना, मेरे बुलाने मत आना। मैं आना चाहूं तो ही आऊंगी, तुम्हारे बुलाने भर से नहीं आऊंगी। इतनी स्वतंत्रता हमारे बीच रहे, तो स्वतंत्रता के इस आकाश मेें ही प्रेम का फूल खिल सकता है।
[2/16, 15:24] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः ।
ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं न रञ्जयति ॥

एक मूर्ख व्यक्ति को समझाना आसान है। एक बुद्धिमान व्यक्ति को समझाना उससे भी आसान है, लेकिन एक अधूरे ज्ञान से भरे व्यक्ति को भगवान ब्रह्मा भी नहीं समझा सकते, क्यूंकि अधूरा ज्ञान मनुष्य को घमंडी और तर्क के प्रति अंधा बना देता है। 

         –रमेशप्रसाद शुक्ल

         –जय श्रीमन्नारायण।
[2/16, 18:17] राम भवनमणि त्रिपाठी: वर्ण और जाति में भेद

वर्ण और जाति में भेद

भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन में वर्ण व्यवस्था का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वर्ण का शब्दिक अर्थ है - वरण करना, रंग, एवं वृत्ति के अनुरूप। वरण का अर्थ है - चुनना अथवा व्यवसाय का निर्धारण। इस अर्थ के अनुसार विद्वान ‘वर्ण’ को व्यक्तियों का समूह मानते हैं। ऋग्वेद में ‘आर्य’ तथा दस्यु’ में अन्तर स्पष्ट करने के लिए ‘वर्ण’ शब्द का प्रयोग हुआ है। जो विद्वान वर्ण का अर्थ ‘वृत्ति’ मानते हैं, उनके अनुसार जिन व्यक्तियों का स्वभाव समान होता है उनसे ही एक ‘वर्ण’ का निर्माण हुआ। किन्तु इन सब धारणाओं से वर्ण के ‘वर्ण व्यवस्था’ वाले अर्थ का स्पष्टीकरण नहीं होता।

‘गीता’ में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है कि ‘मैंने गुण और कर्म के आधार पर चार वर्णो का निर्माण किया है। पुराणों में भी अनेक स्थानों पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र को क्रमशः शुक्ल, रक्त, पीत और कृष्ण कहा है। ‘वर्ण’ शब्द का अर्थ इस प्रकार विवादस्पद है। किन्तु यह निश्चित है कि प्राचीन सामाजिक विभाजन ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों में था जिसका अन्तर्निहित उद्देश्य सामाजिक संगठन, समृद्धि, सुव्यवस्था को बनाये रखना था।

‘वर्ण की उत्पत्ति’

हमारे धर्म ग्रन्थों ने वर्ण की उत्पत्ति की विस्तार से व्याख्या की है।
प्राचीन आदर्श वर्ण व्यवस्था यद्यपि आज पूर्णतया विकृत हो चुकी है और आज इसका समाज में कोई अस्तित्व नहीं है। वर्ण व्यवस्था के सम्बन्ध में ऋग्वेद के ‘पुरुषसूक्त’ में निम्नलिखित श्लोक मिलता है -

“ब्राह्मणों स्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरु तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।” 1

अर्थात् ईश्वर ने स्वयं चार वर्णों की सृष्टि की। इन वर्णों का जन्म उसके शरीर के विभिन्न अंगों से हुआ, मुख से ब्राह्मण की, बाहु से क्षत्रिय की, ऊरु से वैश्य की और पैंरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई। मुख शरीरांगों में सर्वोच्च है तथा उसका काम बोलना मनन, चिन्तन है, तद्हेतु ब्राह्मण वर्ण का कार्य भी पठन-पाठन, कथा-वाचन व प्रवचन नियत किया गया। बाहु भौतिक बल की प्रतीक है। इनके द्वारा ही रक्षण, भरण-पोषण, आदि कार्य होता है। अतएव क्षत्रिय का प्रथम धर्म प्रजा रक्षण माना गया है। आक्रमण, आप्ति आदि से रकषा करना उसका कर्तव्य है। इन्द्रिय संयम, यज्ञानुष्ठान, सत्य भाषण, न्याय का रक्षण, सेवकों का भरण-पोषण, अपराधी को दण्ड देना, धार्मिक कार्यों का सम्पादन आदि कर्म क्षत्रिय का धर्म माने गए। इसी हेतु वे समाज रक्षक बने और उन्हें प्रजा पालन का काम सौंपा गया। ऊरु उत्पादन की द्योतक है। तद्हेतु वाणिज्य व्यापार द्वारा उत्पादन वैश्यों का प्रमुख कर्तव्य माना गया। व्यापार, ब्याज लेना, पशुपालन, खेती, ये सब वैश्यों के सनातन धर्म माने गए। पैर का स्थान सबसे नीचे है और वह सेवा का प्रतीक है। इसलिए ही शूद्रों का समाज में निम्न स्थान माना गया और द्विजों की सेवा-पूजा उनका कर्तव्य।

महाभारत में भी शूद्र का परम कर्तव्य तीनों वर्णों की सेवा करना बताया गया। इसी प्रकार ‘मनु’ ने ‘मनुस्मृति’ में लिखा है कि शूद्रों का कार्य तीनों वर्णों के लोगों की बिना किसी ईर्ष्या भाव से सेवा करना है। स्पष्ट है कि चारों वर्णों में ब्राह्मण और क्षत्रिय को लगभग समान महत्व दिया गया, ब्राह्मण को ज्ञानी, क्षत्रिय को शूरवीर, वैश्यों को धन का स्वामी, व शूद्रों को सर्वसेवक कहा गया। चिन्तक ‘श्री अरविन्द’ के अनुसार “समाज में मनन, चिन्तन, पठन-पाठन में संलग्न ब्राह्मणों का सर्वोच्च स्थान माना गया, तदनन्तर प्रजा रक्षण व राज्य की देख भाल करने वाले क्षत्रियों का द्वितीय तथा सबसे अन्तिम किन्तु आदृत स्थान वाणिज्य व्यापार करने वाले वैश्यों को माना गया।” 2

महाभारत में भी विभिन्न वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख इस प्रकार किया गया है कि “उस पुरुष को हमारा प्रणाम है जो ब्राह्मणों को मुख में, क्षत्रियों को बाहुओं में, वैश्यों को ऊरु में, तथा शूद्रों को पैरों में धारण किये है।“

ब्राह्मण ग्रन्थों में गायत्री के भिन्न-भिन्न मंत्र भिन्न-भिन्न वर्णों के लिए बताए गए तथा ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों के लिए बलि की अलग-अलग पद्धतियों का विधान बताया गया है। बसन्त ऋतु में ब्राह्मणों, ग्रीष्म में क्षत्रियों और शरद ऋतु में वैश्यों के लिए यज्ञ जैसा पावन कर्म निषिद्ध बताया गया है।

“बृहदारण्यकोपनिषद” में मानव जाति के चारों वर्णों की उत्पत्ति का आधार ब्रह्मा द्वारा रचित देवताओं के चार वर्ण बताए गए हैं। इन्द्र, वरुण, सोम, यम आदि क्षत्रिय देवताओं, रुद्र, वसु, आदित्य, मरुत आदि वैश्य देवताओं, पुशान आदि शूद्र वर्ण के देवताओं की सृष्टि ईश्वर द्वारा की गई और इन सबसे पूर्व ब्राह्मणों की सृष्टि हो ही चुकी थी। इस वर्ण व्यवस्था के आधार पर ही मानव जाति में भी क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों की सृष्टि की गई।

‘भृगु संहिता’ में भी चारों वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख इस प्रकार है कि सर्वप्रथम ब्राह्मण वर्ण था, उसके बाद कर्मों और गुणों के अनुसार ब्राह्मण ही क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण वाले बने तथा इन वर्णों के रंग भी क्रमशः श्वेत, रक्तिम, पीत और कृष्ण थे। बाद कें तीनों वर्ण ब्राह्मण वर्ण से ही विकसित हुए। यह विकास अति रोचक है जो ब्राह्मण कठोर, शक्तिशाली, क्रोधी स्वभाव के थे, वे रजोगुण की प्रधानता के कारण क्षत्रिय बन गए। जिनमें तमोगुण की प्रधानता हुई, वे शूद्र बने। जिनमें पीत गुण अर्थात् तमो मिश्रित रजो गुण की प्रधानता रही, वे वैश्य कहलाये तथा जो अपने धर्म पर दृढ़ रहे तथा सतोगुण की जिनमें प्रधानता रही वे ब्राह्मण ही रहे। इस प्रकार ब्राह्मणों से चार वर्णो का गुण और कर्म के आधार पर विकास हुआ।
गीता में श्रीकृष्ण ने भी चारों वर्णो का विभाजन गुण और कर्मो के आधार पर ही बताया है। याज्ञवक्य, बौधायन, वशिष्ठ आदि ने भी चार वर्णो को स्वीकार किया है।
‘वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म अथवा कर्म’ - यह एक बड़ा ही विवादस्पद विषय है। इस विषय में विद्वानों के तीन वर्ग हैं - पहला वर्ग वह जो वर्ण व्यवस्था का आधार ‘जन्म’ मानता है। दूसरा वर्ग वह जो ‘कर्म’ को ही वर्ण विभाजन का आधार बताता है तथा तीसरा वर्ग वह जो समन्वयवादी सिद्धान्त का प्रतिपादक है अर्थात् जो जन्म और कर्म दोनों को वर्ण व्यवस्था का आधार मानता है।

‘वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म है’ - ‘वी.के.चटोपाध्याय’ ने वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म बताया है। इसके लिए उन्होंने कुछ प्रमुख व्यक्तियों के उदाहरण दिए हैं -यथा-युधिष्ठिर ब्राह्मणोचित गुणों से युक्त थे, लेकिन जन्म से क्योंकि वे क्षत्रिय वर्ण के थे, अतएव क्षत्रिय ही कहलाए। इसी प्रकार द्रोणाचार्य रणनीति के कुशल ज्ञाता थे तथा युद्ध करना उनका कर्म था, लेकिन जन्म के वर्ण के आधार पर वे ब्राह्मण ही माने गये। निःसन्देह व्यक्ति के गुण उसे जन्म से ही प्राप्त होते हैं, पूर्व जन्म में जो कर्म किए गए हों उन्हीं के अनुसार उसके गुणों का निश्चय होता है। ‘वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म है’ - हिन्दू धर्म के अनुसार मनुष्य का वर्ण निर्धारण कर्म और गुणों के आधार पर ही होता है जैसा कि‘मनु’ने ‘मनुस्मृति’ में बताया है –

“शूद्रो बा्रह्मणतामेति ब्राह्मणश्चेति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जात्मेवन्तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च।।” 3

अर्थात् शूद्र कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय के समान गुण, कर्म स्वभाव वाला हो, तो वह शूद्र, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाता है। वैसे ही जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो, उसके गुण व कर्म शूद्र के समान हो, तो वह शूद्र हो जाता है, वैसे ही क्षत्रिय या वैश्य कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण व शूद्र के समान होने पर, ब्राह्मण व शूद्र हो जाता है। ऋग्वेद में भी वर्ण विभाजन का आधार कर्म ही है। निःसन्देह गुणों और कर्मो का प्रभाव इतना प्रबल होता है कि वह सहज ही वर्ण परिवर्तन कर देता है; यथा विश्वामित्र जन्मना क्षत्रिय थे, लेकिन उनके कर्मो और गुणों ने उन्हें ब्राह्मण की पदवी दी। राजा युधिष्ठिर ने नहुष से ब्राह्मण के गुण - यथा, दान, क्षमा, दया, शील चरित्र आदि बताए। उनके अनुसार यदि कोई शूद्र वर्ण का व्यक्ति इन उत्कृष्ट गुणों से युक्त हो तो वह ब्राह्मण माना जाएगा।

‘भागवत पुराण’ भी गुणों को ही वर्ण निर्धारण का प्रमुख आधार घोषित करता है। प्रख्यात दार्शनिक ‘राधा कृष्णन’ भी गुण और कर्म के आधार पर वर्ण विभाजन मानते हैं। वर्ण व्यवस्था को वे कर्म प्रधान व्यवस्था कहते हैं। ‘डा.धुरिये’ के अनुसार वर्ण, मानव रंग से संबंधित है। प्राचीनकाल में मानव समाज में ‘आर्य तथा दस्यु’ दो वर्ण थे। द्रविड़ों को पराजित करने वाले आर्य शनैः शनैः स्वयं की द्विज कहने लगे। बाद में आर्यो तथा द्विजों की वृद्धि होने पर उनके कर्म भी विविध प्रकार के हो गए। तभी उनके विविध कर्मो के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र इन चार वर्णो की उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार ‘आपस्तम्ब सूत्रों’ में भी यही बात कही गई है कि वर्ण ‘जन्मना’ न होकर वास्तव में ‘कर्मणा’ हता है -

“धर्मचर्ययाजधन्योवर्णः पूर्वपूर्ववर्णमापद्यतेजातिपरिवृत्तौ।
अधर्मचर्यया पूर्वो वर्णो जधन्यं जधन्यं वर्णमापद्यते जाति परिवृत्तौ।।”4

अर्थात् धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है और वह उसी वर्ण में गिना जाता है - जिस-जिस के वह योग्य होता है । वैसे ही अधर्म आचरण से पूर्व अर्थात् उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे-नीचे वाले वर्ण को प्राप्त होता है और उसी वर्ण में गिना जाता है।

वर्णाश्रम व्यवस्था के विषय में गाँधी जी के विचार उल्लेखनीय है -
“मेरी सम्मति में वर्णाश्रम मानवीय स्वभाव में अन्तर्ग्रथित है। हिन्दू धर्म ने केवल इसे एक वैज्ञानिक रूप दे दिया है। ये चार वर्ण तो मनुष्य के पेशों की परिभाषा करते हैं। वे सामाजिक पारस्परिक सम्बन्धों को निर्बाधित या नियमित नहीं करते।” 5
निःसन्देह व्यक्ति के गुण उसे जन्म से ही प्राप्त होते हैं। पूर्व जन्म में जो कर्म किए गए हैं, उन्हीं के अनुसार उसके गुणों का निश्चय होता है। वे गुण उसके वर्तमान जीवन को प्रभावित करते हैं। इन्हीं गुणों के आधार पर वह उच्च से निम्न व निम्न से उच्च वर्ण को प्राप्त हो जाता है। जैसे बाल्मीकि जाति के शूद्र थे, किन्तु अपने आचार- व्यवहार तथा गुणों के बल से ब्राह्मण कहलाए।

‘समन्वयवादी दृष्टिकोण’ - वर्ण व्यवस्था का सर्वोत्कृष्ट दृष्टिकोण है समन्वयवादी दृष्टिकोण। इसके अनुसार वर्ण व्यवस्था का व्यवहारिक आधार जन्म और कर्म दोनों हैं। क्योंकि वर्ण निर्धारण में केवल जन्म या केवल कर्म को ही आधार मान लेना न्याय संगत नहीं। व्यक्ति पहले तो जन्म के अनुसार ही ब्राह्मण या वैश्य आदि कहलाता है। लेकिन बाद में उसके कर्मों और गुणों को देखकर उसका वर्ण परिवर्तन आवश्यक हो जाता है। अतएव जन्म और कर्म दोनों के आधार पर वर्ण निर्धारण करना अधिक वैज्ञानिक और व्यवहारिक है।

‘जाति का अर्थ और परिभाषा’- ---

जहाँ वर्ण का संबंध जन्म के साथ-साथ कर्म और गुणों से होता है, वहाँ जाति का संबंध केवल जन्म से ही होता है। वर्ण व्यवस्था यदि एक आदर्श विचार है, तो जाति व्यवस्था एक संकीर्ण एवं निकृष्ट विचार है। वर्ण व्यवस्था यदि एक बृहत नैतिक व्यवस्था है जो समाज को सन्तुलित और संगठित करती है, तो वहाँ जाति व्यवस्था समाज को टुकड़ों में बाँट देने वाली व्यवस्था है, जिसमें जन्म से ही व्यक्ति ऊँचा या नीचा मान लिया जाता है। अतएव वर्ण व्यवस्था संगठन को जन्म देने वाली है तथा जाति व्यवस्था विघटन को। जाति की विभिन्न विद्वानों के अनुसार विभिन्न परिभाषाएँ उल्लेखनीय हैं -

‘सरसिजले’ के अनुसार - “जाति उन परिवारों अथवा परिवार समूहों का एक संकलन है, जो एक सामान्य नाम धारण किए हुए है, जो किसी काल्पनिक पूर्वज, मनुष्य या देवता से एक सामान्य वंश परम्परा या उत्पति का दावा करते हैं, जो एक ही परम्परागत व्यवसाय अपनाये जाने पर बल देते हैं और एक सजातीय समुदाय के रूप में मान्य होते हैं तथा जो अपना ऐसा मत व्यक्त करने योग्य हैं।” 6

‘ब्लण्ट’ के अनुसार - “जाति एक अन्तर्विवाही समूह या अन्तर्विवाही समूहों का संकलन है, जो एक सामान्य नाम धारण किए होता है, जिसकी सदस्यता वंशानुगत होती है। वह सामाजिक सहवास के क्षेत्र में अपने सदस्यों पर कुछ प्रतिबन्ध लगाता है। उसके सदस्य एक सामान्य परम्परागत व्यवसाय करते हैं अथवा किसी सामान्य आधार पर अपनी उत्पत्ति का दावा करता हैं और इस प्रकार एक समरूप समुदाय के रूप में मान्य समझा जाता हैं।” 7

‘हट्टन’ के अनुसार - “ जाति वह व्यवस्था है, जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण समाज अनेक आत्मकेन्द्रित तथा एक दूसरे से पृथक-पृथक इकाईयों में विभाजित होता है। इन इकाईयों के आपसी संबंध ऊँच-नीच के आधार पर सांस्कृतिक रूप से निश्चित होते हैं।” 8

‘स्मिथ’ के अनुसार - “जाति परिवारों के उस समूह को कहते हैं, जो विवाह, खान-पान सम्बन्धी कुछ संस्कारों की पवित्रता का पालन करने के लिए बनाए गए नियमों से बँधा हो।” 9

ये सभी परिभाषाएँ अनेक दृष्टियों से अपूर्ण हैं। किसी में जाति को एक समुदाय बताया गया है, जो बिल्कुल त्रुटिपूर्ण है; तो किसी परिभाषा में जाति और गोत्र को एक ही मान लिया गया है। जाति के सांस्कृतिक पक्षों की ओर भी कोई संकेत नहीं दिया गया है। वैसे उपर्युक्त सभी परिभाषाओं में ‘हट्टन’ की परिभाषा सर्वाधिक उचित प्रतीत होती है। वस्तुतः समस्त तत्वों को समेटते हुए जाति की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है - “जाति एक ऐसी संकीर्ण व्यवस्था है, जो समाज का खण्डात्मक विभाजन कर देती है। जिसके कारण व्यक्तियों पर खान-पान और सामाजिक सहवास संबंधी कुछ प्रतिबन्ध लगे होते हैं; जिनका पालन आवश्यक होता है तथा उन प्रतिबन्धों व नियमों का उल्लंघन करने पर व्यक्ति जाति से अलग भी माना जा सकता है। जाति प्रथा में छुआछूत के आधार पर उच्च तथा निम्न जातियों को सामाजिक और धार्मिक विशेषाधिकार दिए जाते हैं तथा विवाह संस्था को नियमित बनाने के लिए विवाह संबंधी नियम और निषेध भी सभी व्यक्तियों द्वारा मान्य होते हैं।”

इस प्रकार जाति प्रथा की निम्नलिखित विशेषताएँ लक्षित होती हैं। -

प्रथम, स्थिति, पद, कार्य के आधार पर जाति समाज का खण्डात्मक विभाजन कर देती है। प्रत्येक जातिगत खण्ड अपनी जाति के नियमों व रीतिरिवाजों का पालन करने के लिए बाध्य होता है।

द्वितीय, यह एक ऐसी संकीर्ण व्यवस्था है, जो व्यक्तियों के, समाज में ऊँचे-नीचे स्तरों की सृष्टि कर उनमें भेदभाव को जन्म देती है। यथा समाज में इसी जातिगत भावना के कारण ब्राह्मण को सर्वोच्च माना जाता है तथा शूद्र को सबसे निम्न व तिरस्कृत जाति वाला समझा जाता है। व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य इस प्रकार का भेदभाव उनमें प्रतिस्पर्धा को जन्म देता है।

तृतीय, जातियाँ अपने-अपने खण्डों पर कुछ विशेष नियमों, बन्धनों को आरोपित करती हैं, जो खान-पान, रहन-सहन से सम्बन्धित होते हैं। कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में तो इस प्रकार के नियम बन्धन सबसे अधिक जटिल हैं। सामाजिक सहवास संबंधी नियमों के आधार पर निम्न जाति वालों के लिए उच्च जाति वालों का संसर्ग निषिद्ध होता है।

चतुर्थ, छुआछूत के कारण तथा समाज के उच्च-निम्न, खण्डात्मक विभाजन के कारण ब्राह्मण जाति क्योंकि सबसे पवित्र और पूजनीय है, अतएव उसे समस्त सार्वजनिक स्थलों में जाने का अधिकार है। लेकिन शूद्र क्योंकि अपवित्र निम्न जाति है, अतएव वह प्रत्येक सामाजिक स्थलों में प्रवेश पाने की अधिकारी नहीं है।

पंचम, जाति प्रथा के अनुसार प्रत्येक जाति का जातिगत व्यवसाय होता है,जिसे अपनाए रखना नैतिक और धार्मिक रूप से अनिवार्य माना जाता है। वही व्यवसाय जीविकोपार्जन का आधार होता है।

षण्ठ, जाति व्यवस्था ने विवाह जैसे भावनात्मक और पवित्र संबंध को भी नियमों में बाँधने से नहीं छोड़ा। जाति प्रथा के अनुसार व्यक्ति अपनी ही जाति में विवाह कर सकता है। जाति से बाहर किए गए विवाह अस्थिर और शीघ्र ही समाप्त होते देखे गए हैं। इसलिए विवाह सम्बन्ध की नियमितता व स्थिरता के लिए जाति प्रथा के अनुसार जाति से बाहर विवाह निषिद्ध होता है।

लेकिन आधुनिक काल में जाति और वर्ण सम्बन्धी मान्यताओं में बहुत अधिक परिवर्तन आ रहा है। रुढवादिता और संकीर्णता शनैः शनैः दूर हो रही है। जातिगत बन्धन और नियमों का अतिक्रमण सामान्य रूपेण लक्षित होता है। जाति प्रथा शिथिल होती जा रही है तथा भारतीय सामाजिक जीवन में प्रगतिसूचक परिर्वतन आते जा रहे हैं.......
[2/16, 18:20] ‪+91 81713 59552‬: सर्वेभ्यो नमो नमः🙏🙏🙏
यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानि व्यजायत |
द्रह्युं चानुं च पुरूं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी|| ९|१८|३३
राजा ययाति की दो रानिया थी बडी़ रानी देवयानि के दो पुत्र थे बड़े का नाम यदु था पिता के श्राप के कारण राजगादी के अधिकारी नही हुए इन्ही के वंश मे भगवान  कृष्ण का अवतार हुआ इसलिए यदुवंशी कहलाए राजा यदु के वंश मे जन्म लेने से जैसे भगवान राम रघुवंश मे जन्म लेने से रघुवंशी कहलाए रही बात यादव की तो जो अहिर थे वही यादव बन कर आज अपने को यदुवंशी बताने लगे अधिक जानकारी के लिए भागवत जी के  ९|२३|२०,२१, का अवलोकन कर सकते है|
[2/16, 19:55] P anuragi. ji: अतिथि प्राण प्रिय लागहि जेही।
तेहि उर बसहु सहित बैदेही ।।

    धर्मार्थ प्रांगण में पधारे
     अतिथि देव का
      अंतर्मन   से
       अभिनन्दन है ।
   विबुध लोक से भी अधिक रम्य हमारा धर्मार्थ आज सार्थक कर रहा है अपनी गरिमा को । सच  आज अपार हर्षानुभूति हो रही है । उमा  रमा  सदृश देवियां इस उपवन को अपनी तेजस्विता से आलोकित कर रही हैं । आप सब को कोटिशः साधुवाद । ज्ञान श्रेष्ठ  एवं वय श्रेष्ठ संत समुदाय के चरणों में सादर प्रणिपात ।

  प्रेषित मानसिक सुमनांजली के बदले  सम्पूर्ण जीवन के संचित शुभ कर्मों का शुभाशीष स्वीकार करें

   किमपि नहि वाणी समा
          🌷🙏🏼🌷

        अनुरागी जी
[2/16, 20:35] ‪+91 90241 11290‬: यह पराशर संहिता अर्वाचीन ग्रन्थ है । हमारे यहाँ हनुमान् जी के विषय में सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रन्थ वेद और
आदिकाव्य वाल्मीकि रामायण है । जिससे हनुमान् जी के चरित्र पर प्रकाश डाला गया है ।
अथर्वणशीर्ष जिसे अथर्ववेद का परिशिष्ट अंश सभी वैदिक विद्वान् मानते हैं । उसके “सप्तमुखी हनुमत्कवच” में “ब्रह्मचर्याश्रमिणे” शब्द से हनुमान् जी को ब्रह्मचर्याश्रम में स्थित बतलाया गया है । जो सपत्नीक होगा उसे
ब्रह्मचर्याश्रम में कोई विज्ञ नहीं कह सकता है; क्योंकि यह आश्रम विवाह होने के पूर्व में ही माना गया है ।
विवाहोपरान्त व्यक्ति गृहस्थाश्रम में माना जाता है -यही शास्त्रीय सिद्धान्त है । अतः वेदविरुद्ध अंश में पराशरसंहिता
का प्रामाण्य स्वीकार्य नहीं .
१-यह संहिता परस्पर विरुद्ध बातें कहती है -इसलिए भी यह प्रामाणिक ग्रन्थ नहीं है ।
२-इस संहिता में अन्य ग्रन्थों के अधिक से अधिक भागों को लिया गया है । जैसे-
७४वें पटल में ३०वें श्लोक से ४८वें श्लोक तक कवच आनन्द रामायण के एकमुखी कवच की नक़ल हैं ।
८५वें पटल में सभी मन्त्र सुदर्शन संहिता के हैं -इस तथ्य को मुम्बई से प्रकाशित “हनुमदुपासना पुस्तक” से
कोई भी जान सकता है ।
८८वें पटल में हनुमत्सहस्रनाम है वह भी रुद्रयामल तन्त्र का है ।
९३ पटल का सम्पूर्ण हनुमत्कवच आनन्दरामायण का है ।
पराशरसंहिताकार ने तो हनुमान् जी को ११९वें पटल में पिशाच बना दिया है । जबकि वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड
के अनुसार हनुमान् जी चिरंजीवी हैं । ७ चिरंजीवियों में “हनूमांश्च विभीशणः।” से हनुमान् जी का ग्रहण है ।
क्या हनुमान् शरीर से रामकथा के प्रचार प्रसार तक रहते हनुमान् जी पिशाच बन सकते हैं ? -इससे कुत्सित कल्पना
दूसरी और क्या हो सकती है ?
पराशरसंहिता में लिखा है कि हनुमान् जी सुवर्चला के स्तन पर हाथ रखे हुए हैं । ये कैसा ब्रह्मचर्य है ?
पराशरसंहिताकार की दृष्टि से ।
सूर्य की पुत्री तपती की चर्चा पुराणों में है किन्तु सुवर्चला की चर्चा पराशरसंहिता से अन्यत्र क्यों नहीं ?
दक्षिण भारत में मामा की लड़की से शादी के लिए ५-६- साल तक प्रतीक्षा करनी पड़े तो दाक्षिणात्य प्रसन्न हो जाता
है । कुमारिल भट्ट जैसे महामीमांसक लिखते हैं कि मामा की लड़की से विवाह करके दाक्षिणात्य प्रसन्न हो जाता है-
” मातुलस्य सुतामूढ्वा दाक्षिणात्यः प्रहृष्यति ।” .
दाक्षिणात्य तो भगवान् के मोहिनी अवतार से शिव जी द्वारा एक पुत्र की उत्पत्ति की कल्पना करके मन्दिर बना बैठे
हैं जिसे “अयप्पा” कहते हैं । यह भी भागवत आदि पुराणों से विरुद्ध है ।
पराशर संहिता एक अर्वाचीन ग्रन्थ है । वाल्मीकि रामायण के अनुसार सूर्य भगवान् ने हनुमान् जी को समस्त विद्यायें प्रदान करने का वरदान दिया है । फिर ये ४ विद्यायें कौन हैं जो सभी विद्याओं की परिधि में नहीं आतीं ?
सूर्यपुत्री सुवर्चला काल्पनिक है । सूर्यपुत्री केवल तपती ही हैं । हनुमान् जी को “ब्रह्मचर्याश्रमिणे” से ब्रह्मचर्य आश्रम में
स्थित कहा गया है । इससे विरुद्ध उनके विवाह की कल्पना और मन्दिर केवल अय्यप्पा या साईमन्दिर के समान है ।
दैनिक भास्कर जी आप या आपका बुद्धिजीवी कोई भी पत्रकार या आपसे सम्बन्धित कोई भी विद्वान् मेरे कोमेन्ट का उत्तर कर सकता है तो करे । आपकी पूरी पोस्ट प्रमाणविरुद्ध है ।
जय श्रीराम
#आचार्यसियारामदासनैयायिक
[2/16, 20:45] ‪+91 96859 71982‬: क्षमा चाहती हूँ रविन्द्र भैया 🙏🏼🙏🏼
इतनी भिज्ञ नहीं हूँ कि मैं हर प्रश्न का समाधान कर सकूं। अभी अध्ययन रत हूँ। जो गुरूप्रसाद है उसको प्रेम से वितरण करने का प्रयास करती हूँ। आप सभी ब्राह्मणों के आशीर्वाद से और बिहारी जी की कृपा से 2-3 कथाएँ करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। जिससे कुछ परोसने का साहस भी कर लेती हूँ। यह तो आचार्य ओमीश जी की महानता है जो कि आप जैसे विद्वानों के संघ में स्थान प्रदान किया जिससे कुछ अर्जन करके धन्य प्रतीत मानतीं हूँ 🙏🏼
आपसे निवेदन है कि इस विषय में प्रकाश डालने की कृपा करें जिससे हम सब भी अवगत हों। 🙏🏼🙏🏼🙏🏼
[2/16, 20:52] ‪+91 88274 29111‬: न विप्रपादोदककर्दमानि,
न वेदशास्त्रप्रतिघोषितानि!
स्वाहास्वधास्वस्तिविवर्जितानि,
श्मशानतुल्यानि गृहाणि तानि।।
जहाँ ब्रह्मणों का चरणोदक नहीं गिरता,
जहाँ वेद शास्त्र की गर्जना नहीं होती,
जहाँ स्वाहा,स्वधा,स्वस्ति और मंगल शब्दों का उच्चारण नहीं होता है।
वह चाहे स्वर्ग के समान भवन भी हो तब भी वह श्मशान के समान है।
~...
[2/16, 22:24] ओमीश Omish Ji: ब्राह्मणस्त्वनधीयानस्तृणाग्निरिव शाम्यति।तस्मै हव्यं न दातव्यं न हि भस्मनि हूयते(मनु०३/१६८)
वेदाध्ययन न करता हुआ ब्राह्मण तृण की अग्नि के समान शान्त होजाता है।उसे हव्य नहीं देना चाहिए,क्योंकि भस्म में हवन नहीं करते हैं।

रूपनारायणपाण्डेयः
[2/16, 23:20] पं अनिल ब: जहाँ तक मै जनता हूं माता ही होती है गुरु
हनुमान् जी सूर्य देव को अपना गुरु माना है।
और इस प्रश्न पर गुरु जन अपना बिचार देने की कृपा करें 🙏🏼🌺🙏🏼
भगवान हनुमान जिनसे सभी बल, बुद्धि,बिद्या देने की कामना करते हैं। हनुमान की शिक्षा के लिए उनकी माता कितनी चिंतित थी ये तो उनका इतिहास पढ़ने से ही पता चलता है।  कई एसी पौराणिक कथाएं है जिनसे हम उनके बारे में पढ़ सकते हैं। जैसे माता अखिल ब्रह्माण्ड की अदम्य शक्ति स्वरूपा होती है। समग्र सृष्टि का स्वरूप माता की गोद में ही अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित एवं विकसित होता है। विश्व का उज्ज्वल भविष्य माता के स्नेहांचल में ही फूलता-फलता है। यदि कहा जाए कि निखिल संसार की सर्जना-शक्ति माता है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। 

बालक जन्म से पूर्व गर्भ में ही माता से संस्कार ग्रहण करने लग जाता है और जन्म के बाद वह माता के संस्कार का अनुगामी हो जाता है। बालक के बचपन का अधिकांश समय माता की वात्सल्यमयी छाया में ही व्यतीत होता है। करणीय-अनुकरणीय, उचित-अनुचित, हित-अहित सभी संस्कारों का प्रथमाक्षर वह माता से ही सीखता है।

सन्तान के चरित्र-निर्माण में माता की भूमिका आधारशिलास्वरूप है इसीलिए महीयसी “माता को प्रथम गुरु” का सम्मान दिया गया है। अंजनादेवी परम सदाचारिणी, तपस्विनी एवं सद्गुण-सम्पन्न आदर्श माता थीं। वे अपने पुत्र श्रीहनुमानजी को श्लाघनीय तत्परता से आदर्श बालक का स्वरूम प्रदान करने की दिशा में सतत जगत और सचेष्ट रहती थीं। पूजनोपरान्त और रात्रि में शयन के पूर्व वे अपने प्राणाधिक प्रिय पुत्र को पुराणों की प्रेरणाप्रद कथाएं सुनाया करतीं थीं। वे आदर्श पुरुषों के चरित्र श्रीहनुमानजी को पुनः-पुनः सुनातीं और अपने पुत्र का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट करती रहतीं। 
जय महाँकाल🙏🏼🌺🙏🏼
[2/16, 23:27] पं अनिल ब: 🌺🌺🏹🌳🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌳🏹🌺🌺

*महादेव शुभ् रात्रि*

*II धर्मार्थ वार्ता समाधानII*

*"सर्वसद्गुणसागर भगवान् श्रीराम"*

*नमो नमः*

श्रीरामकी मातृभक्ति कैसी आदर्श है ! स्वमाता और अन्य माताओंकी तो बात ही क्या, कठोर-से-कठोर व्यवहार करनेवाली कैकेयीके प्रति भी श्रीरामने भक्ति और सम्मानसे पूर्णही बर्ताव किया ।

जिस समय कैकेयीने वन जानेकी आज्ञा दी, उस समय श्रीराम उसके प्रति सम्मान प्रकट करते हुए बोले – ‘माता ! इसमें तो सभी तरह मेरा कल्याण है’ –

मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर ।
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर ।।

श्रीरामने कुपित हुए भाई लक्ष्मणसे कहा -

यस्या मदभिषेकार्थे मानसं परितप्यते ।
माता नः सा यथा न स्यात्सविशङ्का तथा कुरु ।।
तस्याः शङ्कामयं दुःखं मुहूर्त्तमपि नोत्सहे ।
मनसि प्रतिसंजातं सौमित्रेऽहमुपेक्षितुम् ।।
न बुद्धिपूर्वे नाबुद्धं स्मरामीह कदाचन ।
मातृणां वा पितुर्वाहं कृतमल्पं च विप्रियम् ।।
(वा॰रा॰ २/२२/६-८)
‘लक्ष्मण ! मेरे राज्याभिषेकके संवादसे अत्यन्त परिताप पायी हुई माता कैकेयीके मनमें किसी प्रकारकी शंका न हो, तुम्हें वैसा ही करना चाहिये । मैं उसके मनमें उपजे हुए शंकारूप दुःखको एक घडीके लिये भी नहीं सह सकता । हे भाई ! जहाँतक मुझे याद है, मैंने अपने जीवनमें जानमें या अनजानमें माताओंका और पिताजीका कभी कोई जरा-सा भी अप्रिय कार्य नहीं किया ।‘

इसके बाद वनसे लौटते हुए भरतजीसे श्रीरामने कहा –

कामाद्वा तात लोभाद्वा मात्रा तुभ्यमिदं कृतम् ।
न तन्मनसि कर्त्तव्यं धर्त्तितव्यं च मातृवत् ।।
(वा॰ रा॰ २/११२/१९)
‘माता कैकेयीने (तुम्हारी हित-) कामनासे या (राज्यके) लोभसे जो यह कार्य किया, इसके लिये मनमें कुछ भी विचार न करके भक्तिभावसे उनकी माताकी भाँति सेवा करना ।‘

इससे पता लगता है की रामकी अपनी माताओंके प्रति कितनी भक्ति थी । एक बार लक्ष्मणने वनमें कैकेयीकी कुछ निन्दा कर डाली । इसपर मातृभक्त और भ्रातृप्रेमी श्रीरामने जो कुछ कहा, वह सदा मनन योग्य है –

न तेऽम्बा मध्यमा तात गर्हितव्या कदाचन ।
तामेवेक्ष्वाकुनाथस्य भरतस्य कथां कुरु ।।
(वा॰ रा॰ ३/३६/३७)
‘भाई ! बिचली माता (कैकेयी)की निन्दा कभी नहीं करनी चाहिये । चर्चा करनी हो तो इक्ष्वाकुनाथ भरतके सम्बन्धमें करनी चाहिये (क्योंकि भरतकी चर्चा मुझे बहुत ही प्रिय है) ।‘

*जय महाँकाल*

*जय जय सिया राम*
🌺🌺🏹🌳🌳🏹🌺🌺
[2/17, 04:26] व्यास u p: *सुख भी मुझे प्यारे है,*
             *दुःख भी प्यारे है*

             *छोड़ू मैं किसे..*
                    *प्रभु..* 
          *दोनों ही तुम्हारे है*
       *सुख में तेरा शुक्र करू,*
        *दुःख में फ़रियाद करूँ*

      *जिस हाल में तू रखे मुझे,*
           *मैं तुम्हे याद करू ।।* 
🙏                 🙏
         ‼ *जय श्री कृष्णा* ‼
   🌷🌼🌸💐 *शुभ प्रभात*💐🌸🌼🌷
[2/17, 04:55] ओमीश Omish Ji: प्रकृति की उपासना

‘ऋग्वेद’ में पुरुष सूक्त के द्वितीय मंत्र पुरषे वेद सर्वंयद्भूत यच्चभव्यम् के अनुसार जो कुछ भी वर्तमान में है, भूतकाल में था या भविष्य में होगा; वह सब परमात्मा ही है। उपनिषद में कहा गया है—प्रारंभ में केवल एक परमात्मा उपस्थित था। कालांतर में उसने इच्छा की कि मैं बहुत रूपों में हो जाऊं। फिर वह अपनी इच्छानुसार अपने से ही संसार बनाकर जीवित और अजीवित नाना रूपों में हो गया।
अर्जुन ने परमात्मा श्रीकृष्ण में ही इस जगत को देखा। यह उसी प्रकार प्रत्यक्ष जगत ब्रह्म है जिस प्रकार पृथ्वी अपने से पेड़, पौधे एवं वनस्पतियां उत्पन्न करती है। परंतु अविद्या के कारण जगत परमात्मा के रूप में नहीं दिखाई पड़ता। हमारे ऋषि मंत्र द्रष्टा थे इसीलिए वेदों में उन्होंने दो प्रकार के मंत्र संकलित किए—प्रथम, सगुण ब्रह्म की विभिन प्राकृतिक शक्तियों को देवता मानकर उसकी उपसाना के मंत्र और दूसरे, निराकार-निर्गुण ब्रह्म की उपासना के मंत्र। चारों वेदों में प्रकृति, आकाश, वायु जल, नदी, विद्युत, वनस्पति, पृथ्वी, अंतरिक्ष और सूर्य आदि की प्रार्थना के मंत्र हैं।

यथा—पयः पृथिव्या पयौषधीषु दिविऽन्तरिक्षे पयोधाः। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु महयम्।।

अर्थात् यह पृथ्वी, वनस्पतियां, पेड़-पौधे, अंतरिक्ष और सभी दिशाएं मेरे लिए अमृतमयी हों।
हमारे ऋषि इन प्राकृतिक संपदाओं को पूज्य एवं जीवनदायी मानते थे इसीलिए उनकी अनुकूलता के लिए प्रार्थन करते थे। ये प्राकृतिक शक्तियां अनुकूल रहने पर जीवों के लिए अमृत हैं और प्रतिकूल होने पर साक्षात् प्रलय हैं। अग्नि, जल, वायु तथा प्राण आदि साम्यावस्था में रहने पर उत्तम स्वास्थ्य, धन, संपदा और आनंद देते हैं जबकि विषमावस्था में आग, बाढ़, सूखा, अकाल एवं महामारी आदि प्रदान करते हैं। इसीलिए हमारे ऋषियों ने इन प्राकृतिक साधनों के दुरुपयोग को पाप एवं दंडनीय बताया है।
इस प्रकृति का अनुकूल रहना ही रामराज्य है। इसीलिए आवश्यकतानुसार ही सूर्य ताप, चंद्रमा शीतलता एवं मेघ वर्षा देते हैं। पृथ्वी अन्न से, वृक्ष फलों से एवं नदियां जलों से परिपूर्ण रहती हैं। ऐसा आज भी संभव है परंतु मानव की समस्याओं का एकमात्र कारण परमात्मा की इस प्रकृति रूप की उपेक्षा एवं अश्रद्धा है इसलिए हम प्रकृति के साथ अपराध कर रहे हैं। अतः शांति, स्वास्थ्य एवं समृद्धि के लिए हमें प्रकृति में परमात्मा के समान ही श्रद्धा रखनी होगी, इन्हें पूज्य समझकर उपासना करनी होगी और इनसे प्राप्त फलों को वरदान समझकर अवश्यकतानुसार सेवन करना होगा। मनुष्य के कल्याण के लिए यही एक मार्ग है। यही धर्म है और यही ईश्वर की उपासना है।
[2/17, 04:57] ओमीश Omish Ji: मुहूर्तमपि जीवेच्च नर: शुक्लेन कर्मणा।
न कल्पमपि कष्टेन लोकद्वयविरोधिना।।

उत्तम कर्म करते हुए एक पल का जीवन भी श्रेष्ठ है, परंतु दोनों लोकों (लोक-परलोक) में दुष्कर्म करते हुए कल्प भर का जीवन (हजारों वर्षों का जीना) भी श्रेष्ठ नहीं है।
भाव यही है कि मनुष्य को जितना भी जीवन मिला है, उसे श्रेष्ठ कर्मों में ही लगाना उचित है-----आचार्य 🙏
[2/17, 05:25] राम भवनमणि त्रिपाठी: सदा सद्योजातस्मितमधुरसास्वादपरया भवान्या दृक्पातभ्रमरततिभिश्चुम्बितपुटम् । अपां पत्युः काष्ठां श्रितमधिकशीतं पशुपते- र्मुखं सद्योजातं मम दुरितजातं व्यपनयेत् ॥ १॥ जटान्तःस्वर्धुन्याश्शिशिरमुखवातैरवमतिं गतं वामां रुष्टामनुनयसहस्रैः प्रशमितुम् । किरत्ज्योत्स्नं वामं नयनमगजानेत्रघटितं दधद्वामं वक्त्रं हरतु मम कामं, पशुपतेः ॥ २॥ गले घोरज्वालं गरलमपि गण्डूषसदृशं निदाघान्ते, गर्जद्घनवदतिनीलं वहति यत् । निरस्तुं विश्वाघप्रचयमधितिष्ठद्यमदिशं ह्यघोरं तद्वक्त्रं लघयतु मदं मे, पशुपतेः ॥ ३॥ पुमर्थानं पूर्तिं प्रणतशिरसां दातुमनिशं जलाभावो माभूदिति शिरसि गङ्गां वहति यत् । सुरेशासास्फूर्तिं मुकुटशशिभासा किरति तत् मुखं तत् पुंरूपं हरतु मम मोहं, पशुपतेः ॥ ४॥ रमेशो वागीशो दिवसरजनीशौ परशुदृक् सुरेशो दैत्येशो निशिचरकुलेशोऽथ धनदः । यदूर्ध्वांशुव्रातैश्शिवचरितवन्तः परिणताः तदैशानं वक्त्रं हरतु भवपाशं, पशुपतेः ॥ ५॥
[2/17, 05:35] ‪+91 98239 16297‬: *सूर्यसिद्धांतीय देशपांडे दैनिक पंचांग-- १७ फेब्रुवारी २०१७*

***!!श्री मयूरेश्वर प्रसन्न!!***
☀धर्मशास्त्रसंमत प्राचीन शास्त्रशुद्ध सूर्यसिद्धांतीय देशपांडे पंचांग (पुणे) नुसार
दिनांक १७ फेब्रुवारी २०१७
पृथ्वीवर अग्निवास ०९:११ पर्यंत.
गुरु मुखात आहुती आहे.
शिववास ०९:११ पर्यंत भोजनात नंतर स्मशानात,काम्य शिवोपासनेसाठी अशुभ दिवस आहे.
☀ *सूर्योदय* -०७:०६
☀ *सूर्यास्त* -१८:३२
*शालिवाहन शके* -१९३८
*संवत्सर* -दुर्मुख
*अयन* -उत्तरायण
*ऋतु* -शिशिर (सौर)
*मास* -माघ
*पक्ष* -कृष्ण
*तिथी* -षष्ठी (०९:११ पर्यंत)
*वार* -शुक्रवार
*नक्षत्र* -स्वाती (१६:१४ नंतर विशाखा)
*योग* -वृद्धि
*करण* -वणिज (०९:११ नंतर भद्रा)
*चंद्र रास* -तुळ
*सूर्य रास* -कुंभ
*गुरु रास* -तुळ
*राहु काळ* -१०:३० ते १२:००
*पंचांगकर्ते*:सिद्धांती ज्योतिषरत्न गणकप्रवर
*पं.गौरवशास्त्री देशपांडे-०९८२३९१६२९७*
*विशेष*-सप्तमी-पूर्वेद्युः श्राद्ध,भद्रा ०९:११ ते २२:११,रवियोग १६:१४ पर्यंत,या दिवशी पाण्यात कापूर घालून स्नान करावे.देवी कवच या स्तोत्राचे पठण करावे."शुं शुक्राय नमः" या मंत्राचा किमान १०८ जप करावा.सत्पात्री व्यक्तिस तांदूळ दान करावे.देवीला दूधाचा नैवेद्य दाखवावा.यात्रेसाठी घरातून बाहेर पडताना सातू प्राशन करुन बाहेर पडल्यास प्रवासात ग्रहांची अनुकूलता प्राप्त होईल.
*विशेष टीप* - *आगामी नूतन संवत्सरारंभी येणारा गुढीपाडवा सूर्यसिद्धांतीय पंचांगानुसार म्हणजेच मुख्यतः धर्मशास्त्रानुसार या वेळी मंगळवार दि.२८ मार्च २०१७ रोजी नसून फक्त बुधवार दि.२९ मार्च २०१७ रोजीच आहे.कारण दि.२८ मार्च रोजी सूर्योदयास अमावस्या तिथी आहे व दि.२९ मार्च रोजीच फक्त सूर्योदयास प्रतिपदा तिथी आहे.याची विशेष नोंद हिंदूंनी घ्यावी व सर्वांनी गुढी-ब्रम्हध्वज पूजन हे फक्त चैत्र शु.प्रतिपदेला बुधवार दि.२९ मार्च २०१७ रोजीच करावे.*
www.facebook.com/DeshpandePanchang
*टीप*-->>सकाळी ९ वाजेपर्यंत शुभ दिवस आहे.
**या दिवशी आवळ्याचे पदार्थ खावू नये.
**या दिवशी पांढरे वस्त्र परिधान करावे.
*आगामी नूतन संवत्सराचे सर्वांना उपयुक्त फायदेशीर असे धर्मशास्त्रसंमत सूर्यसिद्धांतीय देशपांडे पंचांग सर्वत्र उपलब्ध आहे.*
♦ *लाभदायक वेळा*-->>
लाभ मुहूर्त--  सकाळी ८.३० ते सकाळी १०
अमृत मुहूर्त--  सकाळी १० ते सकाळी ११.३०
|| *यशस्वी जीवनाचे प्रमुख अंग* ||
|| *सूर्यसिध्दांतीय देशपांडे पंचांग* ||
आपला दिवस सुखाचा जावो,मन प्रसन्न राहो.
(कृपया वरील पंचांग हे पंचांगकर्त्यांच्या नावासहच व अजिबात नाव न बदलता शेअर करावे.या लहानश्या कृतीने तात्त्विक आनंद व नैतिक समाधान मिळते.@copyright)
[2/17, 05:52] ‪+91 98288 74601‬: भगवान राम को समर्पित दो ग्रंथ मुख्यतः लिखे गए है एक तुलसीदास द्वारा रचित ‘श्री रामचरित मानस’ और दूसरा वाल्मीकि कृत ‘रामायण’।
                लेकिन बहुत कम लोग जानते है की श्री रामचरित मानस और रामायण में कुछ बातें अलग है जबकि कुछ बातें ऐसी है जिनका वर्णन केवल वाल्मीकि कृत रामायण में है।

आज इस लेख में हम आपको माता सीता के बारे में कुछ ऐसी बातें बताएँगे जिनका उल्लेख केवल वाल्मीकि कृत रामायण में ही मिलता है।

1. श्रीराम से विवाह के समय सीता की आयु 6 वर्ष थी, इसका प्रमाण वाल्मीकि रामायण के अरण्यकांड में इस प्रसंग से मिलता है। इस प्रसंग में सीता, साधु रूप में आए रावण को अपना परिचय इस प्रकार देती हैं।
श्लोकउषित्वा द्वादश समा इक्ष्वाकूणां निवेशने।भुंजना मानुषान् भोगान् सर्व कामसमृद्धिनी।1।तत्र त्रयोदशे वर्षे राजामंत्रयत प्रभुः।अभिषेचयितुं रामं समेतो राजमंत्रिभिः।2।परिगृह्य तु कैकेयी श्वसुरं सुकृतेन मे।मम प्रव्राजनं भर्तुर्भरतस्याभिषेचनम्।3।द्वावयाचत भर्तारं सत्यसंधं नृपोत्तमम्।मम भर्ता महातेजा वयसा पंचविंशक:।अष्टादश हि वर्षाणि मम जन्मनि गण्यते।।
अर्थ-सीता कहती हैं कि विवाह के बाद 12 वर्ष तक इक्ष्वाकुवंशी महाराज दशरथ के महल में रहकर मैंने अपने पति के साथ सभी मानवोचित भोग भोगे हैं। मैं वहां सदा मनोवांछित सुख-सुविधाओं से संपन्न रही हूं।

तेरहवे वर्ष के प्रारंभ में महाराज दशरथ ने राजमंत्रियों से मिलकर सलाह की और श्रीरामचंद्रजी का युवराज पद पर अभिषेक करने का निश्चय किया।तब कैकेयी ने मेरे श्वसुर को शपथ दिलाकर वचनबद्ध कर लिया, फिर दो वर मांगे- मेरे पति (श्रीराम) के लिए वनवास और भरत के लिए राज्याभिषेक।
वनवास के लिए जाते समय मेरे पति की आयु 25 साल थी और मेरे जन्म काल से लेकर वनगमन काल तक मेरी अवस्था वर्ष गणना के अनुसार 18 साल की हो गई थी।
इस प्रसंग से पता चलता है कि विवाह के बाद सीता 12 वर्ष तक अयोध्या में ही रहीं और जब वे वनवास पर जा रहीं थीं, तब उनकी आयु 18 वर्ष थी। इससे स्पष्ट होता है कि विवाह के समय सीता की आयु 6 वर्ष रही होगी।
साथ ही यह भी ज्ञात होता है कि श्रीराम और सीता की उम्र में 7 वर्ष का अंतर था।

2. गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस में वर्णन है कि भगवान श्रीराम ने सीता स्वयंवर में शिव धनुष को उठाया और प्रत्यंचा चढ़ाते समय वह टूट गया,।

जबकि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण में सीता स्वयंवर का वर्णन नहीं है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार भगवान राम व लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ मिथिला पहुंचे थे।विश्वामित्र ने ही राजा जनक से श्रीराम को वह शिवधनुष दिखाने के लिए कहा। तब भगवान श्रीराम ने खेल ही खेल में उस धनुष को उठा लिया और प्रत्यंचा चढ़ाते समय वह टूट गया। राजा जनक ने यह प्रण किया था कि जो भी इस शिव धनुष को उठा लेगा, उसी से वे अपनी पुत्री सीता का विवाह कर देंगे। प्रण पूरा होने पर राजा जनक ने राजा दशरथ को बुलावा भेजा और विधि-विधान से सीता का विवाह श्रीराम से करवाया।

3. वाल्मीकि रामायण के अनुसार एक बार जब राजा जनक यज्ञ की भूमि तैयार करने के लिए हल से भूमि जोत रहे थे, उसी समय उन्हें भूमि से एक कन्या प्राप्त हुई। जोती हुई भूमि को तथा हल की नोक को सीता कहते हैं। इसलिए इस बालिका का नाम सीता रखा गया।

4. श्रीरामचरित मानस के अनुसार वनवास के दौरान श्रीराम के पीछे-पीछे सीता चलती थीं। चलते समय सीता इस बात का विशेष ध्यान रखती थीं कि भूल से भी उनका पैर श्रीराम के चरण चिह्नों (पैरों के निशान) पर न रखाएं। श्रीराम के चरण चिह्नों के बीच-बीच में पैर रखती हुई सीताजी चलती थीं।

5. एक बार रावण अपने पुष्पक विमान से कहीं जा रहा था, तभी उसे एक सुंदर स्त्री दिखाई दी, उसका नाम वेदवती था। वह भगवान विष्णु को पति रूप में पाने के लिए तपस्या कर रही थी। रावण ने उसके बाल पकड़े और अपने साथ चलने को कहा। उस तपस्विनी ने रावण को श्राप दिया कि एक स्त्री के कारण ही तेरी मृत्यु होगी, इतना कहकर वह अग्नि में समा गई।
उसी स्त्री ने दूसरे जन्म में सीता के रूप में जन्म लिया। ये प्रसंग वाल्मीकि रामायण का है।

6. वाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण ने सीता का हरण अपने रथ से किया था। रावण का यह दिव्य रथ सोने का बना था,इसमें गधे जूते थे और वह गधों के समान ही शब्द (आवाज) करता था।

7. जिस दिन रावण सीता का हरण कर अपनी अशोक वाटिका में लाया। उसी रात भगवान ब्रह्मा के कहने पर देवराज इंद्र माता सीता के लिए खीर लेकर आए, पहले देवराज ने अशोक वाटिका में उपस्थित सभी राक्षसों को मोहित कर सुला दिया।
उसके बाद माता सीता को खीर अर्पित की, जिसके खाने से सीता की भूख-प्यास शांत हो गई। ये प्रसंग वाल्मीकि रामायण में मिलता है।

8. मार्गशीर्ष मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को श्रीराम व सीता का विवाह हुआ था। हर साल इस तिथि पर श्रीराम-सीता के विवाह के उपलक्ष्य में विवाह पंचमी का पर्व मनाया जाता है। यह प्रसंग श्रीरामचरित मानस में मिलता है।
[2/17, 06:02] ‪+91 98288 74601‬: विचित्र बारात के बाद भोलेनाथ और मातापार्वती का शुभ विवाह।
यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥

*मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥

भावार्थ:-मुनियों की आज्ञा से शिवजी और पार्वतीजी ने गणेशजी का पूजन किया। मन में देवताओं को अनादि समझकर कोई इस बात को सुनकर शंका न करे (कि गणेशजी तो शिव-पार्वती की संतान हैं, अभी विवाह से पूर्व ही वे कहाँ से आ गए?)॥

*जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥
गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥

भावार्थ:-वेदों में विवाह की जैसी रीति कही गई है, महामुनियों ने वह सभी रीति करवाई। पर्वतराज हिमाचल ने हाथ में कुश लेकर तथा कन्या का हाथ पकड़कर उन्हें भवानी (शिवपत्नी) जानकर शिवजी को समर्पण किया॥

*पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हियँ हरषे तब सकल सुरेसा॥
बेदमन्त्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥

भावार्थ:-जब महेश्वर (शिवजी) ने पार्वती का पाणिग्रहण किया, तब (इन्द्रादि) सब देवता हृदय में बड़े ही हर्षित हुए। श्रेष्ठ मुनिगण वेदमंत्रों का उच्चारण करने लगे और देवगण शिवजी का जय-जयकार करने लगे॥

*बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥

भावार्थ:-अनेकों प्रकार के बाजे बजने लगे। आकाश से नाना प्रकार के फूलों की वर्षा हुई। शिव-पार्वती का विवाह हो गया। सारे ब्राह्माण्ड में आनंद भर गया॥

*दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥
अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥

भावार्थ:-दासी, दास, रथ, घोड़े, हाथी, गायें, वस्त्र और मणि आदि अनेक प्रकार की चीजें, अन्न तथा सोने के बर्तन गाड़ियों में लदवाकर दहेज में दिए, जिनका वर्णन नहीं हो सकता॥

*दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।
का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥
सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥

भावार्थ:-बहुत प्रकार का दहेज देकर, फिर हाथ जोड़कर हिमाचल ने कहा- हे शंकर! आप पूर्णकाम हैं, मैं आपको क्या दे सकता हूँ? (इतना कहकर) वे शिवजी के चरणकमल पकड़कर रह गए। तब कृपा के सागर शिवजी ने अपने ससुर का सभी प्रकार से समाधान किया। फिर प्रेम से परिपूर्ण हृदय मैनाजी ने शिवजी के चरण कमल पकड़े (और कहा-)।

*नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥

भावार्थ:-हे नाथ! यह उमा मुझे मेरे प्राणों के समान (प्यारी) है। आप इसे अपने घर की टहलनी बनाइएगा और इसके सब अपराधों को क्षमा करते रहिएगा। अब प्रसन्न होकर मुझे यही वर दीजिए॥

*जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं॥
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥

भावार्थ:-पार्वतीजी माता से फिर मिलकर चलीं, सब किसी ने उन्हें योग्य आशीर्वाद दिए। पार्वतीजी फिर-फिरकर माता की ओर देखती जाती थीं। तब सखियाँ उन्हें शिवजी के पास ले गईं। महादेवजी सब याचकों को संतुष्ट कर पार्वती के साथ घर (कैलास) को चले। सब देवता प्रसन्न होकर फूलों की वर्षा करने लगे और आकाश में सुंदर नगाड़े बजाने लगे।

यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
कल्यान काज बिबाह मंगल  सर्बदा सुखु पावहीं॥

भावार्थ:- शिव-पार्वती के विवाह की इस कथा को जो स्त्री-पुरुष कहेंगे और गाएँगे, वे कल्याण के कार्यों और विवाहादि मंगलों में सदा सुख पाएँगे।
[2/17, 06:13] राम भवनमणि त्रिपाठी: 🕉
*गीतोक्त* कर्म, वर्ण, धर्म 👇
______ आत्मा अकाट्य, अशोष्य और अपरिवर्तनशील है वह सर्वत्र है, सब मे सदा एकरस है। उसे खोजने और पाने की स्थली हृदय-देश है, बाहर नहीं- *'हृद्देशेsर्जुन तिष्ठति'* (गीता १८/६१); किन्तु अकाट्य, अशोष्य अजर-अमर जैसी कोई सत्ता भीतर दिखाई तो नहीं पड़ती, सुक्ष्मता से निरीक्षण करने पर शोक-सन्ताप, मृत्यु और मोह ही दिखाई पड़ता है।
     इस पर *भगवान श्रीकृष्ण* ने बताया कि यह आत्मा है तो ऐसा ही किन्तु अचिन्त्य और अगोचर है। जब तक चित्त और चित्त की लहर है, तब तक वह अगोचर है, दिखाई नहीं देता। _*अगोचर का अर्थ यह नहीं कि भगवान इन्द्रियों के रहते दिखाई ही नहीं देगे। वे दिखाई देंगे किन्तु संयम के पश्चात् उन प्रभु की दृष्टि से।* 'ग्यारहवें अध्याय' में उन्होंने कहा कि अनन्य भक्ति से मुझे देखा जा सकता है और मुझमे प्रवेश भी पाया जा सकता है।_

अब प्रश्न उठता है कि _*चित्त का निरोध कैसे हो?*_ इसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! तू 'कर्म' कर वह नियत कर्म है *'यज्ञ'* को कार्यरूप देना है। आरम्भ में-
~ दैवीसम्पद् के गुणों को हृदय में भलीप्रकार धारण करना यज्ञ है,
~ आहार और इन्द्रियो का संयम यज्ञ है।
~ साधना सुक्ष्म होने पर 'श्वास-प्रश्वास' का जप यज्ञ है 'यज्ञस्वरूप महापुरुष' का ध्यान करना यज्ञ है।
      इस प्रकार चौदह अंगों से यज्ञ का चित्रण अध्याय चार मे प्रस्तुत किया जो सब मिलाकर _*चित् के निरोध की विधि-विशेष है,*_ जिनके क्रमोन्नत चरणों से प्राणों का आयाम हो जाता है- न भीतर से संकल्प उठते हैं और न वाह्य वायुमंडल के संकल्प अन्दर प्रवेश कर पाते हैं। _*यही चित्त की अचिन्त्य अवस्था है, मन की निरोधावस्था है, साम्यावस्था है।*_

प्राणों का व्यापार शान्त होते ही 'यज्ञ' पूरा हो जाता है परिणाम निकल आता है जैसा कि कहते हैं- *'यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।'* (गीता ४/३१)- यज्ञ के पूर्ति काल में यज्ञ जिसकी संरचना करता है, वह अमृत है। उस ज्ञानामृत का पान करनेवाला योगी सनातन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। पहले कहा _*आत्मा सनातन है,*_ यहाँ कहते हैं- _*ब्रह्म सनातन है।*_ वस्तुतः _*आत्मा, परमात्मा, तत्त्व,  परमतत्त्व, ईश्वर, सच्चिदानन्द, भगवान, ब्रह्म* इत्यादि एक ही परमात्मा के विविध नाम हैं।_

इस प्रकार चित्त की अचिन्त्यावस्था मे, निरोधावस्था में वह अगोचर सनातन इन्हीं इन्द्रियों में प्रवाहित होगया। प्रवाहित ही नहीं, प्राप्त हो गया;  किन्तु इतने पर ही योगेश्वर श्रीकृष्ण नहीं रुकते। वे स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि *‘ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति।’;* *‘जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।’* (मानस २/१२६/३)। उन्हीं के शब्दों में देखें- *‘इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन:।’* (गीता ५/१९)- उन पुरुषों द्वारा जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया, जिनका मन समत्त्व में स्थित है।
       अब समत्व की स्थिति और संसार जीतने से क्या सम्बन्ध है? यदि संसार जीत ही लिया तो वह गया कहाँ? रुका कहाँ पर?
     इस पर कहते हैं कि *‘निर्दोषं हि समं ब्रह्म’-* वह ब्रह्म निर्दोष और सम है, इधर उसका मन भी समत्व मे स्थितवाला हो गया। *‘तस्माद्ब्रह्माणि ते स्थिता:!’-* इसलिए वह ब्रह्म में स्थित हो जाता है।

यह स्थित जिस *'यज्ञ'* से मिली है उसी 'यज्ञ' को कार्यरूप देना *'कर्म' है।* इसलिये कर्म पर बल देते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता, अध्याय २ के ३९वें श्लोक में बतलाया कि- _अब तू निष्काम कर्म के विषय में सुन, जिससे युक्त हुआ तू कर्मों के बन्धन को भलीप्रकार नष्ट करेगा।_ अत: _*कर्म उसे कहते हैं जो कर्म-बन्धन से छुड़ा दे।*_   (क्रमशः -2)

पुज्य गुरुदेव
*स्वामी अड़गड़ानन्द जी परमहंस!* कृत 'शंका-समाधान' से साभार उद्धृत एवं प्रस्तुत ]
🌹 *श्री सद्गुरुवे नम:* 🌹
>~~~~~~~~~~~~~~~~~<
http://yatharthgeeta.com पर pdf वर्जन में आदिशास्त्र *'गीता'* भाष्य *'यथार्थ गीता'* के साथ ही *'शंका-समाधान'* भी नि:शुल्क pdf वर्जन में उपलब्ध है।  🙏🕉🙏
[2/17, 06:46] पं अर्चना जी: 🌋नदियों की धारा के खिलाफ़🌋
      तैरने की कोशिश न करना,
         जल्दी थक जाओगे,"
            बह जाओगे,"
        फिर डूबना निश्चित है!!
        🏃🏃🏃🏃🏃🏃
       इसलिए धारा प्रवाह बहो,
       अपनी वेग खुद तय करो,
    🌋🌹ॐ शिवः हरिः🌹🌋
🌷💐सभी को सादर शुप्रभात💐🌷👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻
[2/17, 07:31] ‪+91 94153 60939‬: ॥श्रीमते रामानुजाय नम:॥

षड्विधा शरणागतिः
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॥शरणागति का स्वरूप॥

आनुकूल्यस्य संकल्प: प्रातिकूल्यस्य वर्जनम्।
रक्षिष्यतीति विश्वासो   गोप्तृत्ववरणं तथा।।

आत्मनिक्षेप कार्पण्ये  षड्विधा  शरणागति:।

१-अनुकूलताका संकल्प।

२-प्रतिकूलता का त्याग।

३-श्रीभगवान् ही मेरी रक्षा करेंगे, ऐसा दृढ विश्वास।

४-रक्षकत्वके रूप में एक मात्र श्रीभगवान का वरण।

५-आत्मसमर्पण (सर्वस्व समर्पण)।

६-कार्पण्य (अकिञ्चनता) दैन्य-भाव-पूरित हो कर्तव्य- कर्मों का पालन।

     - इन छहों अंगोंमें आत्मनिक्षेप यानी समर्पण प्रधान अंगी है और शेष पाँच अंग हैं।

           –रमेशप्रसाद शुक्ल
      
           –जय श्रीमन्नारायण।
[2/17, 07:43] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: मुहूर्तमपि जीवेच्च नर: शुक्लेन कर्मणा।
न कल्पमपि कष्टेन लोकद्वयविरोधिना।।

उत्तम कर्म करते हुए एक पल का जीवन भी श्रेष्ठ है, परंतु दोनों लोकों (लोक-परलोक) में दुष्कर्म करते हुए कल्प भर का जीवन (हजारों वर्षों का जीना) भी श्रेष्ठ नहीं है।
भाव यही है कि मनुष्य को जितना भी जीवन मिला है, उसे श्रेष्ठ कर्मों में ही लगाना उचित है-।।
हरि: ॐ तत्सत् सुप्रभातम्🌻🙏🏻🌻
[2/17, 07:44] राम भवनमणि त्रिपाठी: *भ्रम और श्रद्धा*

बुद्धि की यह समझ कि; "मैं सत्य को जानता हूँ।",,, 'भ्रम' है।
और अपने इस 'भ्रम' को स्वीकार कर लेना,,, 'श्रद्धा' है।

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥४-४०॥

"भ्रमित और श्रद्धाहीन अंत:करण,,, अपने वास्तविक स्वरूप के अज्ञान मे डूबी रहती है। संशयात्मक बुद्धि को न तो
इस लोक में कोई सुख है, न भविष्य काल मे ही कोई सुख मिलने वाला है॥"

*(भगवद्गीता)*
[2/17, 08:38] ‪+91 99773 99419‬: *🔔मूल श्लोकः 🔔*
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥ २/७ ॥
*🏹पदच्छेदः........*
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः, पृच्छामि, त्वाम्, धर्मसम्मूढचेताः । यत्, श्रेयः, स्यात्, निश्चितम्, ब्रूहि, तत्, मे, शिष्यः, ते, अहम्, शाधि, माम्, त्वाम्, प्रपन्नम्॥
*🌹पदपरिचयः......🌹*
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः — अ.पुं.प्र.एक.
पृच्छामि — प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्-पर.कर्तरि, लट्.उपु.एक.
त्वाम् — युष्मद्-द.सर्व.द्वि.एक.
धर्मसम्मूढचेताः — धर्मसम्मूढचेतस्-स.पुं.प्र.एक.
यत् — यद्-द.सर्व.नपुं.प्र.एक.
श्रेयः — श्रेयस्-स.नपुं.प्र.एक.
स्यात् — अस् भुवि-पर.कर्तरि, वि.लिङ्.प्रपु.एक.
न्निश्चितम् — अ.नपुं.प्र.एक.
ब्रूहि — ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि-पर.कर्तरि, लोट्.मपु.एक.
तत् — तद्-द.सर्व.नपुं.द्वि.एक.
मे — अस्मद्-द.सर्व.ष.एक.
शिष्य: — अ.पुं.प्र.एक.
ते — युष्मद्-द.सर्व.ष.एक.
अहम् — अस्मद्-द.सर्व.प्र.एक.
शाधि — शासु अनुशिष्टौ-पर.कर्तरि, लोट्.मपु.एक.
माम् — अस्मद्-द.सर्व.द्वि.एक.
त्वाम् — युष्मद्-द.सर्व.द्वि.एक.
प्रपन्नम् — अ.पुं.द्वि.एक.
*🌷पदार्थः...... 🌷*
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः — लुब्धत्वदोषेण नष्टस्वभावः
पृच्छामि — प्रश्नं करोमि
त्वाम् — भवन्तम्
धर्मसम्मूढचेताः — धर्मे मूढमनस्कः
यत् — यत्
श्रेयः — हितम्
स्यात् — भवेत्
निश्चितम् — असन्दिग्धम्
ब्रूहि — वद
तत् — तद्
मे — मम
शिष्यः — शासनीयाः
ते — तव
अहम् — अहम्
शाधि — उपदिश
माम् — माम्
त्वाम् — त्वाम्
प्रपन्नम् — उपगतम्
*🌻अन्वयः 🌻*
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः धर्मसम्मूढचेताः त्वां पृच्छामि यत् निश्चितं श्रेयः स्यात् तत् मे ब्रूहि । अहं ते शिष्यः । त्वां प्रपन्नं मां शाधि ।
*🐚आकाङ्क्षाः🐚*
_पृच्छामि_
अहं कीदृशः पृच्छामि?
*अहं कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि ।*
अहं कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पुनश्च कीदृशः  पृच्छामि?
*अहं कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः धर्मसम्मूढचेताः पृच्छामि ।*
अहं कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः धर्मसम्मूढचेताः कं पृच्छामि?
*अहं कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः धर्मसम्मूढचेताः त्वां पृच्छामि ।*
अहं कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः धर्मसम्मूढचेताः त्वां पृच्छामि । (तस्मात्) किं ब्रूहि?
*अहं कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः धर्मसम्मूढचेताः त्वां पृच्छामि तस्मात् तत् ब्रूहि ।*
अहं कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः धर्मसम्मूढचेताः त्वां पृच्छामि तस्मात् कीदृशं तत् ब्रूहि?
*अहं कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः धर्मसम्मूढचेताः त्वां पृच्छामि तस्मात् यत् निश्चितं श्रेयः तत् ब्रूहि ।*
_शिष्यः_
क: शिष्यः?
*अहं शिष्यः ।*
अहं कस्य शिष्यः?
*अहं ते शिष्यः ।*
अहं ते शिष्यः । तेन किम्?
*अहं ते शिष्यः । शाधि ।*
कं शाधि?
*मां शाधि ।*
कीदृशं मां शाधि?
*प्रपन्नं मां शाधि।*
कं प्रपन्नं मां शाधि?
*त्वां प्रपन्नं मां शाधि।*
*📢 तात्पर्यम्......*
एते सर्वे मदीयाः । तस्मात् एतेषां न किञ्चिदपि हानिः भवेत् इति लुब्धत्वेन दोषेण इदानीं मम विचारशक्तिः नष्टा अस्ति । धर्मविषये मम चेतः सम्मूढम् अस्ति । अतः पृच्छामि - इदानीं मम यत् असन्दिग्धं श्रेयः तत् त्वं वद । अहं त्वामेव शरणं गतः अस्मि । माम् उपदिश ।
*🌻व्याकरणम्.......*
▶सन्धिः
यच्छ्रेयः = यत् + श्रेयः – श्चुत्वम्, छत्वसन्धिः
स्यान्निश्चितम् = स्यात् + निश्चितम् - अनुनासिकसन्धिः
तन्मे = तत् + मे – अनुनासिकसन्धिः
शिष्यस्ते = शिष्यः + ते – विसर्गसन्धिः (सकारः)
तेऽहम् = ते + अहम् — पूर्वरूपसन्धिः
▶ समासः
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः = कार्पण्यं दोषः कार्पण्यदोषः – कर्मधारयः ।

# कार्पण्यदोषेण उपहतः कार्पण्यदोषोपहतः – तृतीयातत्पुरुषः ।
# कार्पण्यदोषोपहतः स्वभावः यस्य सः – बहुव्रीहिः ।

धर्मसम्मूढचेताः = धर्मे सम्मूढम् धर्मसम्मूढम् – सप्तमीतत्पुरुषः ।

# धर्मसम्मूढं चेतः यस्य सः – बहुव्रीहिः ।
▶ कृदन्तः
निश्चितम् = निस् + चि + क्त (कर्मणि)
शिष्यः = शास् + क्यप् (कर्मणि) ।
शासनीयः इत्यर्थः ।
प्रपन्नम् = प्र + पद् + क्त (कर्तरि) ।
🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹
                     *गीताप्रवेशात्*
[2/17, 08:53] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

विना संस्कृतं नास्ति नःपूर्णता
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यदि भारतस्य समुन्नतिः काम्यते सर्वसुखदः विकासः च अभिलष्यते तर्हि संस्कृतस्य प्रचारः प्रसारः च अनिवार्यौ संस्कृतभाषा सर्वगुणसंपन्ना ,अतः प्रथमं सर्वे भारतीयाः संस्कृतभाषां पठेय।

कियत् मधुरम् संस्कृतम् ?

अस्य प्रश्नस्य उत्तरम् अस्ति –
 
१ –बहु मधुरम्
२ –मधु-मधुरम्
३ –अमृत-इव मधुरम्।

संस्कृताभिमानी सज्जनः लिखति – 'अविद्यान्धकारस्तु दूरं व्रजेत् ।' अहं कामये सूर्य उदितो भवेत् । विना संस्कृतं नास्ति नःपूर्णता। जनो भारतीयो न किं तत्पठेत ? सरलः अर्थ-..... संस्कृताध्य...।

यथा श्वसनम् चलति तथैव चलतु संस्कृतस्य  प्रचार-कार्यम् । जयतु संस्कृतम्‌ ।  जयतु संस्कृतम्‌ । जयतु संस्कृतम्‌ । उच्चैः वदतु। देवाः स्वर्गस्थाः अपि शृण्वन्तु।

               –रमेशप्रसाद शुक्ल

               –जय श्रीमन्नारायण।
[2/17, 08:56] ओमीश Omish Ji: प्रकृति की उपासना

‘ऋग्वेद’ में पुरुष सूक्त के द्वितीय मंत्र पुरषे वेद सर्वंयद्भूत यच्चभव्यम् के अनुसार जो कुछ भी वर्तमान में है, भूतकाल में था या भविष्य में होगा; वह सब परमात्मा ही है। उपनिषद में कहा गया है—प्रारंभ में केवल एक परमात्मा उपस्थित था। कालांतर में उसने इच्छा की कि मैं बहुत रूपों में हो जाऊं। फिर वह अपनी इच्छानुसार अपने से ही संसार बनाकर जीवित और अजीवित नाना रूपों में हो गया।
अर्जुन ने परमात्मा श्रीकृष्ण में ही इस जगत को देखा। यह उसी प्रकार प्रत्यक्ष जगत ब्रह्म है जिस प्रकार पृथ्वी अपने से पेड़, पौधे एवं वनस्पतियां उत्पन्न करती है। परंतु अविद्या के कारण जगत परमात्मा के रूप में नहीं दिखाई पड़ता। हमारे ऋषि मंत्र द्रष्टा थे इसीलिए वेदों में उन्होंने दो प्रकार के मंत्र संकलित किए—प्रथम, सगुण ब्रह्म की विभिन प्राकृतिक शक्तियों को देवता मानकर उसकी उपसाना के मंत्र और दूसरे, निराकार-निर्गुण ब्रह्म की उपासना के मंत्र। चारों वेदों में प्रकृति, आकाश, वायु जल, नदी, विद्युत, वनस्पति, पृथ्वी, अंतरिक्ष और सूर्य आदि की प्रार्थना के मंत्र हैं।

यथा—पयः पृथिव्या पयौषधीषु दिविऽन्तरिक्षे पयोधाः। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु महयम्।।

अर्थात् यह पृथ्वी, वनस्पतियां, पेड़-पौधे, अंतरिक्ष और सभी दिशाएं मेरे लिए अमृतमयी हों।
हमारे ऋषि इन प्राकृतिक संपदाओं को पूज्य एवं जीवनदायी मानते थे इसीलिए उनकी अनुकूलता के लिए प्रार्थन करते थे। ये प्राकृतिक शक्तियां अनुकूल रहने पर जीवों के लिए अमृत हैं और प्रतिकूल होने पर साक्षात् प्रलय हैं। अग्नि, जल, वायु तथा प्राण आदि साम्यावस्था में रहने पर उत्तम स्वास्थ्य, धन, संपदा और आनंद देते हैं जबकि विषमावस्था में आग, बाढ़, सूखा, अकाल एवं महामारी आदि प्रदान करते हैं। इसीलिए हमारे ऋषियों ने इन प्राकृतिक साधनों के दुरुपयोग को पाप एवं दंडनीय बताया है।
इस प्रकृति का अनुकूल रहना ही रामराज्य है। इसीलिए आवश्यकतानुसार ही सूर्य ताप, चंद्रमा शीतलता एवं मेघ वर्षा देते हैं। पृथ्वी अन्न से, वृक्ष फलों से एवं नदियां जलों से परिपूर्ण रहती हैं। ऐसा आज भी संभव है परंतु मानव की समस्याओं का एकमात्र कारण परमात्मा की इस प्रकृति रूप की उपेक्षा एवं अश्रद्धा है इसलिए हम प्रकृति के साथ अपराध कर रहे हैं। अतः शांति, स्वास्थ्य एवं समृद्धि के लिए हमें प्रकृति में परमात्मा के समान ही श्रद्धा रखनी होगी, इन्हें पूज्य समझकर उपासना करनी होगी और इनसे प्राप्त फलों को वरदान समझकर अवश्यकतानुसार सेवन करना होगा। मनुष्य के कल्याण के लिए यही एक मार्ग है। यही धर्म है और यही ईश्वर की उपासना है।
[2/17, 22:14] ‪+91 90241 11290‬: दशरथादि पुत्र का,वसिष्ठ जी ने शिष्यत्व का,रावण ने तो शत्रुता भी इतनी श्रद्धा से की,कि उस परब्रह्म परमैश्वर नारायण को भी नर रूप में आना पडा,हमारी स्थिति नहीं अवधपुर की जनता के समान हैं और नहीं रावण जैसी,हमारी गति क्या होगी यह एक अवधातव्य विषय हैं|

1 comment:

  1. आपका यह प्रयास बहुत ही सार्थक नजर आ रहा ।
    एक जिज्ञासा है
    शाण्डिल्य गोत्र, प्रवर,शाखा ,वेद और देवता आदि के विषय में विभिन्न भेद और प्रकार है उसे प्रमाणित रूप से इस विषय में जानकारी उपलब्ध हो सके तो
    अनन्त साधुवाद

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