Friday, March 3, 2017

धर्मार्थ वार्ता

[2/7, 09:32] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: बड़ी ही रोचक कहनी है अवश्य पढ़े।
किसी राज्य में एक राजा था वह बड़ा ही साहसी संयमी एवं लोकप्रिय था।लोगों द्वारा राजा की प्रसंसा चारो तरफ होती थी।लेकिन राजा के सेनापति और राजगुरू को राजा की प्रसंसा अच्छी न लगती अन्तत: दोनो ने राजा के पीठ पीछे साजिश रचना शूरू कर दिया।राजा को जब यह सब बात की जानकारी मिली तो राजा ने दोनो धोकेबाजों को राज्य से बाहर कर दिया।
राजगुरू मायावी था वह राजा के पास जाकर रोने गिड़गिड़ाने का नाटक कर राजा से अपने रहने के लिये राज्य का छोटा सा टुकड़ा दान स्वरूप मांगा राजा दानवीर था राजा को दया आ गयी राजा ने राजगुरू को राज्य की थोड़ी जमीन देदी।अब सेनापति एवं राजगुरू मिलकर राजा का राज्य हड़पने के लिये षडयंत्र रचना आरंभ कर दिया।लेकिन राजा इतना शक्तिशाली था कि उसको हराना अकेले इन दोनों के बस की बात नहीं थी।दोनों ने दूसरे राज्य के राजाओं को मिलाकर राजा के ऊपर आक्रमण करना शुरू कर दिये लेकिन राजा कि शक्ति के आगे सेनापति और राजगुरू के सहयोगी राजागण परास्त होते चले गये।एक दिन राजा ने राजगुरू और सेनापति के ऊपर रात्रि प्रहर मे आक्रमण कर दिया जिससे मायावी राजगुरू और सेनापति भयभीत हो ऊठे किसी तरह से दोनों ने जान बचाई।कुछ दिनों बाद उन दोनों ने विशाल सेना का प्रबन्ध किया और राजा के राज्य पर आक्रमण कर दिया।जिसमे राजा के कुछ सिपाही मारे गये लेकिन जाबाज राजा ने हिम्मत नहीं हारी और उन सब को परास्त कर पुन: विजय श्री प्राप्त किया।
इस कहानी से हमे सीख मिलती है वक्त कितना भी बुरा हो लेकिन साहस और संयम दोनो को बनाये रखना चाहिये।🌸🙏🏻🌸😊
[2/7, 10:31] ओमीश Omish Ji: || शिवताण्डवस्तोत्रम् ||
||श्रीगणेशाय नमः ||
जटा टवी गलज्जल प्रवाह पावितस्थले, गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्ग तुङ्ग मालिकाम् |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं, चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ||१||
जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिम्प निर्झरी, विलो लवी चिवल्लरी विराजमान मूर्धनि |
धगद् धगद् धगज्ज्वलल् ललाट पट्ट पावके किशोर चन्द्र शेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ||२||
धरा धरेन्द्र नंदिनी विलास बन्धु बन्धुरस् फुरद् दिगन्त सन्तति प्रमोद मानमानसे |
कृपा कटाक्ष धोरणी निरुद्ध दुर्धरापदि क्वचिद् दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ||३||
लता भुजङ्ग पिङ्गलस् फुरत्फणा मणिप्रभा कदम्ब कुङ्कुमद्रवप् रलिप्तदिग्व धूमुखे |
मदान्ध सिन्धुरस् फुरत् त्वगुत्तरीयमे दुरे मनो विनोद मद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ||४||
सहस्र लोचनप्रभृत्य शेष लेखशेखर प्रसून धूलिधोरणी विधूस राङ्घ्रि पीठभूः |
भुजङ्ग राजमालया निबद्ध जाटजूटक श्रियै चिराय जायतां चकोर बन्धुशेखरः ||५||
ललाट चत्वरज्वलद् धनञ्जयस्फुलिङ्गभा निपीत पञ्चसायकं नमन्निलिम्प नायकम् |
सुधा मयूखले खया विराजमानशेखरं महाकपालिसम्पदे शिरोज टालमस्तु नः ||६||
कराल भाल पट्टिका धगद् धगद् धगज्ज्वल द्धनञ्जयाहुती कृतप्रचण्ड पञ्चसायके |
धरा धरेन्द्र नन्दिनी कुचाग्र चित्रपत्रक प्रकल्प नैक शिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम |||७||
नवीन मेघ मण्डली निरुद् धदुर् धरस्फुरत्- कुहू निशीथि नीतमः प्रबन्ध बद्ध कन्धरः |
निलिम्प निर्झरी धरस् तनोतु कृत्ति सिन्धुरः कला निधान बन्धुरः श्रियं जगद् धुरंधरः ||८||
प्रफुल्ल नीलपङ्कज प्रपञ्च कालिम प्रभा- वलम्बि कण्ठकन्दली रुचिप्रबद्ध कन्धरम् |
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छि दांध कच्छिदं तमंत कच्छिदं भजे ||९||
अखर्व सर्व मङ्गला कला कदंब मञ्जरी रस प्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम् |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्त कान्ध कान्त कं तमन्त कान्त कं भजे ||१०||
जयत् वदभ्र विभ्रम भ्रमद् भुजङ्ग मश्वस – द्विनिर्ग मत् क्रमस्फुरत् कराल भाल हव्यवाट् |
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः ||११||
स्पृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्- – गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः |
तृष्णारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकः ( समं प्रवर्तयन्मनः) कदा सदाशिवं भजे ||१२||

कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरः स्थमञ्जलिं वहन् |
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ||१३||
इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् |
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् ||१४||
पूजा वसान समये दशवक्त्र गीतं यः शंभु पूजन परं पठति प्रदोषे |
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्र तुरङ्ग युक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः ||१५||
इति श्रीरावण- कृतम् शिव- ताण्डव- स्तोत्रम् सम्पूर्णम्
[2/7, 11:31] पं ज्ञानेश: अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्‌।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्‌॥
मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण (अन्तःकरण और इन्द्रियों के द्वारा जैसा निश्चय किया हो, वैसे-का-वैसा ही प्रिय शब्दों में कहने का नाम 'सत्यभाषण' है), अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्तःकरण की उपरति अर्थात्‌ चित्त की चञ्चलता का अभाव, किसी की भी निन्दादि न करना, सब भूतप्राणियों में हेतुरहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव
॥2॥
~ अध्याय 16 - श्लोक : 2

💐💐💐सुप्रभातम्💐💐💐
[2/7, 20:21] ‪+91 96859 71982‬: नवधा भक्ति

प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के 9 प्रकार बताए गए हैं जिसे नवधा भक्ति कहते हैं।

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) - इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।

श्रवणं- कृष्ण की लीला, कथा, महत्व, शक्ति, स्त्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना।

कीर्तनं- कृष्ण के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम अर्थात हरे कृष्ण महामंत्र का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।

स्मरणं- निरंतर अनन्य भाव से कृष्ण का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना।

पाद सेवनं- कृष्ण के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना।

अर्चनं- मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से कृष्ण के चरणों का पूजन करना।

वंदनं- भगवान कृष्ण की मूर्ति को पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।

दास्यं-  कृष्ण को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।

सख्यं- कृष्ण को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।

आत्म निवेदनं-अपने आपको भगवान कृष्ण के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।🙏🏼🙏🏼
      🙏🏼कृष्णप्रेमी-कनिका 🙏🏼
[2/7, 23:16] ‪+91 96859 71982‬: राम का अर्थ है मेरे भीतर की रोशनी, मेरे दिल के अन्दर एक रोशनी!!!

राम का अर्थ है रोशनी| किरण और चमक जैसे शब्दों की उत्पत्ति राम से हुई है| रा का अर्थ चमक, म का अर्थ मैं, मेरा| राम का अर्थ है मेरे भीतर की रोशनी, मेरे दिल के अन्दर का उजाला| राम निसंदेह भगवान राम का नाम है जो ७५६० बी.सी. में यहाँ हुए, आज से लगभग ९००० साल पहले|
भगवान राम पूरे एशिया महाद्वीप से जुड़े हुए हैं, समस्त इंडोनेशिया, मलेशिया और कंबोडिया ये सब देश रामायण से जुड़े हैं| ये एक बहुत पुरातन महाकाव्य है, जिसका असर आज भी बहुत अधिक है| हजारो साल के बाद भी भगवान राम अपने सत्य वचनों के लिए लिए जाने जाते हैं| उन्हें सब प्रकार के मानवीय व्यवहारों में आदर्श समझा जाता है| एक आदर्श मानवीय राजा| एक बार महात्मा गाँधी ने कहा था कि तुम मुझ से सब ले ले लो, मैं जीवित रह सकता हुईं लेकिन अगर तुम मुझ से राम ले ले लो तो मैं नहीं जी सकता| उनके अंतिम शब्द थे, हे राम| राम प्रायः भारत में सब जगह हैं| हर प्रदेश में किसी नगर का नाम रामपुर, रामनगर अवश्य है| अगर तुम एक चिट्ठी पर केवल रामनगर लिख दो तो डाक विभाग असमंजस में आ जाता है कि ये कौन सा वाला रामनगर है| भारत में हज़ारों रामनगर हैं| अध्यन से पता चला है कि यूरोप में भी बहुत सी जगह राम के नाम से सम्बंधित हैं|
संस्कृत में ऑस्ट्रेलिया को अस्त्रालय कहा जाता है| क्या आपको पता है कि ऑस्ट्रेलिया का अर्थ क्या है? अस्त्रालय का अर्थ है वो जगह जहाँ सब अस्त्र शस्त्र रखे जाते हैं| अस्त्र मतलब हथियार| रामायण के वक़्त वहां बहुत से अस्त्र रखे गए थे| वहां हथियार बनाये भी जाते थे| इन हथियारों की वजह से वहां मध्य में बहुत बड़ा रेगिस्तान था, और वो वीरान था, वो आज भी वहां है|
इसलिए रामनवमी पूरे भारत में मनाई जाती है, ये एक बहुत पवित्र दिन है| अगर रामायण ७५०० बी सी की है तो महाभारत कब की है?
[2/8, 09:08] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: नाद योग से कैसे जागृत होता है चक्र?
विशुद्धि चक्र के जागरण की सरल साधना नादयोग है। योगशास्त्रों में विशुद्धि और मूलाधार स्पंदनों के दो आधार भूत केन्द्र माने गए हैं। नादयोग की प्रक्रिया में चेतना के ऊर्ध्वीकरण का संबंध संगीत के स्वरों से है। हर स्वर का संबंध किसी एक चक्र विशेष की चेतना के स्पंदन स्तर से संबंधित होता है। बहुधा वे स्वर जो मंत्र, भजन व कीर्तन के माध्यम से उच्चारित किए जाते हैं, विभिन्न चक्रों के जागरण के समर्थ माध्यम हैं। सा रे गा म की ध्वनि तरंगों का मूलाधार सबसे पहला स्तर एवं विशुद्धि पांचवा स्तर है। इनसे जो मूल ध्वनियां निकलती हैं, वही चक्रों का संगीत है। ये ध्वनियां जो विशुद्धि यंत्र की सोलह पंखुड़ियों पर चित्रित हैं- मूल ध्वनियां हैं। इनका प्रारंभ विशुद्धि चक्र से होता है। इनका संबंध दिमाग से है। नादयोग या कीर्तन का अभ्यास करने से मन आकाश की तरह शुद्ध हो जाता है।
कौन है इस चक्र के देवता
विशुद्धि चक्र के देवता सदाशिव हैं। जिनका रंग एकदम श्वेत है। उनकी तीन आंखें, पांच मुख व दस भुजाएं हैं और वे एक व्याघ्र चर्म लपेटे हुए हैं। उनकी देवी साकिनी हैं, जो चन्द्रमा से प्रवाहित होने वाले अमृत के सागर से भी ज्यादा पवित्र हैं। उनके परिधान पीले हैं। उनके चार हाथों में से प्रत्येक में एक-एक धनुष, बाण, फंदा तथा अंकुश है। इसका प्रवाह सदा ही ऊपर की ओर रहता है। ये आज्ञा चक्र के साथ मिलकर विज्ञानमय कोष के आधार का निर्माण करता है। जहां से अतीन्द्रिय विकास शुरू होता है। योग शास्त्रों में ऐसा स्पष्ट उल्लेख है कि सिर के पिछले भाग में बिंदु स्थित चंद्रमा से अमृत का स्राव होता रहता है। यह अमृत बिंदु विसर्ग से व्यक्तिगत चेतना में गिरता है। इस दिव्य द्रव को अनेक नामों से जाना जाता है। वेदों में इसे ही सोम कहा गया है। बिंदु और विशुद्धि के बीच में एक अन्य छोटा सा अतीन्द्रिय केन्द्र है। इसे योगियों ने ललना चक्र कहा है। जब अमृत बिंदु से झरता है तो इसका भंडारण ललना में होता है। कुछ अभ्यासों जैसे खेचरी मुद्रा आदि से अमृत ललना से स्रावित होकर शुद्धिकरण के केंद्र विशुद्धि चक्र तक पहुंचता है। जब विशुद्धि जाग्रत रहता है तो यह दिव्य द्रव वहीं रुक जाता है और वहीं पर इसका प्रयोग कर लिया जाता है। इसी के साथ इसका स्वरूप अमरत्व प्रदायक अमृत के रूप में बदल जाता है। योगियों के हमेशा युवा रहने का रहस्य विशुद्धि चक्र के जागरण से संबंधित है।
क्या होता है इस चक्र के जागरण से
इसके जागरण से कायाकल्प तो होता ही है। साथ ही जो शक्ति प्राप्त होती है, वह खत्म नहीं होती व ज्ञान से पूर्ण होती है। व्यक्ति को वर्तमान के साथ भूत-भविष्य का भी ज्ञान होने लगता है। मानसिक क्षमताओं के तीव्र विकास के कारण उसी श्रवण शक्ति बहुत तेज हो जाती है। मन हमेशा विचार शून्य स्थिति में व भय और आसक्ति से मुक्त रहता है। ऐसा व्यक्ति कर्मों के परिणामों की आसक्ति से हमेशा मुक्त रहकर अपने साधना पथ पर अग्रसर रह सकता है। यहीं उसे वह सारी सामर्थ्य मिलती है, जिसके आधार पर आज्ञा चक्र की सिद्धि मिल सके।
[2/8, 11:03] राम भवनमणि त्रिपाठी: खल: सर्षपमात्राणि,
पराच्छिद्राणि पश्यति ।
आत्मनो बिल्वमात्राणि,
पश्यन्नपि न पश्यति ॥

दुष्ट मनुष्य को दुसरे के भीतर के राइ र्इतने भी दोष दिखार्इ देते है परन्तू अपने अंदर के बिल्वपत्र जैसे बडे दोष नही दिखार्इ पडते ।
[2/8, 11:12] राम भवनमणि त्रिपाठी: रामभवन मणि त्रिपाठी
गोरखपुर

अप्रकटीकॄतशक्ति: शक्तोपि जनस्तिरस्क्रियां लभते निवसन्नन्तर्दारुणि लङ्घ्यो व*िनर्न तु ज्वलित: बलवान पुरुष का बल जब तक वह नही दिखाता है, उसके बलकी उपेक्षा होती है। लकडी से कोई नही डरता, मगर वही लकडी जब जलने लगती है, तब लोग उससे डरते है।

विक्लवो वीर्यहीनो य: स दैवमनुवर्तते वीरा: संभावितात्मानो न दैवं पर्युपासते जिसे अपने आप पे भरोसा नही है ऐसा बलहीन पुरुष नसीब के भरोसे रहता है। बलशाली और स्वाभिमानी पुरुष नसीब का खयाल नहीं करता। यथा वायुं समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तव: ।
तथा गॄहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमा: ॥

जिस प्राकार इस जगत में सभी का जीवन वायू पर निर्भर है उसी प्राकार मनुष्य जीवन के सभी आश्रम गॄहस्ताश्रम पर निर्भर है ।
नारीकेलसमाकारा _श्यन्तेपि हि सज्ज्ना: ।
अन्ये बदरिकाकाश बहिरेव मनोहर: ॥

सज्ज्न लोग नारियल के समान होते हैर् परन्तू दुर्जन लोग बेर के समान होते हैर् केवल बाहर से मनोहर दिखते है पर अन्दर से तो यातनात्मक कठोर होते है ।
[2/8, 14:45] ‪+91 98896 25094‬: काश कोई रोटी डे भी होता, तो लोग भूख से बिलखते लोगों को रोटी बांटते !*

काश कोई कपड़ा डे भी होता, तो लोग ठण्ड से ठिठुरते लोगों को कपड़े बांटते !*

काश कोई इंसानियत डे भी होता, तो लोग इंसानियत क्या होती है.. समझ पाते.*✍🏼
[2/8, 14:51] राम भवनमणि त्रिपाठी: आनि सँजोग परै
भावि काहू सौं न टरै।
कहँ वह राहु, कहाँ वे रबि-ससि, आनि सँजोग परै॥
मुनि वसिष्ट पंडित अति ज्ञानी, रचि-पचि लगन धरै।
तात-मरन, सिय हरन, राम बन बपु धरि बिपति भरै॥
रावन जीति कोटि तैंतीसा, त्रिभुवन-राज करै।
मृत्युहि बाँधि कूप मैं राखै, भावी बस सो मरै॥
अरजुन के हरि हुते सारथी, सोऊ बन निकरै।
द्रुपद-सुता कौ राजसभा, दुस्सासन चीर हरै॥
हरीचंद-सौ को जग दाता, सो घर नीच भरै।
जो गृह छाँडि देस बहु धावै, तऊ वह संग फिरै॥
भावी कैं बस तीन लोक हैं, सुर नर देह धरै।
सूरदास प्रभु रची सु हैहै, को करि सोच मरै॥
[2/8, 15:35] P Alok Ji: संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 3 (ख)॥

संत सरल हृदय और जगत के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनय को सुनकर कृपा करके राम के चरणों में मुझे प्रीति दें॥
[2/8, 16:19] राम भवनमणि त्रिपाठी: *🚩सनातनधर्मो विजयतेतराम🚩*
सनातन धर्म के पुराणों के रचेता श्री वेद व्यास जी ने श्री मद्भागवत में......

*धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं:-*
"धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।। "

(धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, शौच (स्वच्छता), इन्द्रियों को वश मे रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना ; ये दस धर्म के लक्षण हैं।)
👆🏻इन लक्षणों के पालन करने को ही धर्म कहते हैं।

*और गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं...*

सुनहु सखा, कह कृपानिधाना,
जेहिं जय होई सो स्यन्दन आना।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका,
सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।
बल बिबेक दम पर-हित घोरे,
छमा कृपा समता रजु जोरे।
ईस भजनु सारथी सुजाना,
बिरति चर्म संतोष कृपाना।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचण्डा,
बर बिग्यान कठिन कोदंडा।
अमल अचल मन त्रोन सामना,
सम जम नियमसिलीमुख नाना।
कवच अभेद बिप्र-गुरुपूजा,
एहि सम बिजय उपाय न दूजा।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें,
जीतन कहँ न कतहूँ रिपु ताकें।
महा अजय संसार रिपु,
जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होई दृढ़,
सुनहु सखा मति-धीर।।
(लंकाकांड)

और ऋग्वेद के माध्यम से जाने तो👇🏻

सत्यं दया तप: शौचं,
तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च,
त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।।
संतोष: समदृक् सेवा,
ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा,
मौनमात्मविमर्शनम्।।
अन्नाद्यादे संविभागो,
भूतेभ्यश्च यथार्हत:।
तेषात्मदेवताबुद्धि:,
सुतरां नृषु पाण्डव।।
श्रवणं कीर्तनं चास्य,
स्मरणं महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।
नृणामयं परो धर्म:,
सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन्,
सर्वात्मा येन तुष्यति।।
===========================
किन्तु मेरी दृष्टि से धर्म का परिचय,,👇🏻
*सनातन* = "शाश्वत्" अर्थात जिसका न प्रारम्भ है और नाही अंत वह सनातन है। (तीन लोक नौ खंड में सनातन धर्म से हटकर कुछ है ही नहीं)

*"धर्म"* = *भगवान* के पद चरणों का अनुसरण करना ही धर्म है।

जय श्री राधेकृष्ण
[2/8, 21:08] अरविन्द गुरू जी: हरि ॐ तत्सत्! सुप्रभातम्।
भगवदनुग्रहात्सर्वे  जनाः  पुरुषार्थं  परमार्थं  च कुर्वन्तः  स्व-जीवनं  सानन्दं  यापयन्तु।
🌺🙏�🌺

*आयुषः क्षण एकोऽपि सर्वरत्नैर्न न लभ्यते।*
*नीयते स वृथा येन प्रमादः सुमहानहो ॥*

हमारे नीतिज्ञ महापुरुष उपदेशित करते हैं, आयु का एक क्षण भी सारे रत्नों को देने से प्राप्त नहीं किया जा सकता है, अतः इसको व्यर्थ में नष्ट कर देना महान भूल है ॥

॥ सत्यसनातधर्मो  विजयतेतराम् ॥
[2/9, 00:16] साक्षी: सर्वेभ्यो नमो नमः 🙏🙏
इस सदस में सदस्यता प्राप्त करके मन प्रफुल्लित हो रहा है। मेरे पास आप सबको कुछ कहने के लिए शब्दों का चयन करना मुश्किल नहीं नामुमकिन है।
मैं तो बस इतना ही कहूँगा कि मेरा दुर्भाग्य था जो कि मैं अभी तक इस अविरल निःसृत ज्ञान गंगा से वंचित रहा। अतः अब आप सब इस अनुज पर कृपा बनाए रखें जिससे मै भी कुछ ज्ञानार्जन कर सकूं 🙏🙏🙏
[2/9, 05:54] राम भवनमणि त्रिपाठी: ॥ निग्रहाष्टकम् ॥ श्रीमदप्पय्यदीक्षितविरचितम् । मार्गे सहायं भगवन्तमेव विश्वस्य विश्वाधिक निर्गतोऽस्मि । शास्त्रं प्रमाणं यदि सा विपत्स्या- त्तस्यैव मन्दो मयि यां चिकीर्षेत् ॥ १॥ कान्तारे प्रान्तरे वा मदकुशलकृतौ सान्तरं सान्तरङ्गं मह्यं द्रुह्यन्तमन्तं गमयतु भगवानन्तकस्यान्तकारी । क्षिप्रं विप्राधमस्य क्षिपतु तदुदरस्येव मायाविवर्ता नार्तान्बन्धूनबन्धूनिव मम शिशिराभ्यन्तरान्सन्तनोतु ॥ २॥ सहस्रं वर्तन्तां पथिपथि परे साहसकृतं प्रवर्तन्तां बाधं मयि विविधमप्यारचयितुम् । न लक्षीकुर्वेऽहं नलिनजलिपि प्राप्तमपि तन- मम स्वामी चामीकरशिखरचापोऽस्ति पुरतः ॥ ३॥ सङ्कल्प्य स्थाणुशास्त्रप्रचरणविहतिः स्वेन कार्या भुवीति श्मश्रूणि स्वैरमश्रूण्यपि खलु महतां स्पर्धया वर्धयन्तम् । क्षुद्रं विद्रावयेयुर्झटिति वृषपतिक्रोधनिःश्वासलेशाः शास्त्रं शैलादिभृत्यास्तनुयुरखिलभूमण्डलव्याप्तमेतत् ॥ ४॥ क्वचिदवयवे दग्धुं कश्चिद्बलादनुचिन्तयन् निरसनमितो देशात्कर्तुं महेश्वरमाश्रितान् । प्रमथपरिषद्रोशैर्दग्धाऽखिलावयवः स्वयं निरसनमितो लोकादेव क्षणेन समश्नुताम् ॥ ५॥ कालप्रतीक्षा नहि तस्य कार्या पुलस्त्यपुत्राऽऽदिवदन्तकारे । त्वदाश्रितद्रोहकृतोद्यमानां सद्यः पतेदेव हि मूर्ध्नि दण्डः ॥ ६॥ कण्ठे रुद्राक्षमालां भसितमतिसितं फालदेशे च पश्यन् नश्यन्नेव क्रुधं यस्तदपहृतमतिः सत्सु कुर्वीत गुर्वीम् । तत्फालात्तूर्णमायुर्लिखितमसुगणं चापि तत्कण्ठदेशात् क्रुद्धास्ते ह्युद्धरेयुर्निजपदकमलाङ्गुष्ठलीलाविलासात् ॥ ७॥ सकलभुवनकर्ता साम्बमूर्तिः शिवश्चेत् सकलमपि पुराणं सागमं चेत्प्रमाणम् । यदि भवति महत्वं भस्मरुद्राक्षभाजां किमिति न मृतिरस्मद्रोहिणः स्यादकाण्डे ॥ ८॥ इति श्रीभारद्वाजकुलजलधिकौस्तुभश्रीमदद्वैतविद्याचार्य श्रीमदप्पय्यदीक्षितकृतं चक्राङ्कितनिग्रहाष्टकं सम्पूर्णम् ॥ श्रीरस्तु । शुभमस्तु ।
[2/9, 07:06] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: *सर्वेभ्यो श्रीगुरूचरणकमलेभ्यो नमो नम: सुप्रभातम्*🌻🙏🏻🌻
सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वं । सामुद्रो हि तरङ्गः क्वचन समुद्रो न तारङ्गः ॥ ३॥ 
अविनयमपनय विष्णो दमय मनः शमय विषयमृगतृष्णां । भूतदयां विस्तारय तारय संसारसागरतः ॥ १॥
-हे विष्णु ! मेरे अविनय या अशिष्टता को दूर कर दो। मेरे अहंकार को चूर्ण करदो, मुझे अपने मन का दमन करने में सहायता करो। विषय-भोग रूपी मृगतृष्णा (मरीचिका)-उसमें सुख है, ऐसा मानकर, इस लौकिक सुखों में आनन्द है, इसीमे अर्थ है, ऐसा सोंच कर उसके पीछे दौड़ रहा हूँ। किन्तु उस उषर रेगिस्तान में जीवन का थोडा भी आनन्द नहीं मिलता, किन्तु वहीं पहुँच कर हमलोग अपने को खो देते हैं। इसीलिये प्रार्थना करते हैं कि इसप्रकार की विषय भोगों की मृगतृष्णा बिल्कुल दूर हो जाये। ऐसा केवल मन का दमन करने से ही संभव है। इसीलिये हे विष्णु ! मेरे मन को दमन करने में मेरी सहायता करें।  
किन्तु जब तक अहंकार है, तब तक मन का दमन नहीं किया जा सकता है। इसीलिये सर्वप्रथम मेरा अविनय, अर्थात विनयहीनता या अहंकार दूर करो। इसका, अहंकार दूर करने का -क्या उपाय है ? एकमात्र सभी भूतों पर दया का विस्तार करने से ही अहंकार दूर करना संभव होता है।  अपने लोगों को प्रेम करने का नाम माया है, सर्वभूतों  को प्रेम करने का नाम दया है। "
हमारे समस्त शास्त्रों में चिरकाल से दया की प्रशंसा होती आ रही है। समस्त प्राणियों के प्रति दया,प्रेम, करुणा, सहानुभूति बढ़ाने का उपदेश दिया गया है। इसका फल क्या होगा ? यही, कि वैसा करने से हमलोग संसार से मुक्त हो जायेंगे, या जन्म-मृत्यु के हाथों से छुटकारा प्राप्त कर लेंगे। संसार-सागर से उद्धार मिल जायेगा। 
बौद्ध धर्म के प्रभाव से हमलोगों का जो सनातन धर्म है,वह लगभग लुप्त होने के कागार तक पहुँच गया था। क्योंकि बौद्ध धर्म में वेद के उपर विश्वास करने की कोई बात नहीं थी। यहाँ तक कि स्वयं बुद्धदेव ने भी ईश्वर के बारे में कुछ नहीं कहा है। हालाँकि वे किस प्रकार के नास्तिक थे, इस सम्बन्ध में संदेह की गुंजाईश है, और इसको लेकर बहुत मतभेद भी है। किन्तु सामान्य जनता जिनको तत्वज्ञ बनने की क्षमता नहीं थी,वे उनके ईश्वर के सम्बन्ध में चुप्पी को गलत समझ लिये, और ईश्वर के प्रति अपनी आस्था को खोने लगे थे। वेद पर विश्वास नहीं करने के कारण, वेद-वेदान्त में जो महान सत्य छुपे हुए थे, वे सब मनुष्य के जीवन से लूप्त होने लगे थे।
बुद्धदेव ने जिस संन्यासी सम्प्रदाय की स्थापना की थी, उसमें कोई व्यक्ति संन्यास धारण करने का उचित या योग्य अधिकारी है या नहीं इसपर कोई विचार किये बिना ही, बिना किसी रुकावट के सभी को संन्यास दिया जाने लगा था। परिणाम स्वरूप संन्यास धर्म की अधोगति होने लगी, और क्रमशः संन्यास का आदर्श विकृत होकर अपभ्रष्ट हो गया था। क्रमशः संन्यासियों के जीवन में अराजकता का प्रवेश हो गया, तह संन्यासियों के जीवन की अराजकता को देखकर समाज भी कलुषित होने लगा। सम्पूर्ण भारतवर्ष का समाज क्रमशः चरित्रहीन होने लगा। 
उसी समय में आचार्य शंकर ने व्यास-सूत्र पर भाष्य की रचना किये, समस्त उपनिषदों पर (दश उपनिषद या मतभेद है की बारह उपनिषदों ) भाष्य की रचना किये। उसके भीतर जो कर्म में रूपायित करने की दृष्टि थी, जिसकी व्याख्या व्यासदेव ने गीता के माध्यम से की थी, उसके उपर भी असाधारण भाष्य की रचना की। इसप्रकार वेदान्त, ब्रह्मसूत्र, एवं गीता के बीच सुसामंजस्य स्थापित करके तत्व और जीवन के बीच स्थापित किये। ताकि अपने व्यावहारिक जीवन में भी उपयोगी तत्वों को ग्रहण करके भारत की उन्नति हो सके। नया संन्यासी सम्प्रदाय स्थापित किये, नये मठ को स्थापित किये। 
उसी प्रकार आगे चलकर और भी नये ढंग से समयोपयोगी बनाकर वेदान्त के तत्वों को जीवन में अपनाने के योग्य बनाकर अपने जीवन के माध्यम से हमलोगों को मिला है। सम्पूर्ण मानव सभ्यता की प्रगति के जीवनधारा को याद रखने के लिये यदि तीन चरणों में व्यक्त करना हो, तो प्रथम सोपान पर व्यासदेव हैं, दूसरे सोपान पर आचार्य शंकर हैं, और तृतीय तथा अंतिम सोपान पर श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा-स्वामी विवेकानन्द हैं।
सम्पूर्ण मानव-इतिहास, उसका दर्शन, उसकी संस्कृति, उसकी प्रगति, उसके उत्थान-पतन का इतिहास यदि याद रखने की बात हो, तो बहुत सी बातों को याद नहीं रखकर, इन तीन सोपानों को याद रखने काम हो जायेगा। वेदव्यास ने क्या किया था, आचार शंकर ने क्या किया था तथा ठाकुर-माँ-स्वामीजी ने क्या किया था-इतना जान लेना ही भारत के सच्चे इतिहास को जानना है। 
इसके भीतर सामयिक पतन और उससे पुनरुत्थान के उपाय को भलीभांति समझा जा सकता है। और इनके बीच की कड़ी (शङ्करः)भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। कहा गया है-  "शङ्करः शङ्करः साक्षात् व्यासो नारायणः स्वयम् । आचार्य शंकर साक्षात् शिव हैं, शिवजी का अवतार हैं -आचार्य शंकर; उन्होंने मनुष्य के कल्याण के लिये शरीर धारण किया था, ऐसा कहा जाता है। 
ठाकुर ने कहा था, " शिव के अंश से जिसका जन्म होता है, वह ज्ञानी होता है; उसका मन हर समय 'ब्रह्म सत्य,जगत मिथ्या ' के बोध की ओर चला जाता है। विष्णु के अंश से जिसका जन्म होता है, उसमें प्रेम-भक्ति होती है।" किन्तु शंकराचार्य में विष्णु के प्रति भक्ति भी कम नहीं थी। ठाकुर यह भी कहते थे, कि " शंकराचार्य ने लोक-शिक्षा के लिये 'विद्या का मैं' रख लिया था। " उस महान पुरुष को हम प्रणाम करते हैं।संकलित।
[2/9, 08:12] प सुभम्: *हर एक व्यक्ति को*
*परमात्मा सुबह दो रास्ते देते है*
*👉उठिए और अपने मनचाहे*
      *सपने पुरे कीजिये ।*
*👉सोते रहिये और मनचाहे*
      *सपने देखते रहिये ।*
*ज़िन्दगी आपकी... फैसला आपका...*

🐚🌺🐚🌺🐚🌺🐚🌺🐚
                     🙏🏻
           *₲๑๑d ℳ๑яทïทg*
[2/9, 08:13] पं ज्ञानेश: काङ्‍क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥
इस मनुष्य लोक में कर्मों के फल को चाहने वाले लोग देवताओं का पूजन किया करते हैं क्योंकि उनको कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र मिल जाती है
॥12॥
~ अध्याय 4 - श्लोक : 12
💐💐💐सुप्रभातम्💐💐💐
[2/9, 08:18] प सुभम्: 🌸 सुभाषितम् 🌸

सम्भोजनं संकथनं, सम्प्रीतिश्च परस्परम् ।
ज्ञातिभि: सहकार्याणि, न विरोध: कदाचन ॥

   परस्पर विचार-विमर्श, आत्मियता,
सहभोज आदि एक साथ काम करने वालों चलते रहने चाहिये ।  मतभेद यदि कोई हो तो उसे बाहर प्रकट नही करना चाहिये ॥

-🙏🏻 नमस्ते

सुप्रभातम्
[2/9, 08:26] ओमीश Omish Ji: *🌷 सूक्ति - सुधा 🌷*

भोगः परोपतापेन पुंसां दुःखाय न स्थिरः।
      - दूसरों को पीड़ित करके प्राप्त किये गये भोग मनुष्य के लिए दुःखदायी होते हैं और(वह भोग) स्थिर भी रहते नही है।
[2/9, 08:45] राम भवनमणि त्रिपाठी: विचार लो कि मत्र्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।
हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸
नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।
यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानवी¸
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।।

सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸
विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸
वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸
अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

"मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है¸
पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸
विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में
सन्त जन आपको करो न गर्व चित्त में
अन्त को हैं यहाँ त्रिलोकनाथ साथ में
दयालु दीन बन्धु के बडे विशाल हाथ हैं
अतीव भाग्यहीन हैं अंधेर भाव जो भरे
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
[2/9, 10:26] पं अनिल ब: तत्र द्रव्‍याणि पृथिव्‍यप्‍तेजोवाय्वाकाशकालदिगात्‍ममनांसि नवैव ।
(द्रव्‍यादि) सप्‍त पदार्थेषु नव द्रव्‍याण्‍िा सन्ति -
१- पृथिवी
२- जल
३- तेज
४- वायु:
५- आकाश:
६- कालं
७- दिक्
८- आत्‍मा
९- मन
जय महाकाल🙏🏼
[2/9, 10:26] पं अनिल ब: उच्चारणस्थानानि ।।
वर्णोच्चारणसमये अन्तस्तात् आगच्छन् वायुः (श्वासः) मुखस्य अवयवेषु स्पर्शं करोति । तेन् विकाराः (नादः) जायन्ते । यैः अवयवैः विकारस्य उत्पत्तिः भवति ते एव नादानां उच्चारणस्थानानि कथ्यन्ते । एतानि उच्चारणस्थानानि निम्नोक्तानि सन्ति ।
कण्ठः
तालुः
मूर्धा
दन्तः
ओष्ठः
नासिका
कण्ठतालुः
कण्ठोष्ठम्
दन्तोष्ठम्
जिह्वामूलम्
नासिका
जय महाकाल🙏🏼
[2/9, 10:47] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नम:।।

न यद्वचश्चित्रपदं हरेर्यशो
जगत्पवित्रं प्रगृणीत कर्हिचित् ।
तद्वायसं तीर्थमुशन्ति मानसा न
यत्र हंसा निरमन्त्युशिक्क्षया: ॥

               –भाग0 1/5/10

नारद जी ने व्यास जी से कहा– जिसकी अपनी  वाणी  चाहे रस-भाव-अलंकारादि से युक्त युक्त ही क्यों न हो, संसार को पवित्र करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण के यश का कभी गान न किया हो तो उसकी वह वाणी कौओं के लिए उच्छिष्ट फेंकने जे स्थान के समान मानी जाती है। ध्यान रहे , मानसरोवर के कमनीय कमलवन में विहरनेवाले हंसों की भाँति साकेतलोक में विहार करने वाले भगवच्चारणारविंदाश्रित परमहंस भक्त कभी उसमें रमण नहीं करते।

तद्वाग्विसर्गो जनताघविप्लवो यस्मिन्
प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि ।
नामान्यनन्तस्य यशोऽङ्कितानि यच्छृण्वन्ति
गायन्ति गृणन्ति साधवः ।।

                –भाग0 1/5/11

इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है, दूषित शब्दों से युक्त भी है किन्तु  फिरभी  जिसका प्रत्येक शब्द - श्लोक भगवान् के यशगान सूचक नामों से युक्त है, वह वाणी लोगों के सम्पूर्ण पापों को नष्ट कर देती है।  सत्पुरुष तो ऐसी ही वाणी का श्रवण, कीर्तन और गान करके भगवत् कृपा प्राप्त  करते हैं ।

           –रमेशप्रसाद शुक्ल

           –जय श्रीमन्नारायण।
[2/9, 11:12] पं अर्चना जी: हे कान्हा.... 🌹💞

तू इतना सुन्दर क्यों है,
क्यों मै इतनी पागल हूँ।
कमल से कोमल नैनो से,
क्यों मै इतनी घायल हूँ।।

तेरी मंद-मंद मुस्कान,
सच है या मेरी कल्पना।
सामने तू ही हैं न या,
है खुली आँखों का सपना।।

श्यामल-श्यामल तेरा चितवन,
या बादल कही छाया है।
तेरे अधरों ने कहा है कुछ,
या कानों ने मुझे भरमाया है।।

सपना है अगर ये तो,
मुझे सपनों में ही जीने दे।
ये रूप अमृत कान्हा का,
ताउम्र मुझे ऐसे ही पीने दे।
दरश दीवानी मैं।
मुझे प्यासी ही रहने दे।।

🙏🏻 जय श्री कृष्ण
🙏🏻 कृष्णमयी शुभ दिन
[2/9, 11:13] ओमीश Omish Ji: 🌺🌻🌹🌸💐🌷🌼
   एक मेढक पेड़ की चोटी पर चढ़ने का सोचता है और आगे बढ़ता है
बाकी के सारे मेंढक शोर मचाने लगते हैं "ये असंभव है.. आज तक कोई नहीं चढ़ा.. ये असंभव है.. नहीं चढ़ पाओगे"
मगर मेंढक आख़िर पेड़ की चोटी पर पहुँच ही जाता है.. जानते हैं क्यूँ?
क्योंकि वो मेंढक "बहरा" होता है.. और सारे मेंढकों को चिल्लाते देख सोचता है कि सारे उसका उत्साह बढ़ा रहे हैं
इसलिए अगर आपको अपने लक्ष्य पर पहुंचना है तो नकारात्मक लोगों के प्रति "बहरे" हो जाइए l
🌺🌻🌹🌷🌼🌸💐🍄
[2/9, 11:44] ओमीश Omish Ji: 🙏🌹श्री मात्रे नमः 🌹🙏
🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞
श्री सच्चानामध्येयाय श्री गुरूवे परमात्मने नमः🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞
🌺🌺🌺🌺🌺🌸🌸🌸🌸🌸
          🌷नियमावली🌷
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जिसका पालन करना "धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ"के सभी विद्वत आचार्यसदस्यों को अनिवार्य होगा।
🌸🌸🌸🌸🌸🌺🌺🌺🌺🌺
१.सर्वप्रथम संघ के सभी आदरणीय श्रेष्ठ विद्वत आचार्य गणों से वार्ता करते समय उनके नाम के आगे सम्मान सूचक शब्द अवश्य लगायें।🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃
२.श्रेष्ठ आचार्य गणों द्वारा छोटों को भी उचित सम्मान से ही संबोधित किया जाये🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂
३.आपसी शिष्टाचार एवं सौम्यता बनाते हुये सब से प्रेम पूर्वक सदाचार का परिचय दें🍁🍂🍃🍁🍃🍂🍁🍃🍂🍁
४.किसी भी सदस्य के प्रति हीन भावना न रखते हुये सब को अपने परिवार का अभिन्न अंग माने🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿
५.किसी भी विद्वत सदस्य के ऊपर कोई भी ऐसी टिप्पणी न करें जिससे किसी का मन आहत हो या किसी को दुःख पहुँचे🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀
६.संघ के नाम एवं प्रोफाइल फोटो से किसी प्रकार की छेड़खानी न करें यह कार्य हमारे संस्थापक महोदय एवं संचालक समिति के अंतर्गत आता है🌺🌻🌹🌷🌼🌸🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
७.किसी भी प्रकार के अनावश्यक मैसेज न भेजें,जैसे चुटकुले, शायरी,कॉमेडी या 'ये मैसेज २० लोगो को शेयर करो शाम तक अच्छी खबर मिलेगी नहीँ तो आपका अनिष्ट होगा' इस प्रकार के संदेश भेजना दण्डनीय अपराध माना जायेगा 🌺🌹🌼🌺🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸
८.संघ में केवल सनातनधर्म,अध्यात्म पुराण वेदोपनिषद् ,समस्त सनातन धर्म सम्बंधित संग्रह ही भेजें। वह भी लिखित, इमेज लेख न हो☘☘☘☘☘☘☘☘☘☘☘☘☘☘☘☘☘☘☘
९.किसी भी सदस्य के प्रति हास-परिहास, आपत्तिजनक टिप्पणी न करें जिससे किसी भी प्रकार का विवाद हो🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿
१०.किसी भी सदस्य को अपनी विद्वता से नीचा दिखाने का प्रयास न करें,बल्कि अपने ज्ञान को प्रेम पूर्वक प्रस्तुत करें🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃
११.किसी भी प्रश्न के ऊपर चल रही वार्ता समाधान  के वक्त दूसरे पोस्ट न भेजें तथा उसी प्रश्न में अपने विचार प्रकट करने की कृपा करें 🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
१२.कोई भी चित्र या वीडियो-चित्र तथा इमेज भेजना विशेष मुख्य रूप से वर्जित है इसका विशेष ध्यान रखें।किसी भी सदस्य द्वारा इमेज या वीडियो भेजे जाने से समिति द्वारा २४ घंटे के लिये तत्काल निष्कासित किया जायेगा |कारण स्पष्ट होने के बाद ही पुन: जोड़ा जा सकता है🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸
१३.संघ में किसी भी नए अतिथि विद्वान के आने पर उनका समुचित स्वागत अभिवादन करना हम सब के अच्छे शिष्टाचार का परिचायक है🍇🍋🍊🍐🍎🍒💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
१४.किसी भी सदस्य से किसी प्रकार की त्रुटि होने पर उनके प्रति अन्य कोई सदस्य न उलझें। उसका समाधान, प्रशासनिक श्रेष्ठ गुरुजनों द्वारा या संघ संस्थापक द्वारा किया जायेगा। यदि किसी को किसी से शिकायत है तो वे संस्थापक महोदय या प्रसाशनिक समिति के किसी भी गुरूजन सदस्यों से पर्सनल एकाउंट में जाकर अपनी बात रख सकते हैं !🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃
१५.अगर अपने निजी कारणों बस कोई भी सदस्य संघ से बाहर होना चाहते हैं तो कृपया सूचना अवश्य देने की कृपा करें🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂
१६.संघ के नियमो को कुछ और सुदृढ़ बनाने के लिए आप सब अपनी राय दे सकते हैं संस्थापक महोदय के पर्सनल में🍁🌿🍃🍂☘🌸🌻🌺🍀🍁
१७."आप सभी विद्वत जन अपने प्रोफाइल में अपनी फोटो व अपना नाम अवश्य लिखें🌸🌸🌸🌸🌷🌺🌺🌺🌺🌺
१८.कभी कभी मनोविनोद एवं मनोरंजन की वार्ता को अन्यथा न लेकर आनन्द की अनुभूति करें क्यों कि इस भागदौड़भरे जीवन में हँसना और हँसाना भी बहुत आवश्यक है ! लेकिन हास्य सामाजिक मर्यादा को ध्यान में रखते हुये करें🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍃🍃🍃🍃🍃
१९.संघ में किसी भी पोस्ट को दुबारा पोस्ट करना वर्जित है किसी सदस्य के आग्रह करने पर ही दुबारा पोस्ट भेज सकते हैं🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍂🍂🍂🍂🍂
२०.संघ को और मजबूत बनाने हेतु विशिष्ठ विद्वतजनों की आवश्यकता होती है,अतः जिन गुरुजनों के सम्पर्क में अच्छे सुमधुर व्यवहार वाले ज्ञानमय ब्राम्हण हों उन विद्वानों को जोड़ने के लिए संस्थापक महोदय या समिति के गुरूजनों से सम्पर्क कराएं तथा उन्हें संघ के नियमो से भी अवगत कराये🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
२१.संघ में वार्ता करने का समय सुबह ५:३०से रात्रि ११:००तक विशेष आवश्यकतानुसार 🌸🍃🌸🍃🌸🍃🌸🍃🌸🍃🌸🍃🌸🍃🌸🍃
२२. अाप सभी विद्वतजनों के पास अगर व्यक्तिगत स्वयं का अपना कोई लिंक हो तो उसे प्रेसित कर सकते हैं।अन्य लिंक भी भेज सकते हैं लेकिन केवल धार्मिक लिंक ही हो इसका ध्यान रहे।अधार्मिक लिंक आने पर समिति निर्णय ले सकती है, अतः आपको बाहर कर दिया जाएगा🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃
२३.संघ मे विदुषी देवियों का भी समावेश है अत: सभी विद्वतजन सभ्यतापूर्ण शब्दों का चयन करें।जिससे कि आपकी एवं विदुषी देवियों की मर्यादा बनी रहे🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸२४.
कोई भी सदस्य किसी के पर्सनल में जाकर वार्ता करके अनावश्यक परेसान न करें, अगर ऐसा करते भी है तो सामने वाले सदस्य के द्वारा वार्ता को आगे न बढाकर ब्लॉक कर दिया जाए।
२५.धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ की प्रशासनिक-सूची :-🌺🌺🌺🌺🌺🌺
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१--स्वतंत्र प्रभार--:श्री मान संतोष मिश्र (शोष जी) एवं श्रीमान् विजयभान गोस्वामी जी🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃
२--न्यायाधीश--:श्रीमान् सत्यप्रकाश अनुरागी जी 🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺
३--उपन्यायाधीश--: यज्ञाचार्य श्रीमान् ब्रजभूषण त्रिपाठी जी🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃
४.संस्थापक एवं अध्यक्ष--: श्रीमान् मंगलेश्वर त्रिपाठी जी 🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
५.उपाध्यक्ष--:श्रीमान् अनिल पाण्डेय जी (मुं.दे.)🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃
६.कोशाध्यक्ष--: श्रीमान दीना नाथ तिवारी जी🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃
७.प्रवक्ता--:श्रीमान् ओमीश जी (महालक्ष्मी मन्दिर-नवीमुम्बई) एवं श्रीमान् विद्यानिधि जी🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺
८.--:सचिव--:श्रीमान् आलोक शास्त्री जी 🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃
९.उप सचिव--:रोहित परासर जी🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺
१०.संयोजक--:श्रीमान् सत्यप्रकाश शुक्ल जी (हिमांचल)🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃
श्रीमान संदीप त्रिपाठी जी 🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
श्रीमान् पवनेश शुक्ल जी🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃
११.मार्गदर्शक--:श्रीमान् बलभद्र जी,श्रीमान् शिवाकान्त त्रिपाठी जी,श्रीमान शान्तिभूषण त्रिपाठी जी,श्रीमान् रजनीश मिश्रा जी श्रीमान् पवनेश शुक्ल जी श्रीमान् दिलीप शुक्ल जी🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃
१२--:व्यवस्थापक ÷श्रीमान् रवीन्द्र व्यास जी (यू-पी भवन नवी मुंबई) एवं समस्त धर्मार्थ परिवार🌺🍃🌺🍃🌸🍃🌸🍃🌺🍃🌸🍃🌺🍃🌸🍃🌺
जयतु गुरुदेव, जयतु भारतम्🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🙏
[2/9, 12:23] राम भवनमणि त्रिपाठी: "आली बनमाली दिन मदन क्रुचाली यह,
करत विघती तन मेरो दीन्त है।
श्याम गयो श्याम गयो, सुखद विश्राम गयो,
सुखमय आराम गयो, दु:ख प्रगटन्त है।।
और ॠतु आबई, पियराई छोई ऐसे झूठ
मैं भी पियराई बैठि रोवत एकान्त है।
कुंज बसन्त में सुआती नाहिं कान्त हैं।
[2/9, 12:28] राम भवनमणि त्रिपाठी: यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्‌।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे॥

और जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख न लूँ कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिए
॥22॥
[2/9, 14:16] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

चारों वेदों व महाभारत के ऋषियों के नाम
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ऋग्यजुःसामाथर्वाख्या वेदाश्चत्वार उद्धृताः।
इतिहासपुराणं च पञ्चमो वेद उच्यते।।
    
व्यास जी के द्वारा ऋक् , यजुः, साम और अथर्व – इन चार वेदों का उद्धार (पृथक्करण) हुआ। इतिहास और पुराणों (महाभारत और पुराण) को पांचवाँ वेद कहा जाता है ।

तत्रर्ग्वेदधरः पैलः सामगो जैमिनिः कविः।
वैशम्पायन एवैको निष्णातो यजुषामुत ।।
    
उनमें से ऋग्वेद पैल, सामगान के विद्वान जैमिनी एवं यजुर्वेद के एकमात्र स्नातक वैशम्पायन हुए ।

अथर्वाङ्गिरसामासीत्सुमन्तुर्दारुणो मुनिः।
इतिहासपुराणानां पिता मे रोमहर्षणः ।।
    
अथर्ववेद में प्रवीण हुए दरुणनन्दन सुमन्तु मुनि। इतिहास और पुराणों के स्नातक मेरे पिता रोमहर्षण थे ।

           –भाग0 1/4/20-22

              –रमेशप्रसाद शुक्ल

              –जय श्रीमन्नारायण।
[2/9, 14:19] पं ऊषा जी: सदस को नमन।  हाँ, एक ही स्थान पर दोनों उपलब्ध होते तो अध्ययन में सुकरता होती। पर हिन्दी अनुवाद पृथक् और संस्कृत मूल पृथक् मिला। जैसे भी हो, पठन में थोड़ी सी सहायता मिलेगी।
[2/9, 14:19] ओमीश Omish Ji: *तारीफ़ करने वाले बेशक आपको*

*पहचानते होंगे,*

*मगर फ़िक्र करने वालो को आपको*

*ही पहचानना होगा ।*✍
[2/9, 14:36] P Alok Ji: परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते।
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्

इस परिवर्तनशील संसार में कौन नहीं मरता तथा कौन जन्म नहीं लेता है। किन्तु वास्तव में उत्पन्न होना उसी का श्रेष्ठ है, जिसके जन्म लेने से वंश की समुन्नति होती है।
[2/9, 14:38] ‪+91 96859 71982‬: सांवरियां ,,,,,,,,

मेरी रूह में न समाते तो भूल जाती तुम्हें...
  तुम इतना करीब न आते तो भूल जाती तुम्हें...
        यह कहते हुए कि मेरा ताल्लुक नहीं..
                तुमसे कोई आँखों में आँसू न आते तो भूल जाती तुम्हें...!!!!

     🌹राधे राधे🌹
[2/9, 20:53] ‪+91 97609 75901‬: गुरू से शिष्य ने कहा, "गुरूदेव ! एक व्यक्ति ने आश्रम के लिये गाय भेंट की है।"  गुरू ने कहा - "अच्छा हुआ । दूध पीने को मिलेगा ।"  एक सप्ताह बाद शिष्य ने आकर गुरू से कहा," गुरू ! जिस व्यक्ति ने गाय दी थी, आज वह अपनी गाय वापस ले गया ।"  गुरू ने कहा - अच्छा हुआ ! गोबर उठाने की झंझट से मुक्ति मिली ।"  'परिस्थिति' बदले तो अपनी 'मनस्थिति' बदल लो । बस दुख सुख में बदल जायेगा ।  "सुख दुख आख़िर दोनों मन के ही तो समीकरण हैं ।  "अंधे को मंदिर आया देख लोग हँसकर बोले -"मंदिर में दर्शन के लिए आए तो हो, पर क्या भगवान को देख पाओगे ?"  "अंधे ने कहा -"क्या फर्क पड़ता है, मेरा भगवान तो मुझे देख लेगा ।"  द्रष्टि नहीं द्रष्टिकोण सकारात्मक होना चाहिए।
[2/9, 23:54] ‪+91 96859 71982‬:           🕭श्रीयमुनाजी के ४१पदसार 🕭
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श्रीहरिरायजी प्रथम चार पद में क्रमशः श्रीयमुनाजी के स्वरूप, नाम,गुण  और लीला का वर्णन करते हैं ।

(१) पिय संग रंग भरि करि कलोले.....................

प्रथम पद में श्रीहरिरायजी श्रीयमुनाजी के स्वरूप का वर्णन करते श्रीयमुनाजी का अपने जीव प्रत्ये का अगाध प्रेम निरूपण करते हैं । श्रीठाकुरजी साथ के रसमय विहार के समय भी  आप जीव के उद्धार की चिंता करते हैं एसे कारूणिक है । जीव का उद्धार करने के लिए सर्व सामर्थ्य आप में बिराजमान है ।जीव के पास कोई भी प्रकार के साधनों की अपेक्षा न रख के अपने नाम मात्र से  अतुलित कृपा कराते हैं अर्थात आप निर्हेतुक करूणामय  और विभु भी है । और बिछुरे दैवी जीवों के उद्धार के लिए आपने द्रढ प्रतिज्ञा करी है ओर यहां तक कि भूतल पर बिराजने का आपने श्रीठाकुरजी से कोल भी ले लिया है ।श्रीयमुनाजी का ऐसा प्रेमाल स्वरूप को जानकर जीव को श्रीयमुनाजी से सहज स्नेह प्रकट हो जाता है । 

(२)श्याम सुखधाम जहां नाम  इनके ............................

दुसरे पद में  श्री हरिरायजी श्री यमुनाजी के नाम महिमा को कहते हैं । आपका नाम स्मरण करनेवाले भक्तों के पास ही सुखधाम श्रीठाकुरजी बिराजते हैं।और अपने नाम मात्र से अभय पद का दान होता है । इस प्रकार से श्री यमुना जी के नाम का महात्म्य जान कर स्मरण करने से श्री यमुना जी में प्रेम प्रकट होता है ।

(३ ) कहत श्रुति सार, निरधार करके..........................

श्री हरिरायजी तीसरे पद में श्री यमुना जी के गुण का वर्णन करते हैं । श्रुतिरूपा गोपीजने श्री यमुना जी के परम सारभूत रसतत्वरूप का गुणगान गाते हैं ।आप ब्रह्मसंबंध समय में जीवों का श्री ठाकुरजी के साथ संबंध द्रढ करते हैं । एसे श्री यमुना जी के गुण जान कर भक्तों का प्रेम प्रकर्षेण वृद्धिगत होता है ।

(४)नेनभर देख  अब भानु-तनया .................................

चोथे पद में श्री हरिरायजी श्री यमुनाजी की लीला का निरूपण करते हैं ।इस प्रकार से प्रकट हुए प्रेम द्वारा भक्त जब श्री यमुना जी के दर्शन करता है तब  अपने जल के अंदर बिराजी हुई लीला की स्फूर्ति  उसके ह्रदय में होती है ।अपने टेढे भ्रमरयुक्त प्रवाह के  अंदर साक्षात श्री यमुना जी के आधिदैविक स्वरूप में सर्व लीला सहित बिराजते हैं एसा भाव उसके ह्रदय में प्रकट होता है । ये लीला के दर्शन तो जब  आसक्ति सिद्ध होगी तब होंगे  (पद ९ में आसक्ति सिद्ध होगी) ।
        🙏🏼कृष्णप्रेमी-कनिका 🙏🏼
[2/10, 08:37] राम भवनमणि त्रिपाठी: प्रभु जी तुम संगति सरन तिहारी।जग-जीवन राम मुरारी॥
गली-गली को जल बहि आयो, सुरसरि जाय समायो।
संगति के परताप महातम, नाम गंगोदक पायो॥
स्वाति बूँद बरसे फनि ऊपर, सोई विष होइ जाई।
ओही बूँद कै मोती निपजै, संगति की अधिकाई॥
तुम चंदन हम रेंड बापुरे, निकट तुम्हारे आसा।
संगति के परताप महातम, आवै बास सुबासा॥
जाति भी ओछी, करम भी ओछा, ओछा कसब हमारा।
नीचे से प्रभु ऊँच कियो है, कहि 'रैदास चमारा॥
[2/10, 09:31] पं ज्ञानेश: चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान
॥13॥
~ अध्याय 4 - श्लोक : 13

💐💐💐सुप्रभातम्💐💐💐
[2/10, 11:51] पं अनिल ब: 🙏🌹श्री मात्रे नमः 🌹🙏
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श्री सच्चानामध्येयाय श्री गुरूवे परमात्मने नमः🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞
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          🌷नियमावली🌷
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जिसका पालन करना "धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ"के सभी विद्वत आचार्यसदस्यों को अनिवार्य होगा।
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१.सर्वप्रथम संघ के सभी आदरणीय श्रेष्ठ विद्वत आचार्य गणों से वार्ता करते समय उनके नाम के आगे सम्मान सूचक शब्द अवश्य लगायें।🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃
२.श्रेष्ठ आचार्य गणों द्वारा छोटों को भी उचित सम्मान से ही संबोधित किया जाये🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂
३.आपसी शिष्टाचार एवं सौम्यता बनाते हुये सब से प्रेम पूर्वक सदाचार का परिचय दें🍁🍂🍃🍁🍃🍂🍁🍃🍂🍁
४.किसी भी सदस्य के प्रति हीन भावना न रखते हुये सब को अपने परिवार का अभिन्न अंग माने🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿
५.किसी भी विद्वत सदस्य के ऊपर कोई भी ऐसी टिप्पणी न करें जिससे किसी का मन आहत हो या किसी को दुःख पहुँचे🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀
६.संघ के नाम एवं प्रोफाइल फोटो से किसी प्रकार की छेड़खानी न करें यह कार्य हमारे संस्थापक महोदय एवं संचालक समिति के अंतर्गत आता है🌺🌻🌹🌷🌼🌸🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
७.किसी भी प्रकार के अनावश्यक मैसेज न भेजें,जैसे चुटकुले, शायरी,कॉमेडी या 'ये मैसेज २० लोगो को शेयर करो शाम तक अच्छी खबर मिलेगी नहीँ तो आपका अनिष्ट होगा' इस प्रकार के संदेश भेजना दण्डनीय अपराध माना जायेगा 🌺🌹🌼🌺🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸
८.संघ में केवल सनातनधर्म,अध्यात्म पुराण वेदोपनिषद् ,समस्त सनातन धर्म सम्बंधित संग्रह ही भेजें। वह भी लिखित, इमेज लेख न हो☘☘☘☘☘☘☘☘☘☘☘☘☘☘☘☘☘☘☘
९.किसी भी सदस्य के प्रति हास-परिहास, आपत्तिजनक टिप्पणी न करें जिससे किसी भी प्रकार का विवाद हो🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿
१०.किसी भी सदस्य को अपनी विद्वता से नीचा दिखाने का प्रयास न करें,बल्कि अपने ज्ञान को प्रेम पूर्वक प्रस्तुत करें🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃
११.किसी भी प्रश्न के ऊपर चल रही वार्ता समाधान  के वक्त दूसरे पोस्ट न भेजें तथा उसी प्रश्न में अपने विचार प्रकट करने की कृपा करें 🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
१२.कोई भी चित्र या वीडियो-चित्र तथा इमेज भेजना विशेष मुख्य रूप से वर्जित है इसका विशेष ध्यान रखें।किसी भी सदस्य द्वारा इमेज या वीडियो भेजे जाने से समिति द्वारा २४ घंटे के लिये तत्काल निष्कासित किया जायेगा |कारण स्पष्ट होने के बाद ही पुन: जोड़ा जा सकता है🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸
१३.संघ में किसी भी नए अतिथि विद्वान के आने पर उनका समुचित स्वागत अभिवादन करना हम सब के अच्छे शिष्टाचार का परिचायक है🍇🍋🍊🍐🍎🍒💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
१४.किसी भी सदस्य से किसी प्रकार की त्रुटि होने पर उनके प्रति अन्य कोई सदस्य न उलझें। उसका समाधान, प्रशासनिक श्रेष्ठ गुरुजनों द्वारा या संघ संस्थापक द्वारा किया जायेगा। यदि किसी को किसी से शिकायत है तो वे संस्थापक महोदय या प्रसाशनिक समिति के किसी भी गुरूजन सदस्यों से पर्सनल एकाउंट में जाकर अपनी बात रख सकते हैं !🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃
१५.अगर अपने निजी कारणों बस कोई भी सदस्य संघ से बाहर होना चाहते हैं तो कृपया सूचना अवश्य देने की कृपा करें🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂
१६.संघ के नियमो को कुछ और सुदृढ़ बनाने के लिए आप सब अपनी राय दे सकते हैं संस्थापक महोदय के पर्सनल में🍁🌿🍃🍂☘🌸🌻🌺🍀🍁
१७."आप सभी विद्वत जन अपने प्रोफाइल में अपनी फोटो व अपना नाम अवश्य लिखें🌸🌸🌸🌸🌷🌺🌺🌺🌺🌺
१८.कभी कभी मनोविनोद एवं मनोरंजन की वार्ता को अन्यथा न लेकर आनन्द की अनुभूति करें क्यों कि इस भागदौड़भरे जीवन में हँसना और हँसाना भी बहुत आवश्यक है ! लेकिन हास्य सामाजिक मर्यादा को ध्यान में रखते हुये करें🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍃🍃🍃🍃🍃
१९.संघ में किसी भी पोस्ट को दुबारा पोस्ट करना वर्जित है किसी सदस्य के आग्रह करने पर ही दुबारा पोस्ट भेज सकते हैं🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍂🍂🍂🍂🍂
२०.संघ को और मजबूत बनाने हेतु विशिष्ठ विद्वतजनों की आवश्यकता होती है,अतः जिन गुरुजनों के सम्पर्क में अच्छे सुमधुर व्यवहार वाले ज्ञानमय ब्राम्हण हों उन विद्वानों को जोड़ने के लिए संस्थापक महोदय या समिति के गुरूजनों से सम्पर्क कराएं तथा उन्हें संघ के नियमो से भी अवगत कराये🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
२१.संघ में वार्ता करने का समय सुबह ५:३०से रात्रि ११:००तक विशेष आवश्यकतानुसार 🌸🍃🌸🍃🌸🍃🌸🍃🌸🍃🌸🍃🌸🍃🌸🍃
२२. अाप सभी विद्वतजनों के पास अगर व्यक्तिगत स्वयं का अपना कोई लिंक हो तो उसे प्रेसित कर सकते हैं।अन्य लिंक भी भेज सकते हैं लेकिन केवल धार्मिक लिंक ही हो इसका ध्यान रहे।अधार्मिक लिंक आने पर समिति निर्णय ले सकती है, अतः आपको बाहर कर दिया जाएगा🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃
२३.संघ मे विदुषी देवियों का भी समावेश है अत: सभी विद्वतजन सभ्यतापूर्ण शब्दों का चयन करें।जिससे कि आपकी एवं विदुषी देवियों की मर्यादा बनी रहे🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸२४.
कोई भी सदस्य किसी के पर्सनल में जाकर वार्ता करके अनावश्यक परेसान न करें, अगर ऐसा करते भी है तो सामने वाले सदस्य के द्वारा वार्ता को आगे न बढाकर ब्लॉक कर दिया जाए।
२५.धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ की प्रशासनिक-सूची :-🌺🌺🌺🌺🌺🌺
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१--स्वतंत्र प्रभार--:श्री मान संतोष मिश्र (शोष जी) एवं श्रीमान् विजयभान गोस्वामी जी🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃
२--न्यायाधीश--:श्रीमान् सत्यप्रकाश अनुरागी जी 🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺
३--उपन्यायाधीश--: यज्ञाचार्य श्रीमान् ब्रजभूषण त्रिपाठी जी🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃
४.संस्थापक एवं अध्यक्ष--: श्रीमान् मंगलेश्वर त्रिपाठी जी 🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
५.उपाध्यक्ष--:श्रीमान् अनिल पाण्डेय जी (मुं.दे.)🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃
६.कोशाध्यक्ष--: श्रीमान दीना नाथ तिवारी जी🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃
७.प्रवक्ता--:श्रीमान् ओमीश जी (महालक्ष्मी मन्दिर-नवीमुम्बई) एवं श्रीमान् विद्यानिधि जी🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺
८.--:सचिव--:श्रीमान् आलोक शास्त्री जी 🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃
९.उप सचिव--:रोहित परासर जी🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺
१०.संयोजक--:श्रीमान् सत्यप्रकाश शुक्ल जी (हिमांचल)🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃
श्रीमान संदीप त्रिपाठी जी 🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
श्रीमान् पवनेश शुक्ल जी🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃
११.मार्गदर्शक--:श्रीमान् बलभद्र जी,श्रीमान् शिवाकान्त त्रिपाठी जी,श्रीमान शान्तिभूषण त्रिपाठी जी,श्रीमान् रजनीश मिश्रा जी श्रीमान् पवनेश शुक्ल जी श्रीमान् दिलीप शुक्ल जी🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃
१२--:व्यवस्थापक ÷श्रीमान् रवीन्द्र व्यास जी (यू-पी भवन नवी मुंबई) एवं समस्त धर्मार्थ परिवार🌺🍃🌺🍃🌸🍃🌸🍃🌺🍃🌸🍃🌺🍃🌸🍃🌺
जयतु गुरुदेव, जयतु भारतम्🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🙏
[2/10, 11:59] राम भवनमणि त्रिपाठी: प्राप्यापदं न व्यथते कदाचि- दुद्योगमन्विच्छति चाप्रमत्तः। दुःखं च काले सहते महात्मा धुरन्धरस्तस्य जिताः सप्तनाः ॥

भावार्थ :
जो व्यक्ति मुसीबत के समय भी कभी विचलित नहीं होता, बल्कि सावधानी से अपने काम में लगा रहता है, विपरीत समय में दुःखों को हँसते-हँसते सह जाता है, उसके सामने शत्रु टिक ही नहीं सकते; वे तूफान में तिनकों के समान उड़कर छितरा जाते हैं ।आपका दिन शुभ हो।
[2/10, 12:12] राम भवनमणि त्रिपाठी: ( भगवान की विभूति और योगशक्ति का कथन तथा उनके जानने का फल)

श्रीभगवानुवाच

भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः ।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥

भावार्थ : श्री भगवान्‌ बोले- हे महाबाहो! फिर भी मेरे परम रहस्य और प्रभावयुक्त वचन को सुन, जिसे मैं तुझे अतिशय प्रेम रखने वाले के लिए हित की इच्छा से कहूँगा॥1॥

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥

भावार्थ : मेरी उत्पत्ति को अर्थात्‌ लीला से प्रकट होने को न देवता लोग जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदिकारण हूँ॥2॥

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्‌ ।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥

भावार्थ : जो मुझको अजन्मा अर्थात्‌ वास्तव में जन्मरहित, अनादि (अनादि उसको कहते हैं जो आदि रहित हो एवं सबका कारण हो) और लोकों का महान्‌ ईश्वर तत्त्व से जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान्‌ पुरुष संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है॥3॥

बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥

भावार्थ : निश्चय करने की शक्ति, यथार्थ ज्ञान, असम्मूढ़ता, क्षमा, सत्य, इंद्रियों का वश में करना, मन का निग्रह तथा सुख-दुःख, उत्पत्ति-प्रलय और भय-अभय तथा अहिंसा, समता, संतोष तप (स्वधर्म के आचरण से इंद्रियादि को तपाकर शुद्ध करने का नाम तप है), दान, कीर्ति और अपकीर्ति- ऐसे ये प्राणियों के नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते हैं॥4-5॥

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥

भावार्थ : सात महर्षिजन, चार उनसे भी पूर्व में होने वाले सनकादि तथा स्वायम्भुव आदि चौदह मनु- ये मुझमें भाव वाले सब-के-सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं, जिनकी संसार में यह संपूर्ण प्रजा है॥6॥

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥

भावार्थ : जो पुरुष मेरी इस परमैश्वर्यरूप विभूति को और योगशक्ति को तत्त्व से जानता है (जो कुछ दृश्यमात्र संसार है वह सब भगवान की माया है और एक वासुदेव भगवान ही सर्वत्र परिपूर्ण है, यह जानना ही तत्व से जानना है), वह निश्चल भक्तियोग से युक्त हो जाता है- इसमें कुछ भी संशय नहीं है॥7॥
[2/10, 13:28] ओमीश Omish Ji: *🌷 सूक्ति - सुधा 🌷*

किं न कुर्वन्ति सुभगे कष्टमर्थार्थिनो नराः।
     - हे सौभाग्यशालिनि !
धनार्थी  मानव  किस कष्ट को नहीं सहते हैं? (अनु. रूपनारायणजी)
[2/10, 13:49] ‪+91 96859 71982‬: आज का दिन है बहुत खास, रात 12 बजे लगाएं दरवाजे पर 1 दीपक

धर्म शास्त्रों में पूर्णिमा तिथि को विशेष फलदाई माना गया है। उन सभी पूर्णिमाओं में माघी पूर्णिमा (इस बार 10 फरवरी, शुक्रवार) का महत्व कहीं अधिक है। पुराणों के अनुसार, इस दिन विशेष उपाय करने से धन की देवी मां लक्ष्मी शीघ्र ही प्रसन्न हो जाती हैं। और भी कई उपाय इस दिन करने से शुभ फल मिलते हैं। ये उपाय इस प्रकार हैं-👇👇👇👇
1. माघी पूर्णिमा माता लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए विशेष तिथि मानी गई है। इस पूर्णिमा की रात लगभग 12 बजे महालक्ष्मी की भगवान विष्णु सहित पूजा करें एवं रात को ही घर के मुख्य दरवाजे पर घी का दीपक लगाएं। इस उपाय से माता लक्ष्मी प्रसन्न होकर उस घर में निवास करती हैं।
2. माघी पूर्णिमा की सुबह पास के किसी लक्ष्मी मंदिर में जाएं और 11 गुलाब के फूल अर्पित करें। इससे माता लक्ष्मी के साथ भगवान विष्णु की कृपा भी आपको प्राप्त होगी और अचानक धन लाभ के योग भी बनेंगे।
3. शुक्रवार की शाम किसी लक्ष्मी मंदिर में जाकर लक्ष्मी प्रतिमा के सामने 7 पीली कौड़ियां रखें। रात 12 बजे बाद इन्हें अपने घर के किसी कोने में गाढ़ दें। इससे जल्दी ही धन संबंधी समस्याएं समाप्त हो जाएंगी।
4. माघी पूर्णिमा की सुबह पूरे विधि-विधान से माता सरस्वती की भी पूजा की जाती है। इस दिन माता सरस्वती को सफेद फूल चढ़ाएं व खीर का भोग लगाएं। विद्या, बुद्धि देने वाली यह देवी इस उपाय से विशेष प्रसन्न होती हैं।
5. पितरों के तर्पण के लिए भी यह दिन उत्तम माना गया है। इस दिन पितरों के निमित्त जलदान, अन्नदान, भूमिदान, वस्त्र एवं भोजन पदार्थ दान करने से उन्हें तृप्ति होती है। जोड़े सहित ब्राह्मणों को भोजन कराने से अनन्त फल की प्राप्ति होती है।
6. वैसे तो सभी पूर्णिमा पर भगवान सत्यनारायण की पूजा होती है किंतु माघ मास की पूर्णिमा पर इसका महत्व बढ़कर बताया गया है। शाम को भगवान सत्यनारायण की पूजा कर, धूप दीप नैवेद्य अर्पण करें। भगवान सत्यनारायण की कथा सुनें।
7. माघी पूर्णिमा पर दान का भी विशेष महत्व है। धर्म ग्रंथों के अनुसार, इस दिन जरूरतमंदों को तिल, कंबल, कपास, गुड़, घी, मोदक, जूते, फल, अन्न आदि का दान करना चाहिए।🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼
     🙏🏼कृष्णप्रेमी-कनिका 🙏🏼
[2/10, 15:17] ‪+91 8076 170 336‬: स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा ।
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम् ॥
अर्थ- किसी भी व्यक्ति का मूल स्वभाव कभी नहीं बदलता है. चाहे आप उसे कितनी भी सलाह दे दो. ठीक उसी तरह जैसे पानी तभी गर्म होता है, जब उसे उबाला जाता है. लेकिन कुछ देर के बाद वह फिर ठंडा हो जाता है.
अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते ।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः ॥
अर्थ- बिना बुलाए स्थानों पर जाना, बिना पूछे बहुत बोलना, विश्वास नहीं करने लायक व्यक्ति/चीजों पर विश्वास करना…. ये सभी मूर्ख और बुरे लोगों के लक्षण हैं.
यथा चित्तं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रियाः ।
चित्ते वाचि क्रियायांच साधुनामेक्रूपता ॥
अर्थ- अच्छे लोगों के मन में जो बात होती है, वे वही वो बोलते हैं और ऐसे लोग जो बोलते हैं, वही करते हैं. सज्जन पुरुषों के मन, वचन और कर्म में एकरूपता होती है.
षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तद्रा भयं क्रोधः आलस्यं दीर्घसूत्रता ॥
अर्थ- छः अवगुण व्यक्ति के पतन का कारण बनते हैं : नींद, तन्द्रा, डर, गुस्सा, आलस्य और काम को टालने की आदत.
द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम् ।
धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं च अतपस्विनम् ॥
अर्थ- दो प्रकार के लोग होते हैं, जिनके गले में पत्थर बांधकर उन्हें समुद्र में फेंक देना चाहिए. पहला, वह व्यक्ति जो अमीर होते हुए दान न करता हो. दूसरा, वह व्यक्ति जो गरीब होते हुए कठिन परिश्रम नहीं करता हो.
त्यजन्ति मित्राणि धनैर्विहीनं पुत्राश्च दाराश्च सहृज्जनाश्च ।
तमर्थवन्तं पुनराश्रयन्ति अर्थो हि लोके मनुष्यस्य बन्धुः ॥
अर्थ- मित्र, बच्चे, पत्नी और सभी सगे-सम्बन्धी उस व्यक्ति को छोड़ देते हैं जिस व्यक्ति के पास धन नहीं होता है. फिर वही सभी लोग उसी व्यक्ति के पास वापस आ जाते हैं, जब वह व्यक्ति धनवान हो जाता है. धन हीं इस संसार में व्यक्ति का मित्र होता �
[2/10, 15:27] राम भवनमणि त्रिपाठी: ⚙🔮अविनाशी जीवात्मा और परमात्मा  दो है 🔮⚙
      ऋतं पिबंतौ सुकृत्स्य लौके गुहां प्रविष्ट परमे परार्धे ।
छायातपो ब्रम्हविदो वदन्ति पंच्जाग्न्यो ये च त्रिणाचिकेता:
कठौपनिषद 1,,3,,1  

ब्रम्ह वेत्ता ज्ञानी महानुभाव,तथा यज्ञादि शुभकर्मों का अनुष्ठान करने वाले आस्तिक सज्जन -सभी एक ही स्वर में यही कहते है कि, मनुष्य-शरीर बहुत ही दुर्लभ है।पूर्वजन्मार्जित अनेकों पुण्य कर्मोंको निमित्त बनाकर परम् कृपालु परमात्मा कृपा परवश हो जीव को उसके कल्याण संपादन के लिए यह श्रेष्ठ शरीर प्रदान करते है।और फिर उस जीवात्मा के साथ ही स्वयं भी उसी के ह्रदय अन्तस्तल में-परब्रम्ह के निवास स्वरूप श्रेष्ठ स्थान में अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट हो रहते है।इतना ही नहीं ,वे दोनों साथ -ही-साथ वँहा सत्य का पान करते है।शुभ कर्मों के अवश्यम्भावी सत्फल का भोग करते है।
(गीता 5,,29)अवश्य ही दोनों के भोग में बड़ा अंतर है।परमात्मा असंग और अभोक्ता है;उनका प्रत्येक प्राणी के ह्रदय में निवास करके उसके शुभकर्मों के फल का उपभोग करना उनकी वैसी ही लीला है जैसी अजन्मा होकर जन्म ग्रहण करना ।परमात्मा सत्य को पिलाते है-शुभकर्मों का फल भुगताते है।और जीवात्मा पीता है फल भोगता है।परंतु जीवात्मा फल भोग के समय असंग नही रहता।वः अभिमानवश उसमे सुख का उपभोग करता है।
इस प्रकार साथ रहने पर भी जीवात्मा और परमात्मा दोनों छाया और धूप की भांति परस्पर भिन्न भिन्न है।जीवात्मा छाया की भांति अल्पप्रकाश है, अल्पज्ञ है और परमात्मा धूप की भांति पुर्णप्रकाश ,सर्वज्ञ।
   परंतु जीवात्मा में जो कुछ अल्पज्ञान है, वह भी परमात्मा का ही है।जैसे छाया में अल्पप्रकाश पूर्णप्रकाश धुप का ही होता है।
[2/10, 16:16] ‪+91 99673 46057‬: ब्राह्मण के नव गुण काैन काैन से हैं श्रीराम जी ने  श्री परशुराम जी  से कहा -
देव एक गुनु धनुष हमारे
नव गुण परम पुनीत तुम्हारे -
रिजुः तपस्वी सन्तोषी क्षमाशीलाे जितेन्र्दियः
दाता शूर दयालुश्च ब्राह्मणाे नवभिर्गुणैः
रिजुः = सरल हो
तपस्वी = तप करनेवाला हो
सन्ताेषी= मेहनत की कमाई पर सन्तुष्ट रहनेवाला हो
क्षमाशीलाे= क्षमा करनेवाला हो
जितेन्र्दियः = इन्र्दियाें को वश में रखनेवाला हाे
दाता= दान करनेवाला हो
शूर = बहादुर हो
दयालुश्च= सब पर दया करनेवाला हाे
इन नव गुणों से सम्पन्न ब्राह्मण हाेता है
[2/10, 16:58] ‪+91 94301 19031‬: मेरा मानना है कि भेद भाव इतना बुरा भी नही है जितना लोग समझते है। क्योंकि प्रेम का आरम्भ भेद भाव से होता है। एक मैं और एक तू। ये है भेद भाव। इसके बिना प्रेम कैसे सम्भव है।कमसे कम दो की आवश्यकता तो है ही। पर प्रेम जब अति हो जाता है तो दोनों एक हो जाते है। साधारण प्रेम में मैपन रहता है,भेद भाव रहता है पर अतिशय प्रेम में दोनों एक हो जाते है। फिर जिव कौन है,ईश्वर कौन है पता नही चलता। सोई जानई जेहि देहु जनाई,जानत तुम्हहि तुम्हई होइ जाइ।।
[2/10, 17:03] राम भवनमणि त्रिपाठी: रामभवन मणि त्रिपाठी
गोरखपुर

दहेज प्रथा

ले कर हथियार…

तुझे निकलना होगा रण मे खुद ले कर हथियार…
कब तक बनी रहेगी अबला, ले चंडी अवतार…

कब तक तेरे घर में आते ही सन्नाटा छाएगा???
पुत्र चाह में पिता तेरा, खुद तेरा गला दबाएगा…

जब जब गैरों की आँखों से बच कर घर में आएगी…
कुछ पैसों को खातिर पगली फिर से बेचीं जाएगी…

कष्ट तू ही क्यों सहे हमेशा, जीवन में हर बार…
कब तक बनी रहेगी अबला, ले चंडी अवतार…

कब तक रक्षा हेतू सब के सम्मुख हाथ पसारेगी???
अपने मन की इच्छाओं को खुद विष पी कर मारेगी…

कब तक मर्यादा की वेदी में तुझ को जलना होगा???
राज पाठ को छोड़, सिया बन अग्नि पर चलना होगा…

छोड़ राम की आस, खुद ही अब रावण को ललकार…
कब तक बनी रहेगी अबला, ले चंडी अवतार…

कब तक किसी वस्तु की भांति तुझे परोसा जायेगा???
दूजों के अपराधों पर भी तुझ को कोसा जाएगा…

कब तक निर्लज बता तुझे ही, अपराधी छुट जाएगा???
अपराधी खुद अपराधी को कितनी सजा सुनायेगा???

उठा खडग और खुद ही कर दे दुष्टों का संहार…
कब तक बनी रहेगी अबला, ले चंडी अवतार…
[2/10, 21:20] P Alok Ji: किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनूरूप।।
जथा अनेक वेष धरि नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव दिखावअइ आपनु होइ न सोइ ।।

तुलसीदास की मान्यता है कि निर्गुण ब्रह्म राम भक्त के प्रेम के कारण मनुष्य शरीर धारण कर लौकिक पुरुष के अनूरूप विभिन्न भावों का प्रदर्शन करते हैं। नाटक में एक नट अर्थात् अभिनेता अनेक पात्रों का अभिनय करते हुए उनके अनुरूप वेषभूषा पहन लेता है तथा अनेक पात्रों अर्थात् चरितों का अभिनय करता है। जिस प्रकार वह नट नाटक में अनेक पात्रों के अनुरूप वेष धारण करने तथा उनका अभिनय करने से वे पात्र नहीं हो जाता, नट ही रहता है उसी प्रकार रामचरितमानस में भगवान राम ने लौकिक मनुष्य के अनुरूप जो विविध लीलाएँ की हैं उससे भगवान राम तत्वत: वही नहीं हो जाते ,राम तत्वत: निर्गुण ब्रह्म ही हैं। तुलसीदास ने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा है कि उनकी इस लीला के रहस्य को बुदि्धहीन लोग नहीं समझ पाते तथा मोहमुग्ध होकर लीला रूप को ही वास्तविक समझ लेते हैं। आवश्यकता तुलसीदास के अनुरूप राम के वास्तविक एवं तात्त्विक रूप को आत्मसात् करने की है ।आलोकजी शास्त्री इन्दौर
[2/10, 21:34] ‪+91 98896 25094‬: उलझनों और कश्मकश में,
उम्मीद की ढाल लिए बैठा हूँ।
ए जिंदगी! तेरी हर चाल के लिए,
मैं दो चाल लिए बैठा हूँ |
लुत्फ़ उठा रहा हूँ मैं भी आँख – मिचोली का।
मिलेगी कामयाबी, हौसला कमाल का लिए बैठा हूँ l
चल मान लिया, दो-चार दिन नहीं मेरे मुताबिक़।
गिरेबान में अपने, ये सुनहरा साल लिए बैठा हूँ l
ये गहराइयां, ये लहरें, ये तूफां, तुम्हे मुबारक।
मुझे क्या फ़िक्र, मैं कश्तीया,पतवार  बेमिसाल लिए बैठा हूँ।

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