Thursday, September 22, 2016

सूखी नदी भी रेत सीपी शंख दे देती हमें

सूखी नदी भी रेत सीपी शंख दे देती हमें,
हम मनुज बहती नदी को नित्य गन्दा कर रहे |
कह रहे मैया! मगर आँसू न इसके पोंछते,
झाड़ पत्थर रेत मछली बेच धंधा कर रहे|
काल आ मारे हमें इतना नहीं है सब्र अब,
गले मिलकर पीठ पर चाकू चलाकर हँस रहे|
व्यथित प्रकृति रो रही भूचाल-तूफां आ रहे,
हम जलाने लाश अपनी आप चंदा कर रहे|
सूरज ठहाका लगाता है देख कोशिश बेतुकी,
मलिन छवि भायी नहीं तो दीप मंदा कर रहे|
वाह! शाबाशी खुदी को दे रहे कर रतजगा,
बाँह में ये, चाह में वो आह फंदा कर रहे|
सभ्यता-तरु पौल डाला मूल्य अवमूल्यित किये,
पाँच अँगुली हों बराबर पञ्च रंदा कर रहे|

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