Wednesday, September 30, 2015

|| श्राद्ध कर्म :- कब, क्यों और कैसे? ||

श्राद्ध कर्म :- कब, क्यों और कैसे?🌹🌹🌹

धर्म शास्त्रों में ऐसी मान्यता है कि पितृगण पितृपक्ष में पृथ्वी पर आते हैं और १५ दिनों तक पृथ्वी पर रहने के बाद अपने लोक लौट जाते हैं। शास्त्रों में बताया गया है कि पितृपक्ष के दौरान पितृ अपने परिजनों के आस-पास रहते हैं इसलिए इन दिनों कोई भी ऐसा काम नहीं करें जिस से पितृगण नाराज हों।
पितरों को खुश रखने के लिए पितृ पक्ष में कुछ बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
पितृ पक्ष के दौरान ब्राह्मण जामाता, भांजा, मामा, गुरु नाती को भोजन कराना चाहिए। इस से पितृगण अत्यंत प्रसन्न होते हैं।
ब्राह्मणों को भोजन करवाते समय भोजन का पात्र दोनों हाथों से पकड़ कर लाना चाहिए अन्यथा भोजन का अंश राक्षस ग्रहण कर लेते हैं जिस से ब्राह्मणों द्वारा अन्न ग्रहण करने के बावजूद पितृगण भोजन का अंश ग्रहण नहीं कर पाते हैं।
पितृ पक्ष में द्वार पर आने वाले किसी भी जीव-जंतु को मारना नहीं चाहिए बल्कि उन के योग्य भोजन का प्रबंध करना चाहिए। क्यों कि क्या पता हमारे पुर्वज किस रूप में आये हमारे द्वार !
हर दिन भोजन बनने के बाद एक हिस्सा निकालकर गाय कुत्ता, कौआ अथवा बिल्ली को देना चाहिए।
मान्यता है कि इन्हें दिया गया भोजन सीधे पितरों को प्राप्त हो जाता है।
शाम के समय घर के द्वार पर एक दीपक जलाकर पितृगणों का ध्यान करना चाहिए।
हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार जिस तिथि को जिस के पूर्वज गमन करते हैं, उसी तिथि को उन का श्राद्ध करना चाहिए। इस पक्ष में जो लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उन की मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं, उन के समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं।
जिन लोगों को अपने परिजनों की मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं होती, उनके लिए पितृ पक्ष में कुछ विशेष तिथियां भी निर्धारित की गई हैं, जिस दिन वे पितरों के निमित्त श्राद्ध कर सकते हैं।
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा :-
इस तिथि को नाना-नानी के श्राद्ध के लिए सही बताया गया है। इस तिथि को श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है। यदि नाना-नानी के परिवार में कोई श्राद्ध करने वाला न हो और उन की मृत्युतिथि याद न हो, तो आप इस दिन उनका श्राद्ध कर सकते हैं।
पंचमी :-
जिन की मृत्यु अविवाहित स्थिति में हुई हो, उन का श्राद्ध इस तिथि को किया जाना चाहिए।
नवमी :-
सौभाग्यवती यानि पति के रहते ही जिन की मृत्यु हो गई हो, उन स्त्रियों का श्राद्ध नवमी को किया जाता है। यह तिथि माता के श्राद्ध के लिए भी उत्तम मानी गई है। इसलिए इसे मातृ नवमी भी कहते हैं।
मान्यता है कि इस तिथि पर श्राद्ध कर्म करने से कुल की सभी दिवंगत महिलाओं का श्राद्ध हो जाता है।
एकादशी और द्वादशी:-
एकादशी में वैष्णव संन्यासी का श्राद्ध करते हैं। अर्थात् इस तिथि को उन लोगों का श्राद्ध किए जाने का विधान है ! जिन्होंने संन्यास लिया हो।
चतुर्दशी :-
इस तिथि में शस्त्र, आत्म-हत्या, विष और दुर्घटना यानि जिनकी अकाल मृत्यु हुई हो उन का श्राद्ध किया जाता है जब कि बच्चों का श्राद्ध कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को करने के लिए कहा गया है।
सर्व पितृ मोक्ष अमावस्या :-
किसी कारण से पितृपक्ष की अन्य तिथियों पर पितरों का श्राद्ध करने से चूक गए हैं या पितरों की तिथि याद नहीं है तो इस तिथि पर सभी पितरों का श्राद्ध किया जा सकता है। शास्त्र अनुसार, इस दिन श्राद्ध करने से कुल के सभी पितरों का श्राद्ध हो जाता है। यही नहीं जिनका मरने पर संस्कार नहीं हुआ हो, उन का भी अमावस्या तिथि को ही श्राद्ध करना चाहिए।
बाकी तो जिन की जो तिथि हो श्राद्धपक्ष में उसी तिथि पर श्राद्ध करना चाहिए। यही उचित भी है।
पिंडदान करने के लिए सफेद या पीले वस्त्र ही धारण करें। जो इस प्रकार श्राद्धादि कर्म संपन्न करते हैं, वे समस्त मनोरथों को प्राप्त करते हैं और अनंत काल तक स्वर्ग का उपभोग करते हैं।
विशेष :-  श्राद्ध कर्म करने वालों को निम्न मंत्र तीन बार अवश्य पढ़ना चाहिए। यह मंत्र ब्रह्मा जी द्वारा रचित आयु आरोग्य, धन, लक्ष्मी प्रदान करने वाला अमृतमंत्र है :-
देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिश्च एव च।
नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्त्युत ।।
वायु पुराण :
श्राद्ध सदैव दोपहर के समय ही करें। प्रातः एवं सायंकाल के समय श्राद्ध निषेध कहा गया है। क्यों कि हमारे सबसे बडे पुर्वज सुर्य देव है ! पित्रों कि दिशा दक्षिण दिशा होती है जब सुर्य दोपहर को दक्षिण दिशा में आ जाये तब दक्षिण दिशा कि ओर मुंह करके हाथ में कुश घास कि अंगुठी अनामिका में पहने व काले तिल जरूर हाथ में ले कर जल को हाथ में ले कर तिलांजली देते हुए तर्पण करें !
हमारे धर्म-ग्रंथों में पितरों को देवताओं के समान संज्ञा दी गई है। सिद्धांत शिरोमणि ग्रंथ के अनुसार चंद्रमा की ऊध्र्व कक्षा में पितृलोक है जहां पितृ रहते हैं। पितृ लोक को मनुष्य लोक से आंखों द्वारा नहीं देखा जा सकता। जीवात्मा जब इस स्थूल देह से पृथक होती है उस स्थिति को मृत्यु कहते हैं।
यह भौतिक शरीर २७ तत्वों के संघात से बना है। स्थूल पंच महाभूतों एवं स्थूल कर्मेन्द्रियों को छोड़ने पर अर्थात मृत्यु को प्राप्त हो जाने पर भी १७ तत्वों से बना हुआ सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहता है।
हिंदू मान्यताओं के अनुसार एक वर्ष तक प्रायः सूक्ष्म जीव को नया शरीर नहीं मिलता। मोहवश वह सूक्ष्म जीव स्वजनों व घर के आसपास घूमता रहता है। श्राद्ध कार्य के अनुष्ठान से सूक्ष्म जीव को तृप्ति मिलती है इसीलिए श्राद्ध कर्म किया जाता है।
ऐसा कुछ भी नहीं है कि इस अनुष्ठान में ब्राह्मणों को जो भोजन खिलाया जाता है या जो दक्षिणा दि जाती है ! वही ज्यों का त्यों उसी आकार वजन और परिमाण में मृतक पितरों को मिलता है।
वास्तव में श्रद्धापूर्वक श्राद्ध में दिए गए भोजन का सूक्ष्म अंश परिणत होकर उसी अनुपात व मात्रा में प्राणी को मिलता है जिस योनि में वह प्राणी है।
पितृ लोक में गया हुआ प्राणी श्राद्ध में दिए हुए अन्न का स्वधा रूप में परिणत हुए को खाता है। यदि शुभ कर्म के कारण मर कर पिता देवता बन गया तो श्राद्ध में दिया हुआ अन्न उसे अमृत में परिणत होकर देवयोनि में प्राप्त होगा। गंधर्व बन गया हो तो वह अन्न अनेक भोगों के रूप में प्राप्त होता है।
पशु बन जाने पर घास के रूप में परिवर्तित हो कर उसे तृप्त करेगा। यदि नाग योनि मिली तो श्राद्ध का अन्न वायु के रूप में तृप्ति को प्राप्त होगा। दानव, प्रेत व यक्ष योनि मिलने पर श्राद्ध का अन्न नाना अन्न पान और भोग्यरसादि के रूप में परिणत होकर प्राणी को तृप्त करेगा।
सच्चे मन, विश्वास, श्रद्धा के साथ किए गए संकल्प की पूर्ति होने पर पितरों को आत्मिक शांति मिलती है।
तभी वे हम पर आशीर्वाद रूपी अमृत की वर्षा करते हैं।
श्राद्ध की संपूर्ण प्रक्रिया दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके की जाती है। इस अवसर पर तुलसी दल का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।
गया, पुष्कर, प्रयाग, हरिद्वार आदि तीर्थों में श्राद्ध करने का विशेष महत्व है।
जिस दिन श्राद्ध करें उस दिन पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करें। श्राद्ध के दिन क्रोध चिड़-चिड़ापन और कलह से दूर रहें। पितरों को भोजन सामग्री देने के लिए मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग किया जाए तो अच्छा है। केले के पत्ते या लकड़ी के बर्तन का भी प्रयोग किया जा सकता है !


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पं.मंगलेश्वर त्रिपाठी
से.1वाशी नवी मुम्बई
  8828347830

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