Tuesday, May 9, 2017

धर्मार्थ वार्ता

[5/6, 07:36] पं अर्चना जी: *समस्या का समाधान इस बात पर निर्भर करता है कि हमारा सलाहकार कौन है*।

ये बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि
*दुर्योधन* *शकुनि* से सलाह लेता था
और *अर्जुन* *श्रीकृष्ण* से

🌞 अलख निरंजन 🌞
[5/6, 07:37] पं अर्चना जी: सीधे साधे दो अक्षर भी,
                 क्या क्या खेल दिखाते हैं !
जब जब मुख से *राधा* निकले,
                 नजर *बिहारी* आते हैं !!

*राधा* नाम है ऐसा जादू ,
                   ये पापी को कर दे साधू !
दुख के शूल फूल बन जायें,
              जिनसे खुशबू महक जाये !!

*राधा* नाम सुमिरने से ही,
                   मंजिल अपनी पाते हैं !
भटक जो जायें कभी अगर तो,
                   कृष्ण राह दिखलाते हैं !!

*⚘ राधे राधे जय जय श्री राधे ⚘*
🙏🏻  🌹 😊 🌹 ‌‌ 🙏🏻
[5/6, 08:51] पं अनिल ब: नमो नमः🙏🏼💐🙏🏼सुप्रभातम

☺🍃एक बार तुलसीदास जी से☺

किसी ने पूछा :- कभी-कभी भक्ति करने को मन नहीं करता फिर भी नाम जपने के लिये बैठ जाते है, क्या उसका भी कोई फल मिलता है ?
तुलसी दास जी ने मुस्करा कर कहा-
तुलसी मेरे राम को
रीझ भजो या खीज ।
भौम पड़ा जामे सभी
उल्टा सीधा बीज ॥
👍👍👍अर्थात् :👍👍👍
भूमि में जब बीज बोये जाते हैं तो यह नहीं देखा जाता कि बीज उल्टे पड़े हैं या सीधे पर फिर भी कालांतर में फसल बन जाती है, इसी प्रकार नाम सुमिरन कैसे
भी किया जाये उसके सुमिरन
का फल अवश्य ही मिलता है।🌺🙏जय महाँकाल🙏🏼💐🙏🏼
[5/6, 11:40] ‪+91 94501 23732‬: द्विविधमनुशासनं ज्ञेयं वाह्यमान्तरिकं तथा।
शासकै: शास्यते वाह्यः आन्तरिकं स्वयमेव च।।
ये विरोधिनो व्यवस्थाया:हिंसका:दुर्जनास्तथा।
करोत्यनुशासनं तेषु हि स श्रेष्ठो भवति शासकः।
कामक्रोधादि षड्दोषा भवन्ति नरजीवने।
  सत्पुरुषै:सदाचारैस्तेषां  भवति निग्रहः।
    अनेनैव हि राष्ट्रस्य महत्ता ख्यापिता भवति।
      देशो$यं वै विशेषो$स्ति वयं स्मः निवासिनः।।
                                    डा गदाधर त्रिपाठी
[5/6, 12:01] पं ऊषा जी: 🙏हितोपदेश-सुभाषित-श्लोकाः - 1.43🌺
🥀
मूलम्--
आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद्धनैरपि ।
आत्मानं सततं रक्षेद्दारैरपि धनैरपि ॥१.४३॥
🌸
पदविभागः--
आपद्-अर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद् धनैः अपि । आत्मानं सततं रक्षेद् दारैः अपि धनैः अपि ॥१.४३॥
🌻
अन्वयः--
आपदर्थे धनं रक्षेत्। धनैः अपि दारान् रक्षेत् । दारैः अपि धनैः अपि आत्मानं सततं रक्षेत् ॥१.४३॥
🌿
प्रतिपदार्थः--
आपदर्थे = आपत्प्रतीकाराय ; रक्षेत् = अर्जयेत्, निभृतं स्थापयेत् ; दारान् = कलत्रम् ; धनैः = धनदानादिभिः ; रक्षेत् = गोपायेत् ; आत्मानं = स्वशरीरन्तु ; दारैरपि = पत्न्यपेक्षयापि ; धनैरपि = धनापेक्षयापि च, तद्व्ययेनापि च ; रक्षेत् = पालयेत् ॥१.४३॥

तात्पर्यम्--
कदाचित् भविष्यत्काले विपत्तिस्थितिः सम्भवेदिति धिया किञ्चित् धनं उपयोगार्थं निकटे स्थापनीयम्। धनस्यापेक्षया पत्न्याः रक्षणं कार्यमथवा समये आपतिते वित्तेन भार्या रक्षणीया। ततश्च यदा आत्मनः विपत्कालः आपतेत्, तदानीं धनपत्न्योरपेक्षया, अथवा भार्यया, धनेन च सहकारेण, स्वस्य रक्षणं करणीयम्॥१.४३॥🌹
[5/6, 14:42] Prtibha Modi: हरि:ऊँ तत्सत्!
श्री गुरुदेवाय नमो नम:!
🌺🙏🙏🙏🙏🙏🌺

श्रीमद्भगवद्गीता: अध्याय:१२

अथ चित्तं समाधातुं न शकनोषि मयि स्थिरम्|
अभ्यास योगेन ततो मामिच्छाप्तु धनंजय||९||

हे धनंजय ! यदि तू चित्त को
मुझमें एकाग्र करने मे सक्षम
नही है तो अभ्यासयोग (ईश्वर
के नाम, गुण श्रवण, कीर्तन,
मनन, श्वास द्वारा जप, शास्त्रो
का अध्ययन) से मुझे पाने की
कामना कर|
🌺🙏जय श्री कृष्ण🙏🌺
🌺🙏जय श्री राम 🙏🌺
[5/6, 18:18] घनश्याम जी पं: 🌞" बाल समय रवि भक्ष लियो तब तीनहुँ लोक भयो अंधियारों - - - -।"बन्धुओ गौतम ऋषि के शरीर से उतपन्न केशरी की पत्नी अंजना के गर्भ से श्रीहनुमानजी के रूप में भगवान शंकर ने अपने अंश से अवतार लिया । कहते है बाल्यावस्था में श्रीहनुमानजी ने सूर्य को फल समझकर खाने के लिए छलांग लगा दिया । उनके रथ पर पहुचकर उन्हें मुख में रख लिया । "तीनहुँ लोक भयो अंधियारों - - - -।" अंधकार देख दो लोग क्रोधित हो पहुचे ।एक इंद्र दूसरा रावण । इंद्र ने वज्र का प्रहार किया हनुमानजी की ठुड्डी पर(हनु) पर । इसी बीच रावण भी हनुमानजी के पुछ पकड़ कर लटक गया । कहते है फिर भी हनुमानजी ने सूर्य को नही छोड़ा । रावण से एक वर्ष तक मुष्टियुद्ध होता रहा । अंत मे थका हुआ रावण भयभीत हो प्राण रक्षा के लिए इधर उधर भागने लगा । तब ऋषि विश्रवा वहां आये और उनकी स्तुति कर प्रसन्न किया । तब प्रसन्न होकर रुद्ररूपी हनुमानजी ने संसार को रुलाने वाला रावण को मुक्त किया । "निंघनन्त च सुरान मुख्यान रावणं लोकरावणम ।। निहन्ति मुष्टिभिर्य: स हनुमानीति विश्रुत:।" देवताओ को मारने वाला, संसार को रुलाने वाला रावण को मुष्टिका से हनन करने के कारण इनका नाम हनुमान पड़ा । बोलिए श्रीहनुमानजी महाराज की जय🙏 🐒🌹🙏सभी विद्वत समाज को इस दास का नमन बन्दन 🙏🙏🙏🙏🙏
[5/6, 22:54] पं अर्चना जी: 🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸
परछाइयों का पीछा करने से क्या फायदा,
अंधेरे में ही अक्सर ये भी साथ छोड़ जाती हैं!!
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
हैं भरम सारे रिश्ते, भरमाती सारी बातें,
तन्हाइयों में ये भी,तन्हां छोड़ जाते हैं!!
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
सब खुश रहें जहाँ में, हम भी जरा सा हँस लें,
खुशियाँ भी जल्दी दामन निचोड़ जाती हैं!!
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
कोई माने या ना माने, हम कह रहे सभी से,
थोड़ा तो मुस्कुरा लो, अनचाहे गम की गलियाँ
कभी भी दस्तक दे जाती हैं!!
~~~~~~~~~~~~~~~~~
स्वरचित अर्चना भूषण त्रिपाठी,,"भावुक''
  (6/5/2017)
[5/7, 07:00] ‪+91 99930 45338‬: लोभेन मृत्य
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प्रज्ञारूपीदीवारों से वेष्टित यह देह रूप नागरी वर्तमान रहती है ,अस्थि जिसका स्तम्भ है ,जो चर्म रूपी भीत के द्वार अत्यन्त रुद्ध और मांस शोणितरूपि कीचड़ से लिपि है ।नसें उसकी चारों ओरसे घेरे हुए है और जिसके बहुत बड़े नौ दरवाजे है उस पूरी में चैतन्यरूपि पुरुष राज्य करता है । राजा के दो मंत्री है मन और बुद्धि वह भी परस्पर में विरोधी है इसीलिये ये परस्पर को विनाश करनेलिये सदा प्रयत्नशील रहते है । काम,क्रोध,मोह,लोभ ये चार उस राजा के शत्रु है जो विनाश करेनेके चेष्टा में रहते है ।
वह राजा जब पूर्वोक्त नव द्वार रद्ध करके अवस्थान करता है उसी समय वह अत्यंत सुस्थ निरान्तक होता है और प्रेमवान् होता है इसी कारण उसको शत्रु अभिभूत नहीं कर सकते है ।
जब वह द्वार खोल कर अवस्थान करता है तब अनुराग नामक शत्रु नेत्रादि सब द्वार पर आक्रमण करता है । यही शत्रु सर्व व्यापी और अत्यंत प्रबल है । यह अनुरागरूपि शत्रु जब नेत्रादि द्वार में घुसता है उसी समय लोभ, मोह,और क्रोध रूपी तीनो शत्रु उस के पीछे पीछे दौड़ते है ।
वही रागरूपि शत्रु इन्द्रिय नामक सभी दरवाजा द्वारा उस पूरी में घुस कर मन और बुद्धि के संग युक्त होनेकी अभिलाषा करता है ।
यह दुर्द्धर्ष अनुराग इन्द्रिय गण मन और सब द्वारोंको वशीभूत करके प्रज्ञा रूपी प्राकार (बुद्धिरूप परकोटा )भग्न करता है । बुद्धि भी मनको आश्रय ग्रहण करना देख कर तत्काल नष्ट होती है ।
अतएव अमात्यहीन और प्रजा वर्गसे त्याग हुआ ।वह राजा शत्रुओंसे आक्रांत होकर नष्ट होता है ।
काम,क्रोध,लोभ,और मोहरूप दुरात्मगण पूरी में वास करते है इसीलिये मनुष्य स्मरणशक्ति विहीन होता है । अनुराग से क्रोध होता है ,क्रोध से लोभ उत्पन्न होता है ।
लोभ से मोह की उत्पत्ति, मोह से स्मृति का नाश होता है ,स्मृति से बुद्धि का नाश तथा बुद्धि नाश से मृत्यु होती है ।
[5/7, 09:11] ‪+91 98896 25094‬: अकेले हम बूँद हैं,*
          मिल जाएं तो सागर हैं।*
अकेले हम धागा हैं,*
          मिल जाएं तो चादर हैं।*
अकेले हम कागज हैं,*
          मिल जाए तो किताब हैं।*
अकेले हम अलफ़ाज़ हैं,*
          मिल जाए तो जवाब हैं।*
अकेले हम पत्थर हैं,*
          मिल जाएं तो इमारत हैं।*
अकेले हम दुआ हैं,*
          मिल जाएं तो इबादत हैं।*
संस्कारों से बड़ी कोई*
          वसीयत नहीं और*
ईमानदारी से बड़ी कोई*
           विरासत नहीं..*
[5/7, 10:13] घनश्याम जी पं: 🌴🌹💐❤मन की बातें आपके साथ ❤💐🌹🌴कई लोग प्रायः भुदेवो से,पंडितजी से पूछते है। 🙏महाराज जी हम कई वर्षों से मंगल व्रत,वृहस्पति व्रत,फलना पूजा,नवरात्रि व्रत,जप आदि करते आ रहे है अब मेरा विचार पूर्णाहुति करने का है । कब करू ? । या कोई पंडितजी यजमान के कल्याणार्थ कोई व्रत बताते है,दान बताते है,जप करने के लिए बताते है । तो यजमान तपाक से बोलता है कब तक करना होगा ?। अजीब बिडम्बना है। बन्धुओ कही जप की,पूजा की दान की समाप्ति होती है क्या? जप की समाप्ति तो होती ही नही जप छोड़ना नही जोड़ना है । बन्धुओ कोई ये पूछने नही आता कि हम बहुत दिनों से मदिरा,मांस,गांजा,आदि बुरी आदतें करते आ रहा हु इसकी पूर्णाहुति कब करू?,कोई ये नही कहता की महाराज जी हम इतने वर्षों से दाल-भात मैं खाता आ रहा हूँ,अब मुझे दाल-भात की पूर्णाहुति  करना है। अरे!जब भोजन की पूर्णाहुति नही हो सकती तो भजन की,जप की,व्रत की,दान की क्यो होगी इसकी पूर्णाहुति । इसकी समाप्ति नही जब तक जीवन है करते रहो । लोग अच्छी चीजें छोड़ने की बाते करते है,अच्छी आदतें छोड़ने की बात करते है, बुरी आदतें,गन्दी आदते छोड़ने की बात नही करते । यही गलत है । अरे! फिर ये तन,इस जन्म के पिता,माता,पत्नी,पुत्र आदि जो तुझे मिला है उस जन्म में मिलेगा की नही,ये संसाधन मिलेगा की नही कोई गारंटी नही है। इसलिए इस शरीर का फायदा उठाओ और खूब भजन करो,दान,जप,यज्ञ आदि करो और अपना जीवन सुधारो । ये शरीर जीवन सुधारने के लिए,संसार सागर से पार करने के लिए मिला है,भजन करने के लिए मिला है भोजन करने के लिए नही । शुभम भवतु ।। 🙏आप सभी गुरुजन,विद्वत समाज,भुदेवो से आग्रह कुछ गलती हो तो क्षमा कर इस अबोध को मार्गदर्शन करने की कृपा करें ।🙏🙏🙏
[5/7, 11:43] पं ऊषा जी: *महानप्येकजो वृक्षो बलवान् सुप्रतिष्ठितः ।*
*प्रसह्य एव वातेन शक्यो घर्षयितुं क्षणात् ॥*

_वृक्ष बलवान, सुस्थिर, और बडा हो फिर भी, यदि अकेला हो तो पवन से एक हि क्षण में उखाडा जा सकता है ।_

🌹🍃🌹 *अमरवाणी विजयतेतराम्* 🌹🍃🌹
--गणान्तरात्
[5/7, 13:55] ‪+91 74159 69132‬: क्यों है कलियुग ही सर्वश्रेष्ठ ?
* कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥
भावार्थ:-यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है, (क्योंकि) इस युग में श्री रामजी के निर्मल गुणसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार (रूपी समुद्र) से तर जाता है॥
एक बार बड़े-बड़े ऋषि-मुनि एक जगह जुटे तो इस बात पर विचार होने लगा कि कौन सा युग सबसे बढिया है. बहुतों ने कहा सतयुग, कुछ त्रेता को तो कुछ द्वापर को श्रेष्ठ बताते रहे
जब एक राय न हुई यह तय हुआ कि जिस काल में कम प्रयास में ज्यादा पुण्य कमाया जा सके, साधारण मनुष्य भी सुविधा अनुसार धर्म-कर्म करके पुण्य कमा सके उसे ही श्रेष्ठ माना जाएगा।
विद्वान आसानी से कभी एकमत हो ही नहीं सकते. कोई हल निकलने की बजाए विवाद और भड़क गया. सबने कहा झगड़ते रहने से क्या फायदा, व्यास जी सबके बड़े हैं उन्हीं से पूछ लेते हैं. वह जो कहें, उसे मानेंगे।
सभी व्यास जी के पास चल दिए. व्यास जी उस समय गंगा में स्नान कर रहे थे. सब महर्षि के गंगा से बाहर निकलने का इंतज़ार करने लगे. व्यास जी ने भी सभी ऋषि-मुनियों को तट पर जुटते देखा तो एक गहरी डुबकी ली।
जब बाहर निकले तो उन्होंने एक मंत्र बोला. वह मंत्र स्नान के समय उच्चारण किए जाने वाले मंत्रों से बिल्कुल अलग था. ऋषियों ने व्यास जी को जपते सुना- कलियुग ही सर्वश्रेष्ठ है कलियुग ही श्रेष्ठ।
इससे पहले कि ऋषिगण कुछ समझते व्यास जी ने फिर डुबकी मार ली. इस बार ऊपर आए तो बोले- शूद्र ही साधु हैं, शूद्र ही साधु है. यह सुनकर मुनिगण एक दूसरे का मुंह देखने लगे।
व्यास जी ने तीसरी डुबकी लगाई. इस बार निकले तो बोले- स्त्री ही धन्य है, धन्य है स्त्री. ऋषि मुनियों को यह माजरा कुछ समझ में नहीं आया. वे समझ नहीं पा रहे थे कि व्यास जी को क्या हो गया है. यह कौन सा मंत्र और क्यों ये मंत्र पढ रहे हैं।
व्यास जी गंगा से निकल कर सीधे अपनी कुटिया की ओर बढे. उन्होंने नित्य की पूजा पूरी की. कुटिया से बाहर आए तो ऋषि मुनियों को प्रतीक्षा में बैठे पाए. स्वागत कर पूछा- कहो कैसे आए ?
ऋषि बोले- महाराज ! हम आए तो थे एक समस्या का समाधान करवाने पर आपने हमें कई नए असमंजस में डाल दिया है. नहाते समय आप जो मंत्र बोल रहे थे उसका कोई गहरा मतलब होगा, हमें समझ नहीं आया, स्पष्ट बताने का कष्ट करें।
व्यास जी ने कहा- मैंने कहा, कलयुग ही श्रेष्ठ है, शूद्र ही साधु हैं और स्त्री ही धन्य हैं. यह बात न तो बहुत गोपनीय है न इतनी गहरी कि आप जैसे विद्वानों की समझ में न आए. फिर भी आप कहते हैं तो कारण बता देता हूं।
जो फल सतयुग में दस वर्ष के जप-तप, पूजा-पाठ और ब्रह्मचर्य पालन से मिलता है वही फल त्रेता में मात्र एक वर्ष और द्वापर में एक महीना जबकि कलियुग में केवल एक दिन में मिल जाता है।
सतयुग में जिस फल के लिए ध्यान, त्रेता में यज्ञ और द्वापर में देवी देवताओं के निमित्त हवन-पूजन करना पडता है, कलियुग में उसके लिए केवल श्री कृष्ण का नापजप ही पर्याप्त है. कम समय और कम प्रयास में सबसे अधिक पुण्य लाभ के चलते मैंने कलयुग को सबसे श्रेष्ठ कहा।
ब्राह्मणों को जनेऊ कराने के बाद कितने अनुशासन और विधि-विधान का पालन करने के बाद पुण्य प्राप्त होता है. जबकि शूद्र केवल निष्ठा से सेवा दायित्व निभा कर वह पुण्यलाभ अर्जित कर सकते हैं. सब कुछ सहते हुए वे ऐसा करते भी आए हैं इसलिए शूद्र ही साधु हैं।
स्त्रियों का न सिर्फ उनका योगदान महान है बल्कि वे सबसे आसानी से पुण्य लाभ कमा लेती हैं. मन, वचन, कर्म से परिवार की समर्पित सेवा ही उनको महान पुण्य दिलाने को पर्याप्त है. वह अपनी दिन चर्या में ऐसा करती हैं इसलिए वे ही धन्य हैं।
मैंने अपनी बात बता दी, अब आप लोग बताएं कि कैसे पधारना हुआ. सभी ने एक सुर में कहा हम लोग जिस काम से आये थे आपकी कृपा से पूरा हो गया।
महर्षि व्यास ने कहा- आप लोगों को नदी तट पर देख मैंने अपने ध्यान बल से आपके मन की बात जान ली थी इसी लिए डुबकी लगाने के साथ ही जवाब भी देता गया था. सभी ने महर्षि व्यास की पूजा की और अपने-अपने स्थान को लौट गए।
[5/7, 16:03] ‪+91 98896 25094‬: "आँसू"
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आँसू भावो के अतिरेक को बताते है । भाव जब शिखर पर पहुँचता है तो वह बस आंसुओ के माध्यम से अभिव्यक्त होता है आँसू अनिवार्य रूप से दुःख के कारण नहीं होते । हालांकि सामान्यजन दुःख के इसी एक कारण से परिचित है दुःख के  अलावा करुणा में भी आँसू बहते है प्रेम में भी आंसू बहते है आनन्द में भी आँसू बहते है अहोभाव में भी आँसू बहते है और कृतज्ञता में भी आंसू बहते है ।
  आंसू तो बस अभिव्यक्ति है -भाव के शिखर पर, चरम पर पहुचने की ..
ये प्रतिक है कि भीतर कोई ऐसी घटना घट रही है जिसको सम्हाल पाना मुश्किल है दुःख या सुख भाव इतने ज्यादा उफन रहे है  कि अब ऊपर से बहने लगे है जो कुछ घटित हो रहा है वह बहुत ज्यादा है उसे सम्हालना मुश्किल हो गया है अब वह ऊपर से बहने लगा है आँखों से आँसू बन बह निकला है जलबिन्दुओ के रूप में आंसू बनकर स्वयं को प्रकट कर रहा है
आँसूओ का सम्बन्ध न तो दुःख से है ना सुख से ।
इनका सम्बन्ध तो बस भावो के अतिरेक से है । जिस भाव का अतिरेक होगा आँसू उसी को लेकर बहने लगेंगे । जब ह्रदय पर कोई चोट पड़ती है जब किसी अज्ञात का मर्म भाव को छूता है दूर अज्ञात की किरण हृदय को स्पर्श करती है जब ह्रदय की गहनता में कुछ उतर जाता है जब कोई तीर ह्रदय  में चुभकर उसमें पीड़ा या आल्हाद का उफान ला देता है तो अपने आप ही आँखों से आँसू बह निकलते है ।
जिनके भाव गहरे है केवल उन्ही के आँसू निकलते है जिनके भाव शुष्क हो गए है उन्हें आँसूओ का सौभाग्य नही मिलता ये भाव यदि निर्मल है पावन है तो इनके शिखर पर पहुचने से जो आँसू निकलते है वे भगवान् को भी विवश कर देते है तभी तो मीरा के आँसूओ ने, चैतन्य के आंसुओं ने -भगवान् को उनके पास आने के लिए विवश कर दिया था ..…
🙏🏻
[5/7, 17:17] ‪+91 95548 67212‬: एकनाथ के जीवन में ऐसा उल्लेख है। एक युवक एकनाथ के पास आता था। जब भी आता था तो वह बड़ी ऊंची ज्ञान की बातें करता था। एकनाथ को दिखाई पड़ता था, वे ज्ञान की बातें सिर्फ अज्ञान को छिपाने के लिए हैं। एक दिन उसने एकनाथ को पूछा सुबह—सुबह कि एक संदेह मेरे मन में सदा आपके प्रति उठता है। आपका जीवन ऐसा ज्योतिर्मय, ऐसा निष्कलुष, ऐसी कमल की पंखडियों जैसा निर्दोष क्वांरा, लेकिन कभी तो आपके जीवन में भी पाप उठे होंगे? कभी तो अंधेरे ने भी आपको घेरा होगा? कभी आपकी जिंदगी में भी कल्मष घटा होगा? ऐसा तो नहीं हो सकता कि पाप से आप बिलकुल अपरिचित हों! मैं यही पूछना चाहता हूं। आज यही सवाल लेकर आया हूं, ओर चूंकि और कोई मौजूद नहीं है, आज आपको अकेला ही मिल गया हूं, इसलिए निस्संकोच पूछता हूं कि आपके मन में पाप उठता है कभी या नहीं; उठा है। कभी या है नहीं?

एकनाथ ने कहा; यह तो मैं पीछे बताऊं;इससे भी ज्यादा जरूरी बात पहले बतानी है कि कहीं मैं भूल न जाऊं, बातचीत में कहीं अटक न जाऊं, कहीं भूल ही न जाऊं, जरूरी बात चूक न जाए! कल अचानक जब तू जा रहा था तेरे हाथ पर मेरी नजर पड़ी तो मैं दंग रह गया; तेरे उम्र की रेखा समाप्त हो गयी है। सात दिन और जिएगा तू। बस, सातवें दिन सूरज के डूबने के साथ तेरा डूब जाना है। अब तू पूछ क्या पूछता था।

वह युवक तो उठकर खड़ा हो गया। अब कोई पूछने की बात, अब कोई समस्या समाधान, अब कोई जिज्ञासा, अब कोई दार्शनिक मीमांसा...वह तो उठकर खड़ा हो गया, उसने कहा: मुझे कुछ नहीं पूछना है। मुझे घर जाने दो।

एकनाथ ने कहा: बैठो भी, अभी आये,अभी चले, इतनी जल्दी क्या है?

सत्संग होगा चर्चा होगी, तत्व विचार होगा, रोज की ज्ञान की बातें—ब्रह्म, मोक्ष कैवल्य...।

उसने कहा कि छोड़ो भी, आज उनमें मुझे कुछ रस नहीं। वह जवान आदमी एकदम जैसे बूढ़ा हो गया। अभी आया था मंदिर कीसीढ़ियां चढ़कर तो उसके पैरों में बल था, लौटा तो दीवाल का सहारा लेकर उतर रहा था, पैर उसके कंप रहे थे। घर जाकर घर के लोगों को कहा; रोना—धोना शुरू हो गया। पास—पड़ोस के के लोग इकट्ठे हो गये। उस दिन तो घर में फिर चूल्हा ही न जला, पास—पड़ोस के लोगों ने लाकर भोजन करवाया। उसने तो भोजन ही नहीं किया; अब क्या भोजन! वह तो बोला ही नहीं, वह तो आंख बंद करके बिस्तर पर पड़ा रहा। सात दिन में उसकी हालत मरणासन्न जैसी हो गयी। बार—बार सातवें दिन पूछता था—सूरज के डूबने में और कितनी देर है? आवाज भी मुश्किल से निकलती थी। घर में रोआ—गायी मची थी। मेहमान इकट्ठे हो गये थे। दूर—दूर से प्रियजन आ गये थे अंतिम विदा देने।

और सूरज डूबने के ठीक पहले एकनाथने द्वार पर दस्तक दी। एकनाथ भीतर आये।एकनाथ उसके पास गये। वह तो आंख बंद किये पड़ा था। हाथ से उसकी आंखें खोलीं और कहा कि एक बात तुझे बताने आया हूं। यह तू क्या कर रहा है, ऐसा क्यों पड़ा है?

उसने कहा: और क्या करू? सूरज डूबने में कितनी देर है? ये सात दिन मैंने इतना नर्क भोगा है जितना कभी नहीं। अब तो ऐसा लगता है मर ही जाऊं तो झंझट कटे।

एकनाथ ने कहा कि मैं तुझे तेरे प्रश्न का उत्तर देने आया हूं। वह तूने मुझसे पूछा था न कि आपके मन में पाप कभी उठता है। मैं पूछने आया हूं तुझसे कि सात दिन में तेरे मन में कोई पाप उठा? उस आदमी ने कहा: कहां की बातें कर रहे हो! कैसा पाप, कैसा पुण्य? सात दिन तो कोई विचार ही नहीं उठा, बस एक ही विचार ही था—मौत,मौत, मौत; एक दिन गया, दो दिन गये, तीन दिन गये, चार दिन गये, यह घड़ी—घड़ी बीती जा रही है, पल—पल चूका जा रहा है। सातवां दिन दूर नहीं है, सूरज के डूबते ही सब जाएगा। मौत थी और भी न था। इन सात दिनों में अंधकार था अमावस का और कुछ भी न था। कहां का पाप, कहां का पुण्य?

एकनाथ ने कहा: तो उठ, अभी तुझे मरना नहीं है। तेरी हाथ की रेखा अभी काफी लंबी है। यह तो मैंने सिर्फ तेरे प्रश्न का उत्तर दिया था। ऐसे ही जिस दिन से मुझे मौत दिखाई पड़ गयी है, पाप नहीं उठा। जिसको मौत दिखाई पड़ जाती है पाप नहीं उठता, एकनाथने कहा।

ऐसा उत्तर कोई सद्गुरु ही दे सकता है। मगर ऐसे उत्तर महंगे तो हैं। यह सौदा सस्ता तो नहीं है।
[5/7, 17:48] घनश्याम जी पं: जय हो आदरणीय अजित भैयाजी । आपने आसूं की कीमत को समझा और हम सबो को भी समझाया। सधन्यवाद भैयाजी।आपने मुझे भगवान राम का ओ दृश्य याद दिला दिया 🙏 "आश्रम एक दिख मग माही , खग मृग जीव जंतु तह नाही । सुना आश्रम देख मेरे प्रभु ने पूछा दिया गरुदेव ये किसका आश्रम है वीरान पड़ा है? गरुदेव ने सब कुछ बता दिया । --राघव ये गौतम ऋषि का आश्रम है कुछ काल पहले मुनि ने इसे त्याग दिया । रामजी ने कहा फिर ये पत्थर की मूर्ति,शिला किसकी है? बोले - ये मुनि की पत्नी है पति के शाप से शिला बन गई। भगवान बोले --🙏गिरुदेव हम जब यहा आये थे तो ये पत्थर की मूर्ति यैसे ही पड़ी थी । लेकिन जब गौर से देखा तो इस मूर्ति की आखों से आंसू गिर रहे है ये कैसी विचित्रता है। गरुदेव मन ही मन बोले प्रभु आप सब जानते है फिर भी - - -। गरुदेव बोले - -राघव ये आपसे प्रार्थना करना चाहती है पर पत्थर है ना इसलिए बोल नही पा रही है पर राघव इसकी पुकार इतनी बढ़ गई इतनी बढ़ गई कि इसके आंखों से आंसू टपक पड़े। रामजी ने कहा ये क्या कहना चाहती है। बोले-- ये आपके चरणों की धुली चाहती है।कृपा कर इसे दीजिए। भगवान बोले क्यो- चरण धुली ही क्यो? मुनि बोले -- प्रभु आप है पवन और ये है अपावन । ये पति वियोग से शोकित है इसका शोक दूर करे और इसे चरण धुली देकर इसे पावन कीजिए। तब प्रभु ने अहिल्या माँ का उद्धार किया। 🙏"देखत रघुनायक जन सुखदायक सन्मुख होइ कर जोर रही । अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा, मुख नही आवई बचन कही ।। क्षमा कीजिएगा भैया आपकी पोस्ट इतना मार्मिक सुन्दर की मैं आपने आप को रोक नही सका । नमन भैयाजी🙏
[5/7, 18:07] ‪+91 99773 99419‬: *🔔मूल श्लोकः 🔔*
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।३.१६।।
*🌷पदार्थः...... 🌷*
पार्थ — अर्जुन!
यः — यः पुरुषः
इह — अस्मिन् लोके
एवम् — इत्थम्
परिवर्तितम् — निर्मितम्
चक्रम् — कर्मचक्रम्
न अनुवर्तयति — न अनुसरति
इन्द्रियारामः — इन्द्रियेषु रममाण
अघायुः — पापभूयिष्ठजीवितः
सः — सः पुरुषः
मोघम् — वृथा
जीवति — प्राणिती।
*🌻अन्वयः 🌻*
पार्थ! यः एवं प्रवर्तितं चक्रम् इह न अनुवर्तयति अघायुः इन्द्रियारामः सः मोघं जीवति।
*🐚आकाङ्क्षाः🐚*
_न अनुवर्तयति।_
किं न अनुवर्तयति?
*चक्रं न अनुवर्तयति।*
कीदृशं चक्रं न अनुवर्तयति?
*प्रवर्तितं चक्रं न अनुवर्तयति।*
कथं प्रवर्तितं चक्रं न अनुवर्तयति?
*एवं प्रवर्तितं चक्रं न अनुवर्तयति।*
एवं प्रवर्तितं चक्रं कुत्र न अनुवर्तयति?
*एवं प्रवर्तितं चक्रम् इह न अनुवर्तयति।*
यः एवं प्रवर्तितं चक्रम् इह न अनुवर्तयति सः कीदृशः भवति?
*यः एवं प्रवर्तितं चक्रम् इह न अनुवर्तयति सः जीवति।*
यः एवं प्रवर्तितं चक्रम् इह न अनुवर्तयति सः कथं जीवति?
*यः एवं प्रवर्तितं चक्रम् इह न अनुवर्तयति सः मोघं जीवति।*
यः एवं प्रवर्तितं चक्रम् इह न अनुवर्तयति कीदृशः सः मोघं जीवति?
*यः एवं प्रवर्तितं चक्रम् इह न अनुवर्तयति अघायुः सः मोघं जीवति।*
यः एवं प्रवर्तितं चक्रम् इह न अनुवर्तयति अघायुः पुनश्च कीदृशः सः मोघं जीवति?
*यः एवं प्रवर्तितं चक्रम् इह न अनुवर्तयति अघायुः इन्द्रियारामः सः मोघं जीवति।*
🌺 श्लोके सम्बोधनपदं किम्? *-पार्थ।*
*📢 तात्पर्यम्......*
यः मनुष्यः अस्मिन् लोके कर्मचक्रानुगुणं नैव व्यवहरति, यः च कर्तव्यकर्म न करोति तादृशः इन्द्रियसुखलोलुपः पापभूयिष्ठजीवितः पुरुषः व्यर्थं जीवति।
*🌻व्याकरणम्.......*
▶सन्धिः
नानुवर्तयतीह = न + अनुवर्तयति + इह - सवर्णदीर्घसन्धिः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघः = अघायुः + इन्द्रियारामः - विसर्गसन्धिः (रेफः)
# इन्द्रियारामः + मोघम् - विसर्गसन्धिः (सकारः) रेफः, उकारः, गुणः।
स जीवति = सः जीवति - विसर्गसन्धिः (लोपः)।
▶ समासः
अघायुः = अघम् (पापम्) आयुः यस्य सः - बहुव्रीहिः।
इन्द्रियारामः = इन्द्रियैः आरामः - तृतीयातत्पुरुषः।
▶ कृदन्तः
प्रवर्तितम् = प्र + वृत्त + णिच् + क्त (कर्मणि)।
आरामः = आ + रम् + घञ् (कर्तरि बहुलम्)।
🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹
                              *गीताप्रवेशात्*
[5/7, 18:30] पं अनुरागी जी: नमो नमः
    अति सुंदर भाव का छायांकन प्रभु जी
      अहल्या प्रकरण का सूक्ष्मावलोकन करते हैं तो प्रत्यक्ष में अहल्या का कोई दोष दृष्टिगत नहीं होता । एक अवसर दिखा भी तो अहिल्या जी कह रहीं हैं कि
   मुनि साप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना ।
   निर्दोष को श्राप देना मुनिश्रेष्ठ द्वारा असंभव था । 
      पूर्व के घटना क्रम का अवलोकन करते हैं तो अहिल्या ब्रह्मदेव द्वारा सृजित हुईं  । अनायास पुरंदर की दृष्टि अहिल्या पर पड़ती है तो वृह्मदेव से मांग कर बैठते हैं ।पर विधाता उन्हें बताते हैं कि इनका सृजन गौतम ऋषि के लिए हुआ है । अनिंद्य सुंदरी अहिल्या को भूल पाना देवराज के लिए कठिन था । आज अमरेश को अमरावती की रम्भादि अप्सराओं को छोड़ कर मृत्युलोक की यात्रा करनी पड़ी ।
     पति रूप में आये मघवान  को कृत्य का फल श्राप रूप में प्राप्त हुआ । पर पति का प्रणय निवेदन स्वीकार करना क्या अपराध था ?
        विचार करें

                              क्रमशः
[5/7, 19:01] ‪+91 94501 23732‬: वस्त्रेणाभूषिता नारी वाण्याभूषितः पुमान्।
स्थानं हि विशिष्टं वैआप्नुवन्ति च जनजीवने।।
भवन्ति विभूषिता:केचन केशै:स्वर्णादिकैस्तथा।
प्रकटन्ति सर्वे स्व सौन्दर्यं  मुग्धा वै भवन्ति ते।।
      आभूषणेषु सर्वेषु यथा वाणी विभूषति।
    सर्वै:विचार्य वक्तव्यं वाग्भूषणं भूषणम्।।
                                डा गदाधर त्रिपाठी
[5/7, 19:09] ‪+91 97530 19651‬: *।।ऊँ।।अंधे को मंदिर आया देखकर*
              *लोग हंसकर बोले की,*

       *मंदिर में दर्शन के लिए आये तो हो*
      *पर क्या भगवान् को देख पाओगे ?*

           *अंधे ने मुस्कुरा के कहा की,*
       *क्या फर्क पड़ता है, मेरा भगवान्*
                  *तो मुझे देख लेगा.*

  *द्रष्टि नहीं द्रष्टिकोण सही होना चाहिए !🙏
[5/7, 21:52] ओमीश Omish Ji: 🌺रघुवंशम्🌺
🌷श्लोक🌷
क्व सूर्य्यप्रभवो वंशः क्व चाल्पविषया मतिः।
तितीर्षुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम् ।।२।

अन्वयः - सूर्यप्रभवः वंशः क्व, अल्पविषया (मम) च क्व (अहम्) मोहात् उडुपेन दुस्तरं सागरं तितीर्षुः अस्मि।

वाच्यपरिवर्त्तनं - सूर्यप्रभवेण वंशेन क्व (भूयते) अल्पविषयया (मम) मत्या च क्व (भूयते) (मया) तितीर्षुणा भूयते।।

यथा हि कश्चित् मन्दधीः लघुतृणादिनिर्मितस्य प्लवस्य साहाय्येन महासागरतरणे प्रवर्तते तथैव मन्दबुद्धिरहमपि क्षुद्राशयप्राहिणो निजज्ञानस्य साहाय्येन सुविस्तृतसूर्यकुलवर्णने प्रवृत्तोस्मीति सरलार्थः।

भावार्थः - कहां तौ सूर्य से उत्पन्न वंश और कहां थोडे बुद्धि व्यवहार वाला मैं मूर्खता से कठिनता से तरने योग्य समुद्र को फूँस की नाव के सहारे उतरना चाहता हूँ।
*रघुवंशमहाकाव्य-व्याख्या - - श्रीज्वालाप्रसादमिश्रः १९६४*
[5/7, 22:01] घनश्याम जी पं: 🙏🌹श्री परमात्मने नमः🌹🙏समुद्र मंथन पर एक जानकारी शेयर कर रहा हूँ। समुद्र मंथन से लक्ष्मी,अमृत,कौस्तुभमणि,  ऐरावत,आदि कई रत्न निकले । तथा अति भयंकर कालकूट नामक विष भी निकला । विष से जब देवता मूर्क्षित होने लगे तो इस विष का कुछ भाग भगवान शिवजी ने पान किया और नीलकंठ कहलाये । और कुछ भाग रहा गया । तब ब्रह्माजी ने देवताओ से कहा भगवान शंकर के अतिरिक्त इस संसारमे कोई भी समर्थ नही है जो इस विष का पान कर सके। अतः आप सब अगस्त्यमुनि के पास जाइए । वही निवारण कर सकते । तब देव सब अगस्त्यमुनि के पास गए। दुखड़ा सुनाया। तब अगस्त्यमुनि ने अपने तपोबल से  विष को हिमालय पर्वत में प्रविष्ट कराया । वह विष हिमालय के शिखरों,निकुंजो तथा वृक्षोमे बिखरा दिया और शेष बचे विष को धतूर,अर्क,आदि वृक्षो में बांट दिया। उसी हिमालय पर्वत के विष से युक्त वायु के प्रभाव से प्राणियों में अनेक प्रकार के रोग उत्तपन्न होते है। उस विषयुक्त वायु का प्रभाव वृष की सक्रांति से लेकर सिंह सक्रांति तक बना रहता है। बाद में उसका वेग शांत हो जाता है। इस प्रकार कालकूट विष के विनाशकारी प्रभाव से अगस्त्यमुनि ने समस्त प्राणियों की रक्षा की ।
[5/7, 22:19] ‪+91 98670 61250‬: मीनः स्नानरतः फणी पवनभुक्त
          मेषस्तु पर्णाश्ने ,

निराशी खलु चातकः प्रतिदिनं
          शेते बिले मूषकः ।

भस्मोध्द्वलनतत्परो ननु
खरो ध्यानाधिसरो बकः

सर्वे किं न हि यान्ति मोक्षपदवी भक्तिप्रधानं तपः ॥

मीन (मछली) नित्य जल में स्नान करती है, साँप वायु भक्षण करके रहता है; चातक तृषित रहता है, चूहा बिल में रहता है, गधा धूल में भस्मलेपन करता है; बगुला आँखें मूंदके बैठा ध्यान करता है।

पर इन में से किसी को भी मोक्ष नहीं मिलता, क्यों
कि तप में प्रधान “भक्ति” है ।भागीरथी तप करके गंगा को मृत्युलोक में लाये, पार्वती जी ने तप करके शिव को वर रूप में पाया, ध्रुव ने तप करके अचल राज्य पाया, एक नहीं अनेकानेक प्रमाण इस बात के मौजूद हैं कि तप से ही सम्पदा मिलती है। मनोवाँछाऐं पूर्ण करने का एक मात्र साधन तप ही है—परिश्रम एवं प्रयत्न ही है। क्या
देव क्या असुर जिसने भी ऐश्वर्य पाया है, वरदान
      उपलब्ध किये हैं तप के द्वारा पाये हैं।

अनन्त सम्पदाओं का ढेर अपने चारों ओर बिखरा
पड़ा हो तो भी कोई उसे तप बिना नहीं पा सकता।

समुद्र के अन्दर अतीत काल से अनेक रत्न छिपे पड़े थे। उनका अस्तित्व किसी पर प्रकट न था किन्तु जब देवता और असुरों ने मिलकर समुद्र मन्थन किया तो उसमें से चौदह अमूल्य रत्न निकले। यदि मन्थन न किया जाता
तो चौदह क्या चौथाई रत्न भी किसी को न मिलता।

प्रयत्न, परिश्रम और कष्ट सहन करने से ही किसी ने कुछ प्राप्त किया है। अकस्मात छप्पर फाड़कर मिल जाने के कुछ अपवाद कहीं कहीं देखे और सुने जाते हैं, परन्तु यह इतने कम होते हैं कि उन्हें सिद्धान्त रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। पूर्व जन्मों का संचित पुण्य एक दम कहीं प्रकट होकर कुछ सम्पदा अकस्मात उपस्थिति कर दे ऐसा होना असम्भव नहीं है, कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि किन्हीं व्यक्तियों को बिना परिश्रम के भी कुछ चीज मिल जाती है परन्तु इसे भी मुफ्त का माल नहीं कहा जा सकता।

पूर्व संचित पुण्य भी परिश्रम और कष्ट सहन द्वारा ही प्राप्त हुए थे। इन भाग्य से अकस्मात प्राप्त होने वाले लाभों में भी अप्रत्यक्ष रूप से परिश्रम ही मुख्य होता है।

भाग्य का निर्माण तपस्या से ही होता है।।
[5/8, 07:57] पं ऊषा जी: *सम्पत्सु महतां चित्तं भवत्युत्पलकोमलम्।*
*आपत्सु च महाशैलशिलासङ्घातकर्कशम्।।*

_महापुरुषों का चित्त संपत्ति के समय कमल के समान कोमल होता है और आपत्ति में विशाल पर्वत की चट्टानों की तरह अत्यंत कठोर होता है ।_

🌹🍃🌹 *अमरवाणी विजयतेतराम्* 🌹🍃🌹
--गणान्तरात्
[5/8, 08:42] ‪+91 98896 25094‬: एक साधु महाराज श्री रामायण कथा सुना रहे थे। लोग आते और आनंद विभोर होकर जाते।
साधु महाराज का नियम था रोज कथा शुरू करने से पहले *"आइए हनुमंत जी बिराजिए"* कहकर हनुमान जी का आह्वान करते थे, फिर एक घण्टा प्रवचन करते थे।
एक वकील साहब हर रोज कथा सुनने आते। वकील साहब के भक्तिभाव पर एक दिन तर्कशीलता हावी हो गई । उन्हें लगा कि महाराज रोज *"आइए हनुमंत जी बिराजिए"* कहते हैं तो क्या हनुमान जी सचमुच आते होंगे !
अत: वकील साहब ने महात्मा जी से पूछ ही डाला- महाराज जी आप रामायण की कथा बहुत अच्छी कहते हैं हमें बड़ा रस आता है परंतु आप जो गद्दी प्रतिदिन हनुमान जी को देते हैं उस पर क्या हनुमान जी सचमुच बिराजते हैं ?
साधु महाराज ने कहा "हाँ यह मेरा व्यक्तिगत विश्वास है कि रामकथा हो रही हो तो हनुमान जी अवश्य पधारते हैं।"
वकील ने कहा "महाराज ऐसे बात नहीं बनेगी, हनुमान जी यहां आते हैं इसका कोई सबूत दीजिए। आपको साबित करके दिखाना चाहिए कि हनुमान जी आपकी कथा सुनने आते हैं।"
महाराज जी ने बहुत समझाया कि भैया आस्था को किसी सबूत की कसौटी पर नहीं कसना चाहिए यह तो भक्त और भगवान के बीच का प्रेमरस है, व्यक्तिगत श्रद्घा का विषय है। आप कहो तो मैं प्रवचन करना बंद कर दूँ या आप कथा में आना छोड़ दो।
लेकिन वकील नहीं माना । कहता ही रहा कि आप कई दिनों से दावा करते आ रहे हैं । यह बात और स्थानों पर भी कहते होंगे, इसलिए महाराज आपको तो साबित करना होगा कि हनुमान जी कथा सुनने आते हैं।
इस तरह दोनों के बीच वाद-विवाद होता रहा । मौखिक संघर्ष बढ़ता चला गया।
हारकर साधु महाराज ने कहा "हनुमान जी हैं या नहीं उसका सबूत कल दिलाऊंगा। कल कथा शुरू हो तब प्रयोग करूंगा।"
जिस गद्दी पर मैं हनुमानजी को विराजित होने को कहता हूं आप उस गद्दी को आज अपने घर ले जाना, कल अपने साथ उस गद्दी को लेकर आना और फिर मैं कल गद्दी यहाँ रखूंगा।
मैं कथा से पहले हनुमान जी को बुलाऊंगा फिर आप गद्दी ऊँची उठाना। यदि आपने गद्दी ऊँची कर दी तो समझना कि हनुमान जी नहीं हैं। वकील इस कसौटी के लिए तैयार हो गया ।
महाराज ने कहा "हम दोनों में से जो पराजित होगा वह क्या करेगा, इसका निर्णय भी कर लें? यह तो सत्य की परीक्षा है।"
वकील ने कहा "मैं गद्दी ऊँची न कर सका तो वकालत छोड़कर आपसे दीक्षा ले लूंगा। आप पराजित हो गए तो क्या करोगे ? साधु ने कहा मैं कथावाचन छोड़कर आपके ऑफिस का चपरासी बन जाऊंगा।"
अगले दिन कथा पंडाल में भारी भीड़ हुई जो लोग रोजाना कथा सुनने नहीं आते थे, वे भी भक्ति, प्रेम और विश्वास की परीक्षा देखने आए। काफी भीड़ हो गई। पंडाल भर गया । श्रद्घा और विश्वास का प्रश्न जो था।
साधु महाराज और वकील साहब कथा पंडाल में पधारे, गद्दी रखी गई।
महात्मा जी ने सजल नेत्रों से मंगलाचरण किया और फिर बोले *"आइए हनुमंत जी बिराजिए"* ऐसा बोलते ही साधु महाराज के नेत्र सजल हो उठे। मन ही मन साधु बोले "प्रभु ! आज मेरा प्रश्न नहीं बल्कि रघुकुल रीति की पंरपरा का सवाल है। मैं तो एक साधारण जन हूँ, मेरी भक्ति और आस्था की लाज रखना।
फिर वकील साहब को निमंत्रण दिया गया आइए गद्दी ऊँची कीजिए। लोगों की आँखे जम गईं। वकील साहब खड़ेे हुए।
उन्होंने गद्दी उठाने के लिए हाथ बढ़ाया पर गद्दी को स्पर्श भी न कर सके! जो भी कारण रहा, उन्होंने तीन बार हाथ बढ़ाया, किन्तु तीनों बार असफल रहे।
महात्मा जी देख रहे थे, गद्दी को पकड़ना तो दूर वकील साहब गद्दी को छू भी न सके। लेकिन तीनों बार वकील साहब पसीने से तर-बतर हो गए। वकील साहब साधु महाराज के चरणों में गिर पड़े और बोले महाराज गद्दी उठाना तो दूर, मुझे नहीं मालूम कि क्यों मेरा हाथ भी गद्दी तक नहीं पहुंच पा रहा है।
अत: मैं अपनी हार स्वीकार करता हूं। कहते है कि श्रद्घा और भक्ति के साथ की गई आराधना में बहुत शक्ति होती है।
*मानो तो देव नहीं तो पत्थर*
प्रभु की मूर्ति तो पाषाण की ही होती है लेकिन भक्त के भाव से उसमें प्राण प्रतिष्ठा होती है तो प्रभु बिराजते है ।
*जय श्री बजरंग बली....*
*जय श्री राम......*
[5/8, 08:44] ‪+91 98896 25094‬: प्रभु की प्राप्ति किसे होती है..?

एक सुन्दर कहानी है :--
एक राजा था। वह बहुत न्याय प्रिय तथा प्रजा वत्सल एवं धार्मिक स्वभाव का था। वह नित्य अपने इष्ट देव की बडी श्रद्धा से पूजा-पाठ और याद करता था।
एक दिन इष्ट देव ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिये तथा कहा -- "राजन् मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हैं। बोलो तुम्हारी कोई इछा हॆ?"
प्रजा को चाहने वाला राजा बोला -- "भगवन् मेरे पास आपका दिया सब कुछ हैं आपकी कृपा से राज्य मे सब प्रकार सुख-शान्ति है। फिर भी मेरी एक ही ईच्छा हैं कि जैसे आपने मुझे दर्शन देकर धन्य किया, वैसे ही मेरी सारी प्रजा को भी कृपा कर दर्शन दीजिये।"
"यह तो सम्भव नहीं है" -- ऐसा कहते हुए भगवान ने राजा को समझाया। परन्तु प्रजा को चाहने वाला राजा भगवान् से जिद्द् करने लगा।
आखिर भगवान को अपने साधक के सामने झुकना पडा ओर वे बोले -- "ठीक है, कल अपनी सारी प्रजा को उस पहाड़ी के पास ले आना और मैं पहाडी के ऊपर से सभी को दर्शन दूँगा ।"
ये सुन कर राजा अत्यन्त प्रसन्न हुअा और भगवान को धन्यवाद दिया। अगले दिन सारे नगर मे ढिंढोरा पिटवा दिया कि कल सभी पहाड़ के नीचे मेरे साथ पहुँचे, वहाँ भगवान् आप सबको दर्शन देगें। दूसरे दिन राजा अपने समस्त प्रजा और स्वजनों को साथ लेकर पहाडी की ओर चलने लगा।
चलते-चलते रास्ते मे एक स्थान पर तांबे कि सिक्कों का पहाड देखा। प्रजा में से कुछ एक लोग उस ओर भागने लगे। तभी ज्ञानी राजा ने सबको सर्तक किया कि कोई उस ओर ध्यान न दे, क्योकि तुम सब भगवान से मिलने जा रहे हो, इन तांबे के सिक्कों के पीछे अपने भाग्य को लात मत मारो ।
परन्तु लोभ-लालच मे वशीभूत प्रजा के कुछ एक लोग तो तांबे की सिक्कों वाली पहाड़ी की ओर भाग ही गयी और सिक्कों कि गठरी बनाकर अपने घर कि ओर चलने लगे। वे मन ही मन सोच रहे थे, पहले ये सिक्कों को समेट ले, भगवान से तो फिर कभी मिल ही लेगे ।
राजा खिन्न मन से आगे बढे। कुछ दूर चलने पर चांदी कि सिक्कों का चमचमाता पहाड़ दिखाई दिया । इस वार भी बचे हुये प्रजा में से कुछ लोग, उस ओर भागने लगे ओर चांदी के सिक्कों को गठरी बनाकर अपनी घर की ओर चलने लगे। उनके मन मे विचार चल रहा था कि ऐसा मौका बार-बार नहीं मिलता है। चांदी के इतने सारे सिक्के फिर मिले न मिले, भगवान तो फिर कभी मिल ही जायेगें. इसी प्रकार कुछ दूर और चलने पर सोने के सिक्कों का पहाड़ नजर आया। अब तो प्रजा जनो में बचे हुये सारे लोग तथा राजा के स्वजन भी उस ओर भागने लगे।
वे भी दूसरों की तरह सिक्कों कि गठरीयां लाद-लाद कर अपने-अपने घरों की
ओर चल दिये। अब केवल राजा ओर रानी ही शेष रह गये थे। राजा रानी से कहने लगे --
"देखो कितने लोभी ये लोग। भगवान से मिलने का महत्व ही नहीं जानते हैं। भगवान के सामने सारी दुनियां की दौलत क्या चीज हैं..?"
सही बात है -- रानी ने राजा कि बात का समर्थन किया और वह आगे बढने लगे कुछ दुर चलने पर राजा ओर रानी ने देखा कि सप्तरंगि आभा बिखरता हीरों का पहाड़ हैं । अब तो रानी से भी रहा नहीं गया, हीरों के आर्कषण से वह भी दौड पड़ी और हीरों कि गठरी बनाने लगी । फिर भी उसका मन नहीं भरा तो साड़ी के पल्लू मेँ भी बांधने लगी । वजन के कारण रानी के वस्त्र देह से अलग हो गये, परंतु हीरों का तृष्णा अभी भी नहीं मिटी। यह देख राजा को अत्यन्त ही ग्लानि ओर विरक्ति हुई । बड़े दुःखद मन से राजा अकेले ही आगे बढते गये ।
वहाँ सचमुच भगवान खड़े उसका इन्तजार कर रहे थे । राजा को देखते ही भगवान मुसकुराये ओर पुछा -- "कहाँ है तुम्हारी प्रजा और तुम्हारे प्रियजन । मैं तो कब से उनसे मिलने के लिये बेकरारी से उनका इन्तजार कर रहा हूॅ ।" राजा ने शर्म और आत्म-ग्लानि से अपना सर झुका दिया ।
तब भगवान ने राजा को समझाया --
"राजन, जो लोग अपने जीवन में भौतिक सांसारिक प्राप्ति को मुझसे अधिक मानते हैं, उन्हें कदाचित मेरी प्राप्ति नहीं होती और वह मेरे स्नेह तथा कृपा से भी वंचित रह जाते हैं..!!"
:
सार..
जो जीव अपनी मन, बुद्धि और आत्मा से भगवान की शरण में जाते हैं, और
सर्व लौकिक सम्बधों को छोडके प्रभु को ही अपना मानते हैं वो ही भगवान के प्रिय बनते हैं 🙏🙏
[5/8, 09:07] ‪+91 99773 99419‬: *🔔मूल श्लोकः 🔔*
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टः तस्य कार्यं न विद्यते।।३.१७।।
*🌷पदार्थः...... 🌷*
यः मानवः तु — यः मनुष्यः
आत्मरतिः एव — आत्मनि प्रीतिमान्
आत्मतृप्तः च — आत्मनि तृप्तिमान्
आत्मन्येव — स्वस्मिन् एव
सन्तुष्टः — सम्प्रीतः
स्यात् — भवेत्
तस्य — तादृशस्य मनुष्यस्य
कार्यम् — कर्तव्यम्
न विद्यते — नास्ति।
*🌻अन्वयः 🌻*
यः मानवः आत्मरतिः एव आत्मतृप्तः आत्मन्येव सन्तुष्टः च स्यात् तस्य कार्यं न विद्यते।
*🐚आकाङ्क्षाः🐚*
_स्यात्।_
कः स्यात्?
*मानवः स्यात्।*
मानवः कीदृशः स्यात्?
*मानवः आत्मरतिः एव स्यात्।*
मानवः आत्मरतिः एव पुनश्च कीदृशः स्यात्?
*मानवः आत्मरतिः एव आत्मतृप्तश्च स्यात्।*
मानवः आत्मरतिः एव आत्मतृप्तः पुनश्च कीदृशः स्यात्?
*मानवः आत्मरतिः एव आत्मतृप्तः सन्तुष्टश्च स्यात्।*
मानवः आत्मरतिः एव आत्मतृप्तः कस्मिन् सन्तुष्टश्च स्यात्?
*मानवः आत्मरतिः एव आत्मतृप्तः आत्मनि एव सन्तुष्टश्च स्यात्।*
यः मानवः आत्मरतिः एव आत्मतृप्तः आत्मनि एव सन्तुष्टश्च स्यात् तस्य किं भवति?
*यः मानवः आत्मरतिः एव आत्मतृप्तः आत्मनि एव सन्तुष्टश्च स्यात् तस्य न विद्यते।*
यः मानवः आत्मरतिः एव आत्मतृप्तः आत्मनि एव सन्तुष्टश्च स्यात् तस्य किं न विद्यते?
*यः मानवः आत्मरतिः एव आत्मतृप्तः आत्मनि एव सन्तुष्टश्च स्यात् तस्य कार्यं न विद्यते।*
*📢 तात्पर्यम्......*
यः मनुष्यः आत्मप्रियः, आत्मतृप्तः, आत्मसम्प्रीतश्च भवति तस्य कर्तव्यं नास्ति।
*🍁माध्वमतम्.......*
अपरोक्षज्ञानी परमात्मदर्शनजन्यसुखम् अनुभवन्, तदितरसुखे अनासक्तः तृप्तिं प्राप्नोति। तस्य नित्यं नैमित्तिकं च कार्यमित्येतत् नास्ति।
*🌻व्याकरणम्.......*
▶सन्धिः
यस्त्वात्मरतिरेव = यः + तु - विसर्गसन्धिः (सकारः)
# तु + आत्मरतिः - यण्सन्धिः।
# आत्मरतिः एव - विसर्गसन्धिः (रेफः)।
स्यादात्मतृप्तः = स्यात् + आत्मतृप्तः - जश्त्वसन्धिः।
आत्मतृप्तश्च = आत्मतृप्तः + च - विसर्गसन्धिः (सकारः) श्चुत्वं च।
आत्मन्येव = आत्मनि + एव - यण्सन्धिः।
सन्तुष्टस्तस्य = सन्तुष्टः + तस्य - विसर्गसन्धिः (सकारः)।
▶ समासः
आत्मरतिः = आत्मनि एव रतिः यस्य सः - बहुव्रीहिः।
आत्मतृप्तः = आत्मनि एव तृप्तः - सप्तमीतत्पुरुषः।
▶ कृदन्तः
तृप्तः = तृप् + क्त (कर्तरि)।
सन्तुष्टः = सम् + तुष् + क्त (कर्तरि)।
कार्यम् = कृ + ण्यत् (कर्मणि)।
▶ तद्धितान्तः
मानवः = मनु + अण् (अपत्यार्थे)। मनोः अपत्यं पुमान्।
🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹
                              *गीताप्रवेशात्*
[5/8, 09:11] पं ऊषा जी: 🙏हितोपदेश-सुभाषित-श्लोकाः - 1.44🌺
मूलम्--
धर्मार्थकाममोक्षाणां प्राणाः संस्थितहेतवः ।
तान् निघ्नता किं न हतं रक्षता किं न रक्षितम् ॥१.४४॥
🌹
पदविभागः--
धर्मार्थ-काम-मोक्षाणां प्राणाः संस्थित-हेतवः । तान् निघ्नता किं न हतं रक्षता किं न रक्षितम् ॥१.४४॥

अन्वयः--
प्राणाः धर्मार्थ-काम-मोक्षाणां संस्थित-हेतवः । तान् निघ्नता किं न हतम् ? रक्षता किं न रक्षितम्? ॥
🌺
प्रतिपदार्थः--
प्राणाः = प्राणापानादिपञ्चवायवः ; संस्थितिहेतवः = यथावत्पालनादि-हेतवः, जीवने कारणभूतानि ; तान्प्राणान् स्वशरीरमिति यावत् ; निघ्नता = विनाशयता ; रक्षता = पालयता ; धर्मार्थकाममोक्षाख्याश्चत्वारः पुरुषार्थाः॥१.४४॥
🌷
तात्पर्यम्--
(शरीरस्य धारणे ये हेतवः ते) प्राणाः एव धर्मादि-पुरुषार्थ-चतुष्टयस्य संस्थापनेऽपि कारणम्। पुरुषः प्राणान् हत्वा सर्वं हन्ति, प्राणान् ऊत्वा (अव्+त्वा) सर्वम् अवति॥१.४४॥🌸
[5/8, 09:31] Prtibha Modi: हरि:ऊँ तत्सत्! सुप्रभातम्
श्रीगुरुचरणकमलेभ्य नम:|
🌷🙏🙏🙏🙏🙏🌷
सर्वेभ्यो भक्तेभ्य नम:🙏🌷

श्रीमद्भगवत्गीता अध्याय:१०
मच्चित्ता मद्गगतप्राणा
बोधुयन्त: परस्परम् |
कथयन्तश्च मां नित्यं
तुष्यन्ति च रमन्ति च||९||

अनवरत मुझमें मन लगाने
वाले, प्राणों (जीवन)को मुझमे
ही अर्पण करने वाले भक्त
मेरी भक्ति की चर्चा करते
हुए परस्पर मेरे ही प्रभाव को
जानते हुए और गुण प्रभाव
सहित मेरा ही कथन करते
हुए संतुष्ट होते है तथा मुझ
वासुदेव में ही सतत रमण
करते है|
🌷🙏जय श्री राम🙏🌷
🌷🙏जय श्री कृष्ण🙏🌷
[5/8, 13:46] ‪+91 94501 23732‬: इन्द्रियाणां समूहो हि पुद्गलो$स्ति वै निर्मितः।
विषयाणां ग्रहणमेभिर्भवति सर्वेषु जीवने।।
विषया: सन्तिजगतिव्याप्ता मनसा हि उपभोगोभवति।
     इन्द्रियद्वारेण सर्वाण्येव च उपभोगाय ते परम्।।
प्राणा:श्वासा: श्वासैर्जीवनं श्वासान् गृह्णाति नासिका।
जीवनेनैव च कार्याणि भवन्ति सर्वैरेव च सर्वदा।।
                                 डा गदाधर त्रिपाठी
[5/8, 16:27] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: ॐ श्री गुरुभ्यो नमः।
I वन्दे संस्कृतमातरम् I

आरोप्यते शिला शैले यत्नेन महता यथा ।
पात्यते तु क्षणेनाधस्तथात्मा गुणदोषयो: ॥

शिला को पर्वत के उपर ले जाना कठिन कार्य है
परन्तू पर्वत के उपर से नीचे ढकेलना तो बहुत ही सुलभ है ।
ऐसे ही मनुष्य को सद्गुणोसे युक्त करना कठिन है
पर उसे दुर्गुणों से भरना तो सुलभही है ।
*देव वाणी संस्कृतम्*✍
[5/9, 07:30] पं अर्चना जी: 📕       दुनियाँ की सबसे
      *अच्छी किताब* हम स्वयं हैं
📕.  *खुद को समझ लीजिए*
              सब समस्याओं का
         *समाधान*  हो जाएगा...

  🌹🙏🏻 Good Morning 🙏🏻🌹
[5/9, 07:33] ‪+91 99773 99419‬: *🔔मूल श्लोकः 🔔*
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।३.१८।।
*🌷पदार्थः...... 🌷*
इह — अस्मिन् लोके
तस्य — आत्मरतस्य पुरुषस्य
कृतेन — विहितेन (कर्मणा)
अर्थः — प्रयोजनम्
न एव — नास्ति
अकृतेन — अविहितेन (कर्मणा)
कश्चन — कोsपि अर्थः
न — नास्ति
अस्य — अस्य पुरुषस्य
सर्वभूतेषु — सर्वप्राणिषु
कश्चित् — कश्चन
अर्थव्यपाश्रयः च — प्रयोजनसम्बन्धः अपि
न — नास्ति।
*🌻अन्वयः 🌻*
इह तस्य कृतेन (कर्मणा) अकृतेन कश्चन अर्थः नास्ति। अस्य च सर्वभूतेषु कश्चित् अर्थव्यपाश्रयः नास्ति।
*🐚आकाङ्क्षाः🐚*
_अर्थः न एव।_
कस्य अर्थः न एव?
*तस्य अर्थः न एव।*
तस्य कः अर्थः न एव?
*तस्य कश्चन अर्थः न एव।*
तस्य केन कश्चन अर्थः न एव?
*तस्य कृतेन (कर्मणा) कश्चन अर्थः न एव।*
तस्य कृतेन कर्मणा कश्चन अर्थः नैव, पुनश्च किम्?
*तस्य कृतेन कर्मणा कश्चन अर्थः नैव, अकृतेनापि (कर्मणा) न।*
तस्य कृतेन कर्मणा कश्चन अर्थः नैव, अकृतेनापि कर्मणा न, पुनश्च किम्?
*तस्य कृतेन कर्मणा कश्चन अर्थः नैव, अकृतेनापि कर्मणा न, अस्य न अर्थव्यपाश्रयः।*
तस्य कृतेन कर्मणा कश्चन अर्थः नैव, अकृतेनापि कर्मणा न, अस्य कः न अर्थव्यपाश्रयः?
*तस्य कृतेन कर्मणा कश्चन अर्थः नैव, अकृतेनापि कर्मणा न, अस्य कश्चित् न अर्थव्यपाश्रयः।*
तस्य कृतेन कर्मणा कश्चन अर्थः नैव, अकृतेनापि कर्मणा न, अस्य केषु कश्चित् न अर्थव्यपाश्रयः?
*तस्य कृतेन कर्मणा कश्चन अर्थः नैव, अकृतेनापि कर्मणा न, अस्य सर्वभूतेषु कश्चित् न अर्थव्यपाश्रयः।*
*📢 तात्पर्यम्......*
आत्मतृप्तश्च पुरुषस्य कृतेन कर्मणा अकृतेनापि कर्मणा प्रयोजनं नास्ति। प्राणिषु केनापि सह तस्य प्रयोजनस्य हेतोः सम्बन्धोsपि नास्ति।
*🌻व्याकरणम्.......*
▶सन्धिः
नैव = न + एव - वृद्धिसन्धिः।
कृतेनार्थः = कृतेन + अर्थः - सवर्णदीर्घसन्धिः।
नाकृतेन = न + अकृतेन - सवर्णदीर्घसन्धिः।
अकृतेनेह = अकृतेन + इह - गुणसन्धिः।
चास्य = च + अस्य - सवर्णदीर्घसन्धिः।
कश्चिदर्थव्यपाश्रयः = कश्चित् + अर्थव्यपाश्रयः - जश्त्वसन्धिः।
▶ समासः
अकृतेन = न कृतम्, तेन - नञ् तत्पुरुषः।
अर्थव्यपाश्रयः = अर्थाय व्यपाश्रयः - चतुर्थीतत्पुरुषः।
सर्वभूतेषु = सर्वाणि च तानि भूतानि च, तेषु - कर्मधारयः।
▶ कृदन्तः
कृतेन = कृ + क्त (कर्मणि)।
🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹
                              *गीताप्रवेशात्*
[5/9, 07:43] ‪+91 99773 99419‬: अत्र *अन्तवन्त इमे देहाः* इत्यस्य पदस्य तात्पर्यम् अस्ति यत्, एतानि सर्वाणि शरीराणि नाशवन्ती सन्ति । परन्तु शरीराणि कस्य ? इति प्रश्ने सति 'नित्यस्य', 'अविनाशिनः' इत्युत्तरं भवति । तानि शरीराणि नित्यस्य अस्ति । तात्पर्यम् अस्ति यत्, नित्यतत्त्वं यस्य कदापि नाशः न भवति, तेन शरीरेषु ममत्वम् आरोपितम् अस्ति । ममत्वस्थापनस्य अर्थः भवति यत्, स्वस्य शरीरेषु, शरीराणाञ्च स्वस्मिन् आरोपणम् । स्वस्य शरीरेषु आरोपणे कृते सति *अहंता* उत्पद्यते । तथैव शरीरे स्वस्मिन् आरोपिते सति *ममता* उत्पद्यते ।

शरीरी यत्र यत्र स्वं क्षिपति, तत्र तत्र *अहम्* उत्पद्यते । यथा धने, राज्ये, विद्यायां, बुद्धौ, सिद्धौ, शरीरे च स्वस्मिन् क्षिप्ते सति क्रमेण अहं धनी, राजा, विद्वान्, बुद्धिमान्, सिद्धः, शरीरं चेति अभिधानं भवति । सः शरीरी यद् वस्तु स्वस्मिन् आरोपयति, तद्वस्तुनि *ममत्वम्* उत्पद्यते । यथा कुटुम्बे, धने, बुद्धौ, शरीरे च स्वस्मिन् स्थापिते सति क्रमेण कुटुम्बं मे, धनं मे, बुद्धिः मे, शरीरं मे इति भावः उत्पद्यते । जडपदार्थैस्सह *अहन्ताममत्वयोः* उत्पन्नयोः सतोः विकाराः उत्पद्यन्ते । तात्पर्यम् अस्ति यत्, शरीरम्, अहं च भिन्नौ स्तः इति विवेकनाशोत्तरमेव विकाराः उत्पद्यन्ते इति । परन्तु शरीरशरीरिणोः भिन्नत्वस्य विवेकी पण्डितः निर्विकारी भवति । सः कदापि न शोकासक्तः भवति । किञ्च सदसतोः अनुभवः सर्वदा भवति तेषाम् ।

पूर्वस्मिन्, एतस्मिन् च श्लोकयोः सदसतोः विवेचनं विशेषेण प्राप्यते । अस्य कारणम् अस्ति यद्, सर्वेषु विषयेषु भगवतः लक्ष्यं सतः बोधनम् एवास्ति । सतः बोधे सति असतः निवृत्तिः सहसा भवति । ततः न कोऽपि सन्देहः अवशिष्यते । एवं सतः अनुभवोत्तरम् असन्देही भूत्वा कर्तव्यपालनं कर्तव्यम् इति । साङ्ख्ययोगे, कर्मयोगे च विशेषवर्णस्य, आश्रमस्य वा आवश्यकता नास्ति इति उक्तेन विवेचनेन सिद्ध्यति । स्वकल्याणाय साङ्ख्ययोगस्य, कर्मयोगस्य वा अनुष्ठानचयने मनुष्यः स्वतन्त्रः । परन्तु व्यावहारिककार्येषु वर्णाश्रमानुगुणं शास्त्रविधानस्य परमावश्यकता अस्ति । अतः अत्र साङ्ख्ययोगानुसारं सदसतोः विवेचनं कुर्वन् भगवान् युद्धं कर्तुम् आज्ञापयति ।

अग्रे यदा ज्ञानसाधनानां वर्णनं करिष्यति, तत्रापि पुत्रस्त्रीगृहादीनाम् आसक्तेः निषेधं वदिष्यति । यदि सन्न्यासिनः एव साङ्ख्ययोगस्य अधिकारिणः अभविष्यन्, तर्हि पुत्रस्त्रीगृहादिषु अनासक्तिः भवेद् इत्यस्य वचनस्य आवश्यकता एव नाभविष्यत् । यतः संन्यासिनां पुत्रादयः न भवन्ति एव । एवं गीताशास्त्रस्य आशयः स्पष्टः अस्ति यत्, साङ्ख्ययोगः, कर्मयोगः च उभे परमात्मप्राप्त्यै स्वतन्त्रे साधने स्तः । ते वर्णाश्रमानुगुणं साधनीये इति नास्ति ।
[5/9, 13:52] पं ऊषा जी: *महानुभावसंसर्गः कस्य नोन्नतिकारकः ।*
*रथ्याम्बु जाह्नवीसङ्गात् त्रिदशैरपि वन्द्यते ॥*

_सत्पुरुष का सान्निध्य किसको उपकारक नहीं होता ? गंगा के साथ बहने पर, गटर का पानी देवों द्वारा भी पूजा जाता है ।_

🌹🍃🌹 *अमरवाणी विजयतेतराम्* 🌹🍃🌹
--गणान्तरात्
[5/9, 15:53] ओमीश Omish Ji: आरक्षण का जिन्न उठा है इसको तक्षण बंद करो,
भोले भाले विद्वानों का अब तो भक्षण बंद करो।
जाति धर्म में मत बांटो हम सारे हिन्दुस्तानी हैं,
हिन्दुस्तान बचाना है तो अब आरक्षण बंद करो।।✍
[5/9, 15:57] ओमीश Omish Ji: ये नगमागर परिंदे हैं जुवां मत काटिये इनकी,
जुवानों से इन्हीं के आपके किस्से वयां होंगे।
अभी पिछली कतारों के मुसाफिर ही सही लेकिन,
एक दिन वो भी आयेगा ये मीरे कारवां होंगे।।✍
[5/9, 16:51] पं अर्चना जी: हे विद्वानों एकजुट हो,
देश, विश्व का रक्षण स्वयं करो।
नेता अभिनेता सब,
पंचवर्षीय पुतले हैं,
स्वयं ही विश्व गुरु बनकरके
जनजन का संरक्षरण,
स्वयं करो।।
जागो हे जगत के विप्रवर,
जाग्रत सृष्टि करो।।
💐💐💐💐💐💐💐👏🏻
[5/9, 17:10] पं अनिल ब: 🌺🌺🥀🌳🕉🕉🕉🌳🥀🌺🌺

*।।धर्मार्थ वार्ता परिवार की प्रस्तुति।।*

*|| श्री हरि: ||*

*महात्मा बने*

*( पोस्ट 2 )*

*महादेव*

हमें भगवान् की भक्ति करनी चाहिये | यदि भगवान् यहीं मिल जायँ, तब तो उतम बात है, यदि यहाँ पर भगवान् की प्राप्ति नहीं हुई, भगवान् का भजन-ध्यान करते हुए मरे तो अन्त समय में भगवान् के धाम की प्राप्ति हो जायगी |

जिस काम के लिये यह शरीर मिला है, वह काम इससे नहीं किया तो यह जीवन व्यर्थ है | इस शरीर को पाकर जो ऐश-आराम में मन लगाते हैं, वे पापी तो अपने जन्म को धुल में मिलाकर ही जाते हैं | ऐसे अमूल्य जीवन को पाकर अपने जीवन को पाप, प्रमाद, आलस्य में बिताना कलंक लगाना है, आपका समय भोग, प्रमाद, पाप, आलस्य में नहीं बीतना चाहिये | बहुत-से भाई तो जिह्वा इन्द्रिय के, बहुत-से नेत्र इन्द्रिय के वशीभूत हो जाते हैं | स्वाद, शौकीनी – यह सब भोग के ही भेद हैं | इनमे समय बिताना महामूर्खता है | प्रमाद में समय बिताना इससे भी खराब है | प्रमाद अर्थात कर्तव्य कर्म तो करे नहीं और व्यर्थ चेष्टा करे | यह प्रमाद बहुत खराब है | प्रमाद से अधिक खराब आलस्य, इससे भी खराब पाप अर्थात शास्त्र के विपरीत आचरण है | पापी ने नास्तिकता रहती है | इसलिये चाहे प्राण चले जायँ, किन्तु पाप कभी न करें, संसार में पापी के समान कोई नीच नहीं है |

         पर हित सरिस धर्म नहिं भाई |
         पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ||

दूसरे का हित करने के समान संसार में कोई धरं नहीं है | दूसरे को दु:ख पहुँचाने के समान पाप नहीं है | सबसे नीचा दर्जा पापी का है |

जो अपने साथ बुराई करे उसके साथ हम बुराई करें यह तो पशुता है | इससे ज्यादा पापी वह है जो निरपराधी, शक्तिहीन मनुष्य या पशु को दु:ख देता है, वह बड़ा भारी पापी है | उससे भी अधिक वह पापी है जो अपना हित करने वाले का अहित करता है | शास्त्र कहता है उसे पिशाच कहें या राक्षस कहें उसके लिये कोई शब्द ही नहीं है |

इस बात को ध्यान में रखना चाहिये कि हमें पापी नहीं बनना चाहिये | नीच-से-नीच की व्याख्या आपको इसलिये बतलायी कि अपने को इस तरह नहीं बनना है | नीच पुरुषों का तिरस्कार नहीं करे | उनमे जो नीचता है उसका तिरस्कार करे | नीच पुरुषों की उपेक्षा करे, किन्तु अपमान न करे |

*शेष आगामी पोस्ट में*

*जय जय श्री महाँकाल*
🌺🌺🥀🌳🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌳🥀🌺🌺
[5/9, 18:06] घनश्याम जी पं: 🙏🌹आरक्षण पर एक भाव🌹🙏वस्तुतः इस संसार मे किसी भी जीव को आरक्षण की जरूरत नही है । क्योंकि परमात्मा ने हमे आरक्षण देकर ही इस संसार मे भेजा है। आइए देखिए कौन कौन सा आरक्षण भगवान ने हमे दिया है । 🙏(1) 84 लाख योनि में हमे मानव बनाया । भाई वह पशु भी तो बना सकता था न ?पर नही हमे आरक्षण मानव के रूप में दिया । (2) 84 लाख योनि में हम मानव को ज्यादा बुद्धि,विवेक,गुण दिया। (3) उसने कहा मेरा ही वस्तु मुझे देकर मुझे पा सकते हो । (4)84 लाख योनि में हम मानव को ही कर्म करने का अधिकार अर्थात आरक्षण दिया । कर्म करो और कर्म के अनुसार,स्वर्ग,नरक,मोक्ष का अधिकारी बनो । यह आरक्षण अन्य योनियों को नही प्राप्त है ।क्योकि अन्य सभी योनि भोग योनि है । (5) हम मानवो को चार वर्णों में जन्म देकर सबको आरक्षण दिया ,किसी को बिना आरक्षण से बंचित नही रखा ।   (क) ब्राह्मणों को --यज्ञ,पूजा पाठ,ज्ञान बचाने का,यज्ञादि कराने का दान लेने का अधिकार दिया , आरक्षण दिया । (ख) क्षत्रिय को--रक्षक,राजा,शाशक का आरक्षण दिया । (ग) वैश्य को -- वाणिज्य,लेन देन ब्यवसाय करने का आरक्षण दिया । (घ) शुद्र को -- खेती करने का,तीनो वर्णों का सेवा करने का आरक्षण दिया । चारो वर्णों को अपने अपने धर्मो में रहने की सलाह दिया । हा बन्धुओ इस कलिकाल में ये ब्यवस्था जरूर गड़बड़ा गई है । चरमरा गई है। उसका दोष खुद हम में ही है । बन्धुओ और आरक्षण पाना गलत है। और हम सबको क्या चहिए । पहले लोग सुखी थे,हमारे पूर्वज शुखि थे । क्यो ?क्योकि भगवान की दि हुई आरक्षण पर ही उन्हें सन्तोष था पर आज नही । आज विशेष वर्णों को जाती के आधार पर लोगो ने आरक्षण को लागू कर दिया इसी कारण हम शुखि नही है । ठीक है एक आधार लेकर कई सरकारों ने आरक्षण दिया । पर वस्तुतः आरक्षण जाती के वर्ण के आधार पर नही,वरण निःसहाय,गरीबी के आधार पर देना चाहिए तभी सुन्दर समाज का निर्माण हो सकता है ।वरना हमारा समाज विखर जाएगा,और विखर भी गया है। ये तो मेरे भगवान भी, शास्त्र भी,सन्त समाज भी,साधु महात्मा भी कहते है कि गरीबो को ,असहायों को,दुखियो को मद्त करो उनमें परमात्मा को देखो,परहित के समान कोई धर्म नही । "पर हित सरिस धर्म नही भाई । पर पीड़ा सम नहि अधमाई ।। आप सभी विप्रजनों,देवो,विद्वत समाज से निवेदन इसे राजनीतिक पोस्ट न समझे । ये मेरा एक मात्र उद्गार है कुछ गलती हो तो आप सब इस अबोध पर कृपाकर सुधार कर पढ़े,क्षमा करें । मैने किसी को कष्ट पहुचाने के लिए नही लिखा है । पुनः क्षमा 🙏🙏🙏🙏🙏
[5/9, 18:54] ‪+91 97530 19651‬: नरसिंह स्तुति

उदयरवि सहस्रद्योतितं रूक्षवीक्षं प्रळय जलधिनादं कल्पकृद्वह्नि वक्त्रम् |

सुरपतिरिपु वक्षश्छेद रक्तोक्षिताङ्गं प्रणतभयहरं तं नारसिंहं नमामि ||

प्रळयरवि कराळाकार रुक्चक्रवालं विरळय दुरुरोची रोचिताशांतराल |

प्रतिभयतम कोपात्त्युत्कटोच्चाट्टहासिन् दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे ||१||

सरस रभसपादा पातभाराभिराव प्रचकितचल सप्तद्वन्द्व लोकस्तुतस्त्त्वम् |

रिपुरुधिर निषेकेणैव शोणाङ्घ्रिशालिन् दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे ||२||

तव घनघनघोषो घोरमाघ्राय जङ्घा परिघ मलघु मूरु व्याजतेजो गिरिञ्च |

घनविघटतमागाद्दैत्य जङ्घालसङ्घो दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे ||३||

कटकि कटकराजद्धाट्ट काग्र्यस्थलाभा प्रकट पट तटित्ते सत्कटिस्थातिपट्वी |

कटुक कटुक दुष्टाटोप दृष्टिप्रमुष्टौ दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे ||४||

प्रखर नखर वज्रोत्खात रोक्षारिवक्षः शिखरि शिखर रक्त्यराक्तसंदोह देह |

सुवलिभ शुभ कुक्षे भद्र गंभीरनाभे दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे ||५||

स्फुरयति तव साक्षात्सैव नक्षत्रमाला क्षपित दितिज वक्षो व्याप्तनक्षत्रमागर्म् |

अरिदरधर जान्वासक्त हस्तद्वयाहो दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे ||६||

कटुविकट सटौघोद्घट्टनाद्भ्रष्टभूयो घनपटल विशालाकाश लब्धावकाशम् |

करपरिघ विमदर् प्रोद्यमं ध्यायतस्ते दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे ||७||

हठलुठ दल घिष्टोत्कण्ठदष्टोष्ठ विद्युत् सटशठ कठिनोरः पीठभित्सुष्ठुनिष्ठाम् |

पठतिनुतव कण्ठाधिष्ठ घोरांत्रमाला दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे ||८||

हृत बहुमिहि राभासह्यसंहाररंहो हुतवह बहुहेति ह्रेपिकानंत हेति |

अहित विहित मोहं संवहन् सैंहमास्यम् दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे ||९||

गुरुगुरुगिरिराजत्कंदरांतगर्तेव दिनमणि मणिशृङ्गे वंतवह्निप्रदीप्ते |

दधदति कटुदंष्प्रे भीषणोज्जिह्व वक्त्रे दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे ||१०||

अधरित विबुधाब्धि ध्यानधैयर्ं विदीध्य द्विविध विबुधधी श्रद्धापितेंद्रारिनाशम् |

विदधदति कटाहोद्घट्टनेद्धाट्टहासं दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे ||११||

त्रिभुवन तृणमात्र त्राण तृष्णंतु नेत्र त्रयमति लघिताचिर्विर्ष्ट पाविष्टपादम् |

नवतर रवि ताम्रं धारयन् रूक्षवीक्षं दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे ||१२||

भ्रमद भिभव भूभृद्भूरिभूभारसद्भिद् भिदनभिनव विदभ्रू विभ्र मादभ्र शुभ्र |

ऋभुभव भय भेत्तभार्सि भो भो विभाभिदर्ह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे ||१३||

श्रवण खचित चञ्चत्कुण्ड लोच्चण्डगण्ड भ्रुकुटि कटुललाट श्रेष्ठनासारुणोष्ठ |

वरद सुरद राजत्केसरोत्सारि तारे दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे ||१४||

प्रविकच कचराजद्रत्न कोटीरशालिन् गलगत गलदुस्रोदार रत्नाङ्गदाढ्य |

कनक कटक काञ्ची शिञ्जिनी मुद्रिकावन् दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे ||१५||

अरिदरमसि खेटौ बाणचापे गदां सन्मुसलमपि दधानः पाशवयार्ंकुशौ च |

करयुगल धृतान्त्रस्रग्विभिन्नारिवक्षो दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे ||१६||

चट चट चट दूरं मोहय भ्रामयारिन् कडि कडि कडि कायं ज्वारय स्फोटयस्व |

जहि जहि जहि वेगं शात्रवं सानुबंधं दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे ||१७||

विधिभव विबुधेश भ्रामकाग्नि स्फुलिङ्ग प्रसवि विकट दंष्प्रोज्जिह्ववक्त्र त्रिनेत्र |

कल कल कलकामं पाहिमां तेसुभक्तं दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे ||१८||

कुरु कुरु करुणां तां साङ्कुरां दैत्यपूते दिश दिश विशदांमे शाश्वतीं देवदृष्टिम् |

जय जय जय मुर्तेऽनार्त जेतव्य पक्षं दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे ||१९||

स्तुतिरिहमहितघ्नी सेवितानारसिंही तनुरिवपरिशांता मालिनी साऽभितोऽलम् |

तदखिल गुरुमाग्र्य श्रीधरूपालसद्भिः सुनिय मनय कृत्यैः सद्गुणैर्नित्ययुक्ताः ||२०||

लिकुच तिलकसूनुः सद्धितार्थानुसारी नरहरि नुतिमेतां शत्रुसंहार हेतुम् |

अकृत सकल पापध्वंसिनीं यः पठेत्तां व्रजति नृहरिलोकं कामलोभाद्यसक्तः ||२१||

इति श्री नरसिंह स्तुतिः संपूणर्म्..
[5/9, 19:04] ‪+91 94501 23732‬: पञ्चभूतै: पदार्थैश्च सृष्टि: रचिता विमोहिता।
पञ्चसु तेषु जलं कथितं हि सृष्टेरादिकारणम्।।
अस्य देशस्य नद्यः सन्ति वै पोषिका जननी इव।
   परमपवित्रं पानीयं तासां जलमस्ति हि जीवनम्।।
      विविधैश्च तीर्थैश्च संयुक्ता हि नद्यास्तटा:।
        स्नानाय दर्शनाय जनसमूहस्तत्र गच्छति।।
      पुष्टं भवति शरीरमिदम् आहारेण सर्वदा।
      नदीतटविहारेण हि शान्तिर्मिलति जीवने।।
                                    डा गदाधर त्रिपाठी
[5/9, 19:05] ‪+91 94501 23732‬: पञ्चभूतै: पदार्थैश्च सृष्टि: रचिता विमोहिता।
पञ्चसु तेषु जलं कथितं हि सृष्टेरादिकारणम्।।
अस्य देशस्य नद्यः सन्ति वै पोषिका जननी इव।
   परमपवित्रं पानीयं तासां जलमस्ति हि जीवनम्।।
      विविधैश्च तीर्थैश्च संयुक्ता हि नद्यास्तटा:।
        स्नानाय दर्शनाय जनसमूहस्तत्र गच्छति।।
      पुष्टं भवति शरीरमिदम् आहारेण सर्वदा।
      नदीतटविहारेण हि शान्तिर्मिलति जीवने।।
                                    डा गदाधर त्रिपाठी
[5/9, 20:13] ‪+91 99930 45338‬: *🍁यज्ञ के प्रकार🍁*
.............यज्ञ दो प्रकार के होते है- *श्रौत और स्मार्त............*

श्रुति प्रतिपादित यज्ञो को श्रौत यज्ञ और स्मृति प्रतिपादित यज्ञो को स्मार्त यज्ञ कहते है।
श्रौत यज्ञ में केवल श्रुति प्रतिपादित मंत्रो का प्रयोग होता है और स्मार्त यज्ञ में वैदिक पौराणिक और तांत्रिक मंन्त्रों का प्रयोग होता है।
वेदों में अनेक प्रकार के यज्ञों का वर्णन मिलता है।

किन्तु उनमें पांच यज्ञ ही प्रधान माने गये हैं ।
1. अग्निहोत्र,
2. दर्शपौर्णमास,
3. चातुर्मास्य,
4. पशुयाग
5. सोमयज्ञ,
ये पाॅंच प्रकार के यज्ञ कहे गये है, यह श्रुति प्रतिपादित है।

वेदों में श्रौत यज्ञों की अत्यन्त महिमा वर्णित है। श्रौत यज्ञों को श्रेष्ठतम कर्म कहा है कुल श्रौत यज्ञो को १९ प्रकार से विभक्त कर उनका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।

1. *स्मार्त यज्ञः-*
विवाह के अनन्तर विधिपूर्वक अग्नि का स्थापन करके जिस अग्नि में प्रातः सायं नित्य हनादि कृत्य किये जाते है। उसे स्मार्ताग्नि कहते है। गृहस्थ को स्मार्ताग्नि में पका भोजन प्रतिदिन करना चाहिये।

*2. श्रोताधान यज्ञः-*
दक्षिणाग्नि विधिपूर्वक स्थापना को श्रौताधान कहते है। पितृ संबंधी कार्य होते है।

*3. दर्शभूर्णमास यज्ञः-*
अमावस्या और पूर्णिमा को होने वाले यज्ञ को दर्श और पौर्णमास कहते है। इस यज्ञ का अधिकार सपत्नीक होता है। इस यज्ञ का अनुष्ठान आजीवन करना चाहिए यदि कोई जीवन भर करने में असमर्थ है तो 30 वर्ष तक तो करना चाहिए।

*4. चातुर्मास्य यज्ञः-*
चार-चार महीने पर किये जाने वाले यज्ञ को चातुर्मास्य यज्ञ कहते है इन चारों महीनों को मिलाकर चतुर्मास यज्ञ होता है।

*5. पशु यज्ञः-*
प्रति वर्ष वर्षा ऋतु में या दक्षिणायन या उतरायण में संक्रान्ति के दिन एक बार जो पशु याग किया जाता है। उसे निरूढ पशु याग कहते है।

*6. आग्रजणष्टि (नवान्न यज्ञ) :-*
प्रति वर्ष वसन्त और शरद ऋतुओं नवीन अन्न से यज्ञ गेहूॅं, चावल से जो यज्ञ किया जाता है उसे नवान्न कहते है।

*7. सौतामणी यज्ञ (पशुयज्ञ) :-*
इन्द्र के निमित्त जो यज्ञ किया जाता है सौतामणी यज्ञ इन्द्र संबन्धी पशुयज्ञ है यह यज्ञ दो प्रकार का है। एक वह पांच दिन में पुरा होता है। सौतामणी यज्ञ में गोदुग्ध के साथ सुरा (मद्य) का भी प्रयोग है। किन्तु कलियुग में वज्र्य है। दूसरा पशुयाग कहा जाता है। क्योकि इसमें पांच अथवा तीन पशुओं की बली दी जाती है।

*8. सोम यज्ञः-*
सोमलता द्वारा जो यज्ञ किया जाता है उसे सोम यज्ञ कहते है। यह वसन्त में होता है यह यज्ञ एक ही दिन में पूर्ण होता है। इस यज्ञ में 16 ऋत्विक ब्राह्मण होते है।

*9. वाजपये यज्ञः-*
इस यज्ञ के आदि और अन्त में वृहस्पति नामक सोम यग अथवा अग्निष्टोम यज्ञ होता है यह यज्ञ शरद रितु में होता है।

*10. राजसूय यज्ञः-*
राजसूय या करने के बाद क्षत्रिय राजा समाज चक्रवर्ती उपाधि को धारण करता है।

*11. अश्वमेघ यज्ञ:-*
इस यज्ञ में दिग्विजय के लिए (घोडा) छोडा जाता है। यह यज्ञ दो वर्ष से भी अधिक समय में समाप्त होता है। इस यज्ञ का अधिकार सार्वभौम चक्रवर्ती राजा को ही होता है।

*12. पुरूष मेघयज्ञ:-*
इस यज्ञ समाप्ति चालीस दिनों में होती है। इस यज्ञ को करने के बाद यज्ञकर्ता गृह त्यागपूर्वक वान प्रस्थाश्रम में प्रवेश कर सकता है।

*13. सर्वमेघ यज्ञ:-*
इस यज्ञ में सभी प्रकार के अन्नों और वनस्पतियों का हवन होता है। यह यज्ञ चैंतीस दिनों में समाप्त होता है।

*14. एकाह यज्ञ:-*
एक दिन में होने वाले यज्ञ को एकाह यज्ञ कहते है। इस यज्ञ में एक यज्ञवान और सौलह विद्वान होते है।

*15. रूद्र यज्ञ:-*
यह तीन प्रकार का होता हैं रूद्र महारूद्र और अतिरूद्र रूद्र यज्ञ 5-7-9 दिन में होता हैं महारूद्र 9-11 दिन में होता हैं। अतिरूद्र 9-11 दिन में होता है। रूद्रयाग में 16 अथवा 21 विद्वान होते है। महारूद्र में 31 अथवा 41 विद्वान होते है। अतिरूद्र याग में 61 अथवा 71 विद्वान होते है। रूद्रयाग में हवन सामग्री 11 मन, महारूद्र में 21 मन अतिरूद्र में 70 मन हवन सामग्री लगती है।

*16. विष्णु यज्ञ:-*
यह यज्ञ तीन प्रकार का होता है। विष्णु यज्ञ, महाविष्णु यज्ञ, अति विष्णु योग- विष्णु योग में 5-7-8 अथवा 9 दिन में होता है। विष्णु याग 9 दिन में अतिविष्णु 9 दिन में अथवा 11 दिन में होता हैं विष्णु याग में 16 अथवा 41 विद्वान होते है। अति विष्णु याग में 61 अथवा 71 विद्वान होते है। विष्णु याग में हवन सामग्री 11 मन महाविष्णु याग में 21 मन अतिविष्णु याग में 55 मन लगती है।

*17. हरिहर यज्ञ:-*
हरिहर महायज्ञ में हरि (विष्णु) और हर (शिव) इन दोनों का यज्ञ होता है। हरिहर यज्ञ में 16 अथवा 21 विद्वान होते है। हरिहर याग में हवन सामग्री 25 मन लगती हैं। यह महायज्ञ 9 दिन अथवा 11 दिन में होता है।

*18. शिव शक्ति महायज्ञ:-*
शिवशक्ति महायज्ञ में शिव और शक्ति (दुर्गा) इन दोनों का यज्ञ होता है। शिव यज्ञ प्रातः काल और श शक्ति (दुर्गा) इन दोनों का यज्ञ होता है। शिव यज्ञ प्रातः काल और मध्याहन में होता है। इस यज्ञ में हवन सामग्री 15 मन लगती है। 21 विद्वान होते है। यह महायज्ञ 9 दिन अथवा 11 दिन में सुसम्पन्न होता है।

*19. राम यज्ञ:-*
राम यज्ञ विष्णु यज्ञ की तरह होता है। रामजी की आहुति होती है। रामयज्ञ में 16 अथवा 21 विद्वान हवन सामग्री 15 मन लगती है। यह यज्ञ 8 दिन में होता है।

*20. गणेश यज्ञ:-*
गणेश यज्ञ में एक लाख (100000) आहुति होती है। 16 अथवा 21 विद्वान होते है। गणेशयज्ञ में हवन सामग्री 21 मन लगती है। यह यज्ञ 8 दिन में होता है।

*21. ब्रह्म यज्ञ (प्रजापति यज्ञ):-*
प्रजापत्ति याग में एक लाख (100000) आहुति होती हैं इसमें 16 अथवा 21 विद्वान होते है। प्रजापति यज्ञ में 12 मन सामग्री लगती है। 8 दिन में होता है।

*22. सूर्य यज्ञ:-*
सूर्य यज्ञ में एक करोड़ 10000000 आहुति होती है। 16 अथवा 21 विद्वान होते है। सूर्य यज्ञ 8 अथवा 21 दिन में किया जाता है। इस यज्ञ में 12 मन हवन सामग्री लगती है।

*23. दूर्गा यज्ञ:-*
शतचंडी'सहस्रचंडी'लक्ष्यचंडी यह सभी दुर्गा यज्ञ के प्रकार हैं !
दूर्गा यज्ञ में दूर्गासप्त शती से हवन होता है। दूर्गा यज्ञ में हवन करने वाले 4 विद्वान होते है। अथवा 16 या 21 विद्वान होते है। यह यज्ञ 9 दिन का होता है। हवन सामग्री 10 मन अथवा 15 मन लगती है।

24. लक्ष्मी यज्ञ:-
लक्ष्मी यज्ञ में श्री सुक्त से हवन होता है। लक्ष्मी यज्ञ (100000) एक लाख आहुति होती है। इस यज्ञ में 11 अथवा 16 विद्वान होते है। या 21 विद्वान 8 दिन में किया जाता है। 15 मन हवन सामग्री लगती है।

25. लक्ष्मी नारायण महायज्ञ:-
लक्ष्मी नारायण महायज्ञ में लक्ष्मी और नारायण का ज्ञन होता हैं प्रात लक्ष्मी दोपहर नारायण का यज्ञ होता है। एक लाख 8 हजार अथ्वा 1 लाख 25 हजार आहुतियां होती है। 30 मन हवन सामग्री लगती है। 31 विद्वान होते है। यह यज्ञ 8 दिन 9 दिन अथवा 11 दिन में पूरा होता है।

26. नवग्रह महायज्ञ:-
नवग्रह महायज्ञ में नव ग्रह और नव ग्रह के अधिदेवता तथा प्रत्याधि देवता के निर्मित आहुति होती हैं नव ग्रह महायज्ञ में एक करोड़ आहुति अथवा एक लाख अथवा दस हजार आहुति होती है। 31, 41 विद्वान होते है। हवन सामग्री 11 मन लगती है। कोटिमात्मक नव ग्रह महायज्ञ में हवन सामग्री अधिक लगती हैं यह यज्ञ ९ दिन में होता हैं इसमें 1,5,9 और 100 कुण्ड होते है। नवग्रह महायज्ञ में नवग्रह के आकार के 9 कुण्डों के बनाने का अधिकार है।

27. विश्वशांति महायज्ञ:-
विश्वशांति महायज्ञ में शुक्लयजुर्वेद के 36 वे अध्याय के सम्पूर्ण मंत्रों से आहुति होती है। विश्वशांति महायज्ञ में सवा लाख (123000) आहुति होती हैं इस में 21 अथवा 31 विद्वान होते है। इसमें हवन सामग्री 15 मन लगती है। यह यज्ञ 9 दिन अथवा 4 दिन में होता है।

28. पर्जन्य यज्ञ (इन्द्र यज्ञ):-
पर्जन्य यज्ञ (इन्द्र यज्ञ) वर्षा के लिए किया जाता है। इन्द्र यज्ञ में तीन लाख बीस हजार (320000) आहुति होती हैं अथवा एक लाख 60 हजार (160000) आहुति होती है। 31 मन हवन सामग्री लगती है। इस में 31 विद्वान हवन करने वाले होते है। इन्द्रयाग 11 दिन में सुसम्पन्न होता है।

29. अतिवृष्टि रोकने के लिए यज्ञ:-
अनेक गुप्त मंत्रों से जल में 108 वार आहुति देने से घोर वर्षा बन्द हो जाती है।

30. गोयज्ञ:-
वेदादि शास्त्रों में गोयज्ञ लिखे है। वैदिक काल में बडे-बडे़ गोयज्ञ हुआ करते थे। भगवान श्री कृष्ण ने भी गोवर्धन पूजन के समय गौयज्ञ कराया था। गोयज्ञ में वे वेदोक्त दोष गौ सूक्तों से गोरक्षार्थ हवन गौ पूजन वृषभ पूजन आदि कार्य किये जाते है। जिस से गौसंरक्षण गौ संवर्धन, गौवंशरक्षण, गौवंशवर्धन गौमहत्व प्रख्यापन और गौसड्गतिकरण आदि में लाभ मिलता हैं गौयज्ञ में ऋग्वेद के मंत्रों द्वारा हवन होता है।
इस में सवा लाख 250000 आहुति होती हैं गौयाग में हवन करने वाले 21 विद्वान होते है। यह यज्ञ 8 अथवा 9 दिन में सुसम्पन्न होता है।
*🌺जय राम जी की🌺*
[5/9, 20:25] पं अनिल ब: *๑🔔♪🌿°🌺जय महाँकाल🌺°🌿♪🔔๑*

🌿     सन्त जन कहते हैं कि हम सभी जानते हैं कि ईश्वर सर्व व्यापक हैं ,किन्तु इस बात का अनुभव बहुत कम व्यक्तियों को होता है ।एक बार अनुभव हो जाने पर पाप करने के लिए कोई स्थान ही न मिलेगा ।

🌿      प्रह्लाद जी सत्वगुण है।हिरण्यकशिपु तमोगुण है । जब सत्वगुण और तमोगुण का युद्ध होता है तो भगवान सत्वगुण का ही पक्ष लेते हैं ।शुद्ध सत्वगुण के आगे तमोगुण का नाश अवश्य ही होता है ।

🌿       प्रह्लाद जी के वचन की सार्थकता और अपनी सर्वव्यापकता की सिद्धि के हेतु नृसिंह स्वामी आज की ही तिथि को स्तम्भ में से प्रकट हुए थे।जो ईश्वर को सर्वत्र विराजमान समझता है, उसके जीवन में दिव्यता आती है ।
                        ✍🏻 _*आचार्य जी*_

     *^´๑﹏)•🌺•(﹏๑^´*
            ¡ *🔔♡🔔*¡
     *°🌿कृष्णमयरात्रि🌿°*
*"🌺श्री कृष्णाय समर्पणं 🌺"*
     *°🌿 जैश्री महाँकाल🌿°*
              ¡ *🔔♡🔔*¡
       *^´๑﹏)•🌺•(﹏๑^´*

*๑🔔♪🌿°🌺°🌿♪🔔๑*
[5/9, 20:47] पं ऊषा जी: 🙏हितोपदेश-सुभाषित-श्लोकाः - 1.45🌺

धनानि जीवितञ्चैव परार्थे प्राज्ञ उत्सृजेत् ।
सन्निमित्ते वरं त्यागो विनाशे नियते सति ॥१.४५॥
🌷
पदविभागः--
धनानि जीवितं च एव परार्थे प्राज्ञः उत्सृजेत् । सन्निमित्ते वरं त्यागः विनाशे नियते सति ॥१.४५॥
🥀
अन्वयः--
प्राज्ञः धनानि जीवितं च एव परार्थे उत्सृजेत् । विनाशे नियते सति सन्निमित्ते त्यागः वरम् ॥१.४५॥
🌿
प्रतिपदार्थः--
प्राज्ञः = विद्वान् ; जीवितं = प्राणान् ; परार्थे = परोपकाराय ; उत्सृजेत् = दद्यात् ; विनाशे = मरणे ; नियते = निश्चिते सति ; सन्निमित्ते = सत्कार्यसिद्धये, परोपकाराय ; त्यागः = प्राणपरित्यागः ; वरं = किञ्चिच्छ्रेष्ठः ॥१.४५॥
🌻
तात्पर्यम्--
बुधजनः परेषामुपयोगाय वित्तं जीवनं चार्पयति। नाशनमेव यदि (अशाश्वतेऽस्मिन्) लोके नियमः भवति, तर्हि सत्कार्याचरणार्थं धनप्राणयोः उपयोगः एव श्रेष्ठः॥१.४५॥🌹
[5/9, 21:37] ओमीश Omish Ji: 🌹रघुवंशमहाकाव्यम्🌹
      🌸श्लोक🌸

मंदः कवि यशःप्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम्।
प्रांशुलभ्ये फले लोभादुद्बाहुरिव वामनः।३।

अन्वयः - मंदः (तथापि) कवियशःप्रार्थी (अहम्) प्रांशुलभ्ये फले लोभात् उद्बाहुः वामन इव उपहास्यतां गमिष्यामि।।

वाच्यपरिवर्तनं - मन्देन कवियशःप्रार्थिना (मया) प्रांशुलभ्ये फले लोभात् उद्बाहुना वामनेव इव उपहास्यता गंस्यते।।

उन्नतपुरूषलभ्यं फलं प्रहीतुम् उच्छ्रतहस्तस्य
खर्वस्य चेष्टा यथा उपहसनीया भवति तथैव महाकविलभ्यां कीर्तिम् लब्धुं प्रवृत्तस्य हीनबुद्धेः ममापि चेष्टा  उपहसनीया भविष्यती ति सरलार्थः। अहो मे मूढता यदहमसमर्थोऽपि महाकाव्यविरचने प्रवृत्तोस्मीति भावः।

भावार्थः - कवीश्वरों के यश को चाहने वाला मैं क्षुद्रबुद्धि हँसी को प्राप्त हूँगा। जैसे लम्बे (पुरुष) के हाथ लगने योग्य फल की ओर लोभ से ऊंची वाहैं उठाने वाला बौना।।३।।

*रघुवंशमहाकाव्य-व्याख्या -  श्रीज्वालाप्रसादमिश्रः*
[5/9, 21:41] पं अर्चना जी: ऐ उम्र तेरा वक्त से तकाजा क्या है??
वो चलता है निरंतर तेरा वादा क्या है??
तू तो ढल जाएगी, फिर लौट के न आएगी,
फिर भला वक्त से, ऐसा तेरा नाता क्या है???
[5/9, 21:45] ‪+91 95548 67212‬: *जै जै श्री हित हरिवंश।।*

*श्री व्रहद वामन पुराण लीला*~~~~

प्रभु आग्यां जो भई है, सो पहिले करि लेहुँ। ता पाछै जो पुछि हौ, ताको उत्तर देहुँ।।61।।
सखी कियौ जब चिंतवन, श्री पति प्रगटे आइ। प्रभु आग्या तिन सौ कही,सृष्टि रचावहु जाइ।।62।।

*व्याख्या  ::* वेदों की प्रार्थना सुनकर, सखी ने कहा----वेदों! तुम्हारा प्रथम कर्त्तव्य यह है कि आकाशवाणी के माध्यम से प्रभु की जो आज्ञा हुई है, सर्वप्रथम हम एवं तुम उसका पालन करें, त्तपश्चात् तुम जो कुछ पूछोगे, मै उसका उत्तर दूँगी।।61।।
सखी के आदेशात्मक चिन्तन के तत्काल पश्चात श्रीपति नारायण भगवान वहाँ प्रगट हो गये। सखी ने श्री नित्य-विहारी लाल सर्वेश्वर प्रभु की आज्ञा सुनाते हुए भगवान श्रीनारायण से कहा---कि अब आप शीघ्र ही सृष्टि की रचना कीजिये और उसकी सम्पूर्ण व्यवस्था बनाइये। ।।62।।

ऐसे ही अवतार सब, लीन्हें तहाँ बुलाइ। अपनों-अपनों काज तुम, कीजौ समयों पाइ।।63।।
धर्मराज सौ कही तहाँ, मेरौ वचन सुनि लेहु। जाके रंचक भक्ति है, ताहि कष्ट जिनि देहु।।64।।

*व्याख्या  ::* इसी प्रकार उस सखी ने सब भगवद् अवतारो को बुला-बुलाकर आदेश दिया कि आप सब समय-समय पर अपने-अपने अवतार-ग्रहण का दायित्त्व पूर्ण करने का ध्यान रखियेगा। ।।63।।
धर्मराज को बुलाकर कहा कि आप मेरी इस बात का पूर्ण ध्यान रखियेगा कि जिसके ह्रदय में भगवान की थोड़ी सी भक्ति है, उसे कभी भूलकर भी कष्ट मत दीजियेगा। ।। 64।।
[5/9, 23:23] घनश्याम जी पं: 🌴🌹मैं त्रिदेव स्वरूप विप्रदेव श्रीमन युवराज जी ,संजीव जी एवम धीरेंद्र जी को हार्दिक दिल❤से नमन बन्दन अभिनन्दन करता हु स्वागत करता हु और आशा करता हु की आपने दिव्य ज्ञान से इस बालक पर,इस परिवार पर कृपा की बरसात करते रहेंगे । 🙏🙏🙏
[5/10, 08:17] ‪+91 78602 64878‬: सर्वेभ्यो नमोनमः
  
श्री मद्भगवद्गीतायां कथितं यत -
" तद् विद्धि प्रणिपातेन परि प्रश्नेन सेवया........."
इत्यादि ।
  अतः ज्ञानार्ज्जननिमित्तं प्रथमतः जिज्ञासाप्रवृतिः भवेत्
  तस्मात  जनः  जिज्ञासाभावं परिपोषयन कार्ये साफल्यमर्ज्जयति ।

।। जयतु संस्कृतं जयतु भारतम् ।।
[5/10, 08:24] ‪+91 98670 61250‬: “गुरु कृपा चार प्रकार से होती है ।”

०१ स्मरण से
०२ दृष्टि से
०३ शब्द से
०४ स्पर्श से

०१
जैसे कछुवी रेत के भीतर अंडा देती है पर खुद पानी के भीतर रहती हुई उस अंडे को याद करती रहती है तो उसके स्मरण से अंडा पक जाता है ।
ऐसे ही गुरु की याद करने मात्र से शिष्य को ज्ञान हो जाता है ।
यह है स्मरण दीक्षा ।।

०२
दूसरा जैसे मछली जल में अपने अंडे को थोड़ी थोड़ी देर में देखती रहती है तो देखने मात्र से अंडा पक जाता है ।
ऐसे ही गुरु की कृपा दृष्टि से शिष्य को ज्ञान हो जाता है ।
यह दृष्टि दीक्षा है ।।

०३
तीसरा जैसे कुररी  पृथ्वी पर अंडा देती है ,
और आकाश में शब्द करती हुई घूमती है तो उसके शब्द से अंडा पक जाता है ।
ऐसे ही गुरु अपने शब्दों से शिष्य को ज्ञान करा देता है ।
यह शब्द दीक्षा है ।।

०४
चौथा जैसे मयूरी अपने अंडे पर बैठी रहती है तो उसके स्पर्श से अंडा पक जाता है ।
ऐसे ही गुरु के हाथ के स्पर्श से शिष्य को ज्ञान हो जाता है ।
यह स्पर्श दीक्षा है।।
     🕉🕉जय गुरुदेव🕉🕉
[5/10, 09:43] पं ज्ञानेश: अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि॥
यदि तू उपर्युक्त अभ्यास में भी असमर्थ है, तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण (स्वार्थ को त्यागकर तथा परमेश्वर को ही परम आश्रय और परम गति समझकर, निष्काम प्रेमभाव से सती-शिरोमणि, पतिव्रता स्त्री की भाँति मन, वाणी और शरीर द्वारा परमेश्वर के ही लिए यज्ञ, दान और तपादि सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों के करने का नाम 'भगवदर्थ कर्म करने के परायण होना' है) हो जा। इस प्रकार मेरे निमित्त कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्ति रूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा

॥10॥
~ अध्याय 12 - श्लोक : 10

💐💐💐सुप्रभातम्💐💐💐
[5/10, 10:55] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: *सर्वेभ्यो नमो नम:*
*मन की बात-------:*🌸🙏🏻🌸😊
मन जब भीतर जाकर अपने आप में ठहर जाता है तो विचारों के स्रोत से परिचय होता है। ऐसा अनुभव अतुलनीय है, भीतर से कुछ उमड़ कर बाहर उलीचने का मन होता है।पहली बार एक तृप्ति का अहसास होता है जो किसी भी भौतिक वस्तु पर आधारित नहीं है। सभी इन्द्रियां बाहर ही देखती हैं, मन ही ऐसा अनुपम साधन है जो बाहर और भीतर दोनों ओर जा सकता है। जिस क्षण जगत से सुख लेने की चाह न रहे मन स्वयं में लौट ही आयेगा। मन तब स्वनिर्भर होना सीखेगा, जितना-जितना स्व की महिमा का उसे भान होगा उतना-उतना वह भीतर से पूर्ण होता जायेगा। फकीर भी स्वयं को बादशाह मानते हैं क्योंकि उन्हें अपने सुख के  लिए जगत से कुछ नहीं चाहिए।
*जय श्री राधे*✍
*आप सभी का दिन मंगलमय हो।*

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