Friday, March 3, 2017

धर्मार्थ वार्ता

[2/17, 09:44] ओमीश Omish Ji: *🌷सूक्ति -सुधा🌷*

मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम्।
      —कार्यसिद्धि का इच्छुक  बुद्धिमान्  दुःख  या सुख  को नहीं  गिनता  है।
[2/17, 09:48] प विजय विजयभान: 🙏🌹ॐ नमः शिवाय🌹🙏
                  अज्ञान के कारण आत्मा सीमित लगती है,  लेकिन जब अज्ञान का अंधेरा मिट जाता है, तब आत्मा के वास्तविक स्वरुप का ज्ञान हो जाता है, जैसे बादलों के हट जाने पर सूर्य दिखाई देने लगता है।
[2/17, 09:54] ‪+91 99673 46057‬: राधे राधे-आज का भगवद चिन्तन,
             17-02-2017
🌺      भाग्यवादी अर्थात वे लोग जो यह सोचते हैं कि इस जिन्दगी में जो भी प्राप्त होना होगा हो ही जायेगा। पुरुषार्थवादी अर्थात वे लोग जो यह सोचते हैं और मानते भी हैं कि जिन्दगी में ऊँचा मुकाम किस्मत से नहीं अपितु मेहनत से प्राप्त होता है।
🌺      भाग्य आपको ऊँचे कुल में या किसी समृद्ध परिवार जन्म अवश्य दिला सकता है लेकिन जीवन में समृद्धि, उन्नति, सम्मान यह सब केवल परिश्रम से ही सम्भव है।
🌺       भाग्य से आपको नाव मिल सकती है मगर बिना पुरुषार्थ किये आप नदी पार नहीं कर सकते। भाग्य एक अवसर है और पुरुषार्थ उसका सदुपयोग। बिना कर्म किये तो भाग्य में लिखा हुआ भी वापिस चला जाता है। परिश्रम ही सफलता की माँग है।

मंजिल तो मिल ही जायेगी भटक कर ही सही।
गुमराह तो वो हैं जो घर से निकले ही नहीं॥
[2/17, 11:06] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: अपनी भक्ति का अमृत पिला दो प्रभु। 
पार नैया मेरी अब लगा दो प्रभु॥ 
मन का स्वामी हूँ मैं, मन मेरा दास है। 
मन के मंदिर में भगवन्! तेरा वास है॥ 
अपनी ज्योति से, मन जगमगा दो प्रभु॥ 
हर समय ध्यान तुझमें लगाता रहूँ। 
तेरे गुण अपने जीवन में लाता रहूँ॥ 
धर्म पथ का पथिक अब बना दो प्रभु॥ 
तू ही बन्धु मेरा- प्यारा सच्चा सखा। 
तू ही रक्षक मेरा, स्वामी माता- पिता॥ 
अपनी गोदी में, अब तो बिठा लो प्रभु॥ 
तेरे ही ध्यान में, रहता हूँ मैं मगन। 
तेरे दर्शन की मन को, लगी है लगन॥ 
द्वैत का अब ये, पर्दा हटा दो प्रभु॥ 
ज्योति की दो मुझे, एक अपनी किरण। 
दीप्त हो जाये मेरा, यह अन्तः करण॥ 
मेरी कुटिया को, अब जगमगा दो प्रभु॥ 
[2/17, 11:16] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: अंधकार आसुरी वृत्ति का, जिसने दूर भगाया। 
देवदूत उतरा धरती पर, जग पहचान न पाया॥ 
सुधा समझ विष के प्याले थे, हम हाथों में पकड़े। 
पेट और प्रजनन- कारा में, सभी रात दिन जकड़े। 
धोकर कल्मष पंक यहाँ, जिसने पंकज विकसाया॥ 
रहा जागता वह युग प्रहरी, हम सब बेसुध सोते। 
मुस्कानों से रहे निरंतर, पीर परायी ढोते। 
करती रही प्राण- मन शीतल, बोधि विटप की छाया॥ 
गूँज रही सतयुगी ऋचा सी, अब भी जिसकी वाणी। 
दिखा रही दिग्भ्रांत जगत को, दिशा नयी कल्याणी। 
दिया प्रकाश अखण्ड ज्योति का, दीपक दिव्य जलाया॥ 
फैले आज प्रखर प्रज्ञा के, सूक्ष्म जगत में कंपन। 
बन सकते नर से नारायण, जुड़कर जिससे जन- जन। 
छोड़ गई पद्चिन्ह क्रांति के, जिसकी पावन काया॥ 
[2/17, 13:39] राम भवनमणि त्रिपाठी: 🛑जीवात्मा (अणु)और परमात्मा (विभु)🛑
🛑जीवात्मा एकदेशीय परमात्मा सर्वत्र🛑
गुहां प्रविष्टवात्मानो हि तद्दर्शनात।।वेदांत सूत्र 1,2,11।।
    ह्रदय रूप गुहा में प्रविष्ट हुए दोनों जीवात्मा और परमात्मा ही है।क्योंकि दूसरी श्रुति में भी ऐसा ही देखा जाता है।
  अनेकों जगह सुस्पष्ट हो चुका है।जीवात्मा परमात्मा का अंशहै इसीलिये अविनाशी है।यह भिन्नअंश होते हुए भी अभिन्न है।मूर्ख लोगों ने इसी अद्वय भाव की व्याख्या को आधार बनाकर इस युग में लोगों को भृमित कर दिया नया पंथ सम्प्रदाय बना दिया,यही कलियुग का प्रभाव है।
अंशो नानाव्यपदेशादन्यथा चापि दाशकवादित्वतमा-धीयत एके। ।ब्रम्ह सूत्र ।।3,3,43।।
श्रुति में जीवात्माओं को बहुत से व् अलग अलग बताया है,,,, जीव ईश्वर का अंश है क्योकीएक शाखा वाले ब्रम्ह को दशकितव आदि रूप कहकर अध्ययन करते है।
इसी प्रकार श्रुति में भी आया है।
अणोरणीयान्महतो महियानात्मास्य,,,,,,,,1,2,20 कठो o
    इस मंत्र में जीवात्मा को "जन्तु"नाम देकर उसकी बद्धवस्था व्यक्त की गई है।भाव यह है कि यद्यपि परब्रम्ह पुरषोत्तम उस जीवात्मा के अत्यंत समीप -जंहा वह स्वयं रहता है, वंही ह्रदय में छिपे हुए है, तो भी यह बद्धजीवात्मा उनकी और नही देखता।मोहवश भोगो में भुला रहता है।इसी कारण इसे जन्तु है।मनुष्य शरीर पाकर भी कीट पतंग आदि तुक्ष प्राणियों की भांति अपना दुर्लभ जीवन व्यर्थ नष्ट कर रहा है।(जीवात्मा के भीतर परमात्मा )अर्थात परमात्मा अणु से भी अणुतर और महान से भी महान सर्वव्यापी है।
एषो$णुरात्मा चेतसा,,,,,मुंडक 3,1,9में अति सूक्ष्म परमाण्विक रात्मा कीऔर अधिक विवेचना हुई है।इसे पांच प्रकार के प्राणों में तैरता हुआ स्पष्ट कहा गया है।(यह कोई घटाकाश वाला भाषित नही है)
जीवआत्मायें अनेक है सर्वत्र है।जीवात्मायें परमाणुओं के अनंत कंण है।(केशाग्रशतभागस्य शंतांश:,,,,मुंडक o3,1,9) जो माप में बाल के अगले भाग(नोक) के दस हजारवें भाग के बराबर है।श्वेताश्वतरo(5,9)
  विशेषणाच्च।।ब्रम्ह सूत्र 1,2,12
जीवात्मा और परमात्मा दोनों के लिए अलग अलग विशेषण दिए गए है।इसीलिये उपर्युक्त दोनों को जीवात्मा और परमात्मा मानना ठीक है।
नित्यो नित्यानां,,,,,,, एक नित्य चेतन परब्रम्ह परमेश्वर बहुत से नित्य चेतन जीवों के कर्म फल भोग का विधान करता है।ऐसे परमदेव परमेश्वर को जानकर जीवात्मा समस्त बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
सीताराम सीताराम सीताराम जय सियाबर राम।
[2/17, 14:36] राम भवनमणि त्रिपाठी: पाप का गुरू कौन

एक पंडित जी कई वर्षों तक काशी में शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद गांव लौटे। पूरे गांव में शोहरत हुई कि काशी से शिक्षित होकर आए हैं और धर्म से जुड़े किसी भी पहेली को सुलझा सकते हैं।

शोहरत सुनकर एक किसान उनके पास आया और उसने पूछ लिया-, पंडित जी आप हमें यह बताइए कि पाप का गुरु कौन है?

प्रश्न सुन कर पंडित जी चकरा गए। उन्होंने धर्म व आध्यात्मिक गुरु तो सुने थे।

लेकिन पाप का भी गुरु होता है, यह उनकी समझ और ज्ञान के बाहर था।

पंडित जी को लगा कि उनका अध्ययन अभी अधूरा रह गया है।
वह फिर काशी लौटे, अनेक गुरुओं से मिले लेकिन उन्हें किसी से भी सवाल का जवाब नहीं मिला।

अचानक एक दिन उनकी मुलाकात एक गणिका (वेश्या) से हो गई।

उसने पंडित जी से परेशानी का कारण पूछा, तो उन्होंने अपनी समस्या बता दी।

गणिका बोली- पंडित जी! इसका उत्तर है तो बहुत सरल,
लेकिन उत्तर पाने के लिए आपको कुछ दिन मेरे पड़ोस में रहना होगा।

पंडित जी इस ज्ञान के लिए ही तो भटक रहे थे,
वह तुरंत तैयार हो गए।

गणिका ने अपने पास ही उनके रहने की अलग से व्यवस्था कर दी।

पंडित जी किसी के हाथ का बना खाना नहीं खाते थे।

अपने नियम-आचार और धर्म परंपरा के कट्टर अनुयायी थे।

गणिका के घर में रहकर अपने हाथ से खाना बनाते खाते कुछ दिन तो बड़े आराम से बीते, लेकिन सवाल का जवाब अभी नहीं मिला था।

वह उत्तर की प्रतीक्षा में थे।

एक दिन गणिका बोली- पंडित जी! आपको भोजन पकाने में बड़ी तकलीफ होती है। यहां देखने वाला तो और कोई है नहीं। आप कहें तो नहा-धोकर मैं आपके लिए भोजन तैयार कर दिया करूं।

पंडित जी को राजी करने के लिए उसने लालच दिया- यदि आप मुझे इस सेवा का मौका दें, तो मैं दक्षिणा में पांच स्वर्ण मुद्राएं भी प्रतिदिन आपको दूंगी।

स्वर्ण मुद्रा का नाम सुनकर पंडित जी विचारने लगे। पका-पकाया भोजन और साथ में सोने के सिक्के भी! अर्थात दोनों हाथों में लड्डू हैं।

पंडित जी अपना नियम-व्रत, आचार-विचार धर्म सब कुछ भूल गए।

उन्होंने कहा- तुम्हारी जैसी इच्छा, बस विशेष ध्यान रखना कि मेरे कमरे में आते-जाते तुम्हें कोई ना देखे।

पहले ही दिन कई प्रकार के पकवान बनाकर उसने पंडित जी के सामने परोसे पर ज्यों ही पंडित जी ने खाना चाहा, उसने सामने से परोसी हुई थाली खींच ली।

इस पर पंडित जी क्रुद्ध हुए और बोले, यह क्या मजाक है? गणिका ने कहा, यह मजाक नहीं है पंडित जी, यह तो आपके प्रश्न का उत्तर है।

यहां आने से पहले आप भोजन तो दूर, किसी के हाथ का पानी भी नहीं पीते थे, मगर स्वर्ण मुद्राओं के लोभ में आपने मेरे हाथ का बना खाना भी स्वीकार कर लिया। यह लोभ ही पाप का गुरु है।
[2/17, 19:10] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

उत्तमं प्रणिपातेन शूरं भेदेन योजयेत् ।
नीचमल्पप्रदानेनेष्टं धर्मेण योजयेत् ॥

अपने से जो श्रेष्ठ हो उसको प्रणाम करके अर्थात् विनम्रता से, शूर-वीर को भेदनीति से, अपने से  कम दरजे (अपने से कम हैसियत) वाले को कुछ देकर, और  जो जरूरतमंद  हो उसे न्याय पूर्वक अपना बना लेना चाहिए ।

        –जय श्रीमन्नारायण।
[2/17, 20:44] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: आज बेचैन हैं स्वर्ग की शक्तियाँ- 
हे मनुज तुम उठो दिव्य अुनदान लो॥ 
तुम उठे बुद्धि की शक्ति ले इस तरह- 
क्या धरा क्या गगन सब कहीं छा गए। 
सिद्ध तुमने किये मंत्र विज्ञान के- 
नित नये उपकरण हाथ में आ गए॥ 
अब नियोजित इन्हें श्रेष्ठ पथ पर करो- 
सृष्टि का हित भली- भाँति पहचान लो॥ 
बाहरी क्षेत्र के तुम विजेता बने- 
किन्तु अन्तर्जगत है अधूरा अभी। 
आत्मबल के बिना बुद्धि बल मात्र से- 
लक्ष्य होगा तुम्हारा न पूरा कभी॥ 
विश्व के तुम बनोगे मुकुटमणि तभी- 
जबकि विज्ञान के साथ सद्ज्ञान लो॥ 
व्यक्तिगत मुक्ति कोई समस्या नहीं- 
व्यक्तिगत साधना ने शिखर को छुआ। 
सन्त,अवतार आए दिशा दे गए- 
किन्तु सामान्य जीवन न विकसित हुआ॥ 
यह समूची मनुजता नया जन्म ले- 
तुम नये कल्प का वह नवोत्थान लो॥ 
कब उठे ऊर्ध्वगामी बने जाति यह- 
देवसत्ता प्रतीक्षा यही कर रही। 
तुम बढ़ाते नहीं पात्र अपना यहाँ- 
है जहाँ से सुधा अनवरत झर रही॥ 
प्यार माँ का अपरिमित छलकता अरे- 
तुम स्वयं को यहाँ पुत्रवत् मान लो॥ 
[2/17, 20:50] ‪+91 98288 74601‬: बहुत मार्मिक प्रस्तुति है जब राजा दशरथ के मंत्री सुमंत जी प्रभुराम सीता लक्षमण को वन में छोड़ने के बाद अत्यन्त दुखी अवस्था में स्वयं से  ही प्रश्न उत्तर करते हुये अयोध्या आरहे हैं।

* भयउ निषादु बिषादबस देखत सचिव तुरंग।
बोलि सुसेवक चारि तब दिए सारथी संग॥

भावार्थ:-मंत्री और घोड़ों की यह दशा देखकर निषादराज विषाद के वश हो गया। तब उसने अपने चार उत्तम सेवक बुलाकर सारथी के साथ कर दिए॥

* गुह सारथिहि फिरेउ पहुँचाई। बिरहु बिषादु बरनि नहिं जाई॥
चले अवध लेइ रथहि निषादा। होहिं छनहिं छन मगन बिषादा॥

भावार्थ:-निषादराज गुह सारथी (सुमंत्रजी) को पहुँचाकर (विदा करके) लौटा। उसके विरह और दुःख का वर्णन नहीं किया जा सकता। वे चारों निषाद रथ लेकर अवध को चले। (सुमंत्र और घोड़ों को देख-देखकर) वे भी क्षण-क्षणभर विषाद में डूबे जाते थे॥

* सोच सुमंत्र बिकल दुख दीना। धिग जीवन रघुबीर बिहीना॥
रहिहि न अंतहुँ अधम सरीरू। जसु न लहेउ बिछुरत रघुबीरू॥

भावार्थ:-व्याकुल और दुःख से दीन हुए सुमंत्रजी सोचते हैं कि श्री रघुवीर के बिना जीना धिक्कार है। आखिर यह अधम शरीर रहेगा तो है ही नहीं। अभी श्री रामचन्द्रजी के बिछुड़ते ही छूटकर इसने यश (क्यों) नहीं ले लिया॥

* भए अजस अघ भाजन प्राना। कवन हेतु नहिं करत पयाना॥
अहह मंद मनु अवसर चूका। अजहुँ न हृदय होत दुइ टूका॥

भावार्थ:-ये प्राण अपयश और पाप के भाँडे हो गए। अब ये किस कारण कूच नहीं करते (निकलते नहीं)? हाय! नीच मन (बड़ा अच्छा) मौका चूक गया। अब भी तो हृदय के दो टुकड़े नहीं हो जाते!॥

* मीजि हाथ सिरु धुनि पछिताई। मनहुँ कृपन धन रासि गवाँई॥
बिरिद बाँधि बर बीरु कहाई। चलेउ समर जनु सुभट पराई॥

भावार्थ:-सुमंत्र हाथ मल-मलकर और सिर पीट-पीटकर पछताते हैं। मानो कोई कंजूस धन का खजाना खो बैठा हो। वे इस प्रकार चले मानो कोई बड़ा योद्धा वीर का बाना पहनकर और उत्तम शूरवीर कहलाकर युद्ध से भाग चला हो!॥

* बिप्र बिबेकी बेदबिद संमत साधु सुजाति।
जिमि धोखें मदपान कर सचिव सोच तेहि भाँति॥

भावार्थ:-जैसे कोई विवेकशील, वेद का ज्ञाता, साधुसम्मत आचरणों वाला और उत्तम जाति का (कुलीन) ब्राह्मण धोखे से मदिरा पी ले और पीछे पछतावे, उसी प्रकार मंत्री सुमंत्र सोच कर रहे (पछता रहे) हैं॥

* जिमि कुलीन तिय साधु सयानी। पतिदेवता करम मन बानी॥
रहै करम बस परिहरि नाहू। सचिव हृदयँ तिमि दारुन दाहू॥

भावार्थ:-जैसे किसी उत्तम कुलवाली, साधु स्वाभाव की, समझदार और मन, वचन, कर्म से पति को ही देवता मानने वाली पतिव्रता स्त्री को भाग्यवश पति को छोड़कर (पति से अलग) रहना पड़े, उस समय उसके हृदय में जैसे भयानक संताप होता है, वैसे ही मंत्री के हृदय में हो रहा है॥

* लोचन सजल डीठि भइ थोरी। सुनइ न श्रवन बिकल मति भोरी॥
सूखहिं अधर लागि मुहँ लाटी। जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी॥

भावार्थ:-नेत्रों में जल भरा है, दृष्टि मंद हो गई है। कानों से सुनाई नहीं पड़ता, व्याकुल हुई बुद्धि बेठिकाने हो रही है। होठ सूख रहे हैं, मुँह में लाटी लग गई है, किन्तु (ये सब मृत्यु के लक्षण हो जाने पर भी) प्राण नहीं निकलते, क्योंकि हृदय में अवधि रूपी किवाड़ लगे हैं (अर्थात चौदह वर्ष बीत जाने पर भगवान फिर मिलेंगे, यही आशा रुकावट डाल रही है)॥

* बिबरन भयउ न जाइ निहारी। मारेसि मनहुँ पिता महतारी॥
हानि गलानि बिपुल मन ब्यापी। जमपुर पंथ सोच जिमि पापी॥

भावार्थ:-सुमंत्रजी के मुख का रंग बदल गया है, जो देखा नहीं जाता। ऐसा मालूम होता है मानो इन्होंने माता-पिता को मार डाला हो। उनके मन में रामवियोग रूपी हानि की महान ग्लानि (पीड़ा) छा रही है, जैसे कोई पापी मनुष्य नरक को जाता हुआ रास्ते में सोच कर रहा हो॥

* बचनु न आव हृदयँ पछिताई। अवध काह मैं देखब जाई॥
राम रहित रथ देखिहि जोई। सकुचिहि मोहि बिलोकत सोई॥

भावार्थ:-मुँह से वचन नहीं निकलते। हृदय में पछताते हैं कि मैं अयोध्या में जाकर क्या देखूँगा? श्री रामचन्द्रजी से शून्य रथ को जो भी देखेगा, वही मुझे देखने में संकोच करेगा (अर्थात मेरा मुँह नहीं देखना चाहेगा)॥

* धाइ पूँछिहहिं मोहि जब बिकल नगर नर नारि।
उतरु देब मैं सबहि तब हृदयँ बज्रु बैठारि॥

भावार्थ:-नगर के सब व्याकुल स्त्री-पुरुष जब दौड़कर मुझसे पूछेंगे, तब मैं हृदय पर वज्र रखकर सबको उत्तर दूँगा॥

* पुछिहहिं दीन दुखित सब माता। कहब काह मैं तिन्हहि बिधाता।
पूछिहि जबहिं लखन महतारी। कहिहउँ कवन सँदेस सुखारी॥

भावार्थ:-जब दीन-दुःखी सब माताएँ पूछेंगी, तब हे विधाता! मैं उन्हें क्या कहूँगा? जब लक्ष्मणजी की माता मुझसे पूछेंगी, तब मैं उन्हें कौन सा सुखदायी सँदेसा कहूँगा?॥

* राम जननि जब आइहि धाई। सुमिरि बच्छु जिमि धेनु लवाई॥
पूँछत उतरु देब मैं तेही। गे बनु राम लखनु बैदेही॥

भावार्थ:-श्री रामजी की माता जब इस प्रकार दौड़ी आवेंगी जैसे नई ब्यायी हुई गौ बछड़े को याद करके दौड़ी आती है, तब उनके पूछने पर मैं उन्हें यह उत्तर दूँगा कि श्री राम, लक्ष्मण, सीता वन को चले गए!॥

* जोई पूँछिहि तेहि ऊतरु देबा। जाइ अवध अब यहु सुखु लेबा॥
पूँछिहि जबहिं राउ दुख दीना। जिवनु जासु रघुनाथ अधीना॥

भावार्थ:-जो भी पूछेगा उसे यही उत्तर देना पड़ेगा! हाय! अयोध्या जाकर अब मुझे यही सुख लेना है! जब दुःख से दीन महाराज, जिनका जीवन श्री रघुनाथजी के (दर्शन के) ही अधीन है, मुझसे पूछेंगे,॥

* देहउँ उतरु कौनु मुहु लाई। आयउँ कुसल कुअँर पहुँचाई॥
सुनत लखन सिय राम सँदेसू। तृन जिमि तनु परिहरिहि नरेसू॥

भावार्थ:-तब मैं कौन सा मुँह लेकर उन्हें उत्तर दूँगा कि मैं राजकुमारों को कुशल पूर्वक पहुँचा आया हूँ! लक्ष्मण, सीता और श्रीराम का समाचार सुनते ही महाराज तिनके की तरह शरीर को त्याग देंगे॥

* हृदउ न बिदरेउ पंक जिमि बिछुरत प्रीतमु नीरु।
जानत हौं मोहि दीन्ह बिधि यहु जातना सरीरु॥

भावार्थ:-प्रियतम (श्री रामजी) रूपी जल के बिछुड़ते ही मेरा हृदय कीचड़ की तरह फट नहीं गया, इससे मैं जानता हूँ कि विधाता ने मुझे यह 'यातना शरीर' ही दिया है (जो पापी जीवों को नरक भोगने के लिए मिलता है)॥

* एहि बिधि करत पंथ पछितावा। तमसा तीर तुरत रथु आवा॥
बिदा किए करि बिनय निषादा। फिरे पायँ परि बिकल बिषादा॥

भावार्थ:-सुमंत्र इस प्रकार मार्ग में पछतावा कर रहे थे, इतने में ही रथ तुरंत तमसा नदी के तट पर आ पहुँचा। मंत्री ने विनय करके चारों निषादों को विदा किया। वे विषाद से व्याकुल होते हुए सुमंत्र के पैरों पड़कर लौटे॥

* पैठत नगर सचिव सकुचाई। जनु मारेसि गुर बाँभन गाई॥
बैठि बिटप तर दिवसु गवाँवा। साँझ समय तब अवसरु पावा॥

भावार्थ:-नगर में प्रवेश करते मंत्री (ग्लानि के कारण) ऐसे सकुचाते हैं, मानो गुरु, ब्राह्मण या गौ को मारकर आए हों। सारा दिन एक पेड़ के नीचे बैठकर बिताया। जब संध्या हुई तब मौका मिला॥

* अवध प्रबेसु कीन्ह अँधिआरें। पैठ भवन रथु राखि दुआरें॥
जिन्ह जिन्ह समाचार सुनि पाए। भूप द्वार रथु देखन आए॥

भावार्थ:-अँधेरा होने पर उन्होंने अयोध्या में प्रवेश किया और रथ को दरवाजे पर खड़ा करके वे (चुपके से) महल में घुसे। जिन-जिन लोगों ने यह समाचार सुना पाया, वे सभी रथ देखने को राजद्वार पर आए॥

* रथु पहिचानि बिकल लखि घोरे। गरहिं गात जिमि आतप ओरे॥
नगर नारि नर ब्याकुल कैसें। निघटत नीर मीनगन जैसें॥

भावार्थ:-रथ को पहचानकर और घोड़ों को व्याकुल देखकर उनके शरीर ऐसे गले जा रहे हैं (क्षीण हो रहे हैं) जैसे घाम में ओले! नगर के स्त्री-पुरुष कैसे व्याकुल हैं, जैसे जल के घटने पर मछलियाँ (व्याकुल होती हैं)॥

* सचिव आगमनु सुनत सबु बिकल भयउ रनिवासु।
भवनु भयंकरु लाग तेहि मानहुँ प्रेत निवासु॥

भावार्थ:-मंत्री का (अकेले ही) आना सुनकर सारा रनिवास व्याकुल हो गया। राजमहल उनको ऐसा भयानक लगा मानो प्रेतों का निवास स्थान (श्मशान) हो॥
[2/17, 20:58] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: आत्म साधना ऐसी हो जो, चटका दे चट्टान को। 
शाश्वत् प्राण ज्योति पी जाये, अंधकार अज्ञान को॥ 
साधक वह जो झेले जग के पाप,ताप,अभिशाप को। 
सागर मंथन के पहले जो, मथ ले अपने आप को॥ 
औरों को दे सुधा रत्न खुद कर लेता विषपान है। 
तपकर स्वयं ज्योति जग को, देना जिसका अरमान है॥ 
मानव करें वन्दना ऐसी- छूले तन, मन, प्राण को॥ 
जप,तप,पूजा,पाठ,साधना, जीवन की सौगात है। 
तिमिर निशा के बाद सदा ही, आता सुखद प्रभात है॥ 
जिसका है विश्वास अलौकिक,धर्म,कर्म,ईमान में। 
कर देता सर्वस्व न्यौछावर, जनहित के कल्याण में॥ 
जो देखे अन्तस् आँखों से, कण- कण में भगवान् को॥ 
बुझने देता ज्योति नहीं जो, शाश्वत् ज्ञान मशाल की। 
करता है परवाह नहीं वह, काल,व्याल,विकराल की॥ 
बाँटा करता सारे जग को, अमर ज्ञान,सद्भाव जो। 
प्रेम सुधा से भर देता है, जग के दुःखते घाव को॥ 
रात- रात भर जाग अकेला, लाता नये विहान को॥ 
विचलित होता कभी नहीं जो, आतप,वर्षा,शीत में। 
जिसे आत्म सुख मिलता सच्चा, आत्मज्ञान संगीत में॥ 
जो करता है सतत् साधना, शांतिकुंज की छाँव में। 
आत्मसुरभि भर देता क्षण में, मुरझे हुए गुलाब में॥ 
मुट्ठी में बाँधे फिरता जो, प्रलयंकर तूफान को॥ 
[2/17, 21:43] ‪+91 98288 74601‬: प्रस्तुति विस्तृत है पढ़ेनपढ़े आपकी इच्छा?

नवधा भगति कहऊँ तोहि पाहिं । सावधान सुनु धरू मन माहीं ।।

भारतीय संस्‍कृति में प्रभु भक्ति का सदैव प्रभुत्‍व रहा है । हमारे प्राचीन धार्मिक ग्रन्‍थों में इन भक्तियों को बड़ी ही सूक्ष्‍मता से वर्णित भी किया है । मीरा, नरसीमेहता ,संत तुकारामजी, गोस्‍वामी तुलसीदासजी, संत एकनाथ , संत रामदासजी ,महर्षि नारदजी,महर्षि वाल्मीकि, चेतन्‍य महाप्रभु, भक्‍त प्रहलाद, भक्‍त ध्रुव, संत रैदास आदि सभी ने भक्ति के अनेक रूपों में से चुनकर भगवान्‌ के सामीप्‍य का लाभ प्राप्‍त कर, हमें इस मार्ग के अनुकरण करने की शिक्षा दी है । इन सब भक्तों -संतों एवं ऋषियों मे कहीं न कहीं नवधा भक्ति परिलक्षित होती है । अतः नवधा भक्ति क्‍या है ? इसे इस रचना के द्वारा स्‍पष्‍ट करने का लघु प्रयास है ।

श्रीरामचरित मानस का कोई न कोई प्रमुख पात्र इन नौ भक्तियों में से किसी एक का प्रमुख रूप से नायकत्‍व -प्रतिनिधित्‍व करता हुआ उन भक्तियों को और अधिक बलवती करता हुआ पाठकों के चक्षुओं को तरलता प्रदान करके नवधा भक्ति को चरमोत्‍कर्ष पर ले जाते हैं ।

हिरण्‍यकशिपु ने अपने पुत्र की शिक्षा उपरांत अपनी गोद में बैठाकर उसका सिर सूँधा उसके नेत्रों से प्रेम के आँसू गिर-गिर कर प्रहलाद के शरीर को भिगोने लगे । उसने अपने पुत्र से पूछा - चिरंजीव बेटा प्रहलाद ! इतने दिनों तक तुमने जो शिक्षा प्राप्‍त की है , उसमें से कोई अच्‍छी सी बात तो हमें सुनाओ । प्रहलाद ने कहा -
श्रवणं कीर्तनं विष्‍णोः स्‍मरणं पादसेवनम्‌ ।
अर्चनं वन्‍दन दास्‍यं संख्‍यमात्‍मनिवेदनम्‌ ॥

पिताजी ! विष्‍णु भगवान्‌ की भक्ति के नौ भेद है - भगवान के गुण-लीला - नाम आदि का श्रवण , उन्‍हीं का कीर्तन , उनके रूप नाम आदि का स्‍मरण ,उनके चरणों की सेवा ,पूजा -अर्चना वंदन दास्‍य ,सख्‍य और आत्‍म निवेदन । यदि भगवान्‌ के प्रति समर्पण भाव से यह नौ प्रकार की भक्ति की जाय, तो मैं उसी को उत्तम अध्‍ययन समझता हूँ । इसके बाद क्‍या हुआ ? हम सब जानते हैं कि भगवान्‌ नृसिंह ने भक्त प्रहलाद की रक्षा हेतु हिरण्‍यकशिपु का वध कर दिया ।
इसी प्रकार नवधा भक्ति श्रीरामचरितमानस में एवं अध्‍यात्‍मरामायण में शबरी को श्रीराम द्वारा दी गई है ।

श्रीराम ने शबरी से कहा
नवधा भगति कहऊँ तोहि पाहिं । सावधान सुनु धरू मन माहीं ॥
जाति,पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन ,बल, कुटुम्‍ब गुण और चतुरता ,- इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्‍य कैसा लगता है ? जैसे जलहीन बादल दिखाई पड़ता है । श्रीराम ने कहा - मैं तुमसे अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ । तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर।

पहली भक्ति है संतों का सत्‍संग।
दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम ।
तीसरी भक्ति अभिमान रहित होकर गुरू के चरण कमलों की सेवा ।
चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें ।
मेरे (राम) मंत्र का जाप मुझ में दृढ़ विश्‍वास-यह पाँचवी भक्ति है जो कि वेदों में प्रसिद्ध है।
छठी भक्ति है इन्‍द्रियों का निग्रह शील (अच्‍छा आचरण या चरित्र) अनेक कार्यों से वैराग्‍य और निरन्‍तर संतपुरूषों के धर्म (आचरण) में रत या लगे रहना ।
सातवीं भक्ति है सम्‍पूर्ण जगत स्‍वभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना ।
आठवीं भक्ति है जो कुछ भी प्राप्‍त हो जाए उसी में संतोष करना और स्‍वप्‍न में भी पराये (दूसरों के दोषों को न देखना)
नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित व्‍यवहार करना ,हृदय में मेरा विश्‍वास-भरोसा रखना और किसी भी अवस्‍था में हर्ष और दैन्‍य (विषाद) का न होना । इन नौ में से जिनके एक भी भक्ति होती है , वह स्‍त्री-पुरूष , जड़ चेतन कोई भी हो । हे भमिनी मुझे वहीं अत्‍यन्‍त प्रिय है। तुझमें तो सभी प्रकार की भक्ति है । अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है ,वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है

यही नवधा भक्ति का अध्‍यात्‍मरामायण के
अरण्‍यकाण्‍ड में वर्णित है।
श्रीराम ने शबरी से कहा - पुरूषत्‍व-स्‍त्रीत्‍व का भेद अथवा जाति, नाम और आश्रम ये कोई भी मेरे भजने के कारण नहीं है । उसका कारण तो एक मात्र मेरी भक्ति ही है जो मेरी भक्ति से विमुख ह,ै वे यज्ञ, दान तप अथवा वेदाध्‍ययन आदि किसी भी कर्म से मुझे कभी नहीं देख सकते । अतः हे भामिनि ! मैं संक्षेप में अपनी भक्ति के साधनों का वर्णन करता हूँ । उनमें पहला साधन तो सत्‍संग ही है । मेरे जन्‍म कर्मों की कथा-कीर्तन करना , दूसरा साधन है मेरे गुणों की चर्चा करना यह तीसरा उपाय है और मेरे वाक्‍यों की व्‍याख्‍या करना उसका चौथा साधन है । हे भद्रे अपने गुरूदेव की निष्‍कपट होकर भगवद्‌ बुद्धि से सेवा करना पॉचवां चरित्र स्‍वभावि ,यम-नियमादिका पालन और मेरी पूजा में सदा प्रेम होना छठा तथा मेरे मंत्र की सांगोपांग उपासना करना सातवाँ साधन कहा जाता है । मेरे भक्तों की मुझसे भी अधिक पूजा करना ,समस्‍त प्राणियों में मेरी भावना करना, बाह्‌य पदार्थों में वैराग्‍य करना और शम-दमादि सम्‍पन्‍न होना , यह मेरी भक्ति का आठवाँ साधन है एवं तत्‍वविचार करना नौंवा है । हे भागिनि । इस तरह यह नौ प्रकार की भक्ति हैं ।

अतः यह सर्वमान्‍य एवं निस्‍सन्‍देह कहा जा सकता है कि भक्ति से मोक्ष प्राप्‍त होता है भक्ति इन नौ साधनों में से पहला ऐसा है कि इसमें जिसमें सभी भक्ति अपने आप आ जाती है , यह सत्‍संग ही है ।

यदि हम चिन्‍तन मनन करके इन नवधा भक्ति के रहस्‍य को समझने का प्रयत्‍न करें तो श्रीरामकथा में नौ पात्रों ने इसका जीवन में अनुकरण कर प्रभु की कृपा प्राप्‍त की है । श्रवण भक्ति में श्रीहनुमान्‌जी की भक्ति से श्रेष्‍ठतर उदाहरण अन्‍य कोई नहीं है - यथा
यत्र यत्र रघुनाथकीर्तनं तत्र तत्र कृतमस्‍तकान्‍जलिम्‌ ।
वाष्‍पवारिपूर्णलोचनं मारूतिं नमत राक्षासान्‍तकम्‌ ॥

श्‍लोक का भावार्थ यह है कि जहाँ जहाँ श्रीरघुनाथजी का कीर्तन होता है वहाँ वहाँ विनयपूर्वक हाथ जोड़े हुए तथा प्रेमाश्रुओं से परिपूर्ण नेत्र वाले श्रीहनुमान्‌जी सदैव उपस्‍थित रहते हैं राक्षसों का अंत करने वाले ऐसे उन श्रीहनुमान्‌जी की वन्‍दना करना चाहिये ।

कीर्तन रूपा भक्ति का दर्शन महर्षि वाल्‍मीकि में स्‍पष्‍ट दिखाई देता है वे उल्‍टाराम का नाम जप कर महर्षि बन गये । महर्षि वाल्‍मीकि के बारे में कहा गया है कि वे रामचरितामृतका पान गायन गान करते हुए कभी भी तृप्‍त नहीं हुए । उन्‍होंने संगीतमय रामकथा लव-कुश को देकर अयोध्‍या नगरी में भेजा था ।
उनकी उस संगीतमय रामकथा से श्रीराम भी भावविभोर हो गये थे।
स्‍मरण भक्ति श्रीसीताजी में कूट-कूट कर भरी थी । रावण द्वारा अपहरण कर लंका में जब वे वहाँ रही । चौबीस घन्‍टों श्रीराम का स्‍मरण करती रही। यथा -
नाम पाहरू दिवस निसि ध्‍यान तुम्‍हार कपाट ।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥

पादसेवन भक्ति का उदाहरण श्री भरतजी की श्रीराम मे अनन्‍य भक्ति का श्रेष्‍ठतम उदाहरण है । श्री भरतजी ने 14 वर्षो तक नन्‍दीग्राम में रहकर तथा श्रीराम की चरण पादुकाओं का उनके सिंहासन पर अभिषेक करके श्रीराम के प्रतिनिधि बनकर राज्‍य संचालन किया । श्रीराम का पाद सेवन भक्ति का अद्वितीय उदाहरण अन्‍य कहीं भी देखने को मिलता नहीं है ।

अर्चनाभक्ति में शबरी की गणना करना भी उसकी भक्ति का अनुपम उदाहरण है ,श्रीराम की प्रतीक्षा एवं दर्शनलाभ के लिये उसने महर्षियों के आश्रम को अपना जीवन सेवा करने हेतु समर्पित कर दिया ।

वन्‍दना भक्ति विभीषण में थी वह एक राक्षस का भाई होने के उपरान्‍त राक्षसीवृत्ति से दूर रहा तथा लंकापति रावण को श्रीसीताजी सौंपने तथा राक्षसों के कृत्‍यों से दूर रहने का कहता रहा श्रीराम के चरणों में शरण उपरांत श्रीराम ने समुद्र के किनारे ही उसे तिलक कर लंकेश बना दिया था ।

दास्‍यभक्ति के दर्शन लक्ष्‍मणजी की भक्ति में है । वे बचपन से श्रीराम की छाया बनकर साथ रहे श्रीराम को 14 वर्षो का बनवास हुआ था, किन्‍तु लक्ष्‍मणजी उनके साथ तुरन्‍त चल दिए । वे एक क्षणमात्र भी अयोध्‍या न रहे । श्रीराम एवं सीताजी की सेवा कर उन्‍होंने दास्‍य भक्ति में अद्वितीय स्‍थान प्राप्‍त किया है ।

सेवहिं लखनु करम मम बानी। जाइ न सीलू सनेह बखानी ॥
लक्ष्‍मणजी मन वचन कर्म से श्रीरामचन्‍द्रजी की सेवा करते है उनके शाील और स्‍नेह का वर्णन नहीं किया जा सकता ।

कृपासिंधु प्रभु होंहीं दुखारी। धीरज धरहीं कुसमय विचारी॥
लखि सिय लखनु बिकल होइ जाही। जिमि पुरूषहिं अनुसर परिछाहीं॥

कृपा के समुद्र प्रभु श्रीरामजी दुःखी हो जाते हैं ,किन्‍तु फिर कुसमय समझकर धीरज कर लेते है । श्रीरामचन्‍द्रजी को दुःखी देखकर सीताजी और लक्ष्‍मणजी भी व्‍याकुल हो जाते है, जैसे किसी मनुष्‍य की परछाई उस मनुष्‍य के समान ही चेष्‍टा करती है ।

सखा या मित्रता की भक्ति का साक्षात्‍कार हम श्रीराम एवं सुग्रीव की अग्‍नि प्रज्‍वलित कर प्रदक्षिणा के समक्ष मित्रता की शपथ में देखते है । सुग्रीव ने भी श्रीराम के कार्य में पूरी-पूरी सहायता दी है । इन दोनों की मित्रता हनुमान्‌ जी ने अग्‍नि को साक्षी मानकर करवाई थी ।

अंत में इन नवधा भक्ति को समझने के बाद हमें इस कलयुग में सबसे सरल सुगम भक्ति श्रवण अर्थात श्रीराम की कथा एवं सत्‍संग में दिखाई देती है । यदि हम अपनी यथा शक्ति अन्‍य सात भक्ति में से चुनकर करें तो मानव जीवन सफल हो सकता है । यही बात तुलसीदासजी ने कहीं है -
बड़े भाग मानषु तन पावा । सुर दुर्लभ सब ग्रन्‍थन गावा ॥
[2/17, 22:02] पं दीना जी: गुरु पूर्णिमा के दिन हम गुरु-शिष्य परंपरा का सम्मान करते हैं। महान स्वप्नदद्रष्टाओं की पीढ़ियों ने वेदांत-आत्म-प्रबंधन के विज्ञान-को जीवित रखा था। गुरु शब्द का अर्थ है ‘अधंकार को दूर करने वाला’ । गुरु अज्ञान को दूर करके हमें ज्ञान का प्रकाश देता है। वह ज्ञान जो हमें बतलाता है कि हम कौन हैं; विश्व से कैसे जुड़ें और कैसे सच्ची सफलता प्राप्त करें। सबसे अधिक महत्वपूर्ण कि कैसे विश्व से ऊपर उठ कर अनश्वर परमानंद के धाम पहुंचे। आज के दिन हम फिर से अपने को मानव संपूर्णता के प्रति अपने आप को समर्पित करते हैं।

 

वेदांत का अध्ययन करें,उसे अंगीकार करें और उसी के अनुसार जीयें ताकि हम उसे भविष्य की पीढ़ियों को हस्तातंरित कर सके। वेदांत हमे बाहर से राजसी बनाता है ओर भीतर से ऋषि। बिना ऋषि बने भौतिक सफलता भी हमारे हाथ नहीं लगती है। शिक्षक का ज्ञान और छात्र की ऊर्जा का एक सम्मिलन एक जीवंत प्रगतिशील समाज के निर्वाण की ओर ले जाता है।

 
[2/17, 22:14] ‪+91 90241 11290‬: दशरथादि पुत्र का,वसिष्ठ जी ने शिष्यत्व का,रावण ने तो शत्रुता भी इतनी श्रद्धा से की,कि उस परब्रह्म परमैश्वर नारायण को भी नर रूप में आना पडा,हमारी स्थिति नहीं अवधपुर की जनता के समान हैं और नहीं रावण जैसी,हमारी गति क्या होगी यह एक अवधातव्य विषय हैं|
[2/17, 23:24] ‪+91 98239 16297‬: *सूर्यसिद्धांतीय देशपांडे दैनिक पंचांग-- १८ फेब्रुवारी २०१७*

***!!श्री मयूरेश्वर प्रसन्न!!***
☀धर्मशास्त्रसंमत प्राचीन शास्त्रशुद्ध सूर्यसिद्धांतीय देशपांडे पंचांग (पुणे) नुसार
दिनांक १८ फेब्रुवारी २०१७
पृथ्वीवर अग्निवास ११:११ नंतर.
गुरु मुखात आहुती आहे.
शिववास ११:११ पर्यंत स्मशानात नंतर गौरीसन्निध,काम्य शिवोपासनेसाठी ११:११ पर्यंत अशुभ नंतर शुभ दिवस आहे.
☀ *सूर्योदय* -०७:०५
☀ *सूर्यास्त* -१८:३२
*शालिवाहन शके* -१९३८
*संवत्सर* -दुर्मुख
*अयन* -उत्तरायण
*ऋतु* -शिशिर (सौर)
*मास* -माघ
*पक्ष* -कृष्ण
*तिथी* -सप्तमी (११:११ पर्यंत)
*वार* -शनिवार 
*नक्षत्र* -विशाखा
*योग* -ध्रुव
*करण* -बव (११:११ नंतर बालव)
*चंद्र रास* -तुळ (१२:०५ नंतर वृश्चिक)
*सूर्य रास* -कुंभ
*गुरु रास* -तुळ
*राहु काळ* -०९:०० ते १०:३०
*पंचांगकर्ते*:सिद्धांती ज्योतिषरत्न गणकप्रवर
*पं.गौरवशास्त्री देशपांडे-०९८२३९१६२९७*
*विशेष*-अष्टमी-अष्टका श्राद्ध,कालाष्टमी,त्रिपुष्करयोग ११:११ पर्यंत,श्री गजानन महा.प्रकट दिन (शेगांव),या दिवशी पाण्यात काळेतीळ घालून स्नान करावे.शनि वज्रपंजर कवच व शिवकवच या स्तोत्रांचे पठण करावे."शं शनैश्चराय नमः" या शनि मंत्राचा किमान १०८ जप करावा.सत्पात्री व्यक्तीस तिळाचे तेल दान करावे.शनिदेवांना उडीद वड्याचा नैवेद्य दाखवावा.यात्रेसाठी घरातून बाहेर पडताना उडीद प्राशन करुन बाहेर पडल्यास प्रवासात ग्रहांची अनुकूलता प्राप्त होईल.
*विशेष टीप* - *आगामी नूतन संवत्सरारंभी येणारा गुढीपाडवा सूर्यसिद्धांतीय पंचांगानुसार म्हणजेच मुख्यतः धर्मशास्त्रानुसार या वेळी मंगळवार दि.२८ मार्च २०१७ रोजी नसून फक्त बुधवार दि.२९ मार्च २०१७ रोजीच आहे.कारण दि.२८ मार्च रोजी सूर्योदयास अमावस्या तिथी आहे व दि.२९ मार्च रोजीच फक्त सूर्योदयास प्रतिपदा तिथी आहे.याची विशेष नोंद हिंदूंनी घ्यावी व सर्वांनी गुढी-ब्रम्हध्वज पूजन हे फक्त चैत्र शु.प्रतिपदेला बुधवार दि.२९ मार्च २०१७ रोजीच करावे.*
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*टीप*-->>सर्व कामांसाठी चांगला दिवस आहे.
**या दिवशी नारळ/खोबरे खावू नये.
**या दिवशी निळे वस्त्र परिधान करावे.
*आगामी नूतन संवत्सराचे सर्वांना उपयुक्त फायदेशीर असे धर्मशास्त्रसंमत सूर्यसिद्धांतीय देशपांडे पंचांग सर्वत्र उपलब्ध आहे.*
♦ *लाभदायक वेळा*-->>
लाभ मुहूर्त--  दुपारी २.१५ ते दुपारी ३.४५
अमृत मुहूर्त-- दुपारी ३.४५ ते सायंकाळी ५.१५
|| *यशस्वी जीवनाचे प्रमुख अंग* ||
|| *सूर्यसिध्दांतीय देशपांडे पंचांग* ||
आपला दिवस सुखाचा जावो,मन प्रसन्न राहो.
(कृपया वरील पंचांग हे पंचांगकर्त्यांच्या नावासहच व अजिबात नाव न बदलता शेअर करावे.या लहानश्या कृतीने तात्त्विक आनंद व नैतिक समाधान मिळते.@copyright)
[2/18, 05:48] राम भवनमणि त्रिपाठी: प्रदोषस्तोत्रम् ॥ श्री गणेशाय नमः । जय देव जगन्नाथ जय शङ्कर शाश्वत । जय सर्वसुराध्यक्ष जय सर्वसुरार्चित ॥ १॥ जय सर्वगुणातीत जय सर्ववरप्रद । जय नित्य निराधार जय विश्वम्भराव्यय ॥ २॥ जय विश्वैकवन्द्येश जय नागेन्द्रभूषण । जय गौरीपते शम्भो जय चन्द्रार्धशेखर ॥ ३॥ जय कोट्यर्कसङ्काश जयानन्तगुणाश्रय । जय भद्र विरूपाक्ष जयाचिन्त्य निरञ्जन ॥ ४॥ जय नाथ कृपासिन्धो जय भक्तार्तिभञ्जन । जय दुस्तरसंसारसागरोत्तारण प्रभो ॥ ५॥ प्रसीद मे महादेव संसारार्तस्य खिद्यतः । सर्वपापक्षयं कृत्वा रक्ष मां परमेश्वर ॥ ६॥ महादारिद्र्यमग्नस्य महापापहतस्य च । महाशोकनिविष्टस्य महारोगातुरस्य च ॥ ७॥ ऋणभारपरीतस्य दह्यमानस्य कर्मभिः । ग्रहैः प्रपीड्यमानस्य प्रसीद मम शङ्कर ॥ ८॥ दरिद्रः प्रार्थयेद्देवं प्रदोषे गिरिजापतिम् । अर्थाढ्यो वाऽथ राजा वा प्रार्थयेद्देवमीश्वरम् ॥ ९॥ दीर्घमायुः सदारोग्यं कोशवृद्धिर्बलोन्नतिः । ममास्तु नित्यमानन्दः प्रसादात्तव शङ्कर ॥ १०॥ शत्रवः संक्षयं यान्तु प्रसीदन्तु मम प्रजाः । नश्यन्तु दस्यवो राष्ट्रे जनाः सन्तु निरापदः ॥ ११॥ दुर्भिक्षमरिसन्तापाः शमं यान्तु महीतले । सर्वसस्यसमृद्धिश्च भूयात्सुखमया दिशः ॥ १२॥ एवमाराधयेद्देवं पूजान्ते गिरिजापतिम् । ब्राह्मणान्भोजयेत् पश्चाद्दक्षिणाभिश्च पूजयेत् ॥ १३॥ सर्वपापक्षयकरी सर्वरोगनिवारणी । शिवपूजा मयाऽऽख्याता सर्वाभीष्टफलप्रदा ॥ १४॥ ॥ इति प्रदोषस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
[2/18, 06:40] ‪+91 94153 60939‬: अहो कृतार्थाऽस्मि जगन्निवास तेपदाब्जसंलग्नरजःकणादहं।
स्पृशामि यत्पद्मजशङ्करादिभिः
र्विमृश्यते रन्धितमानसैः सदा ॥

अहो विचित्रं तव राम
चेष्टितम्मनुष्यभावेन विमोहितं
जगत्।
चलस्यजस्रं चरणादि वर्जितःसंपूर्ण
आनन्दमयोऽतिमायिकः॥

            –जय श्रीमन्नारायण।
[2/18, 07:04] ‪+91 99773 99419‬: *🔔मूल श्लोकः 🔔*
नहि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्,
यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं-
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्।।२.८.।।
*🏹पदच्छेदः........*
नहि, प्रपश्यामि, मम, अपनुद्यात्, यत्, शोकम्, उच्छोषणम्, इन्द्रियाणाम्।
अवाप्य, भूमौ, असपत्नम्, ऋद्धम्, राज्यम्, सुराणाम्, अपि, च, आधिपत्यम्।।
*🌹पदपरिचयः......🌹*
नहि—अव्ययम्
प्रपश्यामि —प्र +दृशिर् -पर. कर्तरि लट्. उपु. एक.
मम —अस्मद्-द. सर्व. ष. एक.
अपनुद्यात् —अप् +नुद् -पर. वि.लिङ्.प्रपु.एक.
यत् —यद्-द. सर्व. नपुं. प्र. एक.
शोकम् —अ. पुं. द्वि. एक.
उच्छोषणम् —अ. पुं. द्वि. एक.
इन्द्रियाणाम्—अ. नपुं. ष. बहु.
अवाप्य —ल्यबन्तम् अव्ययम्
भूमौ —इ. स्त्री. स. एक.
असपत्नम् —अ. नपुं. द्वि. एक.
ऋद्धम् —अ. नपुं. द्वि. एक.
राज्यम् —अ. नपुं. द्वि. एक.
सुराणाम् —अ. पुं. ष. बहु.
अपि —अव्ययम्
च —अव्ययम्
आधिपत्यम् —अ. नपुं. द्वि. एक.
*🌷पदार्थः...... 🌷*
भूमौ —महीतले
असपत्नम् —प्रतिस्पर्धाविरहितम्
ऋद्धम् —धनधान्यादिभिः समृद्धम्
राज्यं च —राज्यं च
सुराणाम् —देवानाम्
आधिपत्यम् —स्वामित्वम्
अवाप्य अपि —प्राप्य अपि
मम —मम
इन्द्रियाणाम्—इन्द्रियाणाम्
उच्छोषणम् —शोषकम्
शोकम् —दुःखम्
यत् अपनुद्यात् —यत् दूरीकुर्यात् (तत्) 
नहि प्रपश्यामि —विशेषतः न पश्यामि
*🌻अन्वयः 🌻*
भूमौ असपत्नम् ऋद्धं महत् राज्यं सुराणाम् आधिपत्यं च अवाप्य अपि (स्थितस्य) मम यत् इन्द्रियाणाम् उच्छोषणं शोकम् अपनुद्यात् (तत्कर्म) नहि प्रपश्यामि।
*🐚आकाङ्क्षाः🐚*
_नहि प्रपश्यामि।_
किं नहि प्रपश्यामि?
*(तत् कर्म) नहि प्रपश्यामि।*
कीदृशं (तत् कर्म) नहि प्रपश्यामि?
*यद् अपनुद्यात् (तत् कर्म) नहि प्रपश्यामि।*
तत् किम् अपनुद्यात् यत् कर्म नहि प्रपश्यामि?
*यत् शोकम् अपनुद्यात् तत् कर्म नहि प्रपश्यामि।*
तत् कीदृशं शोकम् अपनुद्यात् यत् कर्म नहि प्रपश्यामि?
*यत् उच्छोषणं शोकम् अपनुद्यात् तत् कर्म नहि प्रपश्यामि।*
तत् केषाम् उच्छोषणं शोकम् अपनुद्यात् यत् कर्म नहि प्रपश्यामि?
*यत् इन्द्रियाणाम् उच्छोषणं शोकम् अपनुद्यात् तत् कर्म नहि प्रपश्यामि।*
किं कृत्वापि स्थितस्य तत् इन्द्रियाणाम् उच्छोषणं शोकम् अपनुद्यात् यत् कर्म नहि प्रपश्यामि?
*अवाप्यापि स्थितस्य यत् इन्द्रियाणाम् उच्छोषणं शोकम् अपनुद्यात् तत् कर्म नहि प्रपश्यामि।*
अवाप्यापि स्थितस्य कस्य यत् इन्द्रियाणाम् उच्छोषणं शोकम् अपनुद्यात् तत् कर्म नहि प्रपश्यामि?
*अवाप्यापि स्थितस्य मम यत् इन्द्रियाणाम् उच्छोषणं शोकम् अपनुद्यात् तत् कर्म नहि प्रपश्यामि।*
किं किम् अवाप्यापि स्थितस्य मम तत् इन्द्रियाणाम् उच्छोषणं शोकम् अपनुद्यात् तत् कर्म नहि प्रपश्यामि?
*राज्यस्य आधिपत्यं च अवाप्यापि स्थितस्य मम यत् इन्द्रियाणाम् उच्छोषणं शोकम् अपनुद्यात् तत् कर्म नहि प्रपश्यामि।*
कीदृशं राज्यम्, केषाम् आधिपत्यं च अवाप्यापि स्थितस्य मम तत् इन्द्रियाणाम् उच्छोषणं शोकम् अपनुद्यात् यत् कर्म नहि प्रपश्यामि?
*असपत्नं राज्यम्, सुराणाम् आधिपत्यं च अवाप्यापि स्थितस्य मम यत् इन्द्रियाणाम् उच्छोषणं शोकम् अपनुद्यात् तत् कर्म नहि प्रपश्यामि।*
पुनश्च कीदृशम् असपत्नं राज्यम्, सुराणाम् आधिपत्यं च अवाप्यापि स्थितस्य मम तत् इन्द्रियाणाम् उच्छोषणं शोकम् अपनुद्यात् यत् कर्म नहि प्रपश्यामि?
*ऋद्धम् असपत्नं राज्यम्, सुराणाम् आधिपत्यं च अवाप्यापि स्थितस्य मम यत् इन्द्रियाणाम् उच्छोषणं शोकम् अपनुद्यात् तत् कर्म नहि प्रपश्यामि।*
कुत्र ऋद्धम् असपत्नं राज्यम्, सुराणाम् आधिपत्यं च अवाप्यापि स्थितस्य मम तत् इन्द्रियाणाम् उच्छोषणं शोकम् अपनुद्यात् यत् कर्म नहि प्रपश्यामि?
*भूमौ ऋद्धम् असपत्नं राज्यम्, सुराणाम् आधिपत्यं च अवाप्यापि स्थितस्य मम यत् इन्द्रियाणाम् उच्छोषणं शोकम् अपनुद्यात् तत् कर्म नहि प्रपश्यामि।*
*📢 तात्पर्यम्......*
मया भूमौ अस्यां निष्कण्टकं समृद्धं राज्यं प्राप्येत, देवानां च आधिपत्यं लभ्येत, तथापि इन्द्रियाणां विशोषकः अयं शोकः गुरुबान्धवादीनां हननेच्छया समुत्पन्नः येन दूरीभवति तादृशं किमपि कर्म न पश्यामि।
*🌻व्याकरणम्.......*
▶सन्धिः
ममापनुद्याद् =मम +अपनुद्यात् -सवर्णदीर्घसन्धिः।
यच्छोकम् =यत् +शोकम् -श्चुत्वसन्धिः,छत्वसन्धिः।
भूमावसपत्नम् =भूमौ +असपत्नम् -यान्तवान्तादेशसन्धिः।
चाधिपत्यम्= च + आधिपत्यम् - सवर्णदीर्घसन्धिः।
▶ समासः
असपत्नम् =न विद्यते सपत्नः यस्य तत् -नञ् बहुव्रीहिः।
▶ कृदन्तः
उच्छोषणम् =उत् +शुष् +ल्यु (कर्तरि)।
अवाप्य = अव+आप्+ल्यप्।
▶ तद्धितान्तः
राज्यम् = राजन् +यत् (कर्मार्थे भावार्थे वा)। राज्ञः कर्म भावः वा इत्यर्थः।
आधिपत्यम् = अधिपति + यक् (भावे) अधिपतित्वम् इत्यर्थः।
🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹
                             *गीताप्रवेशात्*
[2/18, 07:07] ‪+91 94153 60939‬: सुरसुरचितचितनवनवभव-भवनानादरादरायेथे ।
लयलयचरणौ चरणौ न न मामि नतेन नमामि न ते ॥

          –जय श्रीमन्नारायण।
[2/18, 07:14] व्यास u p: एक दृष्टान्त-  सत्य की महिमा
**********************
एक दिन राजा सत्यदेव अपने महल के दरवाजे पर बैठे थे तभी एक स्त्री उनके घर से,उनके सामने से गुजरी । राजा ने पूछा, "देवी!आप कौन हैऔर इस समय कहाँ जा रही हैं?” उसने उत्तर दिया, "मैं लक्ष्मी हूँ और यहाँ से जा रही हूँ।" राजा ने कहा , "ठीक है,शौक से जाइए ।

कुछ देर बाद एक अन्य नारी उसी रास्ते से जाती दिखाई दीं । राजा ने उससे भी पूछा, "देवी! आप कौन है?" उसने उत्तर दिया , "मैं कीर्ति हूँ और यहाँ से जा रही हूँ ।" राजा ने गहरी सांस छोड़ते हुए कहा, "जैसी आपकी इच्छा ।

थोड़ी देर के बाद एक पुरुष भी उनके सामने से होकर जाने लगा । राजा ने , उससे भी प्रश्न पूछा,"आप कौन हैं?” पुरुष ने उत्तर दिया,"मैं सत्य हूँ। मैं भी अब यहाँ से जा रहा हूँ।" राजा ने तुरन्त ही उसके पैर पकड़ लिए और प्रार्थना करने लगा कि "कृपया आप तो न जाएं?" राजा सत्यदेव के बहुत प्रार्थना करने पर सत्य मान गया और न जाने का आश्वासन दिया।

कुछ देर के बाद राजा सत्यदेव ने देखा कि लक्ष्मी एवं कीर्ति दोनों ही वापस लौट रही हैं । राजा सत्यदेव ने पूछा,  "आप कैसे लौटआईं?” दोनों देवियों ने कहा, "हम उस स्थाल से दूर नहीं जा सकतीं , जहाँ पर सत्य रहता है।"✍🍀💕
🌺🌺🙏🙏🙏🙏🙏🌺🌺
[2/18, 07:29] ‪+91 98288 74601‬: मित्रो आज शनिवार है।
शनि महाराज को समर्पित ये प्रस्तुति।
,
शनि देव
शनि देव को हिन्दू धर्म में न्याय का देवता माना जाता है। कई लोग इन्हें कठोर मानते हैं क्योंकि इनके प्रकोप से बड़े से बड़ा धनवान भी दरिद्र बन जाता है। परंतु ऐसा सही नहीं है। दरअसल शनि देव न्याय के अधिकारी है और उनका न्याय निष्पक्ष होता है। निष्पक्ष न्याय में दंड भी मिलता है।

शनि देव का जन्म
शनि देव के जीवन से जुड़ी कई प्रमुख बातें हैं जिनमें उनका बचपन सबसे प्रमुख है। हिन्दू मान्यतानुसार शनि देव का जन्म सूर्यदेव की दूसरी पत्नी छाया के गर्भ से हुआ था। जिस समय शनि देव गर्भ में थे माता छाया शिवजी की पूजा में लीन थीं। उन्हें अपने खाने-पीने की भी सुध नहीं होती थी। इस कारण शनि देव का वर्ण श्याम यानि काला हो गया।

शनि देव का रंग देख सूर्यदेव क्रोधित हो उठे और अपनी पत्नी छाया पर आरोप लगाया कि शनि देव उनके पुत्र नहीं हैं। तभी से शनि देव का अपने पिता से बैर हो गया। इसके बाद सूर्य की तरह शक्तियां और स्थान पाने के लिए शनि देव ने शिवजी की आराधना की और नवग्रहों में स्थान पाया।

शनि देव के मंत्र
माना जाता है कि "ॐ शं शनैश्चराय नमः" मंत्र का जाप करने से व्यक्ति को शनि की महादशा और साड़ेसाती प्रकोप से राहत मिलती है।

शनि देव के नाम
कोणस्थ
पिंगल
बभ्रु
रौद्रान्तक
यम
सौरि
शनैश्चर
मंद
पिप्पलाश्रय

शनि देव का परिवार
हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार शनि देव सूर्य के पुत्र हैं तथा इनकी माता का नाम छाया है। माना जाता है कि जन्म से ही काला रंग होने के कारण इनके पिता ने इन्हें नहीं अपनाया था। इसलिए शनि देव अपने पिता को अपना शत्रु मानते हैं।

शनि देव से जुड़ी महत्त्वपूर्ण बातें

शनि देव को न्याय का देवता माना जाता है।

शनि देव का वाहन गिद्ध, कुत्ता, भैंस आदि हैं।

शनिवार को तेल, काले तिल, काले कपड़े आदि दान करने से शनि देव प्रसन्न रहते हैं।

मान्यता है कि शनि देव की अपने पिता सूर्यदेव से अच्छे रिश्ते नहीं हैं।

एक कथानुसार हनुमान जी ने शनि देव को रावण की कैद से मुक्त कराया था। तभी से हनुमान जी की आराधना करने वाले जातकों को शनि देव नहीं सताते।

शनि देव की गति मंद यानि बेहद धीमी है। इसी कारण एक राशि में वह करीब साढ़ेसात साल तक रहते हैं।

शनिदेव को प्रसन्न करने उपाय
शनिवार का दिन शनि देव को समर्पित होता है। इस दिन तेल चढ़ाने, पीपल पर जल देने, कुत्ते को भोजन कराने आदि से शनि देव प्रसन्न होते हैं। इसके अलावा इस दिन काले रंग की वस्तु दान करने से भी शनि देव प्रसन्न होते हैं।

शनि देव के मुख्य मंदिर
शनि शिंगणापुर
शनिश्चरा मंदिर( ग्वालियर)
शनि मंदिर (इंदौर)
प्राचीन शनि मंदिर (मुरैना)

शनि जयंती
शनि जयंती का पावन पर्व हिन्दू धर्म का विशेष पर्व माना जाता है। इस दिन को शनि देव के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है। शनि जयंती का पर्व उन लोगों के लिए बहुत महत्त्व रखता है जो लोग शनि के प्रकोप से पीड़ित होते हैं। मान्यता है कि इस दिन पूरे श्रद्धाभाव से शनि देव की पूजा करके दान करने से शनि देव प्रसन्न हो जाते हैं।
[2/18, 07:52] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

पादुकासहस्रम्
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श्रीरामचन्द्रस्य दिव्ययोः पादुकयोः महिमानं श्रीमन्तो निगमान्त देशिकाः श्लोक सहस्रेण वर्णयां बभूवुः । यदि अद्य ते महात्मानः भरतवर्षेऽभविष्यन्‌, तर्हि पादुकालक्षाख्यमेव काव्यं अरचयिष्यन्निति प्रतिभाति ।
पादुकानां वैविध्यस्य, उपयोगस्य च विषये कि यद्वा कथ्यतां, तन्नालम्‌ ।
केवलं गमनानेहसि पादयोः रक्षा पादुकाप्रयोजनमिति कालोऽवसितः ।

अद्य पुनः राष्ट्रस्य महतीषु शासनसभासु अनेक सहस्रसंख्यानां प्रजानां प्रतिनिधयः राष्ट्रोद्धारकर्मबद्धदीक्षा विचक्षणमन्याः वादेन साधयितुमसाध्यं सर्वं पादुकाप्रक्षेपसामर्थ्थेन सिषाधयिषन्ति ।

पूर्वं रामायणकाले चतुर्दशवर्षपर्यन्तं पादुके सर्वे देशं पारलयामासतुः । पुनरपि पालनसभासु शासनसभासु च पादुकाराज्यमेव प्रवर्तेत इति मानसं सन्दिग्धे । कस्य पुनरागमनेन राज्यमिदं निवर्तेत ?

(पादुका सहस्रम् वेदान्तदेशिक स्वामी जी की संस्कृत चित्रकाव्य रचना है। इसमें १००८ श्लोकों में भगवान श्रीराम की चरण-पादुका (खड़ाऊँ) की वन्दना-आराधना की गयी है। यह पुस्तक उन कुछ पुस्तकों में से एक है जिसे श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के लोग प्रतिदिन पाठ करते हैं। ऐसा कहा जाता है वेदान्त देशिक स्वामी जी ने कि इस पुस्तक की रचना मात्र एक रात में कर दी थी। यह रचना श्रीरंगम स्थित भगवान रंगनाथ के प्रति देशिक स्वामी जी  की अगाध भक्तिभावना की भी परिचायक है।)

              –रमेशप्रसाद शुक्ल

              –जय श्रीमन्नारायण।
[2/18, 08:17] पं ज्ञानेश: ( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन ) ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्‌।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥
जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात स्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किए जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ता द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है- उस ब्रह्मकर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किए जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही हैं
॥24॥
~ अध्याय 4 - श्लोक : 24

💐💐💐सुप्रभातम्💐💐💐
[2/18, 08:34] पं अर्चना जी: शब्द रम्य है , चिर प्रणम्य है
साहस है तो सिन्धु गम्य है

अगम नहीं वन, मन अगम्य है
ज्ञान नहीं है, आचार नम्य है

शैल झुकेंगे, मन अदम्य है
तम में प्रकाशित दीप प्रणम्य है

आवेशित जो हो वो ताप शम्य है
घुमक्कड़ वृत्ति सदा ही रम्य है

📝🎺🎇🌎🌞
[2/18, 09:01] अरविन्द गुरू जी: हरि ॐ तत्सत्!  सुप्रभातम्।  सर्वेभ्यो भक्तेभ्यो नमो नमः।

विवेक-विचार

जीव, माया और  जगत् इन तीनों के मध्य में  अनित्य, अछेद्य, अभेद्य, अनुभवगम्य एवं अनिर्वचनीय जो तत्व है वह "ब्रह्म" है।

उक्त तत्वों का अनुभूति के आधार पर यथार्थ बोध हो जाना ही " दर्शन" है।

सभी सम्प्रदायों की दार्शनिक पृष्ठभूमि उक्त के आधार पर ही प्रतिष्ठित है।

॥ सत्यसनातधर्मो  विजयतेतराम् ॥
[2/18, 09:08] राम भवनमणि त्रिपाठी: *|| ॐ ||*
दिन का आरम्भ करें सृष्टि के _*आदि अविनाशी-योग*_ के कुरुक्षेत्र में पुनर्प्रसारित अंक एवं सनातन के मूल धर्मशास्त्र *'श्रीमद्भगवद्गीता'* की यथावत व्याख्या *'यथार्थ गीता'* से- [ साभार प्रस्तुत ]
                 _*अष्टादश अध्याय*_
यह गीता का अन्तिम अध्याय है, जिसके पुर्वार्ध मे योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा प्रस्तुत अनेक प्रश्नों का समाधान तथा उत्तरार्ध गीता का उपसंहार है गीता से लाभ क्या है? सत्रहवें अध्याय में आहार, तप, यज्ञ, दान तथा श्रद्धा का विभागसहित स्वरूप बताया गया, *उसी संदर्भ में त्याग के प्रकार शेष हैं।* मनुष्य जो कुछ करता है उसमें कारण कौन है? कौन कराता है? भगवान कराते हैं या प्रकृति? यह प्रश्न पहले से आरम्भ था, *जिस पर पुन: प्रकाश डाला गया है। इसी प्रकार वर्ण-व्यवस्था की चर्चा हो चुकी थी। सृष्टि में उसके स्वरूप का विश्लेषण इस अध्याय में प्रस्तुत है।* अन्त में गीता से मिलनेवाली विभूतियों पर प्रकाश डाला गया है।

गत अध्याय में अनेक प्रकरणों का विभाजन सुनकर अर्जुन ने स्वयं एक प्रश्न रखा कि, *त्याग और संन्यास को विभागसहित बतायें-*
                 _*अर्जुन ऊवाच-*_
*संन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।*
*त्यागस्य  च   हृषिकेश  पृथक्केशिनिषूदन॥*
(१८/१)
अर्जुन बोला हे महाबाहो! हे हृदय के सर्वस्व! हे केशिनिषूदन! मै संन्यास और त्याग के स्वरूप को पृथक-पृथक जानना चाहता हूँ।

पुर्ण त्याग संन्यास है, जहाँ संकल्प और संस्कारों का भी समापन है और इस से पहले साधना की पूर्ती के लिए उत्तरोत्तर आसक्ति का त्याग ही त्याग है। यहाँ दो प्रश्न हैं _*संन्यास के तत्त्व को जानना चाहता हूँ और दूसरा है कि त्याग के तत्त्व को जानना चाहता हूँ।*_ इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा-
                 _*श्रीभगवानुवाच*_
*काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्न्यासं कवयो विदु:।*
*सर्वकर्मफलत्यागं  प्राहुस्त्यागं   विचक्षणा:॥*
(१८/२)
अर्जुन ! कितने ही पण्डितजन काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास कहते हैं और कितने ही विचार-कुशल पुरुष सम्पुर्ण कर्म-फलों के त्याग को त्याग कहते हैं।

*त्यज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिण:।*
*यज्ञदानतप:कर्म  न  त्याज्यमिति चापरे ॥*
(१८/३)
कई एक विद्वान ऐसा कहते हैं कि सभी कर्म दोषयुक्त हैं, अत: त्याग देने योग्य हैं और दूसरे विद्वान ऐसा कहते हैं कि- यज्ञ, दान और तप त्यागने योग्य नहीं हैं। इस प्रकार अनेक मत प्रस्तुत करके योगेश्वर अपना भी निश्चित मत देते हैं-

*निश्चयं  श्रृणु  मे  तत्र  त्यागे  भरतसत्तम।*
*त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविध: सप्रकीर्तित:॥*
(१८/४)
हे अर्जुन! उस त्याग के विषय में तू मेरे निश्चय को सुन। हे पुरुषश्रेषठ ! वह त्याग तीन प्रकार का कहा गया है।    *क्रमश: -*

🍁  *हरि: ॐ तत्सत्*  🍁
>~~~~~~~~~~~~~~~~~<
भगवन्! त्रुटियों हेतु सविनय क्षमा निवेदित।
➖➖➖➖➖➖➖➖➖
हम सनातन धर्मीयों के क्रमश: *संकुचित/धर्मान्तरित* होते जाने का मूल कारण जनसामान्य में आज के प्रचलित अन्य धर्मों की भाँति एक सर्वमान्य धर्मशास्त्र का अभाव रहा है। जबकि *'गीता'* हमारा ही नहीं सृष्टि का आदि शास्त्र है से अवगत होने के लिये अपनी स्वभाषा की यथा-अर्थ व्याख्या *'यथार्थ गीता'* की ३-४ आवृत्ति श्रद्धा पूर्वक करें और भगवान के सनातन-सन्देश से अवगत हों।
~ धर्मशास्त्र के रूप में प्रतिष्ठित कर स्व, समाज एवं राष्ट्र के सम्वर्धन में योगदान करें। http://yatharthgeeta.com पर *'यथार्थ गीता'* pdf वर्जन में नि:शुल्क उपलब्ध है। 🙏🕉🙏
[2/18, 09:20] ‪+91 98895 15124‬: श्री महाशिवरात्रि व्रत, 24 फरवरी - 2017

देवों के देव भगवान भोले नाथ के भक्तों के लिये श्री महाशिवरात्रि का व्रत विशेष महत्व रखता हैं। यह पर्व फाल्गुन कृ्ष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन मनाया जाता है। वर्ष 2017 में यह शुभ उपवास, 24 फरवरी - शुक्रवार के दिन का रहेगा। इस दिन का व्रत रखने से भगवान भोले नाथ शीघ्र प्रसन्न हों, उपवासक की मनोकामना पूरी करते हैं। इस व्रत को सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे, युवा, वृ्द्धों के द्वारा किया जा सकता हैं।

24 फरवरी - 2017 के दिन विधिपूर्वक व्रत रखने पर तथा शिवपूजन, शिव कथा, शिव स्तोत्रों का पाठ व "उँ नम: शिवाय" का पाठ करते हुए रात्रि जागरण करने से अश्वमेघ यज्ञ के समान फल प्राप्त होता हैं। व्रत के दूसरे दिन  यथाशक्ति वस्त्र-क्षीर सहित भोजन, दक्षिणादि प्रदान करके संतुष्ट किया जाता हैं।

*शिवरात्री व्रत की महिमा*

इस व्रत के विषय में यह मान्यता है कि इस व्रत को जो जन करता है, उसे सभी भोगों की प्राप्ति के बाद, मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह व्रत सभी पापों का क्षय करने वाला है, व इस व्रत को लगातार 14 वर्षो तक करने के बाद विधि-विधान के अनुसार इसका उद्धापन कर देना चाहिए.

*महाशिवरात्री व्रत का संकल्प*

व्रत का संकल्प सम्वत, नाम, मास, पक्ष, तिथि-नक्षत्र, अपने नाम व गोत्रादि का उच्चारण करते हुए करना चाहिए। महाशिवरात्री के व्रत का संकल्प करने के लिये हाथ में जल, चावल, पुष्प आदि सामग्री लेकर शिवलिंग पर छोड दी जाती है।

*महाशिवरात्री व्रत की सामग्री*

उपवास की पूजन सामग्री में जिन वस्तुओं को प्रयोग किया जाता हैं, उसमें पंचामृ्त (गंगाजल, दुध, दही, घी, शहद), सुगंधित फूल, शुद्ध वस्त्र, बिल्व पत्र, धूप, दीप, नैवेध, चंदन का लेप, ऋतुफल आदि।

*महाशिवरात्री व्रत की विधि*

महाशिवरात्री व्रत को रखने वालों को उपवास के पूरे दिन, भगवान भोले नाथ का ध्यान करना चाहिए। प्रात: स्नान करने के बाद भस्म का तिलक कर रुद्राक्ष की माला धारण की जाती है। इसके ईशान कोण दिशा की ओर मुख कर शिव का पूजन धूप, पुष्पादि व अन्य पूजन सामग्री से पूजन करना चाहिए।

इस व्रत में चारों पहर में पूजन किया जाता है। प्रत्येक पहर की पूजा में "उँ नम: शिवाय" व " शिवाय नम:" का जाप करते रहना चाहिए। अगर शिव मंदिर में यह जाप करना संभव न हों, तो घर की पूर्व दिशा में, किसी शान्त स्थान पर जाकर इस मंत्र का जाप किया जा सकता हैं। चारों पहर में किये जाने वाले इन मंत्र जापों से विशेष पुन्य प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त उपावस की अवधि में रुद्राभिषेक करने से भगवान शंकर अत्यन्त प्रसन्न होते है।

*शिव अभिषेक विधि*

महाशिव रात्रि के दिन शिव अभिषेक करने के लिये सबसे पहले एक मिट्टी का बर्तन लेकर उसमें पानी भरकर, पानी में बेलपत्र, आक धतूरे के पुष्प, चावल आदि डालकर शिवलिंग को अर्पित किये जाते है। व्रत के दिन शिवपुराण का पाठ सुनना चाहिए और मन में असात्विक विचारों को आने से रोकना चाहिए। शिवरात्रि के अगले दिन सवेरे जौ, तिल, खीर और बेलपत्र का हवन करके व्रत समाप्त किया जाता है।

*पूजन करने का विधि-विधान*

महाशिवरात्री के दिन शिवभक्त का जमावडा शिव मंदिरों में विशेष रुप से देखने को मिलता है। भगवान भोले नाथ अत्यधिक प्रसन्न होते है, जब उनका पूजन बेल- पत्र आदि चढाते हुए किया जाता है। व्रत करने और पूजन के साथ जब रात्रि जागरण भी किया जाये, तो यह व्रत और अधिक शुभ फल देता है। इस दिन भगवान शिव की शादी हुई थी, इसलिये रात्रि में शिव की बारात निकाली जाती है। सभी वर्गों के लोग इस व्रत को कर पुन्य प्राप्त कर सकते हैं।

*महाशिवरात्रि व्रत कथा*

एक बार. 'एक गाँव में एक शिकारी रहता था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधवश साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी। शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया।

अपनी दिनचर्या की भाँति वह जंगल में शिकार के लिए निकला, लेकिन दिनभर बंदीगृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल-वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढँका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।

पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियाँ तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए।

एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुँची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, 'मैं गर्भिणी हूँ. शीघ्र ही प्रसव करूँगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं अपने बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे सामने प्रस्तुत हो जाऊँगी, तब तुम मुझे मार लेना। ' शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी झाड़ियों में लुप्त हो गई।

शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था  उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर न लगाई, वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, 'हे पारधी! मैं इन बच्चों को पिता के हवाले करके लौट आऊँगी. इस समय मुझे मत मार।

शिकारी हँसा और बोला, 'सामने आए शिकार को छोड़ दूँ, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूँ. मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे।

उत्तर में मृगी ने फिर कहा, 'जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी, इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान माँग रही हूँ। हे पारधी! मेरा विश्वास कर मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूँ।

मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के आभाव में बेलवृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा।

शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला,' हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि उनके वियोग में मुझे एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े, मैं उन मृगियों का पति हूँ। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण जीवनदान देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे सामने उपस्थित हो जाऊँगा।

मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटना-चक्र घूम गया। उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, 'मेरी तीनों पत्नियाँ जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएँगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ।

उपवास, रात्रि जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ाने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गए। भगवान शिव की अनुकम्पा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।

थोड़ी ही देर बाद मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया।

देव लोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहा था। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प वर्षा की. तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए। #शिवमयसोमवार !!!!!!!
[2/18, 11:14] राम भवनमणि त्रिपाठी: रामभवन मणि त्रिपाठी
गोरखपुर

काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा॥२३॥

बुद्धिमान व्यक्ति काव्य, शास्त्र आदि का पठन करके अपना मनोविनोद करते हुए समय को व्यतीत करता है और मूर्ख सोकर या कलह करके समय बिताता है।
[2/18, 11:16] ‪+91 8076 170 336‬: कोई ऐसा शास्त्रीय विषय नहीं है जिसका समाधान शास्त्र में नहीं दिया हो। शास्त्रों में वर्णित सारे विषय स्पष्ट व सरल हैं , बस उनको समझने हेतु सत्वगुणयुक्त बुद्धि चाहिये ।तथा उनके अध्ययन - मनन की आवश्यकता भी चाहिये ।
आज की सबसे प्रधान समस्या धर्म के क्षेत्रों में हो रहा है , वो चाहे राजनीतिक दुर्व्यवस्था हो , चाहे शैक्षिक विकृति हो , सामाजिक दुराचार हो , पारिवारिक मतभेद हो या जितने भी समस्या उत्पन्‍न हो रहे हैं वे शास्त्र के नियमों का अनुसरण नहीं करने के कारण ही उत्पन्न हो रहे हैं क्योंकि दीर्घकाल से सनातन धर्म के स्वरूप को इतना कमजोर बनाया गया है कि अब ये अपने मूलस्वरूप को प्राप्त करने की स्थिति में नहीं है , ये मेरा अनुभव है क्योंकि जगाया उसे ही जा सकता है जो जगने की इच्छा रखता है । वह तो जरा सा आहट होते ही जग जायेगा । लेकिन जो तन्द्रायुक्त है, उठना चाहता ही नहीं , उस अज्ञानमोहित तमप्रधान जीव को जगाया नहीं जा सकता । उसको निद्राजनित सुख ही उपादेय लग रहा है।
आज हमारे समाज में श्रद्धा और ज्ञान दोनों का बहुत अभाव है। केवल ज्ञानाभाव होता तो बहुत कुछ सुधार किया जाना संभव था।परंतु जब श्रद्धा ही नहीं तो फिर कुछ भी संभव नहीं हो सकता ।
एक समय था जब सनातन धर्म के उपर बौद्धों का प्रभाव अधिक हो रहा था , उनके मतों का दिनोंदिन प्रसार होता जाता था , तथापि सामान्य जन अपने धर्म को नहीं भूले थे , उनकी श्रद्धा , विश्वास , आस्तिक्यता आदि में न्यूनता नहीं हुआ था , अभी बौद्धों ने राजाश्रय प्राप्त किया था केवल , और अब जड़ जमाना शुरु किया था तो उस समय पूज्यपाद शंकराचार्य , भट्ट कुमारिल आदि ने एक-एक से संघर्ष करके अनेेकानेक शास्त्रार्थ करके हमारे लिये व धर्मवृद्ध्यर्थ  सनातन की नींव को सुदृढ़ किया लेकिन आज दूसरी ही समस्या है कि आज कोई ये चाहता ही नहीं कि धार्मिक सुधार हो। सर्वप्रथम तो ये विचारणीय विषय हो गया  है कि आज के किसी भी द्विज को ये आभास नहीं हो रहा है कि धर्म में कुछ विकृति भी हो रहा है या नहीं ।
धर्म क्या है , अध्यात्म के विषय क्या हैं , काम , क्रोध आदि द्वंद्वों  के सृष्टि में क्या उपयोगिता है ,कब उपादेय , कब हेय , इत्यादि सारे तत्वों को जानने से ही ज्ञान प्रकट होता है।
लेकिन आजकल क्या देखते हैं कि जहाँ कहीं काम संबंधी कोई भी विषय हो वो गर्हित , जुगुप्सित वा निन्दनीय माना जाने लगता है।
प्रकृति के तत्व के गुण को जानने के पश्चात् यथार्थ अनुभव होता है ।
केवल दोषदर्शन तो मूर्खों को होता है , विद्वानों को यथार्थदर्शन होते हैं क्योंकि ये प्रकृति तो स्वयं गुण - दोष युक्ता है।अत: इनसे निर्मित तो जो भी मूर्त वस्तु होगा वो गुण-दोषयुक्त ही होगा ।
लेकिन उस दोषदर्शन से हमारे चित्त में जो विकार उत्पन्न होगा वो भी रजोगुण होगा अतः यथार्थदर्शन करने से सत्वगुण और तत्पश्चात् त्रिगुणमयी प्रकृति से मुक्त होने का मार्गान्वेषण करना चाहिये ।
॥ स्वाध्यायान्मा प्रमद ॥
[2/18, 11:23] ओमीश Omish Ji: 🙏अन्य सदस से प्राप्त 🙏
श्री दुर्गा सप्तशति बीजमंत्रात्मक साधना..

ॐ श्री गणेशाय नमः [११ बार]

ॐ ह्रों जुं सः सिद्ध गुरूवे नमः [११ बार]

ॐ दुर्गे दुर्गे रक्ष्णी ठः ठः स्वाहः [१३ बार]

[सिद्धकुञ्जिकास्तोत्रम..]
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामण्डायै विच्चे | ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः
ज्वालय ज्वालय ज्वल  ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै
ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ||

नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दीनि | नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दीनि ||
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भसुरघातिनि | जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे ||
ऐंकारी सृष्टीरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका | क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोस्तुते ||
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी | विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मन्त्ररूपिणि ||
धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी | क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुंभ कुरू ||
हुं हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी | भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रै भवान्यै ते नमो नमः ||
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं | धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा ||
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा | सां सीं सूं सप्तशती देव्या मन्त्रसिद्धिं कुरुष्व मे ||

|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

प्रथमचरित्र...
ॐ अस्य श्री प्रथमचरित्रस्य ब्रह्मा रूषिः महाकाली देवता गायत्री छन्दः नन्दा शक्तिः रक्तदन्तिका बीजम् अग्निस्तत्त्वम् रूग्वेद स्वरूपम् श्रीमहाकाली प्रीत्यर्थे प्रथमचरित्र जपे विनियोगः|

(१) श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं प्रीं ह्रां ह्रीं सौं प्रें म्रें ल्ह्रीं म्लीं स्त्रीं क्रां स्ल्हीं क्रीं चां भें क्रीं वैं ह्रौं युं जुं हं शं रौं यं विं वैं चें ह्रीं क्रं सं कं श्रीं त्रों स्त्रां ज्यैं रौं द्रां द्रों ह्रां द्रूं शां म्रीं श्रौं जूं ल्ह्रूं श्रूं प्रीं रं वं व्रीं ब्लूं स्त्रौं ब्लां लूं सां रौं हसौं क्रूं शौं श्रौं वं त्रूं क्रौं क्लूं क्लीं श्रीं व्लूं ठां ठ्रीं स्त्रां स्लूं क्रैं च्रां फ्रां जीं लूं स्लूं नों स्त्रीं प्रूं स्त्रूं ज्रां वौं ओं श्रौं रीं रूं क्लीं दुं ह्रीं गूं लां ह्रां गं ऐं श्रौं जूं डें श्रौं छ्रां क्लीं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

मध्यमचरित्र..
ॐ अस्य श्री मध्यमचरित्रस्य विष्णुर्रूषिः महालक्ष्मीर्देवता उष्णिक छन्दः शाकम्भरी शक्तिः दुर्गा बीजम् वायुस्तत्त्वम् यजुर्वेदः स्वरूपम् श्रीमहालक्ष्मी प्रीत्यर्थे मध्यमचरित्र जपे विनियोगः

(२) श्रौं श्रीं ह्सूं हौं ह्रीं अं क्लीं चां मुं डां यैं विं च्चें ईं सौं व्रां त्रौं लूं वं ह्रां क्रीं सौं यं ऐं मूं सः हं सं सों शं हं ह्रौं म्लीं यूं त्रूं स्त्रीं आं प्रें शं ह्रां स्मूं ऊं गूं व्र्यूं ह्रूं भैं ह्रां क्रूं मूं ल्ह्रीं श्रां द्रूं द्व्रूं ह्सौं क्रां स्हौं म्लूं श्रीं गैं क्रूं त्रीं क्ष्फीं क्सीं फ्रों ह्रीं शां क्ष्म्रीं रों डुं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

(३) श्रौं क्लीं सां त्रों प्रूं ग्लौं क्रौं व्रीं स्लीं ह्रीं हौं श्रां ग्रीं क्रूं क्रीं यां द्लूं द्रूं क्षं ह्रीं क्रौं क्ष्म्ल्रीं वां श्रूं ग्लूं ल्रीं प्रें हूं ह्रौं दें नूं आं फ्रां प्रीं दं फ्रीं ह्रीं गूं श्रौं सां श्रीं जुं हं सं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

(४) श्रौं सौं दीं प्रें यां रूं भं सूं श्रां औं लूं डूं जूं धूं त्रें ल्हीं श्रीं ईं ह्रां ल्ह्रूं क्लूं क्रां लूं फ्रें क्रीं म्लूं घ्रें श्रौं ह्रौं व्रीं ह्रीं त्रौं हलौं गीं यूं ल्हीं ल्हूं श्रौं ओं अं म्हौं प्री
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

उत्तमचरित्र..
ॐ अस्य श्री उत्तरचरित्रस्य रुद्र रूषिः महासरस्वती देवता अनुष्टुप् छन्दः भीमा शक्तिः भ्रामरी बीजम सूर्यस्तत्त्वम सामवेदः स्वरूपम श्री महासरस्वती प्रीत्यर्थे उत्तरचरित्र जपे विनियोगः

(५) श्रौं प्रीं ओं ह्रीं ल्रीं त्रों क्रीं ह्लौं ह्रीं श्रीं हूं क्लीं रौं स्त्रीं म्लीं प्लूं ह्सौं स्त्रीं ग्लूं व्रीं सौः लूं ल्लूं द्रां क्सां क्ष्म्रीं ग्लौं स्कं त्रूं स्क्लूं क्रौं च्छ्रीं म्लूं क्लूं शां ल्हीं स्त्रूं ल्लीं लीं सं लूं हस्त्रूं श्रूं जूं हस्ल्रीं स्कीं क्लां श्रूं हं ह्लीं क्स्त्रूं द्रौं क्लूं गां सं ल्स्त्रां फ्रीं स्लां ल्लूं फ्रें ओं स्म्लीं ह्रां ऊं ल्हूं हूं नं स्त्रां वं मं म्क्लीं शां लं भैं ल्लूं हौं ईं चें क्ल्रीं ल्ह्रीं क्ष्म्ल्रीं पूं श्रौं ह्रौं भ्रूं क्स्त्रीं आं क्रूं त्रूं डूं जां ल्ह्रूं फ्रौं क्रौं किं ग्लूं छ्रंक्लीं रं क्सैं स्हुं श्रौं श्रीं ओं लूं ल्हूं ल्लूं स्क्रीं स्स्त्रौं स्भ्रूं क्ष्मक्लीं व्रीं सीं भूं लां श्रौं स्हैं ह्रीं श्रीं फ्रें रूं च्छ्रूं ल्हूं कं द्रें श्रीं सां ह्रौं ऐं स्कीं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

(६) श्रौं ओं त्रूं ह्रौं क्रौं श्रौं त्रीं क्लीं प्रीं ह्रीं ह्रौं श्रौं अरैं अरौं श्रीं क्रां हूं छ्रां क्ष्मक्ल्रीं ल्लुं सौः ह्लौं क्रूं सौं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

(७) श्रौं कुं ल्हीं ह्रं मूं त्रौं ह्रौं ओं ह्सूं क्लूं क्रें नें लूं ह्स्लीं प्लूं शां स्लूं प्लीं प्रें अं औं म्ल्रीं श्रां सौं श्रौं प्रीं हस्व्रीं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

(८) श्रौं म्हल्रीं प्रूं एं क्रों ईं एं ल्रीं फ्रौं म्लूं नों हूं फ्रौं ग्लौं स्मौं सौं स्हों श्रीं ख्सें क्ष्म्लीं ल्सीं ह्रौं वीं लूं व्लीं त्स्त्रों ब्रूं श्क्लीं श्रूं ह्रीं शीं क्लीं फ्रूं क्लौं ह्रूं क्लूं तीं म्लूं हं स्लूं औं ल्हौं श्ल्रीं यां थ्लीं ल्हीं ग्लौं ह्रौं प्रां क्रीं क्लीं न्स्लुं हीं ह्लौं ह्रैं भ्रं सौं श्रीं प्सूं द्रौं स्स्त्रां ह्स्लीं स्ल्ल्रीं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

(९) रौं क्लीं म्लौं श्रौं ग्लीं ह्रौं ह्सौं ईं ब्रूं श्रां लूं आं श्रीं क्रौं प्रूं क्लीं भ्रूं ह्रौं क्रीं म्लीं ग्लौं ह्सूं प्लीं ह्रौं ह्स्त्रां स्हौं ल्लूं क्स्लीं श्रीं स्तूं च्रें वीं क्ष्लूं श्लूं क्रूं क्रां स्क्ष्लीं भ्रूं ह्रौं क्रां फ्रूं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

(१०) श्रौं ह्रीं ब्लूं ह्रीं म्लूं ह्रं ह्रीं ग्लीं श्रौं धूं हुं द्रौं श्रीं त्रों व्रूं फ्रें ह्रां जुं सौः स्लौं प्रें हस्वां प्रीं फ्रां क्रीं श्रीं क्रां सः क्लीं व्रें इं ज्स्हल्रीं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

(११) श्रौं क्रूं श्रीं ल्लीं प्रें सौः स्हौं श्रूं क्लीं स्क्लीं प्रीं ग्लौं ह्स्ह्रीं स्तौं लीं म्लीं स्तूं ज्स्ह्रीं फ्रूं क्रूं ह्रौं ल्लूं क्ष्म्रीं श्रूं ईं जुं त्रैं द्रूं ह्रौं क्लीं सूं हौं श्व्रं ब्रूं स्फ्रूं ह्रीं लं ह्सौं सें ह्रीं ल्हीं विं प्लीं क्ष्म्क्लीं त्स्त्रां प्रं म्लीं स्त्रूं क्ष्मां स्तूं स्ह्रीं थ्प्रीं क्रौं श्रां म्लीं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

(१२) ह्रीं ओं श्रीं ईं क्लीं क्रूं श्रूं प्रां स्क्रूं दिं फ्रें हं सः चें सूं प्रीं ब्लूं आं औं ह्रीं क्रीं द्रां श्रीं स्लीं क्लीं स्लूं ह्रीं व्लीं ओं त्त्रों श्रौं ऐं प्रें द्रूं क्लूं औं सूं चें ह्रूं प्लीं क्षीं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

(१३) श्रौं व्रीं ओं औं ह्रां श्रीं श्रां ओं प्लीं सौं ह्रीं क्रीं ल्लूं ह्रीं क्लीं प्लीं श्रीं ल्लीं श्रूं ह्रूं ह्रीं त्रूं ऊं सूं प्रीं श्रीं ह्लौं आं ओं ह्रीं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

दुर्गा दुर्गर्तिशमनी दुर्गापद्विनिवारिणी |
दुर्गमच्छेदिनी दुर्गसाधिनी दुर्गनाशिनी ||
दुर्गनिहन्त्री दुर्गमापहा |
दुर्गमग्यानदा दुर्गदैत्यलोकदवानला ||
दुर्गमा दुर्गमालोका दुर्गमात्मस्वरूपिणी |
दुर्गमार्गप्रदा दुर्गमविद्या दुर्गमाश्रिता ||
दुर्गमग्यानसंस्थाना दुर्गमध्यानभासिनी |
दुर्गमोहा दुर्गमगा दुर्गमार्थस्वरूपिणी ||
दुर्गमासुरसंहन्त्री दुर्गमायुधधारिणी |
दुर्गमाँगी दुर्गमता दुर्गम्या दुर्गमेश्वरी ||
दुर्गभीमा दुर्गभामा दुर्गभा दुर्गदारिणी ||
[३ बार]
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ दुर्गार्पणमस्तु||

🙏 नमः शिवाय् 🙏
[2/18, 12:14] ‪+91 99673 46057‬: राधे राधे ॥ आज का भगवद चिन्तन ॥
             18-02-2017
  🌺     वैराग्य का मतलब दुनिया को छोड़ना कदापि नहीं अपितु दुनिया के लिए छोड़ना है। वैराग्य अर्थात एक ऐसी विचारधारा जब कोई व्यक्ति मै और मेरे से ऊपर उठकर जीने लगता है।
  🌺     समाज को छोड़कर चले जाना वैराग्य नहीं है अपितु समाज को जोड़कर समाज के लिए जीना वैराग्य है। किसी वस्तु का त्याग वैराग्य नहीं है अपितु किसी वस्तु के प्रति अनासक्ति वैराग्य है।
  🌺      जब किसी वस्तु को बाँटकर खाने का भाव किसी के मन में आ जाता है तो सच मानिये यही वैराग्य है। दूसरों के दुःख से दुखी होना और अपने सुख को बाँटने का भाव जिस दिन आपके मन में आने लग जाता है, उसी दिन गृहस्थ में रहते हुए आप सच्चे वैरागी बन जाते हो।

कृष्ण गोविन्द गोपाल गाते चलो,
मन को विषयों से हरदम हटाते चलो।
कृष्ण दर्शन तो देंगे कभी ना कभी,
ऐसा विश्वास मन में जमाते चलो॥
[2/18, 12:50] ओमीश Omish Ji: 🌺प्रभु प्रेमी संघ🌺
18 फरवरी, 2017 (शनिवार)
पूज्य दादा गुरूजी के आशिषवचनम्
           ।। श्री: कृपा ।।
🌿 पूज्य सद्गुरुदेव जी ने कहा - परमात्मा का विधान सर्वथा कल्याणकारी-निर्दोष और हितकर है; अतः भगवद शरणागति ही श्रेयस्कर है...! “तेरा भाणा मीठा लागे..." गुरु अर्जुनदेव जी का साधकों को बड़ा संदेश था कि परमेश्वर की रजा में राजी रहना। जब आपको जहांगीर के आदेश पर अग्नि से तप रही तवी पर बिठा दिया, उस समय भी आप परमेश्वर का शुक्राना कर रहे थे ! यदि हम “तेरा भाणा मीठा लागे” की अवस्था में जीने लगेंगे, तो हम देखेंगे कि ख़ुशियाँ और आनंद हमारे जीवन का हिस्सा बन जायेंगे। सत्य का ज्ञान तर्क के द्वारा सिद्ध नहीं हो सकता। वह तो तभी प्राप्त हो सकता है, जब कि खोज करने वाला उसी सत्ता में घुल-मिलकर एक हो जाय, उसी के रंग में पूरी तरह रँग जाय। यह संसार एक निश्चित विधान के अनुसार चल रहा है। जिसने हमें पैदा किया, पालन-पोषण तथा जो हमारी रक्षा करता है, उसके प्रति हमें कृतज्ञ होना चाहिए। महापुरुषों के शब्दों में - ‘जो परमात्मा जगत का चरम एवं चेतन कारण और सारे विश्व का विधाता है। जो सृष्टि का संचालक है, किन्तु स्वयं अचल है, जिसने सृष्टि को स्वरूप और सौंदर्य प्रदान किया है, पर स्वयं निराकार है, उस परम-पिता परमात्मा की शरणागति से श्रेयस्कर संसार में कुछ भी नहीं है...।

🌿 पूज्य "आचार्यश्री" जी ने कहा - केवल भौतिक संसाधनों की उपलब्धि ही नहीं, वरन् पारमार्थिक सत्य की सिद्धि ही सच्चे अर्थों में कल्याण है। इंसान की उम्र लगातार घटती है, तृष्णा लगातर बढ़ती है। मन पल-पल बदलता है किंतु, परमात्मा का विधान कभी घटता-बढ़ता नहीं है। परमात्मा सच्चिदानंद है। यानी, सदैव चैतन्य और आनंद स्वरूप परमात्मा है। हममें और परमात्मा में सिर्फ यही अंतर है कि हम सदैव चैतन्य तो हैं, लेकिन आनंद को भूल गए हैं। ईश्वर का साक्षात्कार किसी बाह्य प्रक्रिया से सम्भव नहीं। किन्तु, परमात्मा का अन्य बोध-गम्य स्वरूप भी है। इसे बाह्य चर्म-चक्षुओं से भले ही न देखा जा सकता हो, पर आन्तरिक ज्ञान-चक्षुओं से आत्म-निग्रह, आत्म-शुद्धि तथा आत्म-ज्ञान के द्वारा उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त की जा सकती है...।

🌿 पूज्य "आचार्यश्री" जी ने कहा - मानव शरीर एक मंदिर है। इसे मंदिर कहने का आशय यह है कि इसकी रचना करके परमात्मा स्वयं चेतन रूप में प्रकट हुआ है। सच तो यह है कि यदि हमारे शरीर में ईश्वरीय चेतना का वास नहीं होता तो इस शरीर और जीवन का संचालन संभव नहीं था। हमारी भारतीय संस्कृति का मूल रूप अर्पण, तर्पण और समर्पण का रहा है। यह संस्कृति संग्रहण और संचय करना नहीं सिखाती। आपको यहॉ पर जो मिला है - ज्ञान, धन, सम्मान उसे अर्पण करना सीखो। अपने पूर्वजों का तर्पण करना, इसीलिए श्राध्द पक्ष आता है। और, अंतिम समर्पण करना, स्वयं को संत को, गुरू को सौंपना सीखो। मृत्यु आने से पूर्व अगर आपने अर्पण, तर्पण और समर्पण करना सीख लिया तो जीवन धन्य हो जायेगा ....।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

                  हरि 🚩ॐ
          🍁 जय गुरुदेव 🍁
[2/18, 13:03] ‪+91 99936 26447‬: " ब्राह्मण " क्या है,,,,? कौन है,,,,,?
भगवान कृष्ण ने क्या कहा है,,,,,,,,;;?
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बनिया धन का भूखा होता है।
क्षत्रिय दुश्मन के खून का प्यासा होता है ।
गरीब अन्न का भूखा होता है।

पर ब्राम्हण?

ब्राम्हण केवल प्रेम और सम्मान का भूखा होता है।
ब्राम्हण को सम्मान दे दो वो तुम्हारे लिऐ
जान देने को तैयार हो जाऐगा।

अरे दुनिया वालो आजमाकर
तो देखो हमारी दोस्ती को।

मुसलमान अशफाक उल्ला खान बनकर हाथ बढ़ाता है,हम बिस्मिल बनकर गले लगा लेते है।

क्षत्रिय चंद्रगुप्त बनकर पैर छू लेता है,हम चाणक्य बनकर पूरा भारत जितवा देते है।

सिख भगत सिह बनकर हमारे पास आता है। हम चंद्रशेखर आजाद बनकर उसे बेखौफ जीना सिखा देते है।

कोई वैश्य गाधी बनकर हमे गुरु मान लेता है हम गोपाल कृष्ण गोखले बनकर उसे महात्मा बना देते है।

और
कोई शूद्र शबरी बनकर हमसे वर मागती है, तो हम उसे भगवान से मिलवा देते है।

अरे एक बार सम्मान तो देकर देखो हमें...........
........ फर्ज न अदा करे तो कहना
जय जय राम!!जय जय परशुराम!!

--  पुराणों में कहा गया है -

     विप्राणां यत्र पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता ।

  जिस स्थान पर ब्राह्मणों का पूजन हो वंहा देवता भी निवास करते हैं अन्यथा ब्राह्मणों के सम्मान के बिना देवालय भी शून्य हो जाते हैं ।

इसलिए
   ब्राह्मणातिक्रमो नास्ति विप्रा वेद विवर्जिताः ।।

  श्री कृष्ण ने कहा - ब्राह्मण यदि वेद से हीन भी तब पर भी उसका अपमान नही करना चाहिए ।
क्योंकि तुलसी का पत्ता क्या छोटा क्या बड़ा वह हर अवस्था में कल्याण ही करता है ।

  ब्राह्मणोंस्य मुखमासिद्......

   वेदों ने कहा है की ब्राह्मण विराट पुरुष भगवान के मुख में निवास करते हैं इनके मुख से निकले हर शब्द भगवान का ही शब्द है, जैसा की स्वयं भगवान् ने कहा है की

   विप्र प्रसादात् धरणी धरोहम
   विप्र प्रसादात् कमला वरोहम
   विप्र प्रसादात्अजिता$जितोहम
   विप्र प्रसादात् मम् राम नामम् ।।

   ब्राह्मणों के आशीर्वाद से ही मैंने धरती को धारण कर रखा है अन्यथा इतना भार कोई अन्य पुरुष कैसे उठा सकता है, इन्ही के आशीर्वाद से नारायण हो कर मैंने लक्ष्मी को वरदान में प्राप्त किया है, इन्ही के आशीर्वाद सेढ मैं हर युद्ध भी जीत गया और ब्राह्मणों के आशीर्वाद से ही मेरा नाम "राम" अमर हुआ है, अतः ब्राह्मण सर्व पूज्यनीय है । और ब्राह्मणों का अपमान ही कलियुग में पाप की वृद्धि का मुख्य कारण है ।

  - किसी में कमी निकालने की अपेक्षा किसी में से कमी निकालना ही ब्राह्मण का धर्म है,            
समस्त ब्राह्मण सम्प्रदाय को समर्पित।
⚘⚘⚘⚘*जयश्रीपरशुराम*⚘⚘⚘
[2/18, 13:15] राम भवनमणि त्रिपाठी: रामभवन मणि त्रिपाठी
गोरखपुर

पंचतत्व

पंचतत्व का तन यह मेरा 
ज्यों माटी का ढेरl
दुनिया कहती इसको मेरा 
पर मेरा न तेरा 
हिंदुत्व ने सींचा इसको 
संस्कारों ने संवारा 
निष्काम कर्म किये जा प्राणी 
यह दुनिया रैन बसेरा 
माटी से तू जन्मा है 
माटी में मिल जाना 
लिखा भाग्य में जो है तेरे 
उतना ही तुझको पाना 
सांसों की डोरी से रिश्ता 
यहीं तोड़ कर जाना 
उस उपरवाले के आगे 
चले न कोई बहाना 
[2/18, 13:56] ओमीश Omish Ji: राम चरित मानस
जयमाला पहनाना, परशुराम का आगमन व क्रोध

दोहा :
* बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।
करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर॥262॥
भावार्थ:-धीर बुद्धि वाले, भाट, मागध और सूत लोग विरुदावली (कीर्ति) का बखान कर रहे हैं। सब लोग घोड़े, हाथी, धन, मणि और वस्त्र निछावर कर रहे हैं॥262॥
चौपाई :
* झाँझि मृदंग संख सहनाई। भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई॥
बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए॥1॥
भावार्थ:-झाँझ, मृदंग, शंख, शहनाई, भेरी, ढोल और सुहावने नगाड़े आदि बहुत प्रकार के सुंदर बाजे बज रहे हैं। जहाँ-तहाँ युवतियाँ मंगल गीत गा रही हैं॥1॥
* सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी॥
जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। तैरत थकें थाह जनु पाई॥2॥
भावार्थ:-सखियों सहित रानी अत्यन्त हर्षित हुईं, मानो सूखते हुए धान पर पानी पड़ गया हो। जनकजी ने सोच त्याग कर सुख प्राप्त किया। मानो तैरते-तैरते थके हुए पुरुष ने थाह पा ली हो॥2॥
* श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे॥
सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती॥3॥
भावार्थ:-धनुष टूट जाने पर राजा लोग ऐसे श्रीहीन (निस्तेज) हो गए, जैसे दिन में दीपक की शोभा जाती रहती है। सीताजी का सुख किस प्रकार वर्णन किया जाए, जैसे चातकी स्वाती का जल पा गई हो॥3॥
* रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें॥
सतानंद तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी को लक्ष्मणजी किस प्रकार देख रहे हैं, जैसे चन्द्रमा को चकोर का बच्चा देख रहा हो। तब शतानंदजी ने आज्ञा दी और सीताजी ने श्री रामजी के पास गमन किया॥4॥
दोहा :
* संग सखीं सुंदर चतुर गावहिं मंगलचार।
गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार॥263॥
भावार्थ:-साथ में सुंदर चतुर सखियाँ मंगलाचार के गीत गा रही हैं, सीताजी बालहंसिनी की चाल से चलीं। उनके अंगों में अपार शोभा है॥263॥
चौपाई :
* सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसें। छबिगन मध्य महाछबि जैसें॥
कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई॥1॥
भावार्थ:-सखियों के बीच में सीताजी कैसी शोभित हो रही हैं, जैसे बहुत सी छवियों के बीच में महाछवि हो। करकमल में सुंदर जयमाला है, जिसमें विश्व विजय की शोभा छाई हुई है॥1॥
* तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू॥
जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुअँरि चित्र अवरेखी॥2॥
भावार्थ:-सीताजी के शरीर में संकोच है, पर मन में परम उत्साह है। उनका यह गुप्त प्रेम किसी को जान नहीं पड़ रहा है। समीप जाकर, श्री रामजी की शोभा देखकर राजकुमारी सीताजी जैसे चित्र में लिखी सी रह गईं॥2॥
* चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई॥
सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई॥3॥
भावार्थ:-चतुर सखी ने यह दशा देखकर समझाकर कहा- सुहावनी जयमाला पहनाओ। यह सुनकर सीताजी ने दोनों हाथों से माला उठाई, पर प्रेम में विवश होने से पहनाई नहीं जाती॥3॥
* सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला॥
गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली॥4॥
भावार्थ:-(उस समय उनके हाथ ऐसे सुशोभित हो रहे हैं) मानो डंडियों सहित दो कमल चन्द्रमा को डरते हुए जयमाला दे रहे हों। इस छवि को देखकर सखियाँ गाने लगीं। तब सीताजी ने श्री रामजी के गले में जयमाला पहना दी॥4॥
सोरठा :
* रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।
सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन॥264॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी के हृदय पर जयमाला देखकर देवता फूल बरसाने लगे। समस्त राजागण इस प्रकार सकुचा गए मानो सूर्य को देखकर कुमुदों का समूह सिकुड़ गया हो॥264॥
चौपाई :
* पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे॥
सुर किंनर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा॥1॥
भावार्थ:-नगर और आकाश में बाजे बजने लगे। दुष्ट लोग उदास हो गए और सज्जन लोग सब प्रसन्न हो गए। देवता, किन्नर, मनुष्य, नाग और मुनीश्वर जय-जयकार करके आशीर्वाद दे रहे हैं॥1॥
* नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमांजलि छूटीं॥
जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बंदी बिरिदावलि उच्चरहीं॥2॥
भावार्थ:-देवताओं की स्त्रियाँ नाचती-गाती हैं। बार-बार हाथों से पुष्पों की अंजलियाँ छूट रही हैं। जहाँ-तहाँ ब्रह्म वेदध्वनि कर रहे हैं और भाट लोग विरुदावली (कुलकीर्ति) बखान रहे हैं॥2॥
* महिं पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भंजेउ चापा॥
करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी॥3॥
भावार्थ:-पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग तीनों लोकों में यश फैल गया कि श्री रामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ दिया और सीताजी को वरण कर लिया। नगर के नर-नारी आरती कर रहे हैं और अपनी पूँजी (हैसियत) को भुलाकर (सामर्थ्य से बहुत अधिक) निछावर कर रहे हैं॥3॥
* सोहति सीय राम कै जोरी। छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी॥
सखीं कहहिं प्रभु पद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता॥4॥
भावार्थ:-श्री सीता-रामजी की जोड़ी ऐसी सुशोभित हो रही है मानो सुंदरता और श्रृंगार रस एकत्र हो गए हों। सखियाँ कह रही हैं- सीते! स्वामी के चरण छुओ, किन्तु सीताजी अत्यन्त भयभीत हुई उनके चरण नहीं छूतीं॥4॥
दोहा :
* गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।
मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि॥265॥
भावार्थ:-गौतमजी की स्त्री अहल्या की गति का स्मरण करके सीताजी श्री रामजी के चरणों को हाथों से स्पर्श नहीं कर रही हैं। सीताजी की अलौकिक प्रीति जानकर रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी मन में हँसे॥265॥
चौपाई :
* तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे॥
उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥1॥
भावार्थ:-उस समय सीताजी को देखकर कुछ राजा लोग ललचा उठे। वे दुष्ट, कुपूत और मूढ़ राजा मन में बहुत तमतमाए। वे अभागे उठ-उठकर, कवच पहनकर, जहाँ-तहाँ गाल बजाने लगे॥1॥
* लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ॥
तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई। जीवत हमहि कुअँरि को बरई॥2॥
भावार्थ:-कोई कहते हैं, सीता को छीन लो और दोनों राजकुमारों को पकड़कर बाँध लो। धनुष तोड़ने से ही चाह नहीं सरेगी (पूरी होगी)। हमारे जीते-जी राजकुमारी को कौन ब्याह सकता है?॥2॥
* जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई॥
साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी॥3॥
भावार्थ:-यदि जनक कुछ सहायता करें, तो युद्ध में दोनों भाइयों सहित उसे भी जीत लो। ये वचन सुनकर साधु राजा बोले- इस (निर्लज्ज) राज समाज को देखकर तो लाज भी लजा गई॥3॥
* बलु प्रतापु बीरता बड़ाई। नाक पिनाकहि संग सिधाई॥
सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुँह मसि लाई॥4॥
भावार्थ:-अरे! तुम्हारा बल, प्रताप, वीरता, बड़ाई और नाक (प्रतिष्ठा) तो धनुष के साथ ही चली गई। वही वीरता थी कि अब कहीं से मिली है? ऐसी दुष्ट बुद्धि है, तभी तो विधाता ने तुम्हारे मुखों पर कालिख लगा दी॥4॥
दोहा :
* देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु।।
लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु॥266॥
भावार्थ:-ईर्षा, घमंड और क्रोध छोड़कर नेत्र भरकर श्री रामजी (की छबि) को देख लो। लक्ष्मण के क्रोध को प्रबल अग्नि जानकर उसमें पतंगे मत बनो॥266॥
चौपाई :
*बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू॥
जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै सिवद्रोही॥1॥
भावार्थ:-जैसे गरुड़ का भाग कौआ चाहे, सिंह का भाग खरगोश चाहे, बिना कारण ही क्रोध करने वाला अपनी कुशल चाहे, शिवजी से विरोध करने वाला सब प्रकार की सम्पत्ति चाहे,॥1॥
* लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई॥
हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा॥2॥
भावार्थ:-लोभी-लालची सुंदर कीर्ति चाहे, कामी मनुष्य निष्कलंकता (चाहे तो) क्या पा सकता है? और जैसे श्री हरि के चरणों से विमुख मनुष्य परमगति (मोक्ष) चाहे, हे राजाओं! सीता के लिए तुम्हारा लालच भी वैसा ही व्यर्थ है॥2॥
* कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी॥
रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं॥3॥
भावार्थ:-कोलाहल सुनकर सीताजी शंकित हो गईं। तब सखियाँ उन्हें वहाँ ले गईं, जहाँ रानी (सीताजी की माता) थीं। श्री रामचन्द्रजी मन में सीताजी के प्रेम का बखान करते हुए स्वाभाविक चाल से गुरुजी के पास चले॥3॥
*रानिन्ह सहित सोच बस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया॥
भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं॥4॥
भावार्थ:-रानियों सहित सीताजी (दुष्ट राजाओं के दुर्वचन सुनकर) सोच के वश हैं कि न जाने विधाता अब क्या करने वाले हैं। राजाओं के वचन सुनकर लक्ष्मणजी इधर-उधर ताकते हैं, किन्तु श्री रामचन्द्रजी के डर से कुछ बोल नहीं सकते॥4॥
दोहा :
* अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।
मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप॥267॥
भावार्थ:- उनके नेत्र लाल और भौंहें टेढ़ी हो गईं और वे क्रोध से राजाओं की ओर देखने लगे, मानो मतवाले हाथियों का झुंड देखकर सिंह के बच्चे को जोश आ गया हो॥267॥
चौपाई :
* खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं॥
तेहिं अवसर सुनि सिवधनु भंगा। आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥1॥
भावार्थ:-खलबली देखकर जनकपुरी की स्त्रियाँ व्याकुल हो गईं और सब मिलकर राजाओं को गालियाँ देने लगीं। उसी मौके पर शिवजी के धनुष का टूटना सुनकर भृगुकुल रूपी कमल के सूर्य परशुरामजी आए॥1॥
* देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने॥
गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा॥2॥
भावार्थ:-इन्हें देखकर सब राजा सकुचा गए, मानो बाज के झपटने पर बटेर लुक (छिप) गए हों। गोरे शरीर पर विभूति (भस्म) बड़ी फब रही है और विशाल ललाट पर त्रिपुण्ड्र विशेष शोभा दे रहा है॥2॥
* सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिस बस कछुक अरुन होइ आवा॥
भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते॥3॥
भावार्थ:-सिर पर जटा है, सुंदर मुखचन्द्र क्रोध के कारण कुछ लाल हो आया है। भौंहें टेढ़ी और आँखें क्रोध से लाल हैं। सहज ही देखते हैं, तो भी ऐसा जान पड़ता है मानो क्रोध कर रहे हैं॥3॥
* बृषभ कंध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला॥
कटि मुनिबसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें॥4॥
भावार्थ:-बैल के समान (ऊँचे और पुष्ट) कंधे हैं, छाती और भुजाएँ विशाल हैं। सुंदर यज्ञोपवीत धारण किए, माला पहने और मृगचर्म लिए हैं। कमर में मुनियों का वस्त्र (वल्कल) और दो तरकस बाँधे हैं। हाथ में धनुष-बाण और सुंदर कंधे पर फरसा धारण किए हैं॥4॥
दोहा :
* सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरूप।
धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप॥268॥
भावार्थ:-शांत वेष है, परन्तु करनी बहुत कठोर हैं, स्वरूप का वर्णन नहीं किया जा सकता। मानो वीर रस ही मुनि का शरीर धारण करके, जहाँ सब राजा लोग हैं, वहाँ आ गया हो॥268॥
चौपाई :
* देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला॥
पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा॥1॥
भावार्थ:-परशुरामजी का भयानक वेष देखकर सब राजा भय से व्याकुल हो उठ खड़े हुए और पिता सहित अपना नाम कह-कहकर सब दंडवत प्रणाम करने लगे॥1॥
* जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आइ खुटानी॥
जनक बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा॥2॥
भावार्थ:-परशुरामजी हित समझकर भी सहज ही जिसकी ओर देख लेते हैं, वह समझता है मानो मेरी आयु पूरी हो गई। फिर जनकजी ने आकर सिर नवाया और सीताजी को बुलाकर प्रणाम कराया॥2॥
* आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं। निज समाज लै गईं सयानीं॥
बिस्वामित्रु मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दोउ भाई॥3॥
भावार्थ:-परशुरामजी ने सीताजी को आशीर्वाद दिया। सखियाँ हर्षित हुईं और (वहाँ अब अधिक देर ठहरना ठीक न समझकर) वे सयानी सखियाँ उनको अपनी मंडली में ले गईं। फिर विश्वामित्रजी आकर मिले और उन्होंने दोनों भाइयों को उनके चरण कमलों पर गिराया॥3॥
* रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा॥
रामहि चितइ रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन॥4॥
भावार्थ:-(विश्वामित्रजी ने कहा-) ये राम और लक्ष्मण राजा दशरथ के पुत्र हैं। उनकी सुंदर जोड़ी देखकर परशुरामजी ने आशीर्वाद दिया। कामदेव के भी मद को छुड़ाने वाले श्री रामचन्द्रजी के अपार रूप को देखकर उनके नेत्र थकित (स्तम्भित) हो रहे॥4॥
दोहा :
* बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर।
पूँछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर॥269॥
भावार्थ:-फिर सब देखकर, जानते हुए भी अनजान की तरह जनकजी से पूछते हैं कि कहो, यह बड़ी भारी भीड़ कैसी है? उनके शरीर में क्रोध छा गया॥269॥
चौपाई :
* समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए॥
सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखंड महि डारे॥1॥
भावार्थ:-जिस कारण सब राजा आए थे, राजा जनक ने वे सब समाचार कह सुनाए। जनक के वचन सुनकर परशुरामजी ने फिरकर दूसरी ओर देखा तो धनुष के टुकड़े पृथ्वी पर पड़े हुए दिखाई दिए॥1॥
* अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा॥
बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू॥2॥
भावार्थ:-अत्यन्त क्रोध में भरकर वे कठोर वचन बोले- रे मूर्ख जनक! बता, धनुष किसने तोड़ा? उसे शीघ्र दिखा, नहीं तो अरे मूढ़! आज मैं जहाँ तक तेरा राज्य है, वहाँ तक की पृथ्वी उलट दूँगा॥2॥
* अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं॥
सुर मुनि नाग नगर नर नारी। सोचहिं सकल त्रास उर भारी॥3॥
भावार्थ:-राजा को अत्यन्त डर लगा, जिसके कारण वे उत्तर नहीं देते। यह देखकर कुटिल राजा मन में बड़े प्रसन्न हुए। देवता, मुनि, नाग और नगर के स्त्री-पुरुष सभी सोच करने लगे, सबके हृदय में बड़ा भय है॥3॥
*मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी॥
भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता॥4॥
भावार्थ:-सीताजी की माता मन में पछता रही हैं कि हाय! विधाता ने अब बनी-बनाई बात बिगाड़ दी। परशुरामजी का स्वभाव सुनकर सीताजी को आधा क्षण भी कल्प के समान बीतते लगा॥4॥
दोहा :
* सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।
हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु॥270॥
भावार्थ:-तब श्री रामचन्द्रजी सब लोगों को भयभीत देखकर और सीताजी को डरी हुई जानकर बोले- उनके हृदय में न कुछ हर्ष था न विषाद-॥270॥

मासपारायण नौवाँ विश्राम
[2/18, 15:29] राम भवनमणि त्रिपाठी: ब्राह्मण कौन है ? – ( वज्रसूचि उपनिषद् )


वज्रसुचिकोपनिषद ( वज्रसूचि उपनिषद् ) यह उपनिषद सामवेद से सम्बद्ध है ! इसमें कुल ९ मंत्र हैं !

सर्वप्रथम चारों वर्णों में से ब्राह्मण की प्रधानता का उल्लेख किया गया है तथा ब्राह्मण कौन है, इसके लिए कई प्रश्न किये गए हैं !

क्या ब्राह्मण जीव है ? शरीर है, जाति है, ज्ञान है, कर्म है, या धार्मिकता है ?

इन सब संभावनाओं का निरसन कोई ना कोई कारण बताकर कर दिया गया है , अंत में ‘ब्राह्मण’ की परिभाषा बताते हुए उपनिषदकार कहते हैं कि जो समस्त दोषों से रहित, अद्वितीय, आत्मतत्व से संपृक्त है, वह ब्राह्मण है ! चूँकि आत्मतत्व सत्, चित्त, आनंद रूप ब्रह्म भाव से युक्त होता है, इसलिए इस ब्रह्म भाव से संपन्न मनुष्य को ही (सच्चा) ब्राह्मण कहा जा सकता है !

॥ वज्रसूचिका उपनिषत् ॥ ॥ श्री गुरुभ्यो नमः हरिः ॐ ॥ यज्ञ्ज्ञानाद्यान्ति मुनयो ब्राह्मण्यं परमाद्भुतम् । तत्रैपद्ब्रह्मतत्त्वमहमस्मीति चिन्तये ॥ ॐ आप्यायन्त्विति शान्तिः ॥ चित्सदानन्दरूपाय सर्वधीवृत्तिसाक्षिणे । नमो वेदान्तवेद्याय ब्रह्मणेऽनन्तरूपिणे ॥

ॐ वज्रसूचीं प्रवक्ष्यामि शास्त्रमज्ञानभेदनम् । दूषणं ज्ञानहीनानां भूषणं ज्ञानचक्षुषाम् ॥ १॥

अज्ञान नाशक, ज्ञानहीनों के दूषण, ज्ञान नेत्र वालों के भूषन रूप वज्रसूची उपनिषद का वर्णन करता हूँ !!

ब्राह्मक्षत्रियवैष्यशूद्रा इति चत्वारो वर्णास्तेषां वर्णानां ब्राह्मण एव प्रधान इति वेदवचनानुरूपं स्मृतिभिरप्युक्तम् । तत्र चोद्यमस्ति को वा ब्राह्मणो नाम किं जीवः किं देहः किं जातिः किं ज्ञानं किं कर्म किं धार्मिक इति ॥

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं ! इन वर्णों में ब्राह्मण ही प्रधान है, ऐसा वेद वचन है और स्मृति में भी वर्णित है !

अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि ब्राह्मण कौन है ? क्या वह जीव है अथवा कोई शरीर है अथवा जाति अथवा कर्म अथवा ज्ञान अथवा धार्मिकता है ?

तत्र प्रथमो जीवो ब्राह्मण इति चेत् तन्न । अतीतानागतानेकदेहानां जीवस्यैकरूपत्वात् एकस्यापि कर्मवशादनेकदेहसम्भवात् सर्वशरीराणां जीवस्यैकरूपत्वाच्च । तस्मात् न जीवो ब्राह्मण इति ॥

इस स्थिति में यदि सर्वप्रथम जीव को ही ब्राह्मण मानें ( कि ब्राह्मण जीव है), तो यह संभव नहीं है; क्योंकि भूतकाल और भविष्यतकाल में अनेक जीव हुए होंगें ! उन सबका स्वरुप भी एक जैसा ही होता है ! जीव एक होने पर भी स्व-स्व कर्मों के अनुसार उनका जन्म होता है और समस्त शरीरों में, जीवों में एकत्व रहता है, इसलिए केवल जीव को ब्राह्मण नहीं कह सकते !

तर्हि देहो ब्राह्मण इति चेत् तन्न । आचाण्डालादिपर्यन्तानां मनुष्याणां पञ्चभौतिकत्वेन देहस्यैकरूपत्वात् जरामरणधर्माधर्मादिसाम्यदर्शनत् ब्राह्मणः श्वेतवर्णः क्षत्रियो रक्तवर्णो वैश्यः पीतवर्णः शूद्रः कृष्णवर्णः इति नियमाभावात् । पित्रादिशरीरदहने पुत्रादीनां ब्रह्महत्यादिदोषसम्भवाच्च । तस्मात् न देहो ब्राह्मण इति ॥

क्या शरीर ब्राह्मण (हो सकता) है? नहीं, यह भी नहीं हो सकता ! चांडाल से लेकर सभी मानवों के शरीर एक जैसे ही अर्थात पांचभौतिक होते हैं,

उनमें जरा-मरण, धर्म-अधर्म आदि सभी सामान होते हैं ! ब्राह्मण- गौर वर्ण, क्षत्रिय- रक्त वर्ण , वैश्य- पीत वर्ण और शूद्र- कृष्ण वर्ण वाला ही हो,

ऐसा कोई नियम देखने में नहीं आता तथा (यदि शरीर ब्राह्मण है तो ) पिता, भाई के दाह संस्कार करने से पुत्र आदि को ब्रह्म हत्या का दोष भी लग सकता है !

अस्तु, केवल शरीर का ब्राह्मण होना भी संभव नहीं है !!

तर्हि जाति ब्राह्मण इति चेत् तन्न । तत्र जात्यन्तरजन्तुष्वनेकजातिसम्भवात् महर्षयो बहवः सन्ति । ऋष्यशृङ्गो मृग्याः, कौशिकः कुशात्, जाम्बूको जाम्बूकात्, वाल्मीको वाल्मीकात्, व्यासः कैवर्तकन्यकायाम्, शशपृष्ठात् गौतमः, वसिष्ठ उर्वश्याम्, अगस्त्यः कलशे जात इति शृतत्वात् । एतेषां जात्या विनाप्यग्रे ज्ञानप्रतिपादिता ऋषयो बहवः सन्ति । तस्मात् न जाति ब्राह्मण इति ॥

क्या जाति ब्राह्मण है?

  ( अर्थात ब्राह्मण कोई जाति है )? नहीं, यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि विभिन्न जातियों एवं प्रजातियों में भी बहुत से ऋषियों की उत्पत्ति वर्णित है ! जैसे – मृगी से श्रृंगी ऋषि की, कुश से कौशिक की, जम्बुक से जाम्बूक की, वाल्मिक से वाल्मीकि की, मल्लाह कन्या (मत्स्यगंधा) से वेदव्यास की, शशक पृष्ठ से गौतम की, उर्वशी से वसिष्ठ की, कुम्भ से अगस्त्य ऋषि की उत्पत्ति वर्णित है ! इस प्रकार पूर्व में ही कई ऋषि बिना (ब्राह्मण) जाति के ही प्रकांड विद्वान् हुए हैं, इसलिए केवल कोई जाति विशेष भी ब्राह्मण नहीं हो सकती है !

तर्हि ज्ञानं ब्राह्मण इति चेत् तन्न । क्षत्रियादयोऽपि परमार्थदर्शिनोऽभिज्ञा बहवः सन्ति । तस्मात् न ज्ञानं ब्राह्मण इति
[2/18, 16:19] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

स शान्तिमधिगच्छति
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विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चलति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥

                   –गीता 2/71

इस प्रकार अर्जुन के  प्रश्नों का उत्तर देने के अनन्तर अब स्थितप्रज्ञ पुरुष महत्त्व बतलाते हुए इस भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं –

जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शान्ति को प्राप्त होता है अर्थात् वह शान्ति को प्राप्त है ।

अर्थः –

यः पुरुषः सर्वान् अपि कामान् परित्यजति, निःस्पृहः निर्ममः निरहङ्कारः च भवति सः निश्चयेन शान्तिं प्राप्नोति ।

श्रीरामानुजभाष्यम्
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काम्यन्ते इति कामाः शब्दादयो विषयाः।  यः पुमान्  शब्दादीन्  सर्वान्  विषयान्  विहाय  तत्र  निःस्पृहः  ममतारहितश्च अनात्मनि देहे आत्माभिमानरहितः  चरति स  आत्मानं दृष्ट्वा  शान्तिम् अधिगच्छति।

भाष्यार्थः –

येषां कामनाः भवन्ति, तेषां नाम कामः इति  व्युत्पत्त्यनुसारं शब्दादिविषयाः अर्थाद् भोगाः कामः इति । यः पुरुषः शब्दादिभ्यः सर्वेभ्यः विषयेभ्यः मुक्तः सन् तेषु निःस्पृहः, ममतारहितः, अनात्मशरीरे आत्माभिमानरहितश्च भूत्वा आचरणं करोति, सः आत्मनः साक्षात्कारं कृत्वा शान्तिं प्राप्नोति ।

भावार्थः –

'विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः' – अप्राप्तवस्तुनः इच्छा एव कामना उच्यते । स्थितप्रज्ञः महापुरुषः सर्वासाम् इच्छानां त्यागं करोति । कामनानां त्योगे कृते सत्यपि शरीरनिर्वाहाय स्थल-काल-वस्तु-व्यक्ति-पदार्थानादीनाम् आवश्यता भवति । अर्थात् जीवननिर्वहणाय प्राप्तवस्त्वादीनाम् आवश्यकता एव स्पृहा उच्यते । स्थितप्रज्ञपुरुषः स्पृहायाः अपि त्यागं करोति । यतः यस्य लक्ष्यस्य प्राप्त्यै देहः प्राप्तः अस्ति, तस्य परमात्मतत्त्वस्य प्राप्तिः अभवत् । अतः शरीरस्य स्थित्याः, अस्थित्याः वा चिन्तनम् अकृत्वा शरीरनिर्वाहस्य आवश्यकतायाः अपि त्यागं कृत्वा स्थितप्रज्ञः निःस्पृहः भवति ।

सः स्थितप्रज्ञः जीवननिर्वाहस्य वस्तूनां सेवनं नैव करोति इति निःस्पृहतायाः अर्थः न भवति । सः निर्वाहोपयोगिनां वस्तूनां सेवनं करोति, पथ्यकुपथ्ययोः विवेकम् अपि करोति । अर्थात् अग्रे साधनावस्थायां शरीरादीनां यः व्यवहारः आसीत्, स एव व्यवहारः स्थितप्रज्ञावस्थायाम् अपि भवति । परन्तु जीवितः भवामि चेत् उचितम्, जीवननिर्वाहोपयोगिनी वस्तूनि सातत्येन प्राप्नोमि चेत् उचितम् इत्यादयः इच्छाः तस्य अन्तःकरणे न भवन्ति ।

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्  इत्यनेन श्लोकेन कामनात्यागस्य यः उल्लेखः कृतः, स एवोल्लेखः 'विहाय कामान्यः सर्वान्' इत्यनेन श्लोकेन क्रियते । अस्य तात्पर्यं भवति यत्, कर्मयोगे सर्वासां कामनानां त्यागम् अकृत्वा कोऽपि स्थितप्रज्ञः भवितुं नार्हति । यतः कामनात्वादेव संसारेण सह सम्बन्धः अस्ति । कामनानां सर्वथा त्यागे सति संसारेण सह सम्बन्ध एव न सम्भवति ।

'निर्ममः' – स्थितप्रज्ञमहापुरुषः ममतायाः सर्वथा त्यागं करोति । एतानि वस्तूनि मम इति भावः येषु मनुष्येषु भवति, सः भावः मिथ्या अस्ति । तानि सर्वाणि वस्तूनि मनुष्येण संसारात् स्वीकृतानि । अतः तानि वस्तूनि तस्य न भवन्ति । प्राप्तवस्तूनि स्वस्य सन्ति इति मान्यता एव भ्रमः । तं भ्रमं दूरीकर्तुं स्थितप्रज्ञः वस्तु-व्यक्ति-पदार्थ-शरीर-इन्द्रियादीनां ममतां त्यक्त्वा ममतारहितः भवति ।

'निरहङ्कारः' – अहमेव शरीरम् इति शरीरेण सह तादात्म्यम् एव अहङ्कारः अस्ति । स्थितप्रज्ञे सः अहङ्कारः नावशिष्यते । शरीर-इन्द्रिय-मन-बुद्धीत्यादयः कस्मिँश्चित् प्रकाशे सन्ति इति भानं भवति । तथा च 'अहम्'भावः अपि तस्मिन् प्रकाशे अस्ति इति भानं भवति । एवं प्रकाशस्य दृष्ट्यां शरीर-इन्द्रिय-मन-बुद्धि-अहङ्कारादयः दृश्यम् अस्ति । सः स्थितप्रज्ञः दृष्टा दृश्यात् भिन्नः भवति इति नियमम् अनुभवति । सः अनुभवः स्थितप्रज्ञं निरहङ्कारिणं करोति ।

'स शान्तिमधिगच्छति' – स्थितप्रज्ञः शान्तिं प्राप्नोति । कामना, स्पृहा, ममता, अहङ्कारः इत्यादिभ्यः रहितः स्थितप्रज्ञः शान्तिं प्राप्नोति एवं नास्ति, अपि तु मनुष्यमात्रः शान्तः, स्वतःसिद्धश्च भवति । केवलम् आद्यन्तयुक्तानां वस्तूनाम् उपभोगस्य कामनात्वात् एव सः अशान्तः भवति । तैः वस्तुभिः सह उत्पन्नः ममत्वसम्बन्धः एव अशान्तिं जनयति । यदा संसारस्य कामना-स्पृहा-ममता-अहङ्कारदिभ्यः मनुष्यः सर्वथा मुक्तः भवति, तदा सः स्वतःसिद्धां शान्तिम् अनुभवति ।

             –जय श्रीमन्नारायण।
[2/18, 18:57] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः
पीडयत्पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं
पिपासार्दितः ।
कदाचिदपि पर्यटञ्छशविषाणमासादयेत्
न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥

अथक प्रयास करने पर रेत से भी तेल निकला जा सकता है तथा मृग मरीचिका से भी जल ग्रहण किया जा सकता है। यहाँ तक कि हम सींघ वाले खरगोशों को भी दुनिया में विचरण करते देख सकते है; लेकिन एक पूर्वाग्रही मूर्ख को सही बात का बोध कराना भी असंभव है। 

            –रमेशप्रसाद शुक्ल

            –जय श्रीमन्नारायण।
[2/18, 19:00] ‪+91 98288 74601‬: सुख हो या दुख  समभाव वाले ब्रह्म समान है।

* जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा॥
काल करम बस होहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं॥

जन्म-मरण, सुख-दुःख के भोग, हानि-लाभ, प्यारों का मिलना-बिछुड़ना, ये सब हे स्वामी! काल और कर्म के अधीन रात और दिन की तरह बरबस होते रहते हैं॥

* सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं॥
धीरज धरहु बिबेकु बिचारी। छाड़िअ सोच सकल हितकारी॥

मूर्ख लोग सुख में हर्षित होते और दुःख में रोते हैं, पर धीर पुरुष अपने मन में दोनों को समान समझते हैं। हे सबके हितकारी (रक्षक)! आप विवेक विचारकर धीरज धरिए और शोक का परित्याग कीजिए॥

प्रसन्नतां या न गता$भिषेकतस्तथा,ना मम्ले वनवास दुःखतः।
मुखाम्बुजश्री रघुनंदनस्य मे सदास्तु मंजुल मंगल प्रदा।।

अर्थ- रघुकुल को आनंदित करने वाले श्रीराम जी के मुख कमल की आभा अपना राज्याभिषेक सुनकर न तो खिला और न वनवास सुनकर मलिन हुआ। ऐसा परम दिव्य श्रीराम मुख कमल हमारे लिए हमेशा सुंदर,कल्याण प्रद हो।

सरल अन्वय स्वरूप- या अभिषेकतः प्रसन्नतां न गता।।
मेरे प्रभु श्रीराम जी अपना राज्याभिषेक की सूचना पाकर साधारण मानव के भाँति खुश नहीं हुए। वशिष्ठ जी जब श्रीराम जी से कहा कि महाराज
चाहत देन तुम्हहिं जुबराजू (दशरथ जी कल आपको युवराज बनना चाहते हैं)। तो श्रीराम जी गंभीर हो सोचते हैं।
विमल वंश यह अनुचित एकू ।अनुज बिहाई बड़ेहि अभिषेकू।। छोटे भाई की अनुपस्थिति में बड़े का अभिषेक उचित नहीं है,यह सोचने लगे।

और जब वनवास की सूचना मिली तब - ना मम्ले वनवास दुःखतः- श्रीराम जी अपना राज्याभिषेक के स्थान पर वनवास सुनकर थोड़ा भी दुखित नहीं हुए।

ये तो भैया भरत जी के राजा बनने की सूचना सुनकर खुश हैं।
मुनि गन मिलन बिसेषि बन सबहिं भाँति हित मोर...और...भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू ।
मेरे प्राण प्रिय भरत राजा बनेंगे। मुझे वन में ऋषि मुनि का दर्शन होगा। प्रभु श्रीराम जी खुश हैं-
बिधि सब बिधि मोहिं सनमुख आजू- ब्रह्मा जी मेरे अनुकूल ही लिखे हैं( जिनकी ऐसी भावना है उसे दुख क्या करेगा) ।

सुख दुःख समेकृत्वा लाभालाभो जयाजयो।

वास्तव में श्रीराम जी कठोर भी नहीं हैं,बल्कि वे करूणानिधान हैं और मृदुल भी-
करूनामय मृदु राम सुभाऊ...करूनामय रघुनाथ गोसाईं।
हाँ ! उन्हें दुख तो स्पर्श भी नहीं कर सकता किन्तु वे पर (भक्तों के )दुख दुखी दयाल हैं।
श्रीराम मुख - सदा अस्तु मंजुल मंगल प्रदा- अपने भक्तों के लिए हमेशा सुंदर,सुखद और कल्याण कारी है।
मुखाम्बुजश्री..- श्रीराम मुख रूपी कमल कभी मलिन नहीं होता है किन्तु साधारण कमल की मुस्कान सूर्योदय होने पर तथा जल के अभाव में खराब हो जाता है।
अतः संत स्वभावी दास हमेशा भरत,लखन आदि जैसे प्रभु मुख कमल देखना चाहते हैं- प्रभु मुख कमल बिलोकत रहहिं।कबहुँ कृपाल हमहिं कछु कहहिं।।श्रीराम मुख कमल के भौंरा सरभंग मुनि को देखिए-
देखि राम मुख पंकज ,मुनि वर लोचन भृंग ।सादर पान करत अति,धन्य जन्म सरभंग।।
तो मित्रों! हमें भी कांचन कामिनी सदृश साधारण कमल नहीं बल्कि "श्रीराम मुख कमल" का निरंतर अवलोकन करने की कोशिश करते रहना चाहिए।

*नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।
करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥

जो नीलकमल के समान श्यामवर्ण हैं, पूर्ण खिले हुए लाल कमल के समान जिनके नेत्र हैं और जो सदा क्षीरसागर पर शयन करते हैं, वे भगवान्‌ (नारायण) मेरे हृदय में निवास करें॥
[2/18, 19:04] P anuragi. ji: सर्वेभ्यो शुभ संध्या

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अस विचारि संतन्ह मोहिं भजहीं ।
पायहु ज्ञान भगति नहिं तजही ।।

    आचार्य श्रेष्ठ  के मत  से  हम  सहमत  हैं । विद्वान शब्द यदि  एकाकी  है तो अहंकार को पोषित करता है । उसमें यदि भक्ति समाहित हो तो ऐसी बाधा नहीं आ सकती है ।
     इतना कहना चाहूंगा कि  विद्वान शब्द  को पूर्ण परिभाषित करें । उस परिभाषा में अधिकार के साथ कर्तब्य भी हों एवं कर्तब्य के साथ भावनाएं भी हों । शायद शब्द की ब्यापकता के साथ " विद्वान " की परिभाषा में कुछ अंतर प्रतीत हो ।
        स्वमति से निरूपित । विद्वत समुदाय सहमत ही हो ऐसी आकांक्षा नहीं । शामिति ।
              अनुरागी जी
[2/18, 19:23] राम भवनमणि त्रिपाठी: जागो ब्राह्मण जागो जागो

गीत 
धरती रथ जिसका चार वेद, जिसके घोड़ों के स्‍यंदन है
जो क्रांतिदूत, जमदग्‍नि पूत, उस ब्राह्मण का अभिनंदन है
सिर जटा जूट, साहस अटूट, रू रू नामक मृग की मृगछाला
इक्‍कीस बार जिसने धरणी को, वीर विहीन बना डाला
कुरूक्षेत्र धरा पर बाँध बाँध , अनगिनती बैरी काटे थे
जो पाँच सरोवर रीते थे, उसको अरि के शोणित से पाटे थे
है हय अर्जुन के सहस पुत्र, अपने ही हाथों मारे थे
उस शोर्यवान के आगे सब, अत्‍याचारी मिल हारे थे
उस वीर विप्र ने समय नब्‍ज को, सही समय पर जाना था
जब नाक तलक पानी आया, तब अपना फरसा ताना था
अवतारी के चरणों अर्पित, शब्‍दों को केसर चन्‍दन हैं
जो क्रांतिदूत, जमदग्‍नि पूत, उस ब्राह्मण का अभिनंदन है

जब परशु उठा था परशुराम को, सन्‍नाटा सा छाया था
भय बिन प्रीत नहीं होती, सिद्धान्त समझ में आया था
हम ऋषियों की संतानें हैं, ऊँचे उठने की ठाने हम
अपने पुरखों के कर्मयोग, प्रज्ञा को भी पहचाने हम
अपना एकत्‍व परशु जाने, अपना गत गौरव याद करें
बेदर्द जहां पर हो हाकिम, तब क्‍यों फिजूल फरियाद करें
हे विप्र उठो अँगड़ाई लो, चाणक्‍य सरिस बन कर आओ
ज्ञान ध्‍यान विज्ञान पढो, दुनिया पर फिर से छा जाओ 
हमको अंगुलि से बता रहा, विस्‍तृत पथ वह भृगु नंदन है
जो क्रांतिदूत, जमदग्‍नि पूत, उस ब्राह्मण का अभिनंदन है 

जिसके हाथों में बल होता, जग को तो वही चलाते हैं
दुनियां में वे ही पूजित हैं, उनके ही नगमें गाते हैं
जागो ब्राह्मण जागो जागो, अपने वर्णोतम को जानो
पर मरीचिका में मत भटको, तुम वर्तमान का पहचानो
जजमानी के दिन बीत गए, जजमानों ने कसली अंटी
अपनी संस्‍कृति पर निष्‍ठा पर, खतरे की आज बजी घंटी
ब्राह्मण के तो अस्‍तित्‍व तलक पर, घोर घटा मंडराई है
अब तिलक जनेऊ चोटी औ, मर्यादा पर बन आई है
ब्राह्मण के धर आज विकट, रोजी रोटी का क्रंदन है
जो क्रांतिदूत, जमदग्‍नि पूत, उस ब्राह्मण का अभिनंदन है

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