Friday, March 3, 2017

२८ फरवरी की वार्ता

[2/27, 23:50] ‪+91 98239 16297‬: *सूर्यसिद्धांतीय देशपांडे दैनिक पंचांग-- २८ फेब्रुवारी २०१७*

***!!श्री मयूरेश्वर प्रसन्न!!***
☀धर्मशास्त्रसंमत प्राचीन शास्त्रशुद्ध सूर्यसिद्धांतीय देशपांडे पंचांग (पुणे) नुसार
दिनांक २८ फेब्रुवारी २०१७
पृथ्वीवर अग्निवास १८:१८ नंतर.
रवि मुखात आहुती आहे.
शिववास गौरीसन्निध १८:१८ पर्यंत नंतर सभेत,काम्य शिवोपासनेसाठी १८:१८ पर्यंत शुभ नंतर अशुभ दिवस आहे.
☀ *राष्ट्रीय भारतीय सौर दिनांक* -  ९ फाल्गुन, शके १९३८
☀ *सूर्योदय* -०६:५८
☀ *सूर्यास्त* -१८:३६
*शालिवाहन शके* -१९३८
*संवत्सर* -दुर्मुख
*अयन* -उत्तरायण
*ऋतु* -शिशिर (सौर)
*मास* -फाल्गुन
*पक्ष* -शुक्ल
*तिथी* -द्वितीया (१८:१८ पर्यंत)
*वार* -मंगळवार
*नक्षत्र* -पू.भाद्र. (०६:५० नंतर उ.भाद्र.)
*योग* -साध्य (१४:१३ नंतर शुभ)
*करण* -बालव (०६:५७ नंतर कौलव १८:१८ नंतर तैतिल)
*चंद्र रास* -मीन
*सूर्य रास* -कुंभ
*गुरु रास* -तुळ
*राहु काळ* -१५:०० ते १६:३०
*पंचांगकर्ते*:सिद्धांती ज्योतिषरत्न गणकप्रवर
*पं.गौरवशास्त्री देशपांडे-०९८२३९१६२९७*
*विशेष*-पंचक दिवसभर,चंद्रदर्शन,सर्वार्थसिद्धियोग ०६:५० ते २९:५९ नंतर रवियोग,श्री रामकृष्ण परमहंस जयंती,या दिवशी पाण्यात रक्तचंदन चूर्ण घालून स्नान करावे.मंगलचंडिका कवच या स्तोत्राचे पठण करावे."अं अंगारकाय नमः" या मंत्राचा किमान १०८ जप करावा.सत्पात्री व्यक्तिस मसूर दान करावे.गणपतीला गुळ-खोब-याचा नैवेद्य दाखवावा.यात्रेसाठी घरातून बाहेर पडताना गूळ प्राशन करुन बाहेर पडल्यास प्रवासात ग्रहांची अनुकूलता प्राप्त होईल.
*विशेष टीप* - *आगामी नूतन संवत्सरारंभी येणारा गुढीपाडवा सूर्यसिद्धांतीय पंचांगानुसार म्हणजेच मुख्यतः धर्मशास्त्रानुसार या वेळी मंगळवार दि.२८ मार्च २०१७ रोजी नसून बुधवार दि.२९ मार्च २०१७ रोजी आहे.कारण सूर्यसिद्धांतानुसार दि.२८ मार्च रोजी सूर्योदयास अमावस्या तिथी आहे व दि.२९ मार्च रोजी सूर्योदयास प्रतिपदा तिथी आहे.याची विशेष नोंद हिंदूंनी घ्यावी व सर्वांनी गुढी-ब्रम्हध्वज पूजन हे चैत्र शु.प्रतिपदेला बुधवार दि.२९ मार्च २०१७ रोजी करावे.*
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*टीप*-->>सर्व कामांसाठी शुभ दिवस आहे.
**या दिवशी तोंडल्याची भाजी खावू नये.
**या दिवशी लाल वस्त्र परिधान करावे.
*आगामी नूतन संवत्सराचे सर्वांना उपयुक्त व फायदेशीर असे धर्मशास्त्रसंमत सूर्यसिद्धांतीय देशपांडे पंचांग सर्वत्र उपलब्ध आहे.*
♦ *लाभदायक वेळा*-->>
लाभ मुहूर्त-- सकाळी ११.१५ ते दुपारी १२.४५
अमृत मुहूर्त-- दुपारी १२.४५ ते दुपारी २.१५
|| *यशस्वी जीवनाचे प्रमुख अंग* ||
|| *सूर्यसिध्दांतीय देशपांडे पंचांग* ||
आपला दिवस सुखाचा जावो,मन प्रसन्न राहो.
(कृपया वरील पंचांग हे पंचांगकर्त्यांच्या नावासहच व अजिबात नाव न बदलता शेअर करावे.या लहानश्या कृतीने तात्त्विक आनंद व नैतिक समाधान मिळते.@copyright)
[2/27, 23:55] ओमीश Omish Ji: 🌺🌺🌺🌺 सत्संग का प्रभाव🌺🌺🌺🌺🌺🌺

एक राजा बड़ा सनकी था। एक बार सूर्यग्रहण हुआ तो उसने राजपंडितों से पूछा, ‘‘सूर्यग्रहण क्यों होता है?’’
पंडित बोले, ‘‘राहू के सूर्य को ग्रसने से।’’
‘राहू क्यों और कैसे ग्रसता है? बाद में सूर्य कैसे छूटता है?’’
जब उसे इन प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर नहीं मिले तो उसने आदेश दिया, ‘‘हम खुद सूर्य तक पहुंचकर सच्चाई पता करेंगे। एक हजार घोड़े और घुड़सवार तैयार किए जाएं।’’
राजा की इस बात का विरोध कौन करे? उसका वफादार मंत्री भी चिंतित हुआ। मंत्री का बेटा था वज्रसुमन। उसे छोटी उम्र में ही सारस्वत्य मंत्र मिल गया था, जिसका वह नित्य श्रद्धापूर्वक जप करता था। गुरुकुल से मिले संस्कारों, मौन व एकांत के अवलंबन से तथा नित्य ईश्वरोपासना से उसकी बुद्धि इतनी सूक्ष्म हो गई थी।
वज्रसुमन को जब पिता की चिंता का कारण पता चला तो उसने कहा, ‘‘पिता जी! मैं भी आपके साथ यात्रा पर चलूंगा।’’
पिता, ‘‘बेटा! राजा की आज्ञा नहीं है। तू अभी छोटा है।’’
नहीं पिता जी! पुरुषार्थ एवं विवेक उम्र के मोहताज नहीं है। मैं राजा को आने वाली विपदा से बचाकर ऐसी सीख दूंगा जिससे वह दोबारा कभी ऐसी आज्ञा नहीं देगा। मंत्री, ‘‘अच्छा ठीक है पर जब सभी आगे निकल जाएं, तब तू धीरे से पीछे-पीछे आना।’’
राजा सैनिकों के साथ निकल पड़ा। चलते-चलते काफिला एक घने जंगल में फंस गया। तीन दिन बीत गए। भूखे-प्यासे सैनिकों और राजा को अब मौत सामने दिखने लगी। हताश होकर राजा ने कहा, ‘‘सौ गुनाह माफ हैं, किसी के पास कोई उपाय हो तो बताओ।’’
मंत्री, ‘‘महाराज! इस काफिले में मेरा बेटा भी है। उसके पास इस समस्या का हल है। आपकी आज्ञा हो तो...’’
‘‘हां-हां, तुरंत बुलाओ उसे।’’
वज्रसुमन बोला, ‘‘महाराज! मुझे पहले से पता था कि हम लोग रास्ता भटक जाएंगे इसीलिए मैं अपनी प्रिय घोड़ी को साथ लाया हूं। इसका दूध-पीता बच्चा घर पर है। जैसे ही मैं इसे लगाम से मुक्त करूंगा, वैसे ही यह सीधे अपने बच्चे से मिलने के लिए भागेगी और हमें रास्ता मिल जाएगा।’’
ऐसा ही हुआ और सब लोग सकुशल राज्य में पहुंच गए।
राजा ने पूछा, ‘‘वज्रसुमन! तुमको कैसे पता था कि हम राह भटक जाएंगे और घोड़ी को रास्ता पता है? यह युक्ति तुम्हें कैसे सूझी?’’
‘‘राजन! सूर्य हमसे करोड़ों कोस दूर है और कोई भी रास्ता सूरज तक नहीं जाता। अत: कहीं न कहीं फंसना स्वाभाविक था।’’
दूसरा, ‘‘पशुओं को परमात्मा ने यह योग्यता दी है कि वे कैसी भी अनजान राह में हों उन्हें अपने घर का रास्ता ज्ञात होता है। यह मैंने सत्संग में सुना था।’’
तीसरा, ‘‘समस्या बाहर होती है, समाधान भीतर होता है। जहां बड़ी-बड़ी बुद्धियां काम करना बंद करती हैं वहां गुरु का ज्ञान, ध्यान और सुमिरन राह दिखाता है। आप बुरा न मानें तो एक बात कहूं?’’
‘‘नि:संकोच कहो।’’
‘‘यदि आप ब्रह्मज्ञानी संतों का सत्संग सुनते, उनके मार्गदर्शन में चलते तो ऐसा कदम कभी नहीं उठाते। अगर राजा सत्संगी होगा तो प्रजा भी उसका अनुसरण करेगी और उन्नत होगी, जिससे राज्य में सुख-शांति और समृद्धि बढ़ेगी।’’
राजा उसकी बातों से बहुत प्रभावित हुआ, बोला, ‘‘मैं तुम्हें एक हजार स्वर्ण मोहरें पुरस्कार में देता हूं और आज से अपना सलाहकार मंत्री नियुक्त करता हूं। अब मैं भी तुम्हारे गुरु जी के सत्संग में जाऊंगा, उनकी शिक्षा को जीवन में लाऊंगा।’’
इस प्रकार एक सत्संगी किशोर की सूझबूझ के कारण पूरे राज्य में अमन-चैन और खुशहाली छा गई।
[2/28, 04:26] राम भवनमणि त्रिपाठी: स्तोत्र

जय भगवति देवि नमो वरदे जय पापविनाशिनि बहुफलदे।

जय शुम्भनिशुम्भकपालधरे प्रणमामि तु देवि नरार्तिहरे॥1॥

जय चन्द्रदिवाकरनेत्रधरे जय पावकभूषितवक्त्रवरे।

जय भैरवदेहनिलीनपरे जय अन्धकदैत्यविशोषकरे॥2॥

जय महिषविमर्दिनि शूलकरे जय लोकसमस्तकपापहरे।

जय देवि पितामहविष्णुनते जय भास्करशक्रशिरोवनते॥3॥

जय षण्मुखसायुधईशनुते जय सागरगामिनि शम्भुनुते।

जय दु:खदरिद्रविनाशकरे जय पुत्रकलत्रविवृद्धिकरे॥4॥

जय देवि समस्तशरीरधरे जय नाकविदर्शिनि दु:खहरे।

जय व्याधिविनाशिनि मोक्ष करे जय वाञ्छितदायिनि सिद्धिवरे॥5॥

एतद्व्यासकृतं स्तोत्रं य: पठेन्नियत: शुचि:।

गृहे वा शुद्धभावेन प्रीता भगवती सदा॥6॥
[2/28, 07:01] ‪+91 97586 40209‬: श्रोत्रं श्रुतनैव न कुण्डलेन,
दानेन पाणिर्न तु कंकणेन।
विभाति कायः करुणापराणां,
परोपकारैर्नतु चन्दनेन।।
कान की शोभा शास्त्रों के श्रवण से होती है, कुण्डल पहनने से नहीं, हाथ की शोभा दान से होती है, कंगन पहनने से नहीं तथा दयालु मनुष्यों का शरीर परोपकार करने से ही शोभित होता है, चंदन लगाने से नहीं  ।
[2/28, 07:18] P anuragi. ji: 🌺मंगल सुप्रभातम🌺

      प्रभात किरण का शुभ आगमन अम्बर से अवनि पर हो रहा है ।  मंगलमयी रश्मि सदृश आप सब का जीवन मंगलमय हो यही शुभ कामना
              🌹अनुरागी जी🌹
[2/28, 07:55] ओमीश Omish Ji: उदयति यदि भानु: ,
              पश्चिमे दिग्विभागे,
विकसति यदि पद्मं,
               पर्वतानां शिखाग्रे ।
प्रचलति यदि मेरुः ,
               शीततां याति वह्निर्
न भवति पुनरुक्तं,
               भाषितं सज्जनानाम् ॥
यदि सूर्य पश्चिम दिशा मे उदित हो,कमल पर्वत के उपर खिलनेलगे,चाहे मेरु पर्वत हिलने लगे और अग्नि शीतल हो जाय तो भी सज्जन पुरुष अपनी बात से विमुख नहीं होता ॥आचार्य ✍
[2/28, 08:06] ‪+91 98895 15124‬: .     ।। 🕉 ।।
   🌞 *सुप्रभातम्* 🌞
««« *आज का पंचांग* »»»
कलियुगाब्द................5118
विक्रम संवत्..............2073
शक संवत्.................1938
रवि....................उत्तरायण
मास......................फाल्गुन
पक्ष..........................शुक्ल
तिथी....................द्वितीया
संध्या 05.20 पर्यंत पश्चात तृतीया
तिथि स्वामी.............विधाता
नित्यदेवी.........ज्वालामालिनी
सूर्योदय..........06.49.15 पर
सूर्यास्त..........06.30.44 पर
नक्षत्र...............उत्तराभाद्रपद
प्रातः 04.43 पर्यंत पश्चात रेवती
योग.........................साध्य
दोप 01.08 पर्यंत पश्चात शुभ
करण......................कौलव
संध्या 05.20 पर्यंत पश्चात तैतिल
ऋतु.........................बसंत
दिन.....................मंगलवार

🇧 *आंग्ल मतानुसार* :-
28 फरवरी सन 2017 ईस्वी |

☸ शुभ अंक............2
🔯 शुभ रंग............लाल

👁‍🗨 *राहुकाल* :
दोप 03.32 से 04.59 तक ।

🚦 *दिशाशूल* :-
उत्तरदिशा -
यदि आवश्यक हो तो गुड़ का सेवन कर यात्रा प्रारंभ करें।

✡ *चौघडिया* :-
प्रात: 09.45 से 11.12 तक चंचल
प्रात: 11.12 से 12.39 तक लाभ
दोप. 12.39 से 02.05 तक अमृत
दोप. 03.32 से 04.59 तक शुभ
रात्रि 07.59 से 09.32 तक लाभ ।

💮 *आज का मंत्र* :-
|| ॐ दिव्याय नमः ||

*संस्कृत सुभाषितानि* :-
*अष्टावक्र गीता - तृतीय अध्याय :-* 
उद्भूतं ज्ञानदुर्मित्रम-
वधार्यातिदुर्बलः।
आश्चर्यं काममाकाङ्क्षेत् कालमन्तमनुश्रितः॥३- ७॥
अर्थात :-
अंत समय के निकट पहुँच चुके व्यक्ति का उत्पन्न ज्ञान के अमित्र काम की इच्छा रखना, जिसको धारण करने में वह अत्यंत अशक्त है, आश्चर्य ही है॥७॥

*#‎ आरोग्यं :-*
दमा रोग :-
श्वास अथवा दमा श्वसन तंत्र की भयंकर कष्टदायी बीमारी है। यह रोग किसी भी उम्र के व्यक्ति को हो सकता है। श्वास पथ की मांसपेशियों में आक्छेप होने से सांस लेने निकालने में कठिनाई होती है। #खांसी का वेग होने और श्वासनली में कफ़ जमा हो जाने पर तकलीफ़ ज्यादा बढ जाती है । रोगी बुरी तरह हांफ़ने लगता है ।
यहां ऐसे घरेलू नुस्खों का उळ्लेख किया जा रहा है जो इस रोग ठीक करने, दौरे को नियंत्रित करने, और श्वास की कठिनाई में राहत देने वाल सिद्ध हुए हैं-

१) तुलसी के १५-२० पत्ते पानी से साफ़ करलें फ़िर उन पर काली मिर्च का पावडर बुरककर खाने से दमा मे राहत मिलती है।

२) एक केला छिलका सहित भोभर या हल्की आंच पर भुन लें। छिलका उतारने के बाद काली मिर्च का पावडर उस पर बुरककर खाने से श्वास की कठिनाई तुरंत दूर होती है।

३) दमा के दौरे को नियंत्रित करने के लिये हल्दी एक चम्मच दो चम्मच शहद में मिलाकर चाटलें।

४) तुलसी के पत्ते पानी के साथ पीस लें ,इसमें दो चम्मच शहद मिलाकर सेवन करने से दमा रोग में लाभ मिलता है।

५) पहाडी नमक सरसों के तेल मे मिलाकर छाती पर मालिश करने से फ़ोरन शांति मिलती है।

⚜ *आज का राशिफल* :-

🐑 *राशि फलादेश मेष* :-
दिया हुआ धन वापस आ सकता है। अस्वस्थता हो सकती है। यात्रा लाभदायक हो सकती है। विवाद से बचें। कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त हो सकती है।
           
🐂 *राशि फलादेश वृष* :-
शत्रु परास्त होंगे। मान-प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी। उद्योग-धंधे से लाभ होगा। जोखिम के कार्य सावधानी से करें। व्यक्तिगत समृद्धि होगी।
                               
👫 *राशि फलादेश मिथुन* :-
धर्म-कर्म में रुचि बढ़ेगी। सरकारी कार्य पूर्ण होंगे। व्यापार-निवेश लाभदायक होंगे। यात्रा में सावधानी रखें। पराक्रम से विरोधी को परास्त कर सकते हैं।
                        
🦀 *राशि फलादेश कर्क* :-
हानि-दुर्घटना के योग हैं, सावधानी रखें। व्यापार-व्यवसाय निवेश में जोखिम न लें। शत्रु सक्रिय रहेंगे। संतान संबंधी निर्णय सोच-समझकर लें।
                           
🦁 *राशि फलादेश सिंह* :-
जीवनसाथी से सहयोग मिलेगा। व्यापार-व्यवसाय निवेश लाभदायक रहेंगे। नौकरी आदि में इनाम-प्रमोशन मिल सकता है। लाभ होने से हर्ष होगा।
                        
👸🏻 *राशि फलादेश कन्या* :-
अस्वस्थता हो सकती है। उद्योग-निवेश लाभदायक होगा। यात्रा में सावधानी रखें। शत्रु शांत रहेंगे। समाज में मान-प्रतिष्ठा एवं लोकप्रियता बढ़ेगी।
                    
⚖ *राशि फलादेश तुला* :-
अचानक हानि-दुर्घटना के योग हैं। धर्म-कर्म में रुचि बढ़ेगी। संतान पक्ष से शुभ समा‍चार मिल सकता है। अभीष्ट कार्य की सिद्धि होगी। यश, प्रसिद्धि मिलेगी।
                      
🦂 *राशि फलादेश वृश्चिक* :-
चारों तरफ से अच्‍छी खबरें नहीं आएंगी। आवश्यक ऋण लेना पड़ सकता है। जोखिम के कार्य न करें। व्यापार-व्यवसाय अच्छा चलेगा।
             
🏹 *राशि फलादेश धनु* :-
पराक्रम से लाभ बढ़ेगा। संपत्ति के कार्यों में सफलता मिलेगी। व्यापार निवेश लाभ देंगे। यात्रा लाभदायक होगी। स्वाध्याय में रुचि बढ़ेगी। आलस्य न करें।
                         
🐊 *राशि फलादेश मकर* :-
शुभ समाचार मिलेंगे। जोखिम वाले कार्यों में सावधानी रखें। शत्रु परेशान करेंगे। यात्रा लाभदायक होगी। जीवनसाथी से मतभेद हो सकते हैं।
          
🏺 *राशि फलादेश कुंभ* :-
दुष्ट जन परेशान करेंगे। व्यापार-निवेश से लाभ होगा। यात्रा में सावधानी रखें। शत्रु परेशान करेंगे। जोखिम न उठाएं। पुरुषार्थ का प्रतिफल मिलेगा।
                 
🐬 *राशि फलादेश मीन* :-
चोरी-दुर्घटना से हानि हो सकती है। व्यापार निवेश में जोखिम न उठाएं। मूल्यवान वस्तु गुम हो सकती है। अपनी योजनाएं गोपनीय रखें।
             
☯ आज का दिन सभी के लिए मंगलमय हो ।

☯ आज मंगलवार है अपने नजदीक के मंदिर में संध्या 7 बजे सामूहिक हनुमान चालीसा पाठ में अवश्य सम्मिलित होवें |

।। 🐚 *शुभम भवतु* 🐚 ।।

🇮🇳🇮🇳 *भारत माता की जय* 🚩🚩
[2/28, 08:24] ओमीश Omish Ji: "आँसू-कुछ दोहे" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मोती होता आँख का, सबके लिए अमोल।
उसके लिए बहाइए, जिसके सच्चे बोल।१।

मत रोना उसके लिए, जो करता किल्लोल।
आँसू हैं उसके लिए, जो दिल को दे खोल।२।
   
रखना बहुत सँभाल के, ये मोती अनमोल।
सारे जग के सामने, यही खोलता पोल।३।

आँसू रहता आँख में, चेहरे पर मुस्कान।
एक दिखाता दर्द को, दूजा हरे थकान।४।

दुःख और अनुराग की, होती कथा विचित्र।
लेकिन हैं हर हाल में , ये दोनों ही मित्र।५।

सागर से कम है नहीं, आँसू का अस्तित्व।
आँसू का संसार में, होता है वर्चस्व।६।
[2/28, 08:49] ‪+91 96859 71982‬: ब्रह्म_संहिता

त्रय्या प्रबुद्धोऽथ विधिर्विज्ञाततत्त्वसागरः।
तुष्टाव वेदसारेण स्तोत्रेणानेन केशवम्।।२८।।

त्रय्या = तीन वेदों के मूर्तिमान स्वरूप से
प्रबुद्धः = प्रबुद्ध होकर
अथ = तब
विधिः = ब्रह्मा
विज्ञात = से परिचित
तत्त्व-सागरः = सत्य का समुद्र
तुष्टाव = पूजा की
वेद-सारेण = जो समस्त वेदों का सार है
स्तोत्रेण = स्तुतियों से
अनेन = इस
केशवम् = श्रीकृष्ण की

त्रिवेदमयी गायत्री के स्मरण द्वारा प्रबुद्ध होकर ब्रह्मा सत्यसागर से परिचित हो गये। तब उन्होंने समस्त वेदों के सार स्वरूप श्रीकृष्ण की इस प्रकार स्तुति की।
[2/28, 09:05] ‪+91 98896 25094‬: इस जीवन की चादर में,
                  सांसों के ताने बाने हैं,
           दुख की थोड़ी सी सलवट है,
                  सुख के कुछ फूल सुहाने हैं.
           क्यों सोचे आगे क्या होगा,
                  अब कल के कौन ठिकाने हैं,
     ☝ ऊपर बैठा वो बाजीगर ,
                जाने क्या मन में ठाने है.
          चाहे जितना भी जतन करे,
              भरने का दामन तारों से,
          झोली में वो ही आएँगे,
                 जो तेरे नाम के दाने है.""
                                
आप सभी भुदेवों को सादर प्रणाम🙏🙏
[2/28, 09:58] पं अर्चना जी: 💐💐🌞🌞🌞💐💐

*परिंदे रुक मत तुझमे जान बाकी है,*
*मन्जिल दूर है, बहुत उड़ान बाकी है।*
*आज या कल मुट्ठी में होगी दुनियाँ,*
*लक्ष्य पर अगर तेरा ध्यान बाकी है।*

*यूँ ही नहीं मिलती रब की मेहरबानी*,
*एक से बढ़कर एक इम्तेहान बाकी है।*
*जिंदगी की जंग में है हौसला जरुरी,*
*जीतने के लिए सारा जहान बाकी है।*

      *🌹Good morning🌹*
[2/28, 10:49] ‪+91 96859 71982‬: 🌿🍇🌿🍇🌿🍇🌿🍇🌿

                  *अनुमान*
           गलत हो सकता है पर
                  *अनुभव*
           कभी गलत नहीं होता
                   क्योंकि....
                  *अनुमान*
         हमारे मन की कल्पना है
               *और अनुभव*
         हमारे जीवन की सीख है
           जिसे हर पल हर दम 
                 *हम जीते है*!!

    
      ❗❗सुप्रभात  ❗❗
🍇🌿🍇🌿🍇🌿🍇🌿🍇
[2/28, 10:56] ‪+91 96859 71982‬: प्रपत्ति योग वेद ,पुराण व इतिहास सम्मत योग हैं
यदि हम बाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड का अठारहवा अध्याय पर गौर फरयाये तो वहाँ हमें शरणागति, प्रपत्ति, आत्मभरन्यास, प्रपदन  के सूत्र  साफ साफ देखने को मिल जायेगे उसी प्रकार गीता के अठारहवे अध्याय में भगवान कृष्ण स्पष्ट उद्घोषणा करते हैं
मामेव शरणं ब्रज ।
इसी प्रकार श्वेताश्वतर उपनिषद् के छठे अध्याय का अठारहवा मन्त्र देखिए
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं
यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै ।
तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं
मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये ।।
इस मन्त्र के दूसरे चरण में वै व च दो निश्चयात्मक निपात प्रयुक्त हुए है तथा तीसरे व चौथे चरण में भी वै और ह निपातों का प्रयोग कर श्रुति  हमें विश्वास दिलाती हैं assuredकरती हैं कि इस भवबन्धन से मुक्त होना चाहते हो,त्रिविध ताप का प्रशमन चाहते हो,मुमुक्षु हो तो पंचागों के साथ उन श्रीमन्नारायण की प्रपत्ति करो जो कल्पारम्भ में हर बार अपनी नाभि के माध्यम से हिरण्यगर्भ ब्रह्मा को प्रकट करते हैं ।code of conductके रुप में चारो वेद उसे प्रदान करते हैं ।जो हमारे भीतर अन्तर्यामी inner controller के रुप मे रहकर indwelling हमारी बुद्धि व अन्तःकरण को प्रकाशित करते हैं ।गीता में यही कहते है
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः मत्तः स्मृतज्ञानमपोहनं च ।।
निगमान्तदेशिक ने इसी मन्त्र को अपने शब्दों में इस तरह अभिव्यक्त किया हैं
स्वतःसिद्धः ,श्रीमान् ,अमितगुणभूमा ,करुणया
विधाय ब्रह्मादीन्, वितरति निजादेशमपि यः ।
प्रपत्त्या साक्षात् वा भजनशिरसा वाsपि सुलभं
मुमुक्षुर्देवेशं तमहमधिगच्छामि शरणम् ।।
जो हमारी तरह जन्म न लेकर स्वतः आविर्भूत self manifestedहैं ।जो श्री जी से एक क्षण भी विलग नही होते,जो अमितकल्याणगुणमहोदधि है ocean of limitless auspicious attributes हैं ।जो प्रलयावस्था मे जड़ की तरह निष्क्रिय पड़े जीवों पर करुणावश कृपा कर अपनी संकल्प शक्ति से ब्रह्मा व ब्रह्मांड का सृजन करते हैं ।निजादेश शास्त्राज्ञा का व वेदों का उपदेश प्रदान करते है,अगति हम ऐसे श्रीमन्नारायण की मोक्षार्थ प्रपत्ति करते है। संकलित।
[2/28, 11:27] राम भवनमणि त्रिपाठी: अमृत का अर्थ है:जिससे जीवन मिले,
जिससे अमरत्व मिले;
जिससे उसका ज्ञान हो ,जो शाश्वत है।
तो
क्षमा!
क्रोध विष है;क्षमा अमृत है।
आर्जव!
कुटिलता विष है;सीधा-सरलपन, आर्जव अमृत है।
दया!
कठोरता,क्रूरता विष है;दया,करुणा अमृत है।
संतोष!
असंतोष का कीड़ा खाये चला जाता है।
असंतोष हृदय में कैंसर की तरह है,फैलता चला जाता है;विष को फैलाये चला जाता है।
संतोष-जो है उससे तृप्ति,जो नहीं है उसकी आकांक्षा नहीं है।
जो है,वो पर्याप्त से ज्यादा है,आँखे खोले मनुष्य और जरा देखे!संतोष को थोपना नहीं है।गौर से मनुष्य देखे तो पायेगा,जो मिला है;वह सदा ही जरूरत से ज्यादा है!जो चाहिए वह मिलता ही रहा है।
जो चाहा,वह सदा मिल गया है।
गलत चाहा,गलत मिल गया;
सही चाहा,तो सही मिल गया।
मनुष्य की चाह से ही जीवन निर्मित हुआ है।
चाह है बीज ,फिर जीवन उसकी फसल है।जन्मों-2 से मनुष्य जो चाहता रहा है वही उसे मिलता रहा है।
कई बार मनुष्य सोचता है कि जो चाहा था,वह तो नहीं मिल रहा है-चाहने में कोई भूल नहीं हुयी है लेकिन चाहा ही गलत था।
जैसे मनुष्य चाहता है सफलता और मिलती है विफलता।
जिसने सफलता चाही,उसने विफलता को स्वीकार कर ही लिया;विफलता न हो इसीलिये तो सफलता चाह रहा है।
जब -2 सफलता चाहेगा,तब-2 विफलता का ख्याल भी उठेगा।विफलता का ख्याल भी मजबूत होता चला जाएगा।सफलता तो जब मिलेगी,तब मिलेगी ;लेकिन यात्रा विफलता के ख्यालों के साथ ही होगी।और एक दिन विफलता का ख्याल संग्रहीभूत होकर प्रकट हो जाएगा।
सफलता को चाहने में ही विफलता को भी चाह लिया था।
[2/28, 12:36] ‪+91 84259 90587‬: शिवजी ने पार्वती को बताया था की
इन 4 लोग की बातों पर ध्यान नही
          देना चाहिए ।

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस में शिवजी और पार्वती का एक प्रसंग बताया है, जिसमें शिवजी 4 ऐसे लोगों के विषय में भी बताते हैं, जिनकी बातों पर हमें ध्यान नहीं देना चाहिए।

बातल भूत बिबस मतवारे।
ते नही बोलहि वचन विचारे।।
जिन्ह कृत महामोह मद पाना।
तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना।।

1. पहला व्यक्ति वह है जो वायु रोग यानी गैस से पीड़ित है। वायु रोग में भयंकर पेट दर्द होता है। जब पेट दर्द हद से अधिक हो जाता है तो इंसान कुछ भी सोचने-विचारने की अवस्था में नहीं होता है। ऐसी हालत पीड़ित व्यक्ति कुछ भी बोल सकता है, अत: उस समय उसकी बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए।

2. यदि कोई व्यक्ति पागल हो जाए, किसी की सोचने-समझने की शक्ति खत्म हो जाए तो वह कभी भी हमारी बातों का सीधा उत्तर नहीं देता है। अत: ऐसे लोगों की बातों पर भी ध्यान नहीं देना चाहिए।

3. यदि कोई व्यक्ति नशे में डूबा हुआ है तो उससे ऐसी अवस्था में बात करने का कोई अर्थ नहीं निकलता है। जब नशा हद से अधिक हो जाता है तो व्यक्ति का खुद पर कोई नियंत्रण नहीं रहता है, उसकी सोचने-समझने की शक्ति खत्म हो जाती है, ऐसी हालत में वह कुछ भी कर सकता है, कुछ भी बोल सकता है। अत: ऐसे लोगों से दूर ही रहना श्रेष्ठ है।

4. जो व्यक्ति मोह-माया में फंसा हुआ है, जिसे झूठा अहंकार है, जो स्वार्थी है, जो दूसरों को छोटा समझता है, ऐसे लोगों की बातों पर भी ध्यान नहीं देना चाहिए। यदि इन लोगों की बातों पर ध्यान दिया जाएगा तो निश्चित ही हमारी ही हानि होती है ।✍☘💕
[2/28, 12:36] ‪+91 84259 90587‬: *श्री राम-लक्ष्मण और परशुराम-संवाद*

* नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥

हे नाथ! शिवजी के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई एक दास ही होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते? यह सुनकर क्रोधी मुनि रिसाकर बोले-॥

* सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥

सेवक वह है जो सेवा का काम करे। शत्रु का काम करके तो लड़ाई ही करनी चाहिए। हे राम! सुनो, जिसने शिवजी के धनुष को तोड़ा है, वह सहस्रबाहु के समान मेरा शत्रु है॥

* सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने॥

वह इस समाज को छोड़कर अलग हो जाए, नहीं तो सभी राजा मारे जाएँगे। मुनि के वचन सुनकर लक्ष्मणजी मुस्कुराए और परशुरामजी का अपमान करते हुए बोले-॥

* बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥
एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥

हे गोसाईं! लड़कपन में हमने बहुत सी धनुहियाँ तोड़ डालीं, किन्तु आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजा स्वरूप परशुरामजी कुपित होकर कहने लगे॥

* रे नृप बालक काल बस बोलत तोहि न सँभार।
धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥

अरे राजपुत्र! काल के वश होने से तुझे बोलने में कुछ भी होश नहीं है। सारे संसार में विख्यात शिवजी का यह धनुष क्या धनुही के समान है?॥

* लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥
का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें॥

लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे देव! सुनिए, हमारे जान में तो सभी धनुष एक से ही हैं। पुराने धनुष के तोड़ने में क्या हानि-लाभ! श्री रामचन्द्रजी ने तो इसे नवीन के धोखे से देखा था॥

* छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥
बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥

फिर यह तो छूते ही टूट गया, इसमें रघुनाथजी का भी कोई दोष नहीं है। मुनि! आप बिना ही कारण किसलिए क्रोध करते हैं? परशुरामजी अपने फरसे की ओर देखकर बोले- अरे दुष्ट! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना॥

* बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥

मैं तुझे बालक जानकर नहीं मारता हूँ। अरे मूर्ख! क्या तू मुझे निरा मुनि ही जानता है। मैं बालब्रह्मचारी और अत्यन्त क्रोधी हूँ। क्षत्रियकुल का शत्रु तो विश्वभर में विख्यात हूँ॥

* भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥
अपनी भुजाओं के बल से मैंने पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया और बहुत बार उसे ब्राह्मणों को दे डाला। हे राजकुमार! सहस्रबाहु की भुजाओं को काटने वाले मेरे इस फरसे को देख!॥

* मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥
अरे राजा के बालक! तू अपने माता-पिता को सोच के वश न कर। मेरा फरसा बड़ा भयानक है, यह गर्भों के बच्चों का भी नाश करने वाला है॥

*बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी॥
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥

लक्ष्मणजी हँसकर कोमल वाणी से बोले- अहो, मुनीश्वर तो अपने को बड़ा भारी योद्धा समझते हैं। बार-बार मुझे कुल्हाड़ी दिखाते हैं। फूँक से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं॥

* इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥
देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥

यहाँ कोई कुम्हड़े की बतिया (छोटा कच्चा फल) नहीं है, जो तर्जनी (सबसे आगे की) अँगुली को देखते ही मर जाती हैं। कुठार और धनुष-बाण देखकर ही मैंने कुछ अभिमान सहित कहा था॥

*भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी॥
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई॥

भृगुवंशी समझकर और यज्ञोपवीत देखकर तो जो कुछ आप कहते हैं, उसे मैं क्रोध को रोककर सह लेता हूँ। देवता, ब्राह्मण, भगवान के भक्त और गो- इन पर हमारे कुल में वीरता नहीं दिखाई जाती॥

* बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें॥
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥

क्योंकि इन्हें मारने से पाप लगता है और इनसे हार जाने पर अपकीर्ति होती है, इसलिए आप मारें तो भी आपके पैर ही पड़ना चाहिए। आपका एक-एक वचन ही करोड़ों वज्रों के समान है। धनुष-बाण और कुठार तो आप व्यर्थ ही धारण करते हैं॥

* जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर॥

इन्हें (धनुष-बाण और कुठार को) देखकर मैंने कुछ अनुचित कहा हो, तो उसे हे धीर महामुनि! क्षमा कीजिए। यह सुनकर भृगुवंशमणि परशुरामजी क्रोध के साथ गंभीर वाणी बोले-॥

* कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु॥
भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू॥

हे विश्वामित्र! सुनो, यह बालक बड़ा कुबुद्धि और कुटिल है, काल के वश होकर यह अपने कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवंश रूपी पूर्ण चन्द्र का कलंक है। यह बिल्कुल उद्दण्ड, मूर्ख और निडर है॥

* काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥
तुम्ह हटकहु जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥

अभी क्षण भर में यह काल का ग्रास हो जाएगा। मैं पुकारकर कहे देता हूँ, फिर मुझे दोष नहीं है। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो, तो हमारा प्रताप, बल और क्रोध बतलाकर इसे मना कर दो॥

* लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥
अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥
लक्ष्मणजी ने कहा- हे मुनि! आपका सुयश आपके रहते दूसरा कौन वर्णन कर सकता है? आपने अपने ही मुँह से अपनी करनी अनेकों बार बहुत प्रकार से वर्णन की है॥

* नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा.

इतने पर भी संतोष न हुआ हो तो फिर कुछ कह डालिए। क्रोध रोककर असह्य दुःख मत सहिए। आप वीरता का व्रत धारण करने वाले, धैर्यवान और क्षोभरहित हैं। गाली देते शोभा नहीं पाते॥

* सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥
शूरवीर तो युद्ध में करनी (शूरवीरता का कार्य) करते हैं, कहकर अपने को नहीं जनाते। शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर कायर ही अपने प्रताप की डींग मारा करते हैं॥

* तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा॥
सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा॥

आप तो मानो काल को हाँक लगाकर बार-बार उसे मेरे लिए बुलाते हैं। लक्ष्मणजी के कठोर वचन सुनते ही परशुरामजी ने अपने भयानक फरसे को सुधारकर हाथ में ले लिया॥

* अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू॥
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा॥
(और बोले-) अब लोग मुझे दोष न दें। यह कडुआ बोलने वाला बालक मारे जाने के ही योग्य है। इसे बालक देखकर मैंने बहुत बचाया, पर अब यह सचमुच मरने को ही आ गया है॥

* कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू॥
खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही॥

विश्वामित्रजी ने कहा- अपराध क्षमा कीजिए। बालकों के दोष और गुण को साधु लोग नहीं गिनते। (परशुरामजी बोले-) तीखी धार का कुठार, मैं दयारहित और क्रोधी और यह गुरुद्रोही और अपराधी मेरे सामने-॥

* उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें॥
न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें॥

उत्तर दे रहा है। इतने पर भी मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ, सो हे विश्वामित्र! केवल तुम्हारे शील (प्रेम) से। नहीं तो इसे इस कठोर कुठार से काटकर थोड़े ही परिश्रम से गुरु से उऋण हो जाता॥

* गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।
अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ॥

विश्वामित्रजी ने हृदय में हँसकर कहा- मुनि को हरा ही हरा सूझ रहा है (अर्थात सर्वत्र विजयी होने के कारण ये श्री राम-लक्ष्मण को भी साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं), किन्तु यह लोहमयी (केवल फौलाद की बनी हुई) खाँड़ (खाँड़ा-खड्ग) है, ऊख की (रस की) खाँड़ नहीं है (जो मुँह में लेते ही गल जाए। खेद है,) मुनि अब भी बेसमझ बने हुए हैं, इनके प्रभाव को नहीं समझ रहे हैं॥

* कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहिं जान बिदित संसारा॥
माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें॥

लक्ष्मणजी ने कहा- हे मुनि! आपके शील को कौन नहीं जानता? वह संसार भर में प्रसिद्ध है। आप माता-पिता से तो अच्छी तरह उऋण हो ही गए, अब गुरु का ऋण रहा, जिसका जी में बड़ा सोच लगा है॥

* सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा॥
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥
वह मानो हमारे ही मत्थे काढ़ा था। बहुत दिन बीत गए, इससे ब्याज भी बहुत बढ़ गया होगा। अब किसी हिसाब करने वाले को बुला लाइए, तो मैं तुरंत थैली खोलकर दे दूँ॥

*सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥
भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपदोही॥

लक्ष्मणजी के कडुए वचन सुनकर परशुरामजी ने कुठार सम्हाला। सारी सभा हाय-हाय! करके पुकार उठी। (लक्ष्मणजी ने कहा-) हे भृगुश्रेष्ठ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं? पर हे राजाओं के शत्रु! मैं ब्राह्मण समझकर बचा रहा हूँ ।।

* मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बा़ढ़े॥
अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे॥

आपको कभी रणधीर बलवान्‌ वीर नहीं मिले हैं। हे ब्राह्मण देवता ! आप घर ही में बड़े हैं। यह सुनकर 'अनुचित है, अनुचित है' कहकर सब लोग पुकार उठे। तब श्री रघुनाथजी ने इशारे से लक्ष्मणजी को रोक दिया॥

* लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु।।

लक्ष्मणजी के उत्तर से, जो आहुति के समान थे, परशुरामजी के क्रोध रूपी अग्नि को बढ़ते देखकर रघुकुल के सूर्य श्री रामचंद्रजी जल के समान (शांत करने वाले) वचन बोले-॥

*नाथ करहु बालक पर छोहु। सूध दूधमुख करिअ न कोहू॥
जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना॥

हे नाथ ! बालक पर कृपा कीजिए। इस सीधे और दूधमुँहे बच्चे पर क्रोध न कीजिए। यदि यह प्रभु का (आपका) कुछ भी प्रभाव जानता, तो क्या यह बेसमझ आपकी बराबरी करता ?॥

* जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं॥
करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी॥

बालक यदि कुछ चपलता भी करते हैं, तो गुरु, पिता और माता मन में आनंद से भर जाते हैं। अतः इसे छोटा बच्चा और सेवक जानकर कृपा कीजिए। आप तो समदर्शी, सुशील, धीर और ज्ञानी मुनि हैं॥

* राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसुकाने॥
हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड़ पापी॥

श्री रामचंद्रजी के वचन सुनकर वे कुछ ठंडे पड़े। इतने में लक्ष्मणजी कुछ कहकर फिर मुस्कुरा दिए। उनको हँसते देखकर परशुरामजी के नख से शिखा तक (सारे शरीर में) क्रोध छा गया। उन्होंने कहा- हे राम! तेरा भाई बड़ा पापी है॥

* गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूट मुख पयमुख नाहीं॥
सहज टेढ़ अनुहरइ न तोही। नीचु मीचु सम देख न मोही॥

यह शरीर से गोरा, पर हृदय का बड़ा काला है। यह विषमुख है, दूधमुँहा नहीं। स्वभाव ही टेढ़ा है, तेरा अनुसरण नहीं करता (तेरे जैसा शीलवान नहीं है)। यह नीच मुझे काल के समान नहीं देखता॥

* लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल।
जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल॥

लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे मुनि! सुनिए, क्रोध पाप का मूल है, जिसके वश में होकर मनुष्य अनुचित कर्म कर बैठते हैं और विश्वभर के प्रतिकूल चलते (सबका अहित करते) हैं॥

* मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया॥
टूट चाप नहिं जुरिहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने॥

हे मुनिराज! मैं आपका दास हूँ। अब क्रोध त्यागकर दया कीजिए। टूटा हुआ धनुष क्रोध करने से जुड़ नहीं जाएगा। खड़े-खड़े पैर दुःखने लगे होंगे, बैठ जाइए॥

* जौं अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई॥
बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं॥

यदि धनुष अत्यन्त ही प्रिय हो, तो कोई उपाय किया जाए और किसी बड़े गुणी (कारीगर) को बुलाकर जुड़वा दिया जाए। लक्ष्मणजी के बोलने से जनकजी डर जाते हैं और कहते हैं- बस, चुप रहिए, अनुचित बोलना अच्छा नहीं॥

* थर थर काँपहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी॥
भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होई बल हानी॥

जनकपुर के स्त्री-पुरुष थर-थर काँप रहे हैं (और मन ही मन कह रहे हैं कि) छोटा कुमार बड़ा ही खोटा है। लक्ष्मणजी की निर्भय वाणी सुन-सुनकर परशुरामजी का शरीर क्रोध से जला जा रहा है और उनके बल की हानि हो रही है (उनका बल घट रहा है)॥

* बोले रामहि देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा॥
मनु मलीन तनु सुंदर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसें॥

तब श्री रामचन्द्रजी पर एहसान जनाकर परशुरामजी बोले- तेरा छोटा भाई समझकर मैं इसे बचा रहा हूँ। यह मन का मैला और शरीर का कैसा सुंदर है, जैसे विष के रस से भरा हुआ सोने का घड़ा!॥

* सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम।
गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम॥
यह सुनकर लक्ष्मणजी फिर हँसे। तब श्री रामचन्द्रजी ने तिरछी नजर से उनकी ओर देखा, जिससे लक्ष्मणजी सकुचाकर, विपरीत बोलना छोड़कर, गुरुजी के पास चले गए॥

* अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी॥
सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना॥

श्री रामचन्द्रजी दोनों हाथ जोड़कर अत्यन्त विनय के साथ कोमल और शीतल वाणी बोले- हे नाथ! सुनिए, आप तो स्वभाव से ही सुजान हैं। आप बालक के वचन पर कान न दीजिए (उसे सुना-अनसुना कर दीजिए)॥

*बररै बालकु एकु सुभाऊ। इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ ॥
तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी मैं नाथ तुम्हारा॥

बर्रै और बालक का एक स्वभाव है। संतजन इन्हें कभी दोष नहीं लगाते। फिर उसने (लक्ष्मण ने) तो कुछ काम भी नहीं बिगाड़ा है, हे नाथ! आपका अपराधी तो मैं हूँ॥

* कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाईं॥
कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई॥

अतः हे स्वामी! कृपा, क्रोध, वध और बंधन, जो कुछ करना हो, दास की तरह (अर्थात दास समझकर) मुझ पर कीजिए। जिस प्रकार से शीघ्र आपका क्रोध दूर हो। हे मुनिराज! बताइए, मैं वही उपाय करूँ॥

* कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें॥
एहि कें कंठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं कहा कोपु करि कीन्हा॥

मुनि ने कहा- हे राम! क्रोध कैसे जाए, अब भी तेरा छोटा भाई टेढ़ा ही ताक रहा है। इसकी गर्दन पर मैंने कुठार न चलाया, तो क्रोध करके किया ही क्या?॥

* गर्भ स्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर।
परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर॥

मेरे जिस कुठार की घोर करनी सुनकर राजाओं की स्त्रियों के गर्भ गिर पड़ते हैं, उसी फरसे के रहते मैं इस शत्रु राजपुत्र को जीवित देख रहा हूँ॥

* बहइ न हाथु दहइ रिस छाती। भा कुठारु कुंठित नृपघाती॥
भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ॥

हाथ चलता नहीं, क्रोध से छाती जली जाती है। (हाय!) राजाओं का घातक यह कुठार भी कुण्ठित हो गया। विधाता विपरीत हो गया, इससे मेरा स्वभाव बदल गया, नहीं तो भला, मेरे हृदय में किसी समय भी कृपा कैसी?॥

* आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्रि बिहसि सिरु नावा॥
बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला॥

आज दया मुझे यह दुःसह दुःख सहा रही है। यह सुनकर लक्ष्मणजी ने मुस्कुराकर सिर नवाया (और कहा-) आपकी कृपा रूपी वायु भी आपकी मूर्ति के अनुकूल ही है, वचन बोलते हैं, मानो फूल झड़ रहे हैं॥

* जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भएँ तनु राख बिधाता॥
देखु जनक हठि बालकु एहू। कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू॥

हे मुनि ! यदि कृपा करने से आपका शरीर जला जाता है, तो क्रोध होने पर तो शरीर की रक्षा विधाता ही करेंगे। (परशुरामजी ने कहा-) हे जनक! देख, यह मूर्ख बालक हठ करके यमपुरी में घर (निवास) करना चाहता है॥

* बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृपु ढोटा॥
बिहसे लखनु कहा मन माहीं। मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं॥

इसको शीघ्र ही आँखों की ओट क्यों नहीं करते? यह राजपुत्र देखने में छोटा है, पर है बड़ा खोटा। लक्ष्मणजी ने हँसकर मन ही मन कहा- आँख मूँद लेने पर कहीं कोई नहीं है॥

* परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु।
संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु॥

तब परशुरामजी हृदय में अत्यन्त क्रोध भरकर श्री रामजी से बोले- अरे शठ! तू शिवजी का धनुष तोड़कर उलटा हमीं को ज्ञान सिखाता है॥

* बंधु कहइ कटु संमत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें॥
करु परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा॥

तेरा यह भाई तेरी ही सम्मति से कटु वचन बोलता है और तू छल से हाथ जोड़कर विनय करता है। या तो युद्ध में मेरा संतोष कर, नहीं तो राम कहलाना छोड़ दे॥

* छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही॥
भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसुकाहिं रामु सिर नाएँ॥

अरे शिवद्रोही! छल त्यागकर मुझसे युद्ध कर। नहीं तो भाई सहित तुझे मार डालूँगा। इस प्रकार परशुरामजी कुठार उठाए बक रहे हैं और श्री रामचन्द्रजी सिर झुकाए मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं॥

* गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू॥
टेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू॥

(श्री रामचन्द्रजी ने मन ही मन कहा-) गुनाह (दोष) तो लक्ष्मण का और क्रोध मुझ पर करते हैं। कहीं-कहीं सीधेपन में भी बड़ा दोष होता है। टेढ़ा जानकर सब लोग किसी की भी वंदना करते हैं, टेढ़े चन्द्रमा को राहु भी नहीं ग्रसता॥

* राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा॥
जेहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानिअ आपन अनुगामी॥

श्री रामचन्द्रजी ने (प्रकट) कहा- हे मुनीश्वर! क्रोध छोड़िए। आपके हाथ में कुठार है और मेरा यह सिर आगे है, जिस प्रकार आपका क्रोध जाए, हे स्वामी! वही कीजिए। मुझे अपना अनुचर (दास) जानिए॥

* प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।
बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु॥

स्वामी और सेवक में युद्ध कैसा? हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! क्रोध का त्याग कीजिए। आपका (वीरों का सा) वेष देखकर ही बालक ने कुछ कह डाला था, वास्तव में उसका भी कोई दोष नहीं है॥

*देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी॥
नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेहिं दीन्हा॥

आपको कुठार, बाण और धनुष धारण किए देखकर और वीर समझकर बालक को क्रोध आ गया। वह आपका नाम तो जानता था, पर उसने आपको पहचाना नहीं। अपने वंश (रघुवंश) के स्वभाव के अनुसार उसने उत्तर दिया॥

* जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं॥
छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी॥

यदि आप मुनि की तरह आते, तो हे स्वामी! बालक आपके चरणों की धूलि सिर पर रखता। अनजाने की भूल को क्षमा कर दीजिए। ब्राह्मणों के हृदय में बहुत अधिक दया होनी चाहिए॥

* हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा। कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा॥
राम मात्र लघुनाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा॥

हे नाथ! हमारी और आपकी बराबरी कैसी? कहिए न, कहाँ चरण और कहाँ मस्तक! कहाँ मेरा राम मात्र छोटा सा नाम और कहाँ आपका परशुसहित बड़ा नाम॥

* देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें॥
सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे॥

हे देव! हमारे तो एक ही गुण धनुष है और आपके परम पवित्र (शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता ये) नौ गुण हैं। हम तो सब प्रकार से आपसे हारे हैं। हे विप्र! हमारे अपराधों को क्षमा कीजिए॥

* बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।
बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधू सम बाम॥

श्री रामचन्द्रजी ने परशुरामजी को बार-बार 'मुनि' और 'विप्रवर' कहा। तब भृगुपति (परशुरामजी) कुपित होकर (अथवा क्रोध की हँसी हँसकर) बोले- तू भी अपने भाई के समान ही टेढ़ा है॥

* निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥
चाप सुवा सर आहुति जानू। कोपु मोर अति घोर कृसानू॥

तू मुझे निरा ब्राह्मण ही समझता है? मैं जैसा विप्र हूँ, तुझे सुनाता हूँ। धनुष को सु्रवा, बाण को आहुति और मेरे क्रोध को अत्यन्त भयंकर अग्नि जान॥

* समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई॥
मैं एहिं परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे॥

चतुरंगिणी सेना सुंदर समिधाएँ (यज्ञ में जलाई जाने वाली लकड़ियाँ) हैं। बड़े-बड़े राजा उसमें आकर बलि के पशु हुए हैं, जिनको मैंने इसी फरसे से काटकर बलि दिया है। ऐसे करोड़ों जपयुक्त रणयज्ञ मैंने किए हैं (अर्थात जैसे मंत्रोच्चारण पूर्वक 'स्वाहा' शब्द के साथ आहुति दी जाती है, उसी प्रकार मैंने पुकार-पुकार कर राजाओं की बलि दी है)॥

* मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें॥
भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा॥

मेरा प्रभाव तुझे मालूम नहीं है, इसी से तू ब्राह्मण के धोखे मेरा निरादर करके बोल रहा है। धनुष तोड़ डाला, इससे तेरा घमंड बहुत बढ़ गया है। ऐसा अहंकार है, मानो संसार को जीतकर खड़ा है॥

* राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी॥
छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं केहि हेतु करौं अभिमाना॥

श्री रामचन्द्रजी ने कहा- हे मुनि! विचारकर बोलिए। आपका क्रोध बहुत बड़ा है और मेरी भूल बहुत छोटी है। पुराना धनुष था, छूते ही टूट गया। मैं किस कारण अभिमान करूँ?॥

* जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।
तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ॥

हे भृगुनाथ! यदि हम सचमुच ब्राह्मण कहकर निरादर करते हैं, तो यह सत्य सुनिए, फिर संसार में ऐसा कौन योद्धा है, जिसे हम डरके मारे मस्तक नवाएँ?।

* देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना॥
जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ ॥

देवता, दैत्य, राजा या और बहुत से योद्धा, वे चाहे बल में हमारे बराबर हों चाहे अधिक बलवान हों, यदि रण में हमें कोई भी ललकारे तो हम उससे सुखपूर्वक लड़ेंगे, चाहे काल ही क्यों न हो।।

* छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावँर आना॥
कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी॥

क्षत्रिय का शरीर धरकर जो युद्ध में डर गया, उस नीच ने अपने कुल पर कलंक लगा दिया। मैं स्वभाव से ही कहता हूँ, कुल की प्रशंसा करके नहीं, कि रघुवंशी रण में काल से भी नहीं डरते॥

* बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥
सुनि मृदु गूढ़ बचन रघुपत के। उघरे पटल परसुधर मति के॥

ब्राह्मणवंश की ऐसी ही प्रभुता (महिमा) है कि जो आपसे डरता है, वह सबसे निर्भय हो जाता है (अथवा जो भयरहित होता है, वह भी आपसे डरता है) श्री रघुनाथजी के कोमल और रहस्यपूर्ण वचन सुनकर परशुरामजी की बुद्धि के परदे खुल गए॥

* राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥
देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ॥

(परशुरामजी ने कहा-) हे राम! हे लक्ष्मीपति! धनुष को हाथ में लीजिए और इसे खींचिए, जिससे मेरा संदेह मिट जाए। परशुरामजी धनुष देने लगे, तब वह आप ही चला गया। तब परशुरामजी के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ॥

* जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।
जोरि पानि बोले बचन हृदयँ न प्रेमु अमात॥

तब उन्होंने श्री रामजी का प्रभाव जाना, (जिसके कारण) उनका शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया। वे हाथ जोड़कर वचन बोले- प्रेम उनके हृदय में समाता न था-॥

* जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानू॥
जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥
हे रघुकुल रूपी कमल वन के सूर्य! हे राक्षसों के कुल रूपी घने जंगल को जलाने वाले अग्नि! आपकी जय हो! हे देवता, ब्राह्मण और गो का हित करने वाले! आपकी जय हो। हे मद, मोह, क्रोध और भ्रम के हरने वाले! आपकी जय हो॥

* बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर॥
सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा॥

-हे विनय, शील, कृपा आदि गुणों के समुद्र और वचनों की रचना में अत्यन्त चतुर! आपकी जय हो। हे सेवकों को सुख देने वाले, सब अंगों से सुंदर और शरीर में करोड़ों कामदेवों की छबि धारण करने वाले! आपकी जय हो॥

*करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा॥
अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता।।

मैं एक मुख से आपकी क्या प्रशंसा करूँ? हे महादेवजी के मन रूपी मानसरोवर के हंस! आपकी जय हो। मैंने अनजाने में आपको बहुत से अनुचित वचन कहे। हे क्षमा के मंदिर दोनों भाई! मुझे क्षमा कीजिए॥

* कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू॥
अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने॥

हे रघुकुल के पताका स्वरूप श्री रामचन्द्रजी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो। ऐसा कहकर परशुरामजी तप के लिए वन को चले गए। (यह देखकर) दुष्ट राजा लोग बिना ही कारण के (मनः कल्पित) डर से (रामचन्द्रजी से तो परशुरामजी भी हार गए, हमने इनका अपमान किया था, अब कहीं ये उसका बदला न लें, इस व्यर्थ के डर से डर गए) वे कायर चुपके से जहाँ-तहाँ भाग गए॥

* देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल।
हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल॥

देवताओं ने नगाड़े बजाए, वे प्रभु के ऊपर फूल बरसाने लगे। जनकपुर के स्त्री-पुरुष सब हर्षित हो गए। उनका मोहमय (अज्ञान से उत्पन्न) शूल मिट गया॥

* अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे॥
जूथ जूथ मिलि सुमुखि सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनीं॥

खूब जोर से बाजे बजने लगे। सभी ने मनोहर मंगल साज साजे। सुंदर मुख और सुंदर नेत्रों वाली तथा कोयल के समान मधुर बोलने वाली स्त्रियाँ झुंड की झुंड मिलकर सुंदरगान करने लगीं॥

* सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई॥
बिगत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी॥

जनकजी के सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता, मानो जन्म का दरिद्री धन का खजाना पा गया हो! सीताजी का भय जाता रहा, वे ऐसी सुखी हुईं जैसे चन्द्रमा के उदय होने से चकोर की कन्या सुखी होती है॥

* जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा॥
मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाईं॥

जनकजी ने विश्वामित्रजी को प्रणाम किया (और कहा-) प्रभु ही की कृपा से श्री रामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ा है। दोनों भाइयों ने मुझे कृतार्थ कर दिया। हे स्वामी! अब जो उचित हो सो कहिए॥

* कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना॥
टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहू॥

मुनि ने कहा- हे चतुर नरेश ! सुनो यों तो विवाह धनुष के अधीन था, धनुष के टूटते ही विवाह हो गया। देवता, मनुष्य और नाग सब किसी को यह मालूम है॥

आज की कथा यही तक...

जय श्री राम🙏🙏
[2/28, 12:36] ‪+91 84259 90587‬: *शनि के पाया के फल :*
किसी भी व्यक्ति की जन्म राशि से शनि जिस भी भाव में गोचर कर रहा होता है. उसके अनुसार शनि के पाया अर्थात पाद फल विचार किया जाता है। व्यक्ति के जन्म कुण्डली को आधार बनाकर शनि पाया के फलों का अध्ययन किया जाता है। निम्न रुप से जन्म राशि के अनुसार शनि पाया की शुभता या अशुभता का निर्धारण किया जाता है।
*जब शनि गोचर में किसी व्यक्ति की जन्म राशि से 1, 6, 11 भाव में भ्रमण करते है। तो शनि के पाद स्वर्ण के माने जाते है।*
*जब शनि गोचर में किसी व्यक्ति की जन्म राशि से 2, 5, 9 वें भाव में गोचर करते है। तो शनि के पाद रजत के माने जाते हैं।*
*जब शनि गोचर में किसी व्यक्ति की जन्म राशि से 3, 7, 10 वें भाव में गोचर करते हैं तो शनि के पाद तो शनि के पाद ताम्रपाद के माने जाते हैं।*
*जब शनि गोचर में किसी व्यक्ति की जन्म राशि से 4, 8, 12 वें भाव में गोचर करते हैं तो शनि के पाद लोहे के माने जाते हैं।*

*शनि पाया अवधि में मिलने वाले सामान्य फल -*

*सोने का पाया की अवधि के फल :-*
सोने का पाया की अवधि में व्यक्ति को कई प्रकार के सुख मिलने की संभावनाएं बनती है। धन व समृद्धि के लिये भी यह समय व्यक्ति के अनुकुल होता है।

*चांदी का पाया की अवधि के फल :-*
यह अवधि में शुभ फल देने वाली कही गई है। शनि गोचर की इस अवधि में व्यक्ति को सब प्रकार की भौतिक सुख-सुविधाएं मिल सकती है।

*तांबे का पाया की अवधि के फल :-*
शनि गोचर की यह अवधि व्यक्ति को मिले- जुले फल देती है। जीवन के कई क्षेत्रों में व्यक्ति को सफलता प्राप्त होती है। तो कुछ अन्य क्षेत्रों में उसे असफलता का भी सामना करना पड सकता है।
*लोहे का पाया की अवधि के फल :-*
शनि गोचर की यह अवधि व्यक्ति के धन में हानि हो सकती है। व्यवसाय के लिये भी यह समय अनुकुल न रहने की संभावनाएं बनती है। शनि गोचर कि यह अवधि व्यक्ति के स्वास्थ्य में कमी कर सकती है।

*व्यक्तिगत अनुभव -*
मैंने चाँदी के पाए को अत्यधिक प्रभावशाली देखा है। चाँदी के पाए वाले लोग धनी होते चले जाते हैं। परंतु जब चाँदी के पाए वाले चन्द्रमा का सम्बन्ध अष्टमेश से हो जाता है तो यह कुयोग चाँदी के पाए के फलों को खण्डित देता है। इसके अतिरिक्त क्षीण , पापाक्रांत तथा पापदृष्ट चन्द्रमा भी चाँदी के पाए के फलों को नष्ट कर देते हैं। पापकर्तरी में चन्द्रमा जीवन को दु:ख और तकलीफों से भर देते हैं। विद्वतजन मेरे इस अनुभव पर अपनी प्रतिक्रिया दे सकते हैं।
[2/28, 12:36] ‪+91 84259 90587‬: *नक्षत्र से स्वभाव निर्धारण*
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*नक्षत्र संख्या में 27 हैं और एक राशि ढाई नक्षत्र से बनती है। नक्षत्र भी जातक का स्वभाव निर्धारित करते हैं।*
1. अश्विनी : बौद्धिक प्रगल्भता, संचालन शक्ति, चंचलता व चपलता इस जातक की विशेषता होती है।
2. भरणी : स्वार्थी वृत्ति, स्वकेंद्रित होना व स्वतंत्र निर्णय लेने में समर्थ न होना इस नक्षत्र के जातकों में दिखाई देता है।
3. कृतिका : अति साहस, आक्रामकता, स्वकेंद्रित, व अहंकारी होना इस नक्षत्र के जातकों का स्वभाव है। इन्हें शस्त्र, अग्नि और वाहन से भय होता है।
4. रोहिणी : प्रसन्न भाव, कलाप्रियता, मन की स्वच्छता व उच्च अभिरुचि इस नक्षत्र की विशेषता है।
5. मृगराशि : बु्द्धिवादी व भोगवादी का समन्वय, तीव्र बुद्धि होने पर भी उसका उपयोग सही स्थान पर न होना इस नक्षत्र की विशेषता है।
6. आर्द्रा : ये जातक गुस्सैल होते हैं। निर्णय लेते समय द्विधा मन:स्थिति होती है, संशयी स्वभाव भी होता है।
7. पुनर्वसु : आदर्शवादी, सहयोग करने वाले व शांत स्वभाव के व्यक्ति होते हैं। आध्यात्म में गहरी रुचि होती है।
8. अश्लेषा : जिद्दी व एक हद तक अविचारी भी होते हैं। सहज विश्वास नहीं करते व 'आ बैल मुझे मार' की तर्ज पर स्वयं संकट बुला लेते हैं।
9. मघा : स्वाभिमानी, स्वावलंबी, उच्च महत्वाकांक्षी व सहज नेतृत्व के गुण इन जातकों का स्वभाव होता है।
10. पूर्वा : श्रद्धालु, कलाप्रिय, रसिक वृत्ति व शौकीन होते हैं।
11. उत्तरा : ये संतुलित स्वभाव वाले होते हैं। व्यवहारशील व अत्यंत परिश्रमी होते हैं।
12. हस्त : कल्पनाशील, संवेदनशील, सुखी, समाधानी व सन्मार्गी व्यक्ति इस नक्षत्र में जन्म लेते हैं।
13. चित्रा : लिखने-पढ़ने में रुचि, शौकीन मिजाजी, भिन्न लिंगी व्यक्तियों का आकर्षण इन जातकों में झलकता है।
14. स्वाति : समतोल प्रकृति, मन पर नियंत्रण, समाधानी वृत्ति व दुख सहने व पचाने की क्षमता इनका स्वभाव है।
15. विशाखा : स्वार्थी, जिद्दी, हेकड़ीखोर व्यक्ति होते हैं। हर तरह से अपना काम निकलवाने में माहिर होते हैं।
16. अनुराधा : कुटुंबवत्सल, श्रृंगार प्रिय, मधुरवाणी, सन्मार्गी, शौकीन होना इन जातकों का स्वभाव है।
17. ज्येष्ठा : स्वभाव निर्मल, खुशमिजाज मगर शत्रुता को न भूलने वाले, छिपकर वार करने वाले होते हैं।
18. मूल : प्रारंभिक जीवन कष्टकर, परिवार से दुखी, राजकारण में यश, कलाप्रेमी-कलाकार होते हैं।
19. पूर्वाषाढ़ा : शांत, धीमी गति वाले, समाधानी व ऐश्वर्य प्रिय व्यक्ति इस नक्षत्र में जन्म लेते हैं।
20. उत्तराषाढ़ा : विनयशील, बुद्धिमान, आध्यात्म में रूचि वाले होते हैं। सबको साथ लेकर चलते हैं।
21. श्रवण : सन्मार्गी, श्रद्धालु, परोपकारी, कतृत्ववान होना इन जातकों का स्वभाव है।
22. धनिष्ठा : गुस्सैल, कटुभाषी व असंयमी होते हैं। हर वक्त अहंकार आड़े आता है।
23. शततारका : रसिक मिजाज, व्यसनाधीनता व कामवासना की ओर अधिक झुकाव होता है। समयानुसार आचरण नहीं करते।
24. पुष्य : सन्मर्गी, दानप्रिय, बुद्धिमान व दानी होते हैं। समाज में पहचान बनाते हैं।
25. पूर्व भाद्रपदा : बुद्धिमान, जोड़-तोड़ में निपुण, संशोधक वृत्ति, समय के साथ चलने में कुशल होते हैं।
26. उत्तरा भाद्रपदा : मोहक चेहरा, बातचीत में कुशल, चंचल व दूसरों को प्रभावित करने की शक्ति रखते हैं।
27. रेवती : सत्यवादी, निरपेक्ष, विवेकवान होते हैं। सतत जन कल्याण करने का ध्यास इनमें होता है।
🙏🏼💐🙏🏼💐🙏🏼💐🙏🏼💐🙏🏼🕉🚩
[2/28, 12:37] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: एक फकीर प्रतिदिन सुबह के समय हाथों में दो मशालें लेकर बाजार में जाता। हर दुकान के सामने थोड़ी देर ठहरता और आगे बढ़ जाता।
एक व्यक्ति ने पूछा- “बाबा तुम दिन के समय मशालें लेकर क्या देखते फिरते हो? क्या ढूँढ़ते हो?
फकीर ने उत्तर दिया- “मैं मनुष्य खोज रहा हूँ। इतनी भीड़ में हमें अभी तक कोई मनुष्य नहीं मिला।
उस व्यक्ति द्वारा मनुष्य की परिभाषा पूछने पर फकीर बोला-”मैं उसको मनुष्य कहता हूँ, जिसमें काम की वासना और क्रोध की अग्नि न हो, जो इंद्रियों का दास न होकर उनका स्वामी हो और क्रोध के आवेश में आकर अपने लिए और दूसरों के लिए आग की लपटें उभारने का यत्न नहीं करता हो।🌹🙏🏻🌹
[2/28, 12:47] राम भवनमणि त्रिपाठी: भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ॥ 
(गीता ७/३)

हजारों मनुष्यों में से कोई एक मेरी प्राप्ति रूपी सिद्धि की इच्छा करता है और इस प्रकार सिद्धि की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने वाले मनुष्यों में से भी कोई एक ही मुझको तत्व रूप से साक्षात्कार सहित जान पाता है। 

अपनी गलती का एहसास करके दुबारा न करने का संकल्प करना ही प्रायश्चित होता है, प्रायश्चित करने वाले को तो भगवान भी माफ़ कर देते हैं। आपका विश्वास ही विश्व की श्वांस परमात्मा है। जब आपका जिस दिन किसी भी एक व्यक्ति पर पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास स्थिर हो जाता है तभी से उस शरीर से आपको भगवान का साक्षात आदेश मिलना प्रारम्भ हो जाता है।

जिनके गुरु हैं उन सभी को अपने गुरु में पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास स्थिर करने का प्रयत्न करना चाहिये, किसी भी गुरु रूपी शरीर को भगवान नहीं समझ लेना चाहिये, उस गुरु रूपी शरीर के मुख से निकलने वाले शब्द तो साक्षात भगवान का ब्रह्म-स्वरूप रूपी ब्रह्म-वाणी होती है। 

गुरु के शरीर की ओर ध्यान नहीं देना चाहिये कि वह क्या करतें हैं गुरु के तो केवल शब्दों पर ही ध्यान देना चाहिये। गुरु से कभी भी बहस नहीं करनी चाहिये, गुरु से प्रश्न भी कम से कम शब्दों में और निर्मल भाव से करना चाहिये। प्रश्न को कभी भी समझाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये। 

समस्त प्रयत्न करने के बाद भी गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास स्थिर नहीं हो पाता है तो ऎसे गुरु का त्याग कर देना ही उचित होता है। ऎसे गुरु के त्याग में ही शिष्य का हित छिपा होता है। गुरु वह होता जिसके सानिध्य से मन को शान्ती और आनन्द का अनुभव हो, न कि किसी प्रकार का भार महसूस हो। 

आनन्द ही भगवान का शब्द-ब्रह्म स्वरूप होता है, इसलिये गुरु के द्वारा ही ब्रह्म का साक्षात्कार शब्द-ब्रह्म रूप में होता है जो पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास के साथ उस शब्द-रूपी ब्रह्म को धारण कर लेता है उसी में से वह ब्रह्म ज्ञान रूप में प्रकट होने लगता है। मनुष्य रूपी शरीर में स्थित जीव को भगवान का साक्षात्कार क्रमश: तीन रूप में होता है!.....

१. ब्रह्म-स्वरूप (शब्द-ज्ञान रूप में)
२. परमात्म-स्वरूप (निर्गुण निराकार रूप में)
३. भगवद्‍-स्वरूप (सगुण साकार रूप में)

जब तक मनुष्य को स्वयं में ब्रह्म का अनुभव नहीं हो जाता है तब तक प्रत्येक मनुष्य को कर्म तो करना ही पड़ता है, मनुष्य के द्वारा जो भी किया जाता है वह सभी कर्म ही होते हैं, किसी भी कर्म को करते-करते जब मनुष्य सकाम भाव को त्याग कर निष्काम भाव से कर्म करने लगता है तभी से उसके मन की शुद्धि होने लगती है। 

जैसे-जैसे मनुष्य के मन की शुद्धि होती जाती है वैसे-वैसे ब्रह्म के स्वरूप का अनुभव होने लगता है, तभी शब्दों का वास्तविक अर्थ समझ में आने लगता है, यहीं से ज्ञान स्वयं प्रकट होने लगता है इसी को ब्रह्म-साक्षात्कार कहतें है। 

ब्रह्म साक्षात्कार के बाद ही मनुष्य पूर्ण रूप से प्रभु के शरणागत होने की विधि को जानने लगता है, जैसे-जैसे मनुष्य अपने जीवन का प्रत्येक क्षण प्रभु को समर्पित करता चला जाता है वैसे-वैसे ही वह अपनी आत्मा की ओर बढने लगता है तब उसे आत्मा में ही परमात्मा का अनुभव लगता है। 

यहीं से जीव स्वयं को अकर्ता और आत्मा को कर्ता समझने लगता है और तभी से वह जीव कर्म के बन्धन से मुक्त हो जाता है, तब जीव का वह मनुष्य रूपी शरीर केवल एक यन्त्र मात्र रह जाता तब उस शरीर के द्वारा जो भी कर्म होते हुए दिखाई देंते हैं वह किसी भी प्रकार के फल उत्पन्न नहीं कर पाते हैं। 

जब वह मनुष्य रूपी शरीर में स्थित जीव पूर्व जन्मों के फल (प्रारब्ध) को सम्पूर्ण रूप से भोग लेता है तब वह मनुष्य रूपी शरीर में स्थित जीव मनुष्य रूपी शरीर का त्याग होने के बाद भगवान का साकार रूप में दर्शन करके भगवान के धाम में प्रवेश पा जाता है जहाँ पहुँच कर जीव नित्य आनन्द में लीन होकर "सच्चिदानन्द" स्वरूप में स्थित हो जाता है, यहीं मनुष्य जीवन का एक मात्र परम-लक्ष्य होता है।

॥ हरि ॐ तत् सत् ॥
[2/28, 12:47] राम भवनमणि त्रिपाठी: भगवान व परमात्मा मे भेद

भगवान और प्रमातमा मे कया भेद है ????

भगवान माहापुरुष को कहते हैं , जो जीव श्रेष्टता को प्राप्त कर लेता है तो उसे भगवान कहते हैं.. हीन्दु धर्म ग्रन्थो मे लिखा है की जिसने शठ ऐशवर्य को पा लिया है वो भगवान हो जाता है और ये  शठ ऐशवर्य हैं-
१ ग्यान
२ विवेक
३ शक्ति
४ वैराग्य
५ सत्ये
६ सौन्द्रय
भगवान अनेक होते है जेसे विष्णु भगवान पर परमात्मा  एक ही है वही सबका स्वामी है सभी भगवान उसका ही ध्यान करतें हैं परमात्मा कौन है ये गीता में  बताया गया है ....
(भगवत गीता अध्याय १५ - स्लोक १६ तीन पुरुष का वर्णन )
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च क्षर: सर्वाणि भूतानि कुटस्थो अक्षर उच्यते। उत्तम: पुरुषस्त्त्वन्य: परमात्मेत्युदाह्रत:।

इस बिराट ब्रह्माण्ड मे क्षर नाशवान और अविनाशी अनादि अक्षर दो पुरुष हैं । सम्पूर्ण भूतप्राणियों सहित नारायण पर्यन्त के लोकालोक सभी नाशवान हैं, और अक्षर पुरुष जो नारायण के रचयिता है, वे अविनाशी है । इस से आगे एक अन्य परमपुरुष अक्षरातीत है, उन्हीं को ही "परमात्मा" कहा जाता है।
[2/28, 15:27] ‪+91 99673 46057‬: राधे राधे - आज का भगवद चिन्तन ॥
                  28-02-2017
🌺      पितामह भीष्म के जीवन का एक ही पाप था कि उन्होंने समय पर क्रोध नही किया और जटायु के जीवन का एक ही पुन्य था उसने समय पर क्रोध किया। परिणाम स्वरुप एक को वाणों की शैया मिली और एक को प्रभु राम की गोद।
🌺       अतः क्रोध तब पुन्य बन जाता है जब वह धर्म एवं  मर्यादा की रक्षा के लिए किया जाये और वही क्रोध तब पाप बन जाता है जब वह धर्म व मर्यादा को चोट पहुँचाता हो।
🌺      शांति तो जीवन का आभूषण है। मगर अनीति और असत्य के खिलाफ जब आप क्रोधाग्नि में दग्ध होते हो तो आपके द्वारा गीता के आदेश का पालन हो जाता है। मगर इसके विपरीत किया गया क्रोध आपको पशुता की संज्ञा भी दिला सकता है। धर्म के लिए क्रोध हो सकता है, क्रोध के लिए धर्म नहीं।
[2/28, 16:31] ओमीश Omish Ji: 🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷

   जय श्रीमन्नारायण

विराट आदि पुरुष के सन्दर्भ में मन्त्र द्रष्टा ऋषियों ने चिंतन कर जो खोजा और उन्हें जो साक्षत्कार हुआ, उसी का वर्णन पुरुषसूक्त के रूप में है । जो वेदों में वर्णित अनेक कल्याणकारी सूक्तों में से एक है।
ऋग्वेद के दसवें मण्डल के ९० वें सूक्त की सोलह ऋचाओं को पुरुषसूक्त की संज्ञा दी गई है । इसके ऋषि 'नारायण', देवता 'पुरुष' तथा छंद 'अनुष्टुप्'  एवं 'त्रिष्टुप्' हैं । यजुर्वेद के ३१वें अध्याय में भी इसका वर्णन है ।

*यत्पुरुषेण     हविषा     देवा     यज्ञमतन्वत ।*
*वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्मऽइध्म: शरद्धवि:।।*
                                    यजुर्वेद ३१/१४

"जब देवों ने विराट पुरुष रूप को हवि मानकर यज्ञ (सृष्टि सृजन यज्ञ ) का शुभारम्भ किया, तब  वसन्त ऋतु घृत की तरह   ग्रीष्म ऋतु इध्म ( समिधा विशेष ) एवं  शरद ऋतु हविष्य की तरह प्रयुक्त हुई ।"
[2/28, 16:33] ओमीश Omish Ji: 🙏श्री मते रामानुजाय नमः🙏

अष्टश्लोकि ( श्लोक 1 से 4 तिरू मंत्र)

( श्लोक 5 व 6 द्वय मंत्र)

श्लोक 5

नेतृत्वं नित्ययोगं समुचितगुणजातं तनुख्यापनम् च उपायं
कर्तव्यभागं त्वत् मिथुनपरम् प्राप्यमेवम् प्रसिद्धं ।
स्वामित्वं प्रार्थनां च प्रबलतरविरोधिप्रहाणम दशैतान 
मंतारम त्रायते चेत्यधिगति निगम: षट्पदोयम् द्विखण्ड: ।।

अर्थ

यह श्लोक, मंत्रो में रत्न, द्वय महामंत्र का विवरण प्रदान करता है। द्वय के दो अंग और छः शब्द है। इसमें दस अर्थ निहित हैं। १) जीवात्मा को भगवान द्वारा निर्धारित मार्ग में प्रशस्त करना २) भगवान और श्रीमहालक्ष्मी से नित्य मिलन की स्थिति ३) दिव्य गुण समूह, जो केवल परमात्मा के ही अनुकूल है ४) ईश्वर का अत्यन्त सुन्दर स्वरूप ५) उपाय स्वरुप अर्थात परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग ६) चेतन/ जीवात्मा के कर्त्तव्य ७) श्रीमहालक्ष्मी संग उपस्थित भगवान श्रीमन्नारायण के प्रति कैंकर्य ८) अत्यंत सुंदर संबंध, जो सत्य है ९) उनके कैंकर्य की प्रार्थना १०) कैंकर्य के विघ्न, बाधाओं से मुक्ति। वैदिक शास्त्र में निपुण लोगों का मानना है कि द्वय मन्त्र के इन अर्थो का निरंतर ध्यान करने से प्रपन्न की रक्षा होती है।

🙏जय श्री मन्नारायण🙏
[2/28, 20:32] P anuragi. ji: सुन्दर  लेख  पर  आभार!!!

राम काज कीन्हे बिनु
     मोहिं कहां    विश्राम
         तो
विभीषण जी के पास श्री हनुमंत जी को

पावा अनिर्वाच्य विश्रामा

                कैसे

राम काज तो  श्री विभीषण जी के पास पहुँचने पर भी पूर्ण नहीं हुआ था

       राम रस से उत्पन्न प्रश्न

सत्सन्गार्थ  प्रश्न   है
     विनीत
  अनुरागी जी

👆👆👆👆👆👆👆

     सर्वेभ्यो  शुभ संध्या
         🌺🙏🏼🌺

महिदेवताओं  को यथेष्ट अभिवादन

      सत्संग हेतु ऊपर के प्रश्न को पटल पर रखा था   उसपर  एक भी प्रतिक्रिया का न आना न जाने क्यूँ कुछ अज़ीब सा लगा ।  लघु मति से कुछ तत्संबंधित लिखने की इक्षा का शमन करने में भी अक्षम हूँ

   जहाँ तक मेरी मति की गति है इतना ही कहूँगा कि श्री हनुमंत लाल जी के विश्राम का कारण उनके द्वारा   श्री राम कथा का कहना है ।
     यदि विचार करें कि भगवान का कार्य क्या है तो उत्तर यही होगा कि उनकी कथा कहना या सुनना ही उनका कार्य करना है । शेष उनके कार्य स्वयं सिद्ध हैं ।
        अबोध विचारों से विद्वत सामुदाय सहमत ही हो ऐसा मेरा आग्रह नहीं है । शमिति ।

दूसरी  बात
🌺🌴🌺

एक प्रश्न पटल पर आया था जिसका उत्तर समयाभाव बस ना दे सका था वह यह

जे वरनाधम तेलि कुम्हारा ।
स्वपच किरात कोल कलवारा ।।

     उक्त चौपाई पर मत चाहता हूँ
  आदरणीय अजीत जी द्वारा प्रेषित
चौपाई में क्या मत दिया जाय यह प्रश्न 
समझ में नहीं आ सका
     यदि प्रसंग देखें तो  श्री मानस के उत्तर काण्ड में कलिकाल की ब्यवस्था का वर्णन मानसकार कर रहे हैं ।

शब्दार्थ पूर्ण  सुस्पष्ट हैं

उसके आगे बाबा जी लिख रहे हैं

मूड मुड़ाइ होहिं सन्यासी ।
नारि मुई गृह सम्पति नासी ।।

तेइ विप्रन्ह सन आपु पूजावहिं ।
उभय लोक निज हाँथ नसावहिं ।।

बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन।
     हम  तुम्ह ते   कछु  घाटि ।।
जानइ व्रह्म सो विप्रवर ।
     आँखि देखावहिं डाटि ।।

    महिदेवताओं!!   मार्ग में हूँ । कोई टंकड त्रुटि हो तो क्षमा करें ।
                   विनीत
                अनुरागी जी
[2/28, 22:33] ‪+91 88274 29111‬: *"हमारी आस्था की सबसे*
*बड़ी परीक्षा तब होती है*
*जब*
*हम जो चाहें वो ना मिले*
*और फिर भी हमारे*
*दिल से प्रभु के लिए धन्यवाद*
*निकले" कि आपने कुछ अच्छा*
*सोचा होगा*
         🙏राम राम जी
🙏
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
[2/28, 23:29] ‪+91 98239 16297‬: *सूर्यसिद्धांतीय देशपांडे दैनिक पंचांग-- ०१ मार्च २०१७*

***!!श्री मयूरेश्वर प्रसन्न!!***
☀धर्मशास्त्रसंमत प्राचीन शास्त्रशुद्ध सूर्यसिद्धांतीय देशपांडे पंचांग (पुणे) नुसार
दिनांक ०१ मार्च २०१७
*राष्ट्रीय भारतीय सौर दिनांक* १० फाल्गुन,शके १९३८
पृथ्वीवर अग्निवास १६:४० पर्यंत.
बुध मुखात आहुती आहे.
शिववास सभेत १६:४० पर्यंत नंतर क्रीडेत,काम्य शिवोपासनेसाठी अशुभ दिवस आहे.
☀ *सूर्योदय* -०६:५८
☀ *सूर्यास्त* -१८:३६
*शालिवाहन शके* -१९३८
*संवत्सर* -दुर्मुख
*अयन* -उत्तरायण
*ऋतु* -शिशिर (सौर)
*मास* -फाल्गुन
*पक्ष* -शुक्ल
*तिथी* -तृतीया (१६:४० पर्यंत)
*वार* -बुधवार
*नक्षत्र* -रेवती
*योग* -शुभ (११:४६ नंतर शुक्ल)
*करण* -गरज (१६:४० नंतर वणिज)
*चंद्र रास* -मीन
*सूर्य रास* -कुंभ
*गुरु रास* -तुळ
*राहु काळ* -१२:०० ते १३:३०
*पंचांगकर्ते*:सिद्धांती ज्योतिषरत्न गणकप्रवर
*पं.गौरवशास्त्री देशपांडे-०९८२३९१६२९७*
*विशेष*-मधुकतृतीया व्रत, पंचक समाप्ती २८:५३,रवियोग २८:५३ पर्यंत,श्री रामकृष्ण क्षीरसागर महा.जयंती(अ'नगर), अप्पा महा.पु.ति(जळगांव),या दिवशी पाण्यात गहुला वनस्पतीचे चूर्ण घालून स्नान करावे.विष्णु कवच व दुर्गा स्तोत्र या स्तोत्रांचे पठण करावे."बुं बुधाय नमः" या मंत्राचा किमान १०८ जप करावा.सत्पात्री व्यक्तिस हिरवा मूग दान करावे.विष्णुंना मूगाच्या खिचडीचा नैवेद्य दाखवावा.यात्रेसाठी घरातून बाहेर पडताना तीळ प्राशन करुन बाहेर पडल्यास प्रवासात ग्रहांची अनुकूलता प्राप्त होईल.
*विशेष टीप* - *आगामी नूतन संवत्सरारंभी येणारा गुढीपाडवा सूर्यसिद्धांतीय पंचांगानुसार म्हणजेच मुख्यतः धर्मशास्त्रानुसार या वेळी मंगळवार दि.२८ मार्च २०१७ रोजी नसून बुधवार दि.२९ मार्च २०१७ रोजी आहे.कारण, सूर्यसिद्धांतानुसार दि.२८ मार्च रोजी सूर्योदयास अमावस्या तिथी आहे व दि.२९ मार्च रोजी सूर्योदयास प्रतिपदा तिथी आहे.याची विशेष नोंद हिंदूंनी घ्यावी व सर्वांनी गुढी-ब्रम्हध्वज पूजन हे चैत्र शु.प्रतिपदेला बुधवार दि.२९ मार्च २०१७ रोजी करावे.*
www.facebook.com/DeshpandePanchang
*टीप*-->>सर्व कामांसाठी शुभ दिवस आहे.
**या दिवशी मीठ खावू नये.
**या दिवशी हिरवे वस्त्र परिधान करावे.
*आगामी नूतन संवत्सराचे सर्वांना उपयुक्त व फायदेशीर असे धर्मशास्त्रसंमत सूर्यसिद्धांतीय देशपांडे पंचांग सर्वत्र उपलब्ध आहे.*
♦ *लाभदायक वेळा*-->>
लाभ मुहूर्त--  सायंकाळी ५.१० ते सायंकाळी ६.४०
अमृत मुहूर्त--  सकाळी ८.३० ते सकाळी १०
|| *यशस्वी जीवनाचे प्रमुख अंग* ||
|| *सूर्यसिध्दांतीय देशपांडे पंचांग* ||
आपला दिवस सुखाचा जावो,मन प्रसन्न राहो.
(कृपया वरील पंचांग हे पंचांगकर्त्यांच्या नावासहच व अजिबात नाव न बदलता शेअर करावे.या लहानश्या कृतीने तात्त्विक आनंद व नैतिक समाधान मिळते.@copyright)
[3/1, 03:07] राम भवनमणि त्रिपाठी: शौभ्र-राज राज-राज कञ्जयोनि-वन्दितं
नित्य-भक्त-पूजितं सुधन्व-पूजकाञ्चितम्।
कञ्ज-चक्र-कौस्तुभासि-राजितं गदाधरं
चम्पकापुरी-निवास-मानिवासमाश्रये॥

पन्नगारि-यायिनं सुपन्नगेश-शायिनं
पङ्कजारि-पङ्कजेष्ट-लोचनं चतुर्भुजम्।
पङ्कजात-शोषकं विपङ्कजात-पोषकं
चम्पकापुरी-निवास-मानिवासमाश्रये॥

सर्वलोक-नायकं सुवाञ्छितार्थ-दायकं
शर्वचाप-भञ्जकं सगर्व-रावणान्तकम्।
पीत-चेल-धारकं कुचेल-रिक्त-दायकं
चम्पकापुरी-निवास-मानिवासमाश्रये॥

नारदादि-वन्दितं नृनार-शैल-भञ्जितम्
नार-सद्म-वास-जात-नार-पूर्वकायनम्।
नार-तल्लजालयं कुनारकान्तकालयं
चम्पकापुरी-निवास-मानिवासमाश्रये॥

काल-मेघ-वर्णकं प्रकाम-मुक्ति-दायकं
काल-काल-कारकं कुकाल-पाश-दूरकम्।
रत्न-वर्म-राज-वर्ष्म-भानु-वृन्द-भास्करं
चम्पकापुरी-निवास-मानिवासमाश्रये॥

दक्ष-शिक्षक-च्छिदं कुहाटकाक्ष-सम्भिदं
यक्ष-गीत-सेवितं सुरक्षणैक-दीक्षितम्।
अक्ष-जात-मारकं कटाक-दृष्टि-तारकं
चम्पकापुरी-निवास-मानिवासमाश्रये॥

स्वर्ण-सूत्र-गुम्फितोरु-सालिकाश्म-मालिकं
रत्न-रत्न-रञ्जितं गदाञ्चितं कृपाकरम्।
प्रज्वलत्किरीटिनं प्रविस्फुरत्-त्रिपुण्ड्रकं
चम्पकापुरी-निवास-मानिवासमाश्रये॥

वक्त्र-कान्ति-वञ्चितोरु-शारदेन्दुमण्डलं
कुन्द-दन्त-मिन्दिरेशमक्षरं निरामयम्।
मन्दहास-शुभ्रिताश-किङ्किणी-लसत्-कटं
चम्पकापुरी-निवास-मानिवासमाश्रये॥
[3/1, 07:57] P anuragi. ji: 🌹  सर्वेभ्यो सुप्रभातम 🌹

           भारत भूमि के सर्वश्रेष्ठ ऋषिसमूह   धर्मार्थ  को प्रथम प्रणाम !
      निविड़ को निज आभामण्डल से देदीप्यमान करने वाले द्विजोत्तम के चरणारविन्द में प्रणिपात ।

वंदउ प्रथम महीसुर चरना ।
मोह जनित संसय सबु हरना ।।
सुजन समाज सकल गुन खानी ।
करउं प्रणाम सप्रेम सुबानी ।।

🌳🌳🌳🌴🌳🌳🌳
[3/1, 08:05] ‪+91 98895 15124‬: 🕉श्री हरिहरौविजयतेतराम्🕉
🌞🌞सुप्रभातम्🌞🌞
☄📃आज का पञ्चाङ्ग📃☄
बुधवार १, मार्च,२०१७
सूर्योदय: 🌄 ०६:५०
सूर्यास्त: 🌅 १८:१७
चन्द्रोदय:🌝 ०८:३०
चन्द्रास्त: 🌛 २१:१०
अयन 🌕 उत्तरायण - दक्षिणगोलिय
ऋतु: 🌳वसंत
शक सम्वत: 👉 १९३८ दुर्मुख
विक्रम सम्वत: 👉 २०७३ सौम्य
मास 👉 फाल्गुन
पक्ष: 👉 शुक्ल
तिथि: 👉 तृतीया
नक्षत्र: 👉 रेवती
योग: 👉 शुभ
प्रथम करण: 👉 गर
द्वितीय करण: 👉 वणिज
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॥ गोचर ग्रहा: ॥
🌖🌗🌖🌗
सूर्य 👉 कुम्भ
चंद्र 👉 मेष २७:१६ से
मंगल 👉 मीन
बुध 👉 कुम्भ
गुरु 👉 कन्या
शुक्र 👉 मीन
शनि 👉 धनु
राहु 👉 सिंह
केतु 👉 कुम्भ
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शुभाशुभ मुहूर्त विचार
⏳⏲⏳⏲⏳⏲⏳
अभिजीत मुहूर्त: 👉 ❌❌❌
अमृत काल: 👉 २५:०० - २६:३१
होमाहुति: 👉 बुध
अग्निवास: 👉 पृथ्वी
दिशा शूल: 👉 उत्तर
राहु काल वास: 👉 दक्षिण-पश्चिम
नक्षत्र शूल: 👉 ❌❌❌
चन्द्र वास: 👉 उत्तर
दूमुहूर्त: 👉 १२:१० - १२:५६
राहुकाल: 👉 १२:३३ - १३:५९
यमगण्ड: 👉 ०८:१५ - ०९:४१
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☄चौघड़िया विचार☄
॥ दिन का चौघड़िया ॥
१ - लाभ २ - अमृत
३ - काल ४ - शुभ
५ - रोग ६ - उद्वेग
७ - चर ८ - लाभ
॥रात्रि का चौघड़िया॥
१ - उद्वेग २ - शुभ
३ - अमृत ४ - चर
५ - रोग ६ - काल
७ - लाभ ८ - उद्वेग
नोट-- दिन और रात्रि के चौघड़िया का आरंभ क्रमशः सूर्योदय और सूर्यास्त से होता है। प्रत्येक चौघड़िए की अवधि डेढ़ घंटा होती है।
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शुभ यात्रा दिशा
🚌🚈🚗⛵🛫
पूर्व-उत्तर (गुड़ खाकर यात्रा करें)।
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पञ्चक रहित मुहूर्त:
०६:५० - ०७:२७ शुभ मुहूर्त
०७:२७ - ०८:५२ मृत्यु पञ्चक
०८:५२ - १०:२७ रोग पञ्चक
१०:२७ - १२:२३ शुभ मुहूर्त
१२:२३ - १४:३७ मृत्यु पञ्चक
१४:३७ - १५:१७ अग्नि पञ्चक
१५:१७ - १६:५७ शुभ मुहूर्त
१६:५७ - १९:१५ रज पञ्चक
१९:१५ - २१:३१ शुभ मुहूर्त
२१:३१ - २३:५१ चोर पञ्चक
२३:५१ - २६:०९ शुभ मुहूर्त
२६:०९ - २७:१६ रोग पञ्चक
२७:१६ - २८:१३ शुभ मुहूर्त
२८:१३ - २९:५६ मृत्यु पञ्चक
२९:५६ - ३०:४९ अग्नि पञ्चक
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उदय-लग्न मुहूर्त:
०६:५० - ०७:२७ कुम्भ
०७:२७ - ०८:५२ मीन
०८:५२ - १०:२७ मेष
१०:२७ - १२:२३ वृषभ
१२:२३ - १४:३७ मिथुन
१४:३७ - १६:५७ कर्क
१६:५७ - १९:१५ सिंह
१९:१५ - २१:३१ कन्या
२१:३१ - २३:५१ तुला
२३:५१ - २६:०९ वृश्चिक
२६:०९ - २८:१३ धनु
२८:१३ - २९:५६ मकर
२९:५६ - ३०:४९ कुम्भ
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तिथि विशेष
🗓📆🗓📆
*भद्रा २६:१० से, पंचक समाप्त २७:१६ पर, नींव एवं गृहारम्भ मुहूर्त दिन १:०४ से मिथुन लग्न, गृहप्रवेश मुहूर्त मीन+वृष लग्न (च०दा०), अक्षरारम्भ+विद्यारम्भ मुहूर्त रेवती नक्षत्र में, उपनयन संस्कार मुहूर्त मीन+मेष+वृष लग्न में (शनि दान), चूड़ाकर्म मुहूर्त मीन+मेष+मिथुन लग्न में, रवियोग प्रातः ०४:४४ से पूरे दिन आदि*।
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आज का राशिफल
🐐🐂💏💮🐅👩
🐐मेष
आज के दिन आपमें चंचलता अधिक रहेगी। किसी भी कार्य को लेकर ठोस निर्णय नहीं ले पाएंगे। व्यवसाय में लाभ होते होते हाथ से निकल सकता है। रिश्तों में भी कभी ख़ुशी कभी उदासी वाली स्थिति बनेगी। धन लाभ तो होगा परन्तु धन को रोक पाना आज मुश्किल ही रहेगा। सेहत में उतार चढ़ाव बना रहेगा जुखाम अथवा छाती सम्बंधित तकलीफ हो सकती है। भावुकता भी अधिक रहने से छोटी सी बात का बुरा मान लेंगे।
वृषभ 🐂
आज का दिन आपके लिए आनंद दायक रहेगा। नौकरी अथवा व्यवसाय में प्रारंभिक समस्यों के बाद प्रगति होने लगेगी। नए कार्य का आरंभ अथवा कार्य विस्तार की योजना बना रहे है तो इसके लिए कुछ दिन रुकना ही बेहतर रहेगा। धन लाभ आशानुकूल तो नहीं फिर भी खर्च निकालने लायक हो जाएगा। सामाजिक क्षेत्र से आज आप जो भी उम्मीद लगाएंगे उसमे थोड़े परिश्रम के बाद सफलता मिल जायेगी। परिजनो के साथ प्रेमपूर्ण सम्बन्ध रहेंगे।
मिथुन 💏
आज भी परिस्थिति आपके पक्ष में रहेगी। घर एवं बाहर का वातावरण अनुकूल रहने से सभी क्षेत्रों में खुल कर निर्णय ले पाएंगे। नौकरी पेशा जातको के वेतन में वृद्धि हो सकती है। व्यवसायी वर्ग भी कार्य व्यवसाय से अच्छा लाभ पाएंगे परंतु धन की आमद रुक-रुक कर होगी। रिश्तेदारो अथवा पड़ोसियों से संबंधो में मिठास रहेगी। विदेश में रहने वाले सगे-संबंधियों की प्रगति की सूचना मिलेगी। संध्या के समय किसी आयोजन में जाना पड़ सकता है।
कर्क 🦀
आज के दिन आपके बिगड़े काम बनेंगे परन्तु क्रोध अथवा ईर्ष्या की भावना भी रहने से बने बनाये कार्य पर पानी भी फिर सकता है इसलिए वाणी एवं व्यवहार का सोच समझ कर ही प्रयोग करें। कार्य क्षेत्र पर किसी के सहयोग से धन लाभ होने की संभावना है। आध्यत्म में भी विशेष रूचि दिखाएंगे। आज दो पक्षो की मध्यस्थता के लिए भी आपको बुलाया जा सकता है परन्तु किसी की जिम्मेदारी अथवा जमानत लेने से बचें। गृहस्थ में भी आपकी चलेगी उत्तम भोजन सुख मिलेगा।
सिंह 🦁
आज का दिन आपको मिला-जुला फल देगा। प्रातः काल के समय मन कार्य सफलता को लेकर आशंकित रहेगा कार्यो के प्रति उत्साह भी नहीं रहेगा। प्रत्येक चीज को आप शंका की दृष्टि से देखेंगे। परिवार में भी किसी गलतफहमी के चलते विवाद होने की संभावना है। सेहत भी प्रतिकूल रहेगी। परन्तु दोपहर के बाद स्थिति में थोड़ा सुधार आने लगेगा। किसी का मार्गदर्शन मिलने से बिगड़े कार्यो में सुधार आएगा। संध्या के समय आकस्मिक धन लाभ अथवा धन का सहयोग मिलने से आर्थिक स्थिति सुधरेगी।
कन्या 👧
आज भी दिन आपके लिए लाभ देने वाला रहेगा फिर भी अतिमहत्त्वपूर्ण कार्यो अथवा धन सम्बंधित कार्यो को दोपहर तक पूरा करने का प्रयास करें इसके बाद स्थिति में बदलाव आएगा आलस्य अधिक रहने से कार्यो में कम ही मन लगेगा। काल्पनिक दुनिया में खोए रहेंगे। भागीदारी के कार्यो में भी अपेक्षित सफलता नहीं मिलने से मन खिन्न रहेगा। सरकारी कार्यो में अवश्य प्रयास करने पर सफलता मिल सकती है। जमीन जायदाद के कार्यो में उलझने पड़ेंगी। दाम्पत्य सुख भी थोड़ा कम ही रहेगा।
तुला ⚖
आज के दिन आप घर एवं बाहर सामंजस्य बनाने में सफल रहेंगे। सोची हुई योजनाएं फलीभूत होने से मानसिक रूप से शांत एवं संतुष्ट रहेंगे। जिस भी कार्य में हाथ डालेंगे उनमें से अधिकांश में सफलता सुनिश्चित रहेगी परन्तु किसी की सहायता अथवा शिफारिश की आवश्यकता भी पड़ सकती है। धन लाभ मध्यम रहेगा लेकिन आकस्मिक होगा। सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्र पर योगदान व्यस्तता के कारण चाह कर भी नहीं दे पाएंगे। संध्या का समय शांति से व्यतीत होगा।
वृश्चिक 🦂
आज का दिन बीते कल की अपेक्षा थोड़ा राहत भरा रहेगा। कार्य व्यवसाय पहले से बेहतर चलेंगे लाभ के भी कई अवसर आएंगे परन्तु अधिकांश आपके अड़ियल रवैये के कारण निरस्त हो सकते है। रिश्तेदारी अथवा पारिवारिक सदस्यों में भी एक दूसरे को नीचा दिखाने की भावना रहेगी। धन लाभ अचानक होने से स्थिति में सुधार आएगा। सरकार विरोधी गतिविधी से दूर रहना ही ठीक रहेगा। दुर्व्यसन की लत के कारण नीचा देखना पड़ सकता है। बड़े लोगो से बच कर रहें।
धनु 🏹
आज आप अपनों के द्वारा अनदेखी या परायों सा व्यवहार होने से मानसिक रूप से चिड़चिड़े रहेंगे। शारीरिक स्वास्थ्य भी प्रतिकूल रहेगा। नौकरी अथवा व्यावसायिक क्षेत्र पर बेमन से से व्यवहार करेंगे। कार्य क्षेत्र या सामाजिक क्षेत्र पर भी किसी कारण हास्य के पात्र बन सकते है। नकारात्मकता एवं हताशा में कोई गलत कदम ना उठाये। धन सम्बंधित मामलो को लेकर भी चिंता रहेगी। आपको लालच देकर कोई गलत कार्य करवाया जा सकता है प्रलोभन से बचे अन्यथा स्थिति और भी विकट हो सकती है।
मकर 🐊
आज का दिन आपके मनोनुकूल रहेगा। छोटी मोटी परेशानियां बीच-बीच में आती रहेंगी लेकिन इनका आपकी कार्य शैली एवं दिनचर्या पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ेगा। जमीन के कार्यो में कमीशन मिलेगा। अन्य व्यापारियों को भी परिश्रम का फल धन लाभ के रूप में मिलेगा। नौकरी वाले जातक अतिरिक्त कार्य भार के कारण परेशान हो सकते है लेकिन अतिरिक्त आय होने से संतोष भी होगा। पारिवारिक जीवन स्थिर बना रहेगा। किसी की बीमारी पर खर्च हो सकता है।
कुंभ 🍯
आज के दिन भी मानसिक अशांति यथावत बनी रहेगी। घरेलु कलह कार्य क्षेत्र को भी प्रभावित करेगी। व्यवसाय में आज कुछ विशेष नहीं कर पाएंगे पुराने अनुबंध भी बड़ी मुश्किल से पूर्ण होंगे या आज भी अधूरे रह सकते है। धन को लेकर आज मायूसी ही देखनी पड़ेगी उधार लेना पड़ सकता है। अनिद्रा की शिकायत रहने सेहत बिगडेगी। यात्रा एवं व्यसनों से दूरी बना कर रखें। सगे संबंधियों से भी मन मुटाव के प्रसंग बनेंगे। आज ध्यान योग का सहारा लें राहत मिलेगी।
मीन 🐳
आपका आज का दिन बेचैनी भरा रह सकता है। किसी महत्त्वपूर्ण विषय अथवा भविष्य को लेकर असमंजस में रहेंगे। यात्रा का विचार कभी बनेगा कभी निरस्त होता दिखेगा। परन्तु आज आप अपने मन की करके ही दम लेंगे। मध्यान के आस-पास धन लाभ होने से योजनाएं बलवती होंगी। घरेलु अथवा निजी खर्च अधिक रहने के कारण बचत नहीं कर पाएंगे। परिवार में किसी पुरानी बात को लेकर मतभेद रहेंगे बोलचाल भी बंद रह सकती है। फिर भी आप जो भी निर्णय लेंगे अकस्मात ही लाभ होगा !!!!🔰
*भगवान आपका दिन मंगलमय करें*
*जय श्री राम राधे राधे सुप्रभात*

✍🏻🔖 *विक्रम पारीक*
[3/1, 08:14] प सुभम्: 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏कुलं पवित्रं जननी कृतार्था वसुन्धरा पुण्यवती च तेन,
अपारसंवित्सुखसागरेऽस्मिन् लीनं परे ब्रह्मणि यस्य चेत:!!
🙏🙏🙏🙏🙏
   जिसकी चेतना सर्वोच्च आत्मा से, बुध्दि और आनंद के अपार समुद्र मे लीन हो गई, उसे जन्म देकर माता सफल मनोरथ हो जाती है।  परिवार पवित्र हो जाता है और उससे सारी पृथ्वी पुण्यवती हो उठती है।🙏🍀🌲सुप्रभात 👏👏

            पं0शुभम तिवारी
[3/1, 08:17] प सुभम्: *🍁💐ॐ💐🍁*
*"माली प्रतिदिन पौधों को पानी देता है मगर फल सिर्फ मौसम में ही आते हैं* *इसीलिए* *जीवन* *में* *धैर्य* *रखें* *प्रत्येक चीज* *अपने समय पर होगी*

*प्रतिदिन* *बेहतर काम करे आपको* *उसका फल समय पर जरूर* *मिलेगा*।।"
  
              *🌹 सुप्रभात 🌹*
[3/1, 08:26] राम भवनमणि त्रिपाठी: सुखस्य दुःखस्य न कोSपि दाता,
परो ददातीति कुबुद्धिरेषा।
अहं करोमिति वृथाभिमान:,
स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोक:।।- सुभाषितानि
सुख व दुःख के कारण हम स्वयं है, न तो कोई हमें सुख देता है न कोई हमें दुःख देता हैं। अपने ही कर्म हमें सुख व दुःख के बन्धन में बांधते हैं।
ज्योतिष शास्त्र कहता है, सुख का कर्म भाव, शरीर(लग्न) है, अपने स्वभाव को शांत, अहं को छोड़ों। दुःख का कर्म भाव(सप्तम) है, भोग- विलासिता में लिप्त मत रहो।
ॐ हरि ॐ। सुप्रभात। प्रणाम। श्री राधे।
[3/1, 08:44] ‪+91 99673 46057‬: राधे राधे- आज का भगवद चिन्तन ॥
                01-03-2017
🌺         सुख का अर्थ केवल कुछ पा लेना नहीं अपितु जो है उसमे संतोष कर लेना भी है। जीवन में सुख तब नहीं आता जब हम ज्यादा पा लेते हैं बल्कि तब भी आता है जब ज्यादा पाने का भाव हमारे भीतर से चला जाता है।
  🌺     सोने के महल में भी आदमी दुखी हो सकता है यदि पाने की इच्छा समाप्त नहीं हुई हो और झोपड़ी में भी आदमी परम सुखी हो सकता है यदि ज्यादा पाने की लालसा मिट गई हो तो। असंतोषी को तो कितना भी मिल जाये वह हमेशा अतृप्त ही रहेगा।
🙏      सुख बाहर की नहीं, भीतर की संपदा है। यह संपदा धन से नहीं धैर्य से प्राप्त होती है। हमारा सुख इस बात पर निर्भर नहीं करता कि हम कितने धनवान है अपितु इस बात पर निर्भर करता है कि है कि कितने धैर्यवान हैं। सुख और प्रसन्नता आपकी सोच पर निर्भर करती है।
[3/1, 08:46] P Alok Ji: नाम कामतरू काल कराला।
सुमिरत समन सकल जग जाला।
राम नाम कलि अभिमत दाता।हित परलोक लोकपितुमाता ।।
ऐसे कराल कलियुग मे राम नाम हि कल्पबृक्ष है जो स्मरण करते हि संसार के सब जंजालो का नाश कर देने वाला है परलोक का परम हिताषी और इस लोक का मातापिता हैअर्थात परलोक मे भगवान का परम धाम देता है और इस लोक मे मातापिता के समान सब प्रकार से पालन और रक्षण करता है । पिबत् रामचरित मानस रसम् श्रद्धेय आलोकजी शास्त्री इन्दौर मप्र
[3/1, 08:52] ‪+91 96859 71982‬: *श्लोक:*

कदाचित् स्वप्नेपि स्मरसि न हि वेतीति विषयात्
विरक्तोप्यद्यापि स्मरणपथमुक्तां न विदधे।
यदा यावच्छ्वासावलिरिह ममास्तीव कुशला
तदा यावद्वायौ सरतु तव नाम्नैव सुरभि: ।।

           *अर्थ:*

    कभी तुम मुझे स्वप्न मे भी याद करते हो या नहीं इन विषयों से विरक्त मैं आज भी तुम्हें अपने स्मरणपथ से मुक्त नहीं कर सकता हूँ। जब तक मेरे श्वासों की पंक्तियाँ सकुशल हैं तब तक वायु में तुम्हारे नाम का सुगन्ध वहता रहे यही तमन्ना है।🙏🏼🙏🏼
[3/1, 09:05] ‪+91 96859 71982‬: होगा क्या मन उदासीन कर, कामना आशीर्वाद की है।
व्यवहार से क्यों है लेना देना, ममता भी तो आपकी है।। 🙏🏼🙏🏼

मन को उदासीन मत कर वंदे,
             इस परिवार के सिरमौर हो आप।
व्यवहार तो सबका अपना-अपना,
                 ममता की प्रतिमूर्ति हो आप।

गुरूदेव आपका आशीर्वाद प्राप्त करने की कामना है। इसलिए आप इस तरह से मन को अप्रसन्न मत किया करें सतत आशीर्वाद मिलता रहे कोई कुछ लिखे या न लिखे। बच्चे की प्यास तो माता-पिता, ही बुझा सकते हैं न कि बच्चा माता-पिता की 🙏🏼🙏🏼🙏🏼
[3/1, 09:17] P anuragi. ji: आविर्भूत  हूँ आप सब के स्नेहिल स्वभाव को देखकर ।
        ऐसी कोई स्थिति नहीं थी । मन के   क्षणिक भाव शब्द रूप में परिणित हो गए थे । शेष स्थाई भाव में तो वही स्थिति है जैसे " तेरे रूप में मिल जाएगा मुझको जीवन दोबारा "।

            कृष्ण प्रिये!!!  शब्द की आवश्यकता भाव को समझने हेतु ही होती है ।   अतः शब्द चयन के कार्य से मन को विश्राम दे दो ।
             सर्वे भवन्तु सुखिनः
[3/1, 09:21] अरविन्द गुरू जी: हरि ॐ तत्सत् ! सुप्रभातम्।
भगवदनुग्रहात्सर्वे  जनाः  सर्वत्र सानन्दं  निवसन्तः स्व-जीवनं  यापयन्तु।
नमो नमः। 🌺🙏�🌺

*काव्यपुष्पाञ्जलि*

तन मन में शुचिता हो इतनी, काया प्रभु मूरत बन जाए।
व्यवहार हमारा हो निर्मल, पावन-पुनीत हरि मन भाए।।

॥ सत्यसनातधर्मो विजयतेतराम् ॥
[3/1, 09:27] P anuragi. ji: सादर चरण वंदन गुरुदेव

जे गुरु पद अम्बुज अनुरागी ।
ते लोकहुँ वेदहुँ बड़भागी ।।

             प्रणमामि
[3/1, 09:59] ओमीश Omish Ji: 🌹सदुक्ति संचयः🌹
कोपः सत्पुरुषाणां तुल्यः स्नेहेन नीचानाम्!!
             सज्जनों का क्रोध दुर्जनों के प्रेम के समान होता है (दोनो ही क्षणिक होते हैं)

🌺प्रवक्ता, धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ🌺
              आचार्य ओमीश ✍
[3/1, 10:17] ‪+91 97586 40209‬: अधिकाश बातें भान्ति के कारण अनुमानित, कल्पित अथवा सुनी - सुनाई होती है ।मनुष्य का यह स्वभाव है कि बुरी बात को वह जल्दी ले उडता है ।अधिकांश बुराईयाँ अपने मन की बुराई के कारण दिखाई देती है ।सारा संसार ही ऐसा है ।सब एक दुसरे को बुरा कह रहे है , जबकि सब बुरे है ।इसमें सब से बुरी दशा उस व्यक्ति की होतीं है जो किसी को बुरा नही  कहता । वह केवल सहन करता  है ।
🍁🍄🌴🍂🌺🌾🌿
[3/1, 11:15] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: आदरणीय गुरूदेव जी के श्री चरणों मे बालक का दण्डवत।अनेक बहुत ही उत्तम प्रस्तुतियों के लिये आभार।आपकी उपस्थिति एवं लेखन से यह महसूस होता है कि हम सब के मध्य आप जैसे मुर्धन्य विद्वत गुरूजनों का रहना बहुत ही सौभाग्य की बात है।आप की प्रसंसा के लिये शब्दों का चयन कर पाना मुझ अबोध बालक के लिये असंभव है क्योंकि आप मन वाणी से  जिस  कर्मका  निरंतर चिंतन मनन और सेवन करते हैं! ,यह कार्य दूसरे व्यक्तियों को अपनी ओर खींच लेता है  यह अद्भुत आकर्षण व्यवस्था आप जैसी परम् ज्ञानी संतजनों में ही प्राय: होती है!इसीलिए आप जैसे बुद्धिमान विद्वान महापुरुष हमेशा कल्याण कारी विचारों का ही मनन ,चिंतन और कर्म करने में संलग्न रहते हैं !
जहां तक यह बालक आप के व्यक्तित्व को जानता है आप सदैव मांगलिक पदार्थों का स्पर्श,चित्त वृत्तियों का निरोध ,उत्तम ग्रंथों का स्वाध्याय, करते रहते हैं। आप जैसे शील ,सरल,उदार, सत्पुरुषों का बार बार दर्शन और सत्संग ---ये सब कल्याण कारी हैं मुझ अज्ञानी बालक लिये। 🌹🙏🏻🌹😊
[3/1, 11:23] पं अनिल ब: *धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ*
*सभी गुरु जनों एवं देवियों को प्रणाम🙏🏼🌺🙏🏼*

भभूत लगावत शंकर को, अहिलोचन मध्य परौ झरि कै।
अहि की फुँफकार लगी शशि को, तब अंमृत बूंद गिरौ चिरि कै।
तेहि ठौर रहे मृगराज तुचाधर, गर्जत भे वे चले उठि कै।
सुरभी-सुत वाहन भाग चले, तब गौरि हँसीं मुख आँचल दै॥

अर्थात् (प्रातः स्नान के पश्चात्) पार्वती जी भगवान शंकर के मस्तक पर भभूत लगा रही थीं तब थोड़ा सा भभूत झड़ कर शिव जी के वक्ष पर लिपटे हुये साँप की आँखों में गिरा। (आँख में भभूत गिरने से साँप फुँफकारा और उसकी) फुँफकार शंकर जी के माथे पर स्थित चन्द्रमा को लगी (जिसके कारण चन्द्रमा काँप गया तथा उसके काँपने के कारण उसके भीतर से) अमृत की बूँद छलक कर गिरी। वहाँ पर (शंकर जी की आसनी) जो बाघम्बर था, वह (अमृत बूंद के प्रताप से जीवित होकर) उठ कर गर्जना करते हुये चलने लगा। सिंह की गर्जना सुनकर गाय का पुत्र - बैल, जो शिव जी का वाहन है, भागने लगा तब गौरी जी मुँह में आँचल रख कर हँसने लगीं मानो शिव जी से प्रतिहास कर रही हों कि देखो मेरे वाहन (पार्वती का एक रूप दुर्गा का है तथा दुर्गा का वाहन सिंह है) से डर कर आपका वाहन कैसे भाग रहा है।
*जय महाँकाल*
[3/1, 11:43] पं ऊषा जी: स्वामी रामतीर्थ संस्कृत अकादमी के द्वारा *संस्कृत-सम्भाषण* शिक्षण हेतु ऑनलाइन (विडिओ कांफ्रेंसिंग द्वारा) कक्षाएं ८ मार्च २०१७ से प्रारम्भ हो रही हैं. यदि आप संस्कृत सम्भाषण सीखना चाहते हैं तो इस लिंक पर आयें. इन कक्षाओं में सम्मिलित होने के लिए 3 चीजें अनिवार्य हैं
1- मोबाइल या कम्प्यूटर पर स्काइप डाउनलोड करें   2- तेज गति का इन्टरनेट
3- मध्याह्न 4 बजे से 5 बजे का समय
लिंक - https://join.skype.com/Syvh7HhODugm
आपसे अनुरोध है कि लिंक को तभी क्लिक  करें जब आप इसमें सक्रिय
रूप से जुड़ने का संकल्प ले लें.....
-गणान्तरात्
[3/1, 12:11] राम भवनमणि त्रिपाठी: बैन वही उनकौ गुन गाइ, औ कान वही उन बैन सों सानी।
हाथ वही उन गात सरैं, अरु पाइ वही जु वही अनुजानी॥
जान वही उन प्रानके संग, औ मान वही जु करै मनमानी।
त्यों रसखानि वही रसखानि, जु है रसखानि, सो है रसखानी॥
4. दोहा

कहा करै रसखानि को, को चुगुल लबार।
जो पै राखनहार हे, माखन-चाखनहार।।4।।
5. दोहा

विमल सरस रसखानि मिलि, भई सकल रसखानि।
सोई नव रसखानि कों, चित चातक रसखानि।।5।।
6. दोहा

सरस नेह लवलीन नव, द्वै सुजानि रसखानि।
ताके आस बिसास सों पगे प्रान रसखानि।।6।।
7. सवैया

संकर से सुर जाहि भजैं चतुरानन ध्‍यानन धर्म बढ़ावैं।
नैंक हियें जिहि आनत ही जड़ मूढ़ महा रसखान कहावैं।
जा पर देव अदेव भू-अंगना वारत प्रानन प्रानन पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं।।7।।
8. सवैया

सेष, गनेस, महेस, दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावैं।
जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुबेद बतावैं।
नारद से सुक ब्‍यास रहैं पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं।।8।।
9. सवैया

गावैं गुनि गनिका गंधरब्‍ब और सारद सेष सबै गुन गावत।
नाम अनंत गनंत गनेस ज्‍यौं ब्रह्मा त्रिलोचन पार न पावत।
जोगी जती तपसी अरु सिद्ध निरंतर जाहि समायि लगावत।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावत।।9।।
[3/1, 12:16] राम भवनमणि त्रिपाठी: श्रौतसूत्र
श्रौतसूत्र वैदिक ग्रन्थ हैं और वस्तुत: वैदिक कर्मकांड का कल्पविधान है। श्रौतसूत्र के अंतर्गत हवन, याग, इष्टियाँ एवं सत्र प्रकल्पित हैं। इनके द्वारा ऐहिक एवं पारलोकिक फल प्राप्त होते हैं। श्रौतसूत्र उन्हीं वेदविहित कर्मों के अनुष्ठान का विधान करे हैं जो श्रौत अग्नि पर आहिताग्नि द्वारा अनुष्ठेय हैं। 'श्रौत' शब्द 'श्रुति' से व्युत्पन्न है।

ये रचनाएँ दिव्यदर्शी कर्मनिष्ठ महर्षियों द्वारा सूत्रशैली में रचित ग्रंथ हैं जिनपर परवर्ती याज्ञिक विद्वानों के द्वारा प्रणीत भाष्य एवं टीकाएँ तथा तदुपकारक पद्धतियाँ एवं अनेक निबंधग्रंथ उपलब्ध हैं। इस प्रकार उपलब्ध सूत्र तथा उनके भाष्य पर्याप्त रूप से प्रमाणित करते हैं कि भारतीय साहित्य में इनका स्थान कितना प्रमुख रहा है। पाश्चात्य मनीषियों को भी श्रौत साहित्य की महत्ता ने अध्ययन की ओर आवर्जित किया जिसके फलस्वरूप पाश्चात्य विद्वानों ने भी अनेक अनर्घ संस्करण संपादित किए।

अनुक्रम
प्रमुख श्रौतसूत्र

परिचय संपादित करें

श्रुतिविहित कर्म को 'श्रौत' एवं स्मृतिविहित कर्म को 'स्मार्त' कहते हैं। श्रौत एवं स्मार्त कर्मों के अनुष्ठान की विधि वेदांग कल्प के द्वारा नियंत्रित है। वेदांग छह हैं और उनमें कल्प प्रमुख है। पाणिनीय शिक्षा उसे 'वेद का हाथ' कहती है। कल्प के अंतर्गत श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र और शुल्बसूत्र समाविष्ट हैं। इनमें श्रौतसूत्र श्रौतकर्म के विधान, गृह्यसूत्र स्मार्तकर्म के विधान, धर्मसूत्र सामयिक आचार के विधान तथा शुल्बसूत्र कर्मानुष्ठान के निमित्त कर्म में अपेक्षित यज्ञशाला, वेदि, मंडप और कुंड के निर्माण की प्रक्रिया को कहते हैं।

संस्था संपादित करें

श्रौतसूत्र के अनुसार अनुष्ठानों की दो प्रमुख संस्थाएँ हैं जिन्हें हवि:संस्था तथा सोमसंस्था कहते हैं। स्मार्त अग्नि पर क्रियमाण पाकसंस्था है। इन तीनों संस्थाओं में सात सात प्रभेद हैं जिनके योग से २१ संस्थाएँ प्रचलित हैं। हवि:संस्था में देवताविशेष के उद्देश्य से समर्पित हविर्द्रव्य के द्वारा याग किया जाता है। सोमसंस्था में श्रौताग्नि पर सोमरस की आहुति की जाती है तथा पश्वालंभन भी विहित है। इसलिए ये पशुययाग हैं। इन संस्थाओं के अतिरिक्त अग्निचयन, राजसूय और अश्वमेध प्रभृति याग तथा सारस्वतसत्र प्रभृति सत्र एवं काम्येष्टियाँ हैं।

श्रौतकर्म संपादित करें

श्रौतकर्म के दो प्रमुख भेद हैं। नित्यकर्म जैसे अग्निहोत्रहवन तथा नैमितिकर्म जो किसी प्रसंगवश अथवा कामनाविशेष से प्रेरित होकर यजमान करता है। स्वयं यजमान अपनी पत्नी के साथ ऋत्विजों की सहायता से याग कर सता है। यजमान द्वारा किए जानेवाले क्रियाकलाप, ऋत्विजों के कर्तव्य, प्रत्येक कर्म के आराध्य देवता, याग के उपयुक्त द्रव्य, कर्म के अंग एवं उपांगों का सांगोपांग वर्णन तथा उनका पौर्वापर्य क्रम, विधि के विपर्यय का प्रायश्चित्त और विधान के प्रकार का विधिवत् विवरण श्रौतसूत्र का एकमात्र लक्ष्य है।

श्रौतकर्मों में कुछ कर्म प्रकृतिकर्म होते हैं। इनके सांगोपाग अनुष्ठान की प्रक्रिया का विवरण श्रौतसूत्रों ने प्रतिपादित किया है। जिन कर्मों की मुख्य प्रक्रिया प्रकृतिकर्म की रूपरेखा में आबद्ध होकर केवल फलविशेष के अनुसंधान के अनुरूप विशिष्ट देवता या द्रव्य और काल आदि का ही केवल विवेचन है वे विकृतिकर्म हैं, कारण श्रौतसूत्र के अनुसार 'प्रकृति भाँति विकृतिकर्म करो' यह आदेश दिया गया है। इस प्रकार श्रौतसूत्रों के प्रतिपाद्य विषय का आयाम गंभीर एवं जटिल हो गया है, कारण कर्मानुष्ठान में प्रत्येक विहित अंग एवं उपांग के संबंध में दिए हुए नियमों का प्रतिपालन अत्यंत कठोरता के साथ किया जाना अदृष्ट फल की प्राप्ति के लिए अनिवार्य है।

श्रौतकर्म के अनुष्ठान में चारों वेदों का सहयोग प्रकल्पित है। ऋग्वेद के द्वारा होतृत्व, यजुर्वेद के द्वारा अध्वर्युकर्म, सामवेद के द्वारा उद्गातृत्व तथा अथर्ववेद के द्वारा ब्रह्मा के कार्य का निर्वाह किया जाता है। अतएव श्रौतसूत्र वेदचतुष्टयी से संबंध रखते हैं। यजमान जिस वेद का अनुयायी होता है उस वेद अथवा उस वेद की शाखा की प्रमुखता है। इसी कारण यज्ञीय कल्प में प्रत्येक वेदशाखानुसार प्रभेद हो गए हैं जिनपर देशाचार, कुलाचार आदि स्वीय विशेषताओं का प्रभाव पड़ा है। इस कारण कर्मानुष्ठान की प्रक्रिया में कुछ अवांतर भेद शाखाभेद के कारण चला आ रहा है और हर शाखा का यजमान अपने अपने वेद से संबद्ध कल्प के अनुशासन से नियंत्रित रहता है। इस परंपरा के कारण श्रौतसूत्र भी वेदचतुष्टयी की प्रभिन्न शाखा के अनुसार पृथक् पृथक् रचित हैं।

।। जय श्री राम ।।
[3/1, 12:43] ओमीश Omish Ji: प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू--------।

मोहि सम आज धन्य नहिं दूजा--------।

आपकी महानता के लिए मेरे शब्दकोश में कोई शब्द नहीं हैं। अतः आप श्री के साथ-साथ सभी गुरुजनों के श्री चरणों में पुनः प्रणाम🙏🙏🙏
[3/1, 13:06] ‪+91 98670 61250‬: *सुखस्य दुःखस्य न कोSपि*
*दाता परोददातीति कुबुद्धिरेषा ।*
*अहं करोमीति वृथाSभिमानः*
*स्वकर्मसूत्र ग्रथितो हि लोक:।।*
*अर्थात्👉*
हमारे सुखदुख दूसरों ने दिये हैं ये समझना गलत है । ये भी समझना गलत है कि मैं ही सब कार्य करता हूँ । सभी लोग अपने कर्मों के फल भुगतते हैं।🌻
[3/1, 13:40] P anuragi. ji: 🌺सुस्वागतंअतिथये🌺

🌻अतिथि प्राणप्रिय लागहिं जेहीं🌻
🌻तेहिं  उर  बसहु सहित वैदेहीं 🌻

    परम आदरणीय विप्रकुल भूषण
      परम भागवत सर्वश्री कृष्ण कान्त     
       जी , आप के शब्द" दासानुदास "       
         ही आप का परिचय है।
          धर्मार्थ के इस पावन निविड़ में
           हृदय की आखिरी सतह से
             अभिनन्दन है ।
                 अनुरागी जी
[3/1, 13:53] P Alok Ji: किन-किन स्थितियों में निःसंतान योग सृजित होता है:

आलोकजी शास्त्री इन्दौर 09425069983

पंचम भाव में क्रूर, पापी ग्रहों की मौज़ूदगी
पंचम भाव में बृहस्पति की मौजूदगी
पंचम भाव पर क्रूर, पापी ग्रहों की दृष्टि
पंचमेश का षष्ठम, अष्टम या द्वादश में जाना
पंचमेश की पापी, क्रूर ग्रहों से युति या दृष्टि संबंध
पंचम भाव, पंचमेश व संतान कारक बृहस्पति तीनों ही पीड़ित हों 
नवमांश कुण्डली में भी पंचमेश का शत्रु, नीच आदि राशियों में स्थित होना
यदि पंचम भाव व पंचमेश को कोई भी शुभ ग्रह न देख रहे हों तथा वे उपरोक्त वर्णित किसी भी रीति से प्रताड़ित हों तो संतानहीनता की स्थिति स्वतः बन जाती है
[3/1, 13:54] ‪+91 8076 170 336‬: त्यजन्ति मित्राणि धनैर्विहीनं पुत्राश्च दाराश्च सहृज्जनाश्च ।
तमर्थवन्तं पुनराश्रयन्ति अर्थो हि लोके मनुष्यस्य बन्धुः ॥
अर्थ- मित्र, बच्चे, पत्नी और सभी सगे-सम्बन्धी उस व्यक्ति को छोड़ देते हैं जिस व्यक्ति के पास धन नहीं होता है. फिर वही सभी लोग उसी व्यक्ति के पास वापस आ जाते हैं, जब वह व्यक्ति धनवान हो जाता है. धन हीं इस संसार में व्यक्ति का मित्र होता है.
[3/1, 13:54] ‪+91 8076 170 336‬: यस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् ।
तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि ॥
अर्थ- वह व्यक्ति जो विभिन्न देशों में घूमता है और विद्वानों की सेवा करता है. उस व्यक्ति की बुद्धि का विस्तार उसी तरह होता है, जैसे तेल का बून्द पानी में गिरने के बाद फैल जाता है.
[3/1, 13:55] ‪+91 8076 170 336‬: अधमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः ।
उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम् ॥
अर्थ- निम्न कोटि के लोग केवल धन की इच्छा रखते हैं, उन्हें सम्मान से कोई मतलब नहीं होता है. जबकि एक मध्यम कोटि का व्यक्ति धन और मान दोनों की इच्छा रखता है. और उत्तम कोटि के लोगों के लिए सम्मान हीं सर्वोपरी होता है. सम्मान, धन से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है.
[3/1, 13:56] ‪+91 8076 170 336‬: कार्यार्थी भजते लोकं यावत्कार्य न सिद्धति ।
उत्तीर्णे च परे पारे नौकायां किं प्रयोजनम् ॥
अर्थ- जबतक काम पूरे नहीं होते हैं, तबतक लोग दूसरों की प्रशंसा करते हैं. काम पूरा होने के बाद लोग दूसरे व्यक्ति को भूल जाते हैं. ठीक उसी तरह जैसे, नदी पार करने के बाद नाव का कोई उपयोग नहीं रह जाता है.

[3/1, 15:58] ओमीश Omish Ji: देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।। गीता 3/11
हे अर्जुन! इस यज्ञ से तुम देवताओं को प्रसन्न करो और वे देवता तुमको प्रसन्न रखेंगे। इस प्रकार एक-दूसरे को प्रसन्न करते हुए तुम्हारा परम कल्याण होगा।

संसार में सब एक-दूसरे से मिलजुल कर ही काम कर सकते हैं। आपकी भावनाएं दूसरों के लिए साफ होनी चाहिए क्योंकि जैसी भावना आप दूसरे के लिए रखते हैं, वैसी ही वह आपके लिए रखता है। आप किसी को प्यार करते हैं तो वह आपको प्यार करता है। आप किसी को प्रसन्न करते हैं तो वह भी आपको प्रसन्न करता है। ऐसे ही अगर आप किसी से नफरत करते हैं तो वह भी आपसे नफरत ही करेगा। अगर आप किसी पर गुस्सा करते हैं तो वह भी आप पर गुस्सा ही करेगा। संसार में जैसा दूसरे के साथ व्यवहार करते हैं, वैसा ही वापस मिलता है।

जब तक आप खुद के कामों को अनासक्त भाव से नहीं करेंगे, तब तक मन की सफाई नहीं होगी। क्योंकि साफ मन ही सबकी भलाई का भाव रख सकता है इसलिए भगवान कृष्ण कहते हैं कि तुम सभी के लिए प्रसन्नता का भाव रखो, बदले में वह भी तुम्हारे लिए प्रसन्नता का भाव ही रखेंगे और इस प्रकार एक-दूसरे को प्रसन्न रखते हुए तुम अपने लक्ष्य को पा सकोगे🙏🙏🙏
[3/1, 17:38] ‪+91 96859 71982‬: 🙏श्री मते रामानुजाय नमः🙏

अष्टश्लोकि ( श्लोक 1 से 4 तिरू मंत्र)

( श्लोक 5 व 6 द्वय मंत्र)

श्लोक 6

इशानाम् जगथामधीशदयिताम नित्यानपायां श्रियं 
संश्रित्ठयाश्रयणोचित अखिलगुणस्याङ्ग्रि हरेराश्रये ।
इष्टोपायतया श्रियाच सहितायात्मेश्वरायार्थये 
कर्तुं दास्यमसेशमप्रतिहतम नित्यं त्वहं निर्मम: ।।

अर्थ
इस श्लोक में, श्री लक्ष्मीजी के माध्यम से भगवान का कैंकर्य प्राप्त करने की प्रार्थना की गयी है। मैं इस ब्रह्माण के स्वामी के चरणों में श्रीमहालक्ष्मीजी के माध्यम से आश्रय लेता हूँ, जो उन स्वामी से सम्पूर्ण रूप से प्रीति करती है। मेरे आश्रय को स्वीकार करने के वाले वे सभी गुणों से संपन्न है और मेरे मोक्ष, जो उनके द्वारा ही प्रदत्त है, के लिए मेरे एकमात्र साधन है।🙏🏼
[3/1, 19:14] राम भवनमणि त्रिपाठी: विष्णुधर्मोत्तरपुराणम्/ खण्डः १ /अध्यायः ००३

।।मार्कण्डेय उवाच ।।
ब्रह्मरात्र्यां व्यतीतायां विबुद्धे पद्मसम्भवे ।।
विष्णुः सिसृक्षुर्भूतानां ज्ञात्वा भूमिं जलान्तगाम् ।। १ ।।
जलक्रीडारुचि शुभं कल्पादिषु यथा पुरा ।।
वाराहमास्थितो रूपमुज्जहार वसुन्धराम्।। २ ।।
वेदपाद्यूपदंष्ट्रश्च चतुर्वक्त्रश्चतुर्मुखः ।।
अग्निजिह्वो दर्भरोमा ब्रह्मशीर्षो महातपाः ।। ३ ।।
अहोरात्रेक्षणो दिव्यो वेदाङ्गः श्रुतिभूषणः ।।
आज्यनासः स्रुवतुण्डः सामघोषस्वनो महान् ।। ।। ४।।
धर्मः सत्यमहाः श्रीमान्कर्मविक्रमसत्कृतः ।।
प्रायश्चित्तमयो धीरः प्रांशुजानुर्महायशाः ।।
उद्गात्रंत्रो होमलिङ्गः फलबीजमहौषधिः ।। ५ ।।
वाय्वन्तरात्मा मन्त्रास्थिर्विकृतः सोमशोणितः ।।
वेदस्कंधो हविर्गन्धो हव्यकव्यातिवेगवान् ।। ६ ।।
प्राग्वंशकायो द्युतिमान्नानादीक्षाभिरन्वितः ।।
दक्षिणाहृदयो योगी महाक्रतुमयो महान्।। ७ ।।
उपाकर्मेष्टिरुचिरः प्रवर्ग्यावर्तभूषणः।।
मायापत्नीसहायो वै महाशृंङ्ग इवोदिताम् ।।६।।
महीं सागर पर्यन्तां सशैलवनकाननाम् ।।
एकार्णवजलभ्रष्टामेकार्णवगतः प्रभुः ।। ९ ।।
दंष्ट्राग्रेण समुद्धृत्य लोकानां हितकाम्यया ।।
आदिदेवो महायोगी चकार जगतीं पुनः ।। 1.3.१० ।।
एवं ज्ञात्वा वराहेण भूत्वा भूतहितार्थिना ।।
उद्धृता पृथिवी देवी जलमध्यगता पुरा ।। ११ ।।
उद्धृत्य भूमिं स विभुर्महात्मा वराहरूपेण जलान्तरस्थाम् ।।
चक्रे विभागं जगतस्तदीशो यथायथा तच्छृणु राजसिंह ।। १२ ।।
इति श्रीविष्णुधर्मोऽत्तरे प्रथमखण्डे मार्कण्डेयवज्रसंवादे वराहप्रादुर्भावो नाम तृतीयोऽध्यायः ।। ३ ।।
[3/1, 19:59] ‪+91 80558 62703‬: देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।। गीता 3/11
हे अर्जुन! इस यज्ञ से तुम देवताओं को प्रसन्न करो और वे देवता तुमको प्रसन्न रखेंगे। इस प्रकार एक-दूसरे को प्रसन्न करते हुए तुम्हारा परम कल्याण होगा।

संसार में सब एक-दूसरे से मिलजुल कर ही काम कर सकते हैं। आपकी भावनाएं दूसरों के लिए साफ होनी चाहिए क्योंकि जैसी भावना आप दूसरे के लिए रखते हैं, वैसी ही वह आपके लिए रखता है। आप किसी को प्यार करते हैं तो वह आपको प्यार करता है। आप किसी को प्रसन्न करते हैं तो वह भी आपको प्रसन्न करता है। ऐसे ही अगर आप किसी से नफरत करते हैं तो वह भी आपसे नफरत ही करेगा। अगर आप किसी पर गुस्सा करते हैं तो वह भी आप पर गुस्सा ही करेगा। संसार में जैसा दूसरे के साथ व्यवहार करते हैं, वैसा ही वापस मिलता है।

जब तक आप खुद के कामों को अनासक्त भाव से नहीं करेंगे, तब तक मन की सफाई नहीं होगी। क्योंकि साफ मन ही सबकी भलाई का भाव रख सकता है इसलिए भगवान कृष्ण कहते हैं कि तुम सभी के लिए प्रसन्नता का भाव रखो, बदले में वह भी तुम्हारे लिए प्रसन्नता का भाव ही रखेंगे और इस प्रकार एक-दूसरे को प्रसन्न रखते हुए तुम अपने लक्ष्य को पा सकोगे🙏🙏🙏

4 comments:

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  2. हेलो, यो सामान्य जनतालाई सूचित गरिरहेको छ कि श्रीमती मारिया फरेन्डा DELGADO, ऋणको लागि सम्मानित निजी ऋणदाताले सबैलाई आर्थिक सहयोगको लागि आर्थिक अवसर खोलेको छ। के तपाइँ आफ्नो ऋण सफा गर्न को लागी एक द्रुत ऋण चाहिन्छ वा तपाईंको व्यापारलाई सुधार गर्न को लागी तपाईंलाई पूंजी ऋण चाहिन्छ? के यो बैंकिङ र अन्य वित्तीय संस्थाहरूले रद्द गरेको छ? कुनै थप हेर्नुहोस् किनकी हामी यहाँ सबै वित्तीय समस्याको लागी छौं। हामी मानिसहरूलाई, कम्पनीहरू र कम्पनीहरूको 2% ब्याज दरलाई स्पष्ट र बुझ्न योग्य तरिका, सर्तहरू र सर्तहरूमा ऋण दिन्छौं। कुनै क्रेडिट चेक आवश्यक छैन, 100% ग्यारेन्टी। हामीलाई इमेल पठाउनुहोस्: (mariafernandadelgadoloan@gmail.com)

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