I वन्दे संस्कृतमातरम् I
छायां ददाति शशिचन्दनशीतलां यः
सौगन्धवन्ति सुमनांसि मनोहराणि ।
स्वादूनि सुन्दरफलानि च पादपं तं
छिन्दन्ति जाङ्गलजना अकृतज्ञता हा ।।
जो वृक्ष चंद्रकिरणों तथा चंदन के समान शीतल छाया प्रदान करता है,
सुन्दर एवं मन को मोहित करने वाले पुष्पों से वातावरण सुगंधमय बना देता है, आकर्षक तथा स्वादिष्ट फलों को मानवजाति पर न्यौछावर करता है,
उस वृक्ष को जंगली असभ्य लोग काट डालते हैं ।
अहो मनुष्य की यह कैसी कृतघ्नता (अकृतज्ञता) है ।
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